प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बुल्लेशाह के भजन का अनुवाद कुछ ऐसा है —
किससे अब तू छिपता है? मंसूर भी तुझ पर आया है, सूली पर उसे चढ़ाया है। क्या साईं से नहीं डरता है?
~ संत बुल्लेशाह
भगवान किसी को सूली पर कैसे चढ़ा सकते हैं, निर्दयी कैसे हो सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: संत बुल्लेशाह के वचनों की दिशा थोड़ी भिन्न हैं। जो बात वो कह रहे हैं वो गहरी भी बहुत है। पर अभी मैं उसी को लिए लेता हूँ जो इस प्रश्न का संदर्भ है, जो इस प्रश्न का क्षेत्र है। पूछा है कि भगवान किसी को सूली पर कैसे चढ़ा सकते हैं, वो निर्दयी कैसे हो सकते हैं।
धीरज, अद्वैत है — परमात्मा के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं। तो भगवान किसी और को सूली पर कहाँ चढ़ा रहे हैं? वो ही हैं, अपनेआप को ही सूली दे रहे हैं। खुद ही जाते हैं सिपाही बनकर, खुद ही पकड़ लाते हैं किसी संत को, फिर खुद ही न्यायलय में न्यायाधीश बन बैठते हैं, खुद को ही झूठी सज़ा सुना देते हैं, फिर खुद ही जल्लाद हो जाते हैं, फिर खुद ही सूली हो जाते हैं, फिर खुद को ही सूली पर चढ़ा देते हैं। और किसको मार रहे हैं वो? दया इत्यादि तो दूसरों पर की जाती है। जहाँ द्वैत ही नहीं, वहाँ दया कैसी! किस पर दया करनी है?
ये सब मानवीय मूल्य हैं — दया इत्यादि। मूल्य तीन प्रकार के होते हैं। पहले प्रकार के मूल्य वो होते हैं जो सत्य से दूर ले जाते हैं। कोई नशे को मूल्य दे, कोई दौलत को मूल्य दे, कोई वासना को मूल्य दे, कोई हठ को मूल्य दे, कोई अपनी हस्ती को बहुत मूल्य दे, कोई अपने मत-अभिमत, धारणाओं को मूल्य दे — ये सब सत्य से दूर ले जाते हैं मूल्य।
दूसरे प्रकार के मूल्य वो होते हैं जो सत्य के निकट ले जाते हैं। उदाहरण के लिए, कोई करुणा को मूल्य दे, कोई क्षमा को मूल्य दे, कोई मैत्री को मूल्य दे, कोई प्रेम को मूल्य दे, कोई सरलता को मूल्य दे, कोई आज़ादी को मूल्य दे — ये सब आपको सच्चाई के करीब ले जाएँगे।
और फिर आखिरी आत्यंतिक मूल्य होता है — किसी प्रकार के मूल्यों में न फँसना। परमात्म-दशा में करुणा, सत्य, सौहार्द, सरलता आदि भी मूल्य-विलुप्त हो जाते हैं। वहाँ बस होना है, गति है, कुछ मूल्य नहीं। जहाँ मूल्य है वहाँ तो मूल्यकर्ता आ गया, वहाँ तो विचार आ गया, वहाँ हानि-लाभ आ गया।
हर प्रकार के मूल्य का अंततः परित्याग करना होता है। परंतु यदि आप निकृष्ट कोटि के मूल्यों में खड़े हैं, तो बेहतर है आपके लिए कि आप ज़रा उच्च कोटि के मूल्यों की ओर बढ़ें। पर उच्च कोटि के मूल्यों से भी आसक्ति नहीं रखनी होती है। उनका भी काल होता है, उनकी भी सीमा होती है। और जहाँ उनकी सीमा आ गई, उसके बाद उनकी कोई उपादेयता नहीं। जब उनका काल हो गया, तो उन्हें फिर काल-कलवित हो जाने दें।
निकृष्ट कोटि के मूल्य वो नाँव है जिसमे छेद-ही-छेद हैं। उस नाँव पर चढ़ना ही नहीं। तो उस नाँव को इसी किनारे छोड़ दिया। निकृष्ट मूल्य वो नाँव है जिसमें छेद है। उस नाँव को इसी किनारे पड़ा रहने दिया।
उत्कृष्ट मूल्य वो नाँव है जो मज़बूत है, और पार लगा देगी। उस नाँव को उस किनारे छोड़ दिया। एक नाँव को इस किनारे छोड़ा, और दूजी नाँव को उस किनारे छोड़ा। पर नाँव पर बँधे थोड़े ही रहना है। यहाँ छोड़ो, कि वहाँ छोडो, छोड़ना तो है ही।
अनुरक्त मत हो जाइए; फँस जाएँगे। ये दया-माया वहाँ नहीं चलती। वहाँ बस सहज प्रवाह है। उस सहज प्रवाह, उस शून्यता, उस भावहीनता का ही नाम करुणा है। उस खाली स्थान में गाने वालों ने गाया है कि पूरी कायनात है, बड़े बाग-बगीचे हैं, बड़ा आनंद है। है कुछ नहीं। बात समझ रहे हैं?
