प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, कर्तव्य से संबंधित दो प्रश्न आएँ हैं, निधि जी हैं, पूछ रही हैं क्या किसी कमजोर की हेल्प करना हमारा कर्तव्य नहीं है? और कर्तव्य संबंधित एक और प्रश्न है कि आचार्य जी कर्तव्य शब्द समाज में इतना प्रचलित क्यों है? कर्तव्य शब्द की क्या उपयोगिता है और गीता क्यों कहती है कि हमारे कर्तव्यों और कामना में एक गहरा रिश्ता होता है?
आचार्य प्रशांत: बोध कथा है, ज़ेन बोध कथा है। एक ज़ेन गुरु, ज़ेन मास्टर चले जा रहे हैं उनके साथ में उनका शिष्य है। तो वह पूछता है, "हु इज़ द बुद्धा?" बुद्ध कौन है? वे चल रहे हैं। वहाँ कुछ फलों के पेड़ हैं। वे चुप रहते हैं, कुछ बोलते नहीं। पहले पेड़ के नीचे से निकलते हैं, कुछ नहीं वहाँ से निकल जाते हैं। दूसरे पेड़ के नीचे से निकलते हैं, कुछ नहीं! वहाँ से भी निकल जाते हैं। और तीसरे पेड़ के नीचे से निकल रहे होते हैं, तो एक फल ऊपर से गिर पड़ता है। कोई फल, मान लो अमरूद, जामुन—कुछ भी। तो वह गिर पड़ता है वो उसे उठाकर खा लेते हैं और चल देते हैं। ऐंड द डिसाइपल वाज इनलाइटेंड ऐट दैट मूमेंट। वो कथाएँ ऐसे ही समाप्त होती हैं।
बस, इतने से इशारे से उस शिष्य को बुद्धत्व प्राप्त हो गया। समझ में आ रही है बात? नहीं था, तो नहीं था। पूछे कि "तुमने फल क्यों खाया?" तो ऐसा अजीब जवाब आया कि खोपड़ी में नहीं समाया। "तुमने फल क्यों खाया?" "क्योंकि सामने आया।" यह क्या जवाब है? "तुमने फल क्यों खाया?" "क्योंकि सामने आया।" और कोई उत्तर नहीं है इसका। पशुओं जैसी बात है ना? रोटी रखी थी, तो हमने खा ली। नहीं रखी होती, तो नहीं खाते।
यह प्रकृति का भाव है। इसमें कोई कर्तृत्व नहीं। और हमने अगर फल खा लिया है, तो इसका मतलब यह नहीं कि इस पेड़ से कोई खास रिश्ता बना लेंगे, और जाकर उसे झंझोड़ेगें और और फल गिराएँगे या वहीं पर अड्डा बनाएँगे। कुछ नहीं, चलते जाएँगे। मिल गया, अच्छी बात नहीं मिला होता, तो कोई बात नहीं। यह होता है प्रकृतिस्थ होना। अविरोध निर्विकल्पता! यह धीरे-धीरे आएगा।
कर्तव्य और कामना का रिश्ता स्पष्ट है? जहाँ कामना नहीं, वहाँ सकाम कर्म नहीं। और सकाम कर्म तुम्हें करना चाहिए अपनी कामना को पूरा करने के लिए इसी भाव को क्या कहते हैं? कर्तव्य। फलाना कर्म करो ताकि तुम्हारी कामना पूरी हो सके। यही क्या कहलाता है? कर्तव्य।
गीता आपको सब मूर्खतापूर्ण कर्तव्यों से मुक्ति दे देती है। इसलिए संसारियों के लिए इतनी ख़तरनाक है गीता। और इसलिए उनके लिए इतना ज़रूरी था गीता के अर्थ को विकृत करना।
क्योंकि जहाँ आपको कर्तव्य सौंप दिया गया ना, वहाँ आपके श्रम से आपको तो कुछ मिलना नहीं। पर श्रम तो हो रहा है तो किसी को तो कुछ मिल रहा होगा ना? आपके कर्तव्य पालन से किसी न किसी को कुछ मिल रहा होता है। अगर गीता आपको बता दे कि "सब कर्तव्य तुम्हारे मूर्खताएँ हैं," तो किसी के स्वार्थ पर बड़ी चोट पड़ेगी। उनको बड़ा बुरा लगेगा, जब आपको यह पता चलता है कि कर्तव्य का खेल ही झांसे का है।
दान देना तुम्हारा कर्तव्य है। यह-यह दिन होते हैं साल के और जितने बड़े तुम पापी हो, उसी अनुपात में जाकर दान दे आना। वहाँ पेटी है, दिक्कत ये होती है कि पेटी है। वहाँ कोई व्यक्ति खड़ा हो, तो थोड़ी-सी बात अलग हो जाएगी। या कम से कम बैंक खाता नंबर हो, तो भी बात थोड़ी-सी ईमानदारी की हो जाएगी। पेटी है, उस पेटी को कौन खोलता है? वह आपको नहीं दिखाई देता। आपको बस यह दिखाई देता है कि "मैंने तो दिया। मैंने अपनी कर्तव्य पूर्ति की।" आगे का हाल आपको नहीं पता चलता। सप्लाई चेन कहाँ तक जाती है, यह दिखता ही नहीं।
आप दे तो रहे हो, पर ले कौन रहा है? यह आपने कभी सोचने की कोशिश नहीं की। और होश उड़ जाएँगे आपके जब आपको पता चलेगा कि जो ले रहा है ना, उसी ने आपको सिखाया है कि 'ऐसे-ऐसे-ऐसे कर्तव्य आवश्यक होते हैं।' जिसको आपके कर्तव्यों से सबसे ज़्यादा लाभ हो रहा है, वही आपको कर्तव्य का पाठ पढ़ा रहा है। तो, कृष्ण सखा हैं और एक बड़ी मदद करते हैं सखा होने के नाते। क्या? कर्तव्यों से बचा देते हैं आपको।
इसीलिए सामाजिकों के लिए, संन्यासियों के लिए, संसारियों के लिए, कृष्ण और गीता थोड़े ख़तरनाक हो जाते हैं। क्योंकि उनका तो धंधा ही चलना है, आपको कर्तव्यों में बांधकर। "फलाना काम करो!" "क्यों करो?" "ये तो मेरा कर्तव्य है!" "यह तो कर्तव्य है!"
