श्रवण, मनन, निदिध्यासन और समाधि || आचार्य प्रशांत, रमण महर्षि पर (2013)
श्रवणादिभिरुद्दीप्तज्ञानाग्निपरितापितः ।
जीवः सर्वमलान्मुक्तः स्वर्णवद्द्योतते स्वयम् ॥
हृदाकाशोदितो ह्यात्मा बोधभानुस्तमोऽपहृत् ।
सर्वव्यापी सर्वधारी भाति भासयतेऽखिलम् ॥
दिग्देशकालाद्यनपेक्ष्य सर्वगं शीतादिहृन्नित्यसुखं निरंजनम् ।
यः स्वात्मतीर्थं भजते विनिष्क्रियः स सर्ववित्सर्वगतोऽमृतो भवेत् ॥
जब जीव श्रवण आदि द्वारा प्रज्वलित ज्ञानाग्नि में भलीभाँति तप्त होता है, तो वह साड़ी मलिनताओं से मुक्त होकर स्वर्ण की … read_more