मूल्य आदमी को शोभा देते हैं, क्योंकि मूल्य विधि हैं। तुम्हें विधि चाहिए, क्योंकि तुम फँसे हुए हो। बेशक तुममें दया होनी चाहिए। दया, क्षमा, आर्जव, शील — ये सुंदर बातें है। किसके लिए? तुम्हारे लिए। क्योंकि तुम आंशिक हो। तुम अंश में फँस गए हो। तुम्हें मुक्ति चाहिए, तुम्हें विधि चाहिए। उत्कृष्ट मूल्य विधियाँ हैं तुम्हारे लिए। परमात्मा कहाँ फँसा हुआ है कि उसे कोई मूल्य लगे, कोई विधि लगे? परमात्मा के कौनसे अंश हैं जो उसे पूर्णता की तरफ़ अग्रेषित होना है?
बड़े अहंकार की बात है कि जो कुछ तुम्हारे ऊपर लागू होता है, उसे तुम परमसत्ता के ऊपर भी लागू कर देना चाहते हो। और ये बड़ी-से-बड़ी गलती होती है। हो सकता है कुछ तुम्हारे लिए उपयुक्त हो, और तुम्हारे लिए उपयुक्त है; बताने वाले ने गलत बिलकुल नहीं बताया। पर भाई, तुम नन्हे हो, तुम छोटे हो। तुम्हें क्या लग गया? कि तुम्हारे छुटपन, तुम्हारी क्षुद्रता के अलावा और कुछ होता ही नहीं।
ये ऐसी-सी बात है जैसे कोई बीमार हो। उसको दवाईयाँ दी जाएँ। और वो किसी स्वस्थ आदमी को देखे जो दवाई नहीं लेता। और उससे बोले कि तुम बड़े लापरवाह हो, बड़े अहंकारी हो, और बड़े बेहोश और मूढ़ हो, क्योंकि तुम दवाईयाँ नहीं लेते हो।
दवाईयों की उपयोगिता तुम्हारे लिए है भाई, उसके लिए थोड़े ही है! और तुम उसका मूल्यांकन कर रहे हो उन मूल्यों की कसौटी पर जो उस पर लागू ही नहीं होते।
मैं बाहरवीं में था। आइआइटी के जॉइंट एंट्रेंस एग्ज़ाम की तैयारी चलती थी। तो एक साथ छात्र था, जानता था मुझे पहले से। उसने देखा हुआ था मुझे। अब दसवी में जो प्रश्न आते थे, वो बोर्ड के थे। उसमें अगर कोई समीकरण है, कोई सवाल है, कोई इक्वेशन है, तो उसको चरणबद्ध तरीके से हल करना होता था। समझ रहे हो बात को? स्टेप-बाय-स्टेप, कदम-दर-कदम, एक-एक चरण, एक-एक पायदान दिखाओ।
तो वो मैं करता था तब दसवी में। भई सीख रहे हो, नए-नए हो। आवश्यक है कि एक-एक कदम रखो। फिर ग्याहरवीं और बाहरवीं के दिन आए। जो लोग आइआइटी के जॉइंट एंट्रेंस एग्ज़ामिनेशन से परिचित हैं, वो जानते हैं कि उसमें ज़रा उछाल लेना पड़ता है। योग्यता की और श्रम की आवश्यकता पड़ती है। तो ये भाई मेरे पास एक दिन आया। बोलता है कि प्रशांत, तुझमें जो धार हुआ करती थी दसवीं में, अब वो नहीं है। मैंने कहा, ‘कैसे?’ बोल रहा है, ‘अब तू सवाल लिखता है। और बीच की बहुत-सी स्टेप्स तू खा जाता है। तुझमें आलस आ गया। जो सवाल दस स्टेप्स का है, उसको तू तीन में, चार में कर रहा है। ये अच्छा लक्षण नहीं है।’ वो बात बिलकुल ठीक बोल रहा था। पर वो बात लागू किस पर होती थी? ये बात दसवीं के छात्र पर लागू होती थी। ये बात उस पर लागू होती थी। ये बात उस पर नहीं लागू होती थी जिसमें ये पात्रता आ गई थी कि अब तीन सीढ़ियाँ लाँघकर दौड़कर ऊपर चढ़ जाए।
और ये हमारी बड़ी-से-बड़ी भूल होती है कि हम दूसरे को उसी अनुसार नाप लेते हैं जहाँ हम खड़े होते हैं। जो मेरे लिए ठीक है, वही तेरे लिए ठीक है। परमात्मा तुम्हारे घर खाना खाने आया और उसने हाथ नहीं धोए अगर खाना खाकर, तुम कहोगे, ‘ये ठीक वाला नहीं परमात्मा। दाँत नहीं माँझ रहा, नहा नहीं रहा।‘