बैठे हुए थे रियूनियन में तो पुरानी यादें ताज़ा की जा रही थीं। उसमें से एक था, उसने बताया। (थोड़ा सोचते हुए) चलिए, बता ही देते हैं, अब वही है कि वैसे ही बदनाम हैं। तो यह साहब अपनी गर्लफ्रेंड के पास गए। तो उनसे निवेदन करने लगे, "अरे यार, लेट्स मेक आउट!" तो वह बोली—"नहीं-नहीं!" तो इन्होंने कहा, "बट व्हाई नॉट?" वह बोली, "पहले शादी!" इन्होंने कहा, "पर मैं तो मैं ही हूँगा ना? अगर मैं बुरा हूँ, तो अभी भी बुरा हूँ!" वह बोली, "नहीं, तब तुम्हारा हक़ होगा!"
यह उसने मुझसे बात आकर करी थी। बड़ी लंबी-चौड़ी चर्चा हुई थी कि यह खेल क्या है? तो बैठे हुए थे, वही सब याद आया। हँस रहे थे इस पर खूब! फिर कुछ और बोला ऐसे-वैसे तो इसने और तर्क दिया। उसने कहा, "अगर वह जो व्यक्ति होगा, वह गड़बड़ आदमी हो, तो? मुझे तो तू पसंद करती है!" वह बोली, "नहीं! "तब भी उसका हक़ होगा?" ये किसने बताया? "उसका हक़ होगा," माने तुम्हारा फिर कुछ कर्तव्य होगा! ठीक है ना?
अधिकार और कर्तव्य। ड्यूटीज़ ऐंड रिस्पांसिबिलिटीज़। यह तो एक साथ चलते हैं ना? राइट्स ऐंड रिस्पांसिबिलिटीज़! ड्यूटीज़ ऐंड रिस्पांसिबिलिटीज़ नहीं, राइट्स ऐंड रिस्पांसिबिलिटीज़! अगर आप कह रहे हो कि किसी की राइट होगी, माने अधिकार होगा, माने हक़ होगा, तो आप साथ ही साथ यह स्वीकार कर रहे हो कि आपकी रिस्पांसिबिलिटी होगी, माने आपका कर्तव्य होगा!
यह कर्तव्य आपको किसने सिखाया? कि पति है, तो जैसा भी होगा, तो ठीक है! यहाँ नहीं कहा जा रहा कि यह जो व्यक्ति गया था, यह जो कह रहा था, वह करना ठीक है कि गलत है! हम उसकी नहीं चर्चा कर रहे। टीनेज की बात है उस समय क्या होता है, जानते ही हैं, सब हार्मोनल होता है सब कुछ! तो उसकी बात अलग है कि यह जो कर रहे हैं, वह अच्छा है, गलत है, क्या है — हटाओ उसको!
पर यह धारणा मन में कहाँ से आ गई कि "पतिदेव अगर मेरे कपड़े उतारेंगे, तो उनका हक़ है और उतरवा लेना मेरा कर्तव्य है?" तो इस पर तब भी — सन् संतान्वे (९७) की बात है, तब भी बड़ी चर्चा चली थी रात भर बैठकर खूब खोपड़ी खुजलाया था! यह कहानी में ये ऐंगल कहाँ से आया? अभी मिले, तो फिर से वह बात ताज़ा हो गई। सब हँसे खूब इस पर! आपको क्या लगता है, यह किसने सिखाया होगा उसको?
कोई बंदूक दिखाकर थोड़ी लूटा जाता है! कर्तव्य बताकर लूटा जाता है। "लुटना तुम्हारा कर्तव्य है!" "लुटना तुम्हारा कर्तव्य है और तुम अपना कर्तव्य यदि निभाओगे, तो बदले में तुम्हारी ये-ये और ये कामनाएँ पूरी कर दी जाएँगी!" "तुम अगर कर्तव्य निभाओगे, तो बदले में तुम्हारी यह सब कामनाएँ भी पूरी कर दी जाएँगी!" और साथ ही साथ तुमको प्रमाण पत्र मिलेगा कि तुम आदमी भी अच्छे हो! कर्तव्यपरायण हो! देखो, "तुमने अपने कर्तव्य पूरे किए!" लगभग वैसे ही, जैसे मंदिर में जाने पर मनोकामना तो पूरी होगी ही होगी, प्रसाद भी मिलेगा और अच्छे आदमी भी कहलाओगे!
कृष्ण मुक्ति दे रहे हैं। कह रहे हैं, "भीतर देखो अपने! दिखाई देगा बहुत सारा झूठा ज्ञान!" उसी झूठे ज्ञान से तुम्हारी कामनाएँ आती हैं। उन्हीं कामनाओं को बेट बनाकर — बेट समझते हो क्या? चारा, जैसे मछली को डाला जाता है! उन्हीं कामनाओं को चारा बनाकर के तुम्हें कर्तव्य में बाँधा जाता है!
और यह कर्तव्य तुम्हारी गुलामी बनते हैं, बेगारी बनते हैं! "करे जाओ, करे जाओ, करे जाओ!" कुछ नहीं भी मिल रहा, तो यह भरोसा, यह कल्पना तो मिलती ही है ना? "इतने कर्तव्य निभाए हैं, तो स्वर्ग मिलेगा!" कुछ और भी लाभ नहीं हो रहा, तो यह तो मिलता ही है ना कि 'कर्तव्य पूर्ति कर रहे हो, तो पुण्य कमाया!'
अच्छा तरीका है ना किसी को ठगने का? "तुम दिन-भर काम करो, दिन-भर काम करो!" "तुमसे ईंट उठवाई जाए, खूब ईंट उठवाई गई!" और शाम को मैं तुमको बुलाकर ऐसे कुछ दे दूँ। "लो, दिया!" तुम पूछो—"यह क्या दिया?" मैं बोलूँ, "पुण्य!" कहो, "नहीं, ज़्यादा इंटैंजिबल हो गया! कुछ थोड़ा ऐसा दीजिए, जो कम से कम आंशिक रूप से भौतिक हो!" तो मैं उसको ऐसे करके दूँ, "लो, आरबीए — रुपए एक करोड़!" पूछे, "यह क्या दिया आपने?" हाथ से गोदकर दे दिया है। "आरबीए?"
मैं कहूँ, "यह रिजर्व बैंक ऑफ अध्यात्म है! और एक करोड़ दिए हैं!" "बोलिए, दे तो दिया है!" "इसको कहाँ जाकर भुनाऊँ?" "यही लिए रहना, जब मर रहे हो और वहाँ जाकर इसको एनकैश कराना!" यह चल रहा है! और यह आपके साथ भी हो रहा है और रोज हो रहा है!
धर्म का मतलब होता है — यह रही मिट्टी, यह रही ज़मीन, और यह रही ज़िन्दगी! बताओ, यहाँ क्या मिल रहा है? आगे की बात छोड़ दो! हटाओ सब, यह मेटाफिज़िकल, पराभौतिक चक्कर! एकदम हटा दो! कोई इंटैंजिबल, एब्स्ट्रैक्ट बातें नहीं करनी हैं! समझ में आ रही है बात ये? तुम लाकर के अपना सारा पैसा यहाँ रख दो, दिन-रात मेहनत करो। मैं तुम्हें क्या दूँगा? मैं तुम्हें प्यार दूँगा, मैं तुम्हें फीलिंग्स दूँगा! इसलिए तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम दिन-रात कमा करके पैसा यहाँ रखते रहो। ठीक है, मैंने पैसा जैसे यहाँ रखा, वैसे तू फीलिंग्स भी यहाँ रख दे! ये क्या बता रहे हो? क्या धर्म इतना मटेरियल होता है?
धर्म मटेरियल पता नहीं होता है कि नहीं, पर वह मटेरियल को मटेरियल जानता है। इतनी बेईमानी नहीं करता कि मटेरियल को ही पैरा-मटेरियल बोल दे, कि जो भौतिक है, उसको ही परा-भौतिक बना दे। जो जैसा है, उसको वैसा कहने का नाम धर्म है।
तथ्यों से खुलता है सत्य का द्वार। धर्म का पहला सीधा सरोकार तथ्यों से है, फैक्ट से है, एब्स्ट्रैक्शन से नहीं है, टैंजिबिलिटी से है। पंद्रह साल पहले भी मैं यही सवाल पूछा करता था, और मैं आगे नहीं बढ़ पा रहा हूँ इस सवाल से, क्योंकि कोई उत्तर ही नहीं आ रहा। ऐसा तो करना होता है ना? मैं पूछता था, 'कैसे पता, हाउ डू यू नो?' किसने बताया? ना कोई जवाब पंद्रह-बीस साल पहले आता था, ना कोई जवाब आज आता है।
पता है तुम्हें क्यों नहीं पता? क्योंकि तुम्हें अपना नहीं पता। आत्मज्ञान के अभाव में तुम्हें यह पता ही नहीं चलता कि तुमने किस बात को आत्म-कर्तव्य बना लिया। तुम कौन हो, तुम्हें चूँकि यह नहीं पता, इसलिए तुम्हें यह भी नहीं पता कि तुम्हारे ये कर्तव्य सब कहाँ से टपक पड़े! बस तुम कंधे उचका कर बोल देते हो, "ऐसा तो करना होता है ना?" "नहीं, पर यह तो कॉमन सेंस की बात है ना?" मतलब! उचके ही जा रहे हैं कंधे! मुँह से भी बोल लो, बता दो ना!
तुम्हें कैसे पता फलानी चीज़ तुम्हारा कर्तव्य है? जिनको हम कहते हैं होली काउज़, समझ रहे हो? होली काउज़ मतलब मुहावरा अंग्रेज़ी का — कि जिन चीज़ों को तुमने सेक्रेड मान रखा है, तुम्हें कैसे पता कि वो सब सेक्रेड हैं? और क्योंकि तुमने पचास चीज़ों को सेक्रेड मान रखा है, इसीलिए जो द सेक्रेड है, उससे बहुत दूर हो।
मानसिक बातों को, कल्पित विषयों को सेक्रेड बना लिया है, और कितनी ज़्यादा सफरिंग है उसकी वजह से कोई इंतहा नहीं! भूख से नहीं मर रहे हैं, सेहत भी ठीक-ठाक है, ठीक-ठाक कमा भी रहे हैं। लेकिन फिर भी मन ऐसा कर रखा है कि आत्महत्या का ख़याल आता है! क्यों आता है? क्योंकि कुछ बातों को सेक्रेड बना कर के बैठे हो, और उन बातों के रास्ते में जब बाधा आती है, तो लगता है, 'हाय-हाय! ज़िन्दगी में न जाने क्या कमी है! मैं सुसाइड क्यों न कर लूँ?' बिल्कुल तथ्यों के तल पर बात करो। भौतिक, मटेरियल — बताओ, क्या कमी है? "नहीं, कमी तो कोई नहीं है, पर फिर भी दिल डूबा-डूबा सा रहता है।" फीलिंग्स ग्लूमी-ग्लूमी सी रहती हैं? गाने मत गाओ! तथ्य बताओ कि क्या है? डूबा डूबा! तथ्य कोई है ही नहीं!