अब तुम्हें कौन समझाए कि वो स्वभावगत निर्मल है। तुम नहाओ, तुम्हें नहाने की ज़रूरत है। पर तुम दो गलतियाँ करोगे। या तो तुम परमात्मा का अपमान करोगे, निरादर करोगे ये कहकर के कि देखो ये हाथ-वाथ नहीं धोता। भई हमारे लिए अगर ठीक है हाथ धोना, तो इसके लिए भी ठीक होना चाहिए। या फिर तुम परमात्मा की देखा-देखी खुद भी हाथ धोना छोड़ दोगे! तुम कहोगे, ‘वो नहीं धोता, तो हम भी क्यों धोएँ?’
दोनों ही स्थितियों में भूल तुमने एक ही करी है। क्या भूल करी है? तुमने अपनेआप को और उसको एक तल पर रख दिया है। तुम कह रहे हो, ‘या तो तू वो कर जो मैं करता हूँ। या मैं वो करूँगा जो तू करता है। दोनों ही स्थितियों में मामला बराबर का चले। न्याय होना चाहिए।‘
और तुम्हें बड़ा अन्याय लगता है कि कुछ बातें जो एक पर लागू होती हैं, दूसरे पर लागू होती ही नहीं। और जो आधुनिक विचारधाराएँ हैं, जिनके मूल में आदमी और आदमी की समानता का भाव है कि इंसान और इंसान बराबर है। इस धारणा से उठकर के बहुत सारी विचारधाराएँ चली हैं और उनका बड़ा प्रभाव रहा है। खासतौर पर बौद्धिक जगत में। वो यही मूल भूल करते हैं। वो सबको एक ही तल पर रख देते हैं। और इस बात को फिर बहुत शान से बताते हैं कि देखिए साहब, सबके लिए एक नियम, एक कानून — और सबको एक ही दृष्टि से देखा जाएगा। सबको एक ही तराजू पर तोला जाएगा।
तुम्हारी बात संसार के लिए ठीक है। जो संसार के पार है, उसके लिए ठीक नहीं है।
बुद्ध को और बुद्धू को एक ही तराज़ू पर मत तौलो। एक के लिए एक बात, दूसरे के लिए बिलकुल दूसरी बात। आदमी आदमी में भेद होता है। तो सोचो आदमी और परमात्मा में कितना भेद होता होगा। और तुम कह रहे हो, ‘नहीं साहब, सब बराबर है।‘
ऐसा नहीं होता। तुम कितना भी चाह लो, ऐसा होगा नहीं। हाँ, भेद है। विभाजन है। विभाजन नहीं, विभक्ति नहीं, तो फिर भक्ति भी नहीं। अगर आदमी और आदमी बराबर है, तो फिर विभक्ति को भी हटा दो, और भक्ति को भी हटा दो।
बात समझ रहे हो?
और अगर आदमी और आदमी बराबर है, तो फिर गुरुता जैसी कोई बात नहीं बची। फिर तो गुरु भी तुम्हारे ही तल का कोई व्यक्ति हुआ। उसके सामने बेशर्त सिर झुकाने की कोई ज़रूरत नहीं। उसे अपने मूल्यों से अस्पर्शित छोड़ देने की कोई ज़रूरत नहीं।
ये बात ग्रहण करने में ज़रा कठिन है। गले से उतरती नहीं। अहंकार को बड़ी चोट लगती है। अहंकार इस बात के लिए राज़ी हो जाता है कि मामला बराबर का रहे, जिसे कहते हैं — लेवल प्लेइंग फ़ील्ड। और उसके बाद जो बेहतर हो वो जीत जाए। साहब, आप बराबरी का खेल खेलिए। उसके बाद अगर आपके पाँच और हमारे दो अंक हैं, तो हम मान लेंगे हम पाँच-दो से हार गए।
अहंकार इसके लिए तो राज़ी हो जाता है। इसको वो कहता है, ‘जस्टिस, ये न्याय है।‘ पर अहंकार इस बात के लिए राज़ी ही नहीं होता कि है कोई ऐसा जो बिना खेले जीता हुआ है।
उसे तुम्हारे साथ खेलने की ज़रूरत नहीं, न वो तुम्हारे साथ खेलने कभी उतरेगा। तुम सौ बार जीत लो, तो भी उसकी जीत आखिरी है। अब ये बात ऐसी घोर अन्याय की लगती है। लगता है ये तो छुरी चला दी। ये क्या कर दिया!