[हँसी]
बात बस इतनी-सी है कि आपको सेक्रेड की कुछ छवियाँ दे दी गई हैं। वह छवि ज़िन्दगी में नहीं दिखती, तो "डूबा-डूबा", "हुआ-हुआ", कुछ भी गाओ फिर — रो उसमें! तथ्यों के तल पर तो भाई मेरे, पूरे अस्तित्व में किसी को भी बहुत दुख नहीं है। इंसान ने तो बहुत सारी चीज़ें अपनी सुख-सुविधा के लिए बना ली हैं। ये जंगल के जानवर हैं, इनको कभी बहुत दुखी, उदास, रोते हुए देखा है क्या? प्रकृति तथ्यात्मक दुख तो देती ही नहीं है। कभी-कभार अब हो गया कि कोई बीमारी लग गई, हाथ-पाँव कट गया, कुछ हो गया तो उसे पीड़ा आ जाती है। पर जितना दुख मनुष्य झेलता है, वह प्रकृति प्रदत्त पीड़ा से तो बहुत आगे का है! और क्यों आगे का है?
क्योंकि हमारे पास झूठी छवियाँ हैं। सेक्रेड कर्तव्य हैं! "ऐसा करना होता है!" कर्तव्य माने? "ऐसा करना होता है!" ऐसा अच्छा है, ऐसा बुरा है! हाउ डू यू नो? तुम्हें कैसे पता? मैं मर भी रहा हूँगा न, तो मैं यही पूछ रहा हूँगा, "तुम्हें कैसे पता?" ऐसा करते हैं इनको ले जाकर के जला देते हैं, मैं जलने से पहले एक बार ज़रूर पूछूँगा तुम्हें कैसे पता? तुम्हें कैसे पता? तुम्हें कुछ नहीं पता! तुम्हें बस अपने कर्तव्य पता हैं, जो किसी ने तुम्हारे माथे पर रख दिए हैं, और तुम उनको ढ़ो रहे हो! और कृष्ण का काम है — तुम्हें इन कर्तव्यों से मुक्त करना। और कृष्ण का काम है — तुम्हें सबसे बड़े कर्तव्य में बाँध देना! सबसे बड़ा कर्तव्य क्या है? करुणा। सबसे बड़े कर्तव्य का ही दूसरा नाम क्या है? स्वयं कृष्ण।
कृष्ण कहते हैं, 'छोड़ दो सारे कर्तव्य। मैं एकमात्र कर्तव्य हूँ तुम्हारा।' छोड़ो और खुल के इन्हीं शब्दों में कहते हैं सारे धर्मों को त्याग दो, मात्र मैं तुम्हारा कर्तव्य हूँ। बाकी सब जो तुमने अपने ऊपर पकड़ रखा — यह करना, यह करना, यह ड्यूटी, यह रिस्पांसिबिलिटी, यह ज़िम्मेदारी — यह सब, तो “छट”।
तो फिर लोकधर्मी ने कहा, "देखो, ये ना महाभारत घर में मत रखना, कलेश होता है।" अब महाभारत में ही तो गीता है, तो फिर गीता भी मत रखना। कारण समझ में आ रहा है ना? हम जिसको अपना घर कहते हैं, बहुत अफसोस की बात है लेकिन उसकी बुनियाद में झूठ है। और गीता का काम है सब झूठों को जड़ से हिला देना। इसीलिए हमारे घरों में गीता का स्थान नहीं है। कोई संयोग की बात नहीं है। घर में गीता आएगी तो घर को नुकसान तो हो जाएगा, बड़ा शुभ नुकसान होगा पर आदमी इस नुकसान को झेलने को तैयार नहीं होता है।
और एक शब्द है जो कर्तव्यों के साथ चलता है जिससे कृष्ण आपको आज़ादी देते हैं — 'शर्म'। कर्तव्यों का खेल अगर चलाए रखना है तो बहुत ज़रूरी है कि कर्तव्य के पूरे ना होने पर दंड का प्रावधान हो। एक दंड तो यह हो सकता है कि आपको पुलिस ने पकड़ा, न्याय वालों ने पकड़ा, समाज के ठेकेदारों ने पकड़ा, पंचायतों ने पकड़ा। पर ये सब बाहरी है। तो क्या पता आप पकड़े जाओ ना पकड़े जाओ? बाहर वाला कितनी नज़र रखेगा? और अगर उसने नज़र रख भी ली तो आपको पकड़ने में फिर मेहनत करनी पड़ेगी। तो कहीं ज़्यादा एक एफिशिएंट तरीका निकाला गया आपको पकड़ने का — वह है शर्म, लज्जा, ग्लानि। कर्तव्य पूरे नहीं हुए, अपनी नज़रों में गिर जाओ।
अज्ञान से मुक्ति माने कामना से मुक्ति, कामना से मुक्ति माने कर्तव्य से मुक्ति, और कर्तव्य से मुक्ति माने लज्जा से मुक्ति। जिसका अज्ञान हट गया, वह बड़ा निर्लज्ज हो जाता है। बेशर्म? कर्तव्य है मेरा कि बोलूँ बेशर्म! पर मैं तो निर्लज्ज हूँ, तो क्या बोलूँगा? बे-सरम! कृष्ण आपको लज्जा से मुक्ति देते हैं।
बंदों से पर्दा करना क्या, जब प्यार किया तो डरना क्या? दुनिया में किसी को देखा है जो बात-बात पे लजाता हो, शर्माता हो? पूरे अस्तित्व में, कायनात में कोई प्रजाति है ऐसी? "मैं तो छुई-मुई अबला-सी, शरम-सी, लाल हुई हूँ।" है कोई? तो आपको क्या लगता है, यह आप में जन्मगत है बात? यह डाली गई है। लज्जा डाल दो, लज्जा-कर्तव्य साथ है, कर्तव्य-कामना साथ है। और जहाँ कामना है, वहाँ किसी का स्वार्थ है।
आपके भीतर लज्जा को स्थापित करके किसी के स्वार्थों की पूर्ति की जाती है। जिसको दूसरों की स्वार्थ पूर्ति की मशीन बनकर नहीं जीना है, उसे निर्लज्ज होना पड़ेगा।
क्या? बे...सरम! एक बिल्कुल मौलिक जीवन, जिसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो रटा-पढ़ाया गया हो। बिल्कुल निर्दोष, इनोसेंट आंखें, जो सामने वाले की भाषा समझती ही नहीं हैं। सामने वाला तुम्हें पढ़ाना चाह रहा है, जताना चाह रहा है कि तुमने कुछ गलत कर दिया है, तुम्हें शर्मिंदा होना चाहिए। तुम उसको ऐसे देख रहे हो, "जी, आपने क्या कहा? मैंने समझा नहीं। जी, आपकी भाषा मुझे आती नहीं। जी, मैं पढ़ ही नहीं पाया आपने लिखा क्या? आप मुझे शर्मसार करना चाह रहे हो? मैं हो ही नहीं सकता। मैं आपकी भाषा जानता ही नहीं। जी, आपने कोशिश बहुत की मेरे भीतर कुछ लिख देने की।"
गीता का काम है सब लिखे हुए को मिटा देना। "जो कुछ लिखा तूने, उसे मिट के मिटा।" यह गीता का काम है। उन्होंने तुम्हारे भीतर लज्जा के सारे उपन्यास लिख डाले हैं। नहीं भाई, सब मिट गया। समझ में आ रही है बात ये?मेरा विवेक तय करेगा कहाँ मुझे सुधार करना है। तुम्हारे नियम, कायदे, कानून थोड़ी बताएँगे! ग्लानि, लज्जा — मुझे अगर कभी होगी भी, तो इस बात की होगी कि जो मैं सही जानता था, उसे सही जानते हुए भी जी नहीं पाया। इस बात का अपराधी मैं स्वयं को ज़रूर ठहराऊँगा।
जो चीज़ ठीक है उसको ठीक जानते हुए भी उस पर चल नहीं पाया मात्र इसी बात का अपराधी मैं स्वयं को ठहरा सकता हूँ पर इस बात का मुझे कोई कभी अपराध बोध नहीं होगा कि तुम्हारी लिखी हुई पटकथा पर मैं चल नहीं पाया तो मैं दोषी हो गया। अपराधी हूँ सजा दो — ना! ना अपराधी हूँ ना सजा स्वीकार करूँगा। मैं अपराधी हूँ कि नहीं हूँ यह अगर कोई तय करेगा तो कौन? गीता तय कर देगी, तुम नहीं तय करोगे और गीता कहती है अपराध तुम्हारा बस एक हो सकता है कि तुम सौ कर्तव्य पकड़कर बैठे रहे और कृष्ण कर्तव्य भुलाए रहे। बस यही अपराध हो सकता है। यह अपराध जब होगा, तो निस्संदेह मैं स्वीकार करूँगा और सुधार करूँगा। उसके अलावा कोई अपराध नहीं है।
बताइए, प्रश्न बताइए।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी! श्रीकृष्ण क्यों कहते हैं कि ज्ञानी कर्तव्यों की परवाह नहीं करते? और अगर कर्तव्य बंधन है, तो कर्तव्यों के पालन की बात इतनी प्रचलित क्यों है?
आचार्य प्रशांत: जहाँ पर कोई अपना कर्तव्य निभा रहा होता है, वहीं पर किसी को उस कर्तव्य का फल मिल रहा होता है, लाभ हो रहा होता है। तो क्या इसमें इतना बड़ा राज़ है कि कर्तव्य शब्द क्यों इतना प्रचलित है इसलिए प्रचलित है। और लाभ सचमुच किसी को नहीं हो रहा होता है। क्योंकि सास भी कभी बहु थी। तो आज तुम किसी को बता रहे हो कि तेरा कर्तव्य है, मेरी पीठ दबाना। और तुम उसे सिर्फ़ इसलिए बता रहे हो क्योंकि कभी तुम किसी की पीठ दबा चुके हो।
तो लाभ-वाभ कुछ नहीं है। बस परस्पर शोषण का चक्र है। लाभ किसी का है तो माया का है। कभी तुम शोषण करते हो, कभी तुम शोषण करवाते हो। दोनों ही स्थितियों में मुक्ति से तो वंचित रह जाते हो। कभी शोषण करवाने में मगन हो, कभी शोषण करने में मगन हो। दोनों ही स्थितियों में फँसे हुए हो। आज़ाद तो नहीं हो तो बस यही चल रहा है। क्यों रैगिंग कर रहा है? मेरी भी तो हुई, बस यही है।
और पहला क्या पूछा था, कमज़ोर की मदद करना। और पता नहीं कमज़ोर की मदद करना कर्तव्य है कि नहीं, ये मालूम नहीं। अगर कमज़ोर को कृष्ण तक ले जा सकते हो, इसका नाम मदद है तो फिर वो ठीक है, कर लो। कुछ और है मदद से आशय, तो फिर वो मदद है ही नहीं।
देखो, जब तक तुम्हारा मन ऐसा नहीं हो जाता न कि कोई भी सवाल उठे और उसके उत्तर में बस खट से गीता का कोई सूत्र खड़ा हो जाए, जब तक मन ऐसा नहीं कर लेते, तब तक उलझे ही रहोगे। दस दिशाओं से बातें आएँगीं। और ये दस दिशाएँ ही तो आप सब की समस्या है न। आपको ज़िन्दगी में कोई भी सवाल आता है, आपको गीता थोडी कौंधती है तुरंत एक मात्र समाधान के रूप में? आपको ताऊजी की, फूफी जी की, सेलेब्रिटी जी की, नेता जी की, सबकी बातें याद आती हैं। गीता का काम है, आपसे वो सारी बातें भुलवा देना, आप भूलने को राज़ी नहीं हो, आप भूलने लगते हो तो घबरा और जाते हो।
मैंने ऐसे भी लोग देखे हैं जो तीन-चार दिन अगर गहराई से सत्रों में बैठ लें और देखें कि वो डूबने लग गए हैं, प्यार होने लग गया है उनको, तो पाँचवें दिन वो तय करके, इरादा करके, योजना बना कर के अपने घर भागते हैं। क्योंकि उनको दिख रहा होता है कि अगर नहीं भागे तो इस बार मामला इर्रिवर्सिबिल हो जाएगा। तो तीन-चार दिन यहाँ बैठ लेते हैं, पाँचवें दिन खट से भागते हैं।
श्रीकृष्ण कोशिश कर रहे हैं कि आप सब भूल जाओ और आप डटे रहते हो की भूलूँगा नहीं तो बात कैसे बनेगी? आप उतारू हो की याद रखूँगा तो कैसे बात बनेगी? नहीं तो बहुत सरल है। क्या कर्तव्य है? श्रीकृष्ण कर्तव्य, खत्म हो गई बात, लो।
जैसे मैथ्स में फार्मूले होते हैं, भाई रटी थोड़ी जाती है, गणित रटी जाती है? और सूत्र माने डोरी भी होता है और सूत्र माने फार्मूला भी होता है। यही सुमिरन का अर्थ होता है कि कुछ भी हो, बस मेरे पास समाधान एक है। किसी भी दिशा से, कहीं से भी, कभी भी, कोई भी स्थिति उठे, समस्या आए मेरे पास उत्तर बस एक है। क्या? यह रहा, अब बताओ कैसे उलझोगे? पर आपके पास एक नहीं होता। आपने मोरल साइंस की किताब में, तीसरी में पढ़ा था — इट इज़ माई रिस्पांसिबिलिटी टू हेल्प द वीक।
अब गीता सामने आती — कमज़ोर की मदद करनी है। कौन कमज़ोर है? मेरी सास कमज़ोर है, हो गया, निपट गए! निपट गए!
मदद का एकमात्र अर्थ होता है चेतना को उसके अंजाम तक ले जाना, इसके अलावा मदद का कोई अर्थ नहीं होता।
कमज़ोर की हमेशा मदद ही नहीं करनी होती। अब कइयों की दो धड़कनें इधर-उधर होने वाली है, कमज़ोरों की हमेशा मदद ही नहीं की जाती। कई बार कमज़ोरों का काम भी तमाम करना पड़ता है। कमज़ोरों के प्रति हमेशा इतनी सद्भावना रखोगे न, तो बेटा अपनी कमज़ोरी के प्रति भी सद्भावना ही रखोगे। ये जो तुम्हारी कमज़ोरियाँ कभी खत्म नहीं होती, इसकी वजह यही है — तुम्हारी मोरल साइंस कि कमज़ोरों की तो मदद करो।
कमज़ोरों को तो बिल्कुल बचा के रखो, रुई के फाहे में रखो कमज़ोरों को। और सबसे बड़े कमज़ोर तो तुम ख़ुद हो, तो सबसे ज़्यादा तुम ख़ुद को ही बचाते रहते हो। और इसीलिए मैं तुम्हारा दुश्मन हूँ। देखो ये कमज़ोरों पर कितनी निर्ममता से वार करता है दृष्ट। जा मुए तो नरक में सड़। कमज़ोरों को खत्म करना भी सीखो। और इस मामले में मैंने भी बड़ी गलती करी है अपनी ज़िन्दगी में, वो जो मोरल साइंस है न, वो बड़े अरसे तक मुझ पर भी हावी रही। शायद अभी भी है।
संहार भी बहुत ज़रूरी होता है, बहुत वक़्त मत लगाओ ये सीखने में। नष्ट करना भी सीखो सेप्टिक हो जाए, गैंगरीन होने लगे तो क्या करना होता है? काटना भी सीखो। एक हाथ या एक टांग बचाने के लिए पूरे जिस्म की कुरबानी नहीं दी जाती, बचाया उसको जाता है जिसको जब दवाई दो तो वो सुधरे। तुम्हारी टाँग में सेप्टिक है, उसको तुम दवाई दो और वो रिस्पॉन्ड करे, वो सुधरे तो और दवाई दो। पर जिसको दवाई दो उसे दवाई का कोई असर नहीं हो रहा है, उसको काट दो।
ये कैसी बातें कर रहे हैं? शक तो इस पर मुझे हमेशा से था, पर मैं बेनेफिट ऑफ डाउट देती रहती थी। रे आचार्य तू तो कसाई निकला रे, कसाई। तू तो काटने कूटने की बातें कर रहा है। अध्यात्म का तो मतलब है एकता के, प्यार के, शांति के फूल खिले। गंडासाचार्य है, क्या कर रहा है? कमज़ोरों की मदद, आहाहा, कितना प्यारा आदर्श है। शिव क्या करें फिर? पूरे ही बेरोज़गार करोगे उनको। उनका तो काम ही यही कि जब तुम एकदम ही फैला दो रायता तो "डुग डुग डुग (डमरू की ध्वनि) कहते है सब साफ करो हटाओ ये नालायकी बंद करो प्रलय। इनका आ गया है, पॉइंट ऑफ नो रिटर्न। इन्होंने ख़ुद चुन लिया है कि अब ये है ही नहीं। "कल उन्हें क्या कष्ट हो वो आज ही जब नष्ट है, समाप्त करो ये सब।"
मैं बार-बार बोलता हूँ कि दुनिया को महादेव चाहिए आज। हमारी सबसे बड़ी मदद यही हो सकती है कि बजे डमरू, कल्याण नहीं प्रलय। वही कल्याण है, आत्ममुखी हो अहंकार तो करी जाती है मदद, आत्ममुखी हो अहंकार तो मदद और दुर्योधन हो तो संहार। स्पष्टता तो न अर्जुन के पास है, न दुर्योधन के पास है। पर अर्जुन कम से कम आत्ममुखी हैं, स्पष्टता की ओर देख रहे हैं भले दूर हैं स्पष्टता पर उसको देख रहे हैं, उससे संवाद कर रहे हैं उसी संवाद का नाम गीता है। तो मदद करी जाती है उसी मैदान पर एक की मदद करी जा रही है और दूसरे का संहार करा जा रहा है।
और आप लोग सब लोक धर्म की दिशा से आ रहे हैं। इतना ज़्यादा घबराते हैं संहार से, कि हुकुपुकी लग जाती है भीतर हाय, हाय क्या बोल दिया, क्या क्या संहार? भैया कौन-से हार की बात हो रही थी। आज हमने लेट ज्वाइन किया और ये दोनों बातें एक साथ आती हैं। झूठ का संहार नहीं कर सकते तो सत्य को समर्पित होने की बात भी छोड़ दो। अक्सर झूठ इसी नाते सेवा कराता है तुमसे। ये बोल के नहीं सदा कि 'मैं बलशाली हूँ।’ अक्सर ये बोल के भी मैं तो बड़ा दुर्बल हूँ, कमज़ोर हूँ, तुम अच्छे आदमी हो, क्या तुम मेरी सेवा नहीं करोगे? कभी तो वो खड़ा हो जाता है बाहुबली बन के, बहुत पैसे वाला हूँ, मैं सत्ताशाली हूँ, 'झुको मेरे आगे' और कभी वो खड़ा हो जाता है कातरता बनके, दुर्बलता बनके, छेवा कलो न।
कभी गीता के पास आने से तुम्हें नेताजी का रुतबा या सेठ जी का पैसा रोक देता है और कभी कमज़ोरों की पुकारें, कि इतना कमज़ोर है, मुझे उसकी सेवा करनी है। यही तो मोरल साइंस है न? जेठ जी ने बताया था कमज़ोरों को दे सेवा का उपहार, यही है गीता का प्यार। नहीं? क्यों कमज़ोर है भाई, जो कमज़ोर है, क्यों है कमज़ोर? क्या इसलिए कमज़ोर है कि बड़ी ताकतों के खिलाफ संघर्ष कर रहा है या इसलिए कमज़ोर है की ताकत के स्रोत से अपने आप को दूर रखे हुए है?
हमारी संस्था में भी बहुत सारे कमज़ोर लोग हैं। यहाँ अंदर-अंदर एक दूसरे की गर्दन पकड़नी हो तो बहुत तेज रहते हैं। बहसा बहसी कर लेंगे। मैं उससे बेहतर हूँ, वो मुझसे नीचे है, ये सब हो जाएगा पर जब बाहर की दुनिया में बात करनी होती है तो एकदम, कमज़ोरी छा जाती है। कहाँ से आई कमज़ोरी ये, कहाँ से आई कमज़ोरी ये, कमज़ोरी है ही इसलिए क्योंकि तुम ताकत जहाँ से आ सकती है उससे अपने आप को दूर रखते हो। उससे तुम्हें अपने आप को बचा के रखना है। तो इसलिए तुम कमज़ोर हो और उसके बाद तुम चाहते हो कि तुम्हारी सहायता और सेवा भी की जाए। माने तुम्हारे इस इरादे में तुम्हारी सहायता की जाए कि तुम ताकत के स्रोत से दूर रहो और कमज़ोर ही बने रहो।
कमज़ोर की सेवा करने का अगर मतलब है कि कमज़ोर कमज़ोर बना रहे है तो सेवा नहीं साजिश है।
ये सब जो काम होते है न बीमारों की सेवा कर देना धर्म के नाम पर, भंडारा लगा देना। क्या मतलब है इनका धर्म से? क्या मतलब है? तुम ख़ुद उस व्यवस्था में भागीदार हो जो शोषणकारी है, दमनकारी है, जिसमें किसी को अमीर करने के लिए हज़ारों को गरीब रखना ज़रूरी है। वो गरीब ख़ुद तुमने पैदा करे है। उसके बाद साल में एक-दो दिन तुम उनको खाना खिला के और कम्बल बाँट के, अपने आप को धार्मिक घोषित कर रहे है और कह रहे हो मैं तो कमज़ोरों का मसीहा हूँ।
बंबई में विश्रांति हुआ था तो वहाँ एक सज्जन थे, विश्रांति मतलब शिविर। अभी भी होता है, उसका नाम था, विश्रांति। तो वहाँ सज्जन थे, तो कार उनकी थी। तो वो लेने आए मुझको और ख़ुद ही ड्राइव कर रहे थे और बार-बार रुकना पड़ता है, ट्रैफिक ऐसा और चौराहे पर रुके तो वहाँ पर एक लड़का रहा होगा, लड़का भी नहीं था, जवान भी नहीं था, टीनेज जैसा, वो भीख माँगने के लिए आ गया। ये मुझसे कुछ बात कर रहे थे और वो जब खिड़की पर ऐसे ऐसे करने लगा तो उन्होंने खट से खोली और उसको सीधे सौ रूपए निकाल कर देने लगे।
तो मैंने बात के बीच में ही बोला, 'बंद करिए और कुछ मत दीजिए।' उन्होंने बंद तो कर दिया पर जो बात कर रहे थे वो भूल गए, उनके भीतर बिल्कुल बवंडर आ गया। ये कैसा आध्यात्मिक आदमी है कि भिखारी की मदद नहीं करने दे रहा। और वो आमतौर पर दो रुपया देते हो तो उस दिन सीधे सौ निकाला था। मैंने दो भी नहीं देने दिया। मैंने कहा अंदर रखो और खिड़की बंद करो।
तुम क्या कर रहे हो तुम किस चीज़ को धर्म बना रहे हो। ये मेरा कोई सिद्धांत नहीं है कि भिखारियों को नहीं ही देना है, कभी कभार दे भी देता हूँ, वो निर्भर करता है कि मैं देख क्या रहा हूँ। पर ये जो खेल है यह बहुत निम्न कोटि का खेल है और यह वही खेला जाता है जहाँ शोषण बहुत होता है। अगर गरीबों और कमज़ोरों की मदद करने का ही नाम धार्मिकता है तो फिर तो तुम्हारी धार्मिकता को बनाए रखने के लिए गरीबों और कमज़ोरों का होना भी बहुत ज़रूरी है।
और कहीं ऐसा तो नहीं कि गरीब, गरीब बना रहे और कमज़ोर कमज़ोर बना रहे, इसी नाते तुमने ये प्रावधान बना दिया है और व्यवस्था चला दी है की इनको कुछ-कुछ देते रहो तो उनका काम भी चलता रहेगा और तुम्हें भी भीतर ये भाव रहेगा की मैं तो बढ़िया आदमी हूँ अपने कर्तव्यों का पालन करता हूँ।
एक ओर कहते हो 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो,' दूसरी ओर कहते हो कि दुर्बल की सहायता — तो दुर्बल की तो एक ही सहायता हो सकती है, कि उसको दुर्बल रहने ही मत दो। और जो दुर्बल ऐसा हो कि मैं तो दुर्बल ही रहूँगा, फिर उसको सहायता नहीं, ‘संहार’। दुर्बलता अगर ऐसी है कि मुझे दुर्बल रहना नहीं है, अँधेरे में हूँ पर प्रकाश चाहिए, उसको प्रकाश दे दो। और जो दुर्बलता ऐसी है कि मेरी दुर्बलता से ही स्वार्थपूर्ति हो रही है, उसको संहार दे दो।
ये जो अच्छे आदमी की छवि बना रखी है ना, फाड़ कर, फेंक दो, सच्चा बनो अच्छा नहीं। और सच्चे हो जाओगे तो दिख जाएगा कि सच्चाई ही अच्छाई है। सच्चाई पहले आती है। न दूसरों की कमज़ोरी को सहानुभूति दो, न अपनी कमज़ोरी को। कमज़ोरी के प्रति बस एक रवैया रखो, क्या? इसको मिटाना है। दो तरीके से मिट सकती है। एक यह कि कमज़ोरी ताकत की तरफ बढ़ जाए और दूसरी यह कि कमज़ोरी अगर ताकत बनना ही नहीं चाहती तो उसका संहार हो जाए। या तो 'तू बेहतर बनेगा, नहीं तो तू मिटेगा' बस सीधे, आईने से यही बातें किया करो — 'जैसा है, वैसा तो तू नहीं रह सकता।'
हम बात कर रहे थे न कर्तव्य और लज्जा के संबंध की, तो बल कर्तव्य है। और बल आता है बल के स्रोत से एक होकर। श्रीकृष्ण और गीता से जितने एक होते जाओगे, उतने बली होते जाओगे। बल कर्तव्य है, यही कर्तव्य है। बल की तरफ बढ़ो और दुर्बलता अधर्म है। बल की तरफ बढ़ना ही धर्म है, दुर्बलता अधर्म है।
कर्तव्यपूर्ति न होने पर लज्जा आनी चाहिए तो बस एक ही बात पर लज्जित हुआ करो, 'मैं बल की तरफ क्यों नहीं बढ़ रहा, मैं बल से दूरी बनाकर क्यों रखता हूँ?' लाज की बात बस यही है, बहुत शर्म किया करो। और इसके अलावा किसी बात पर शर्म कर मत दे ना। बाकी सब बातों में कैसे हो जाओ, बे-सरम। शर्म इस एक बात पर बस आनी चाहिए, ‘मैं बेहतर हो सकता हूँ, हो क्यों नहीं रहा हूँ।’ जो बेहतरी का ज़रिया है, मैं उससे बच-बच कर क्यों चलता हूँ, ये है लज्जा की बात। बाकी कोई लज्जा नहीं।
साहब हमारे कहते हैं वो बस राम की लाज करती है, और किसी की लाज नहीं करती। उसे और किसी से लाज ही नहीं आती। बस वो राम की लाज करती है। उसी से संबंधित एक दूसरी साखी है जिसमें कुछ ऐसा है कि लज्जा से ही है कि घूँघट करके रखि है पागल, नाचने निकली है और.. 'नाचन निकली है बापुरी'...?
श्रोता: घूँघट कैसा होय।
आचार्य प्रशांत: घूँघट कैसा होय, इसका पहला क्या है? ये तो आधी साखी है.......
।। जैसे खांडा सोय।।
पिया का मारग कठिन है, जैसे खांडा सोय। नाचन निकसी बापुरी, घूँघट कैसा होय।।
हटाओ न ये सब।
और इससे भी ज़्यादा मार्मिक और धारदार वो सती वाली साखी जिसमें कहते हैं सती माने वो जो बस राम की लाज करती है। बाकी कोई लाज नहीं। तो बस कृष्ण कर्तव्य है, बाकी कोई कर्तव्य नहीं और लज्जा भी बस हमें ये आती है कि श्रीकृष्ण कर्तव्य से विमुख क्यों हो गए और हमें कोई लाज आती नहीं।
दस साल पहले करीब पर एक बोला था, उसका इन लोगों ने पोस्टर भी बनाया था, वो मिल जाएगा। अगर खोजें, तो मिल भी जाएगा। उसमें मैंने लिखा था कि —
परमात्मा निर्विशेष, निर्विकार और निर्गुण ही नहीं, निर्लज्ज भी है। बेखौफ जिओ, बेशर्म जिओ।
लज्जा → कर्तव्य → कर्तव्य → कामना → कामना → अज्ञान → अज्ञान → अहंकार
ये श्रंखला स्पष्ट होनी चाहिए।