और यही नहीं कि वो पहले से जीता हुआ है। बात कुछ ऐसी है कि तुम उसे सौ बार हरा लो, तो भी वो ही जीता हुआ है। अब तो ये शोषण कहलाएगा।
भई ये तो नहीं चलेगा। ये तो उत्पीड़न है। नारेबाज़ी, हाहाकार। शोर-शराबा, नुक्कड़-नाटक।
इसीलिए जो विचारधाराएँ इस मूल से निकली हैं कि आदमी और आदमी बराबर है, उन्हें परमात्म सत्ता से ही इनकार करना पड़ा है। उन्हें फिर सीधे ही ये कहना पड़ा है, ‘देयर इस नो गॉड (कोई भगवान नहीं है)।’
ये बात समझ रहे हो न?
ऐसा नहीं है कि तुम उससे बहस करोगे तो वो तुम्हें हरा देगा। तुम्हें बहस करने का हक ही नहीं है। तुम बहस में हार जाओ, ये तो तुम फिर भी स्वीकार कर लेते हो। पर जो बात तुम्हें नागवार गुज़रती है — वो ये है कि है कोई ऐसा जो तुमसे बहस करने उतरेगा ही नहीं। और बिना बहस किए ही वो जीता हुआ है।
अब तुम कहते हो, ये तो हम...। अरे हमसे दो-दो हाथ तो करो! वो करेगा ही नहीं। तुम हो कौन? तुमसे कोई बहस नहीं की जाएगी, तुमसे कोई तर्क नहीं दिया जाएगा। तुम्हें बिलकुल नहीं समझाया जाएगा कि तुम गलत क्यों हो। बस तुम गलत हो। समझो बात को।
ये नहीं कहा जा रहा कि तुमसे गलती हो गई है। तुमसे कहा जा रहा है, ‘तुम गलत हो।’ तुम कुणाल नहीं हो, तुम अंशु नहीं हो। तुम गलत हो। इसी बात को बुद्ध कह गए थे, ‘तुम नहीं हो। तुम हो नहीं, तो तुमसे कौन उतरे दंगल करने।’
तुम होते, तो तुमसे बात की जाती। पर हस्ती का हक तो सिर्फ़ एक का है। और वो जानता है कि मेरे अतिरिक्त कोई होता नहीं। तो वो उतरे कैसे तुमसे बात करने। तुम हो कौन? जो है, वो है; और उसके अतिरिक्त जो वो दूसरा है, वो है ही नहीं, वो बस एक अतिरिक्तता है। अति-रिक्तता। मात्र रिक्तता भी नहीं। अति-रिक्तता, *एक्स्ट्रीम एंपटीनैस*।
समझ में आ रही है बात?
जिसको ये बात समझ में आ गई, वो तर जाता है। उसका जन्म सार्थक हो गया। जिसको ये बात समझ में आ गई, वो समर्पित हो गया। जिसको ये बात नहीं समझ में आई, वो तो अखाड़े में गोल-गोल चक्कर काटेगा। जाँघ पर ताल दे-देकर बोलेगा, ‘अरे! आ उतर।’ और वो उतरेगा नहीं। तो दो बातें बोलेगा, पहली हम जीत गए, दूसरी वो डरता है। और उसके बाद भी कहीं से कोई आ जाए, घूमता-घामता फ़कीर, वो बोले, ‘बेटा, जीता तो वही है।’ आ जाए कोई न्यायाधीश, जो कह दे, ‘न, जीता तो वही है।’ तो तुम्हें वास्तव में यही लगता है कि तुम्हारे साथ बड़ा अपराध हुआ। कुछ नहीं हुआ।
तुम कर लो सौ काम, है कोई जो बिना कुछ किए ही तुमसे जीता हुआ है। तुम बढ़ा लो खूब ज्ञान, है कोई जो बिना ज्ञान के ही तुमसे ज़्यादा ज्ञानी है। तुम्हारे सारे तर्क ठीक हैं, लेकिन तुम गलत हो। इसीलिए तुम्हारे तर्कों की कोई हैसियत नहीं। तर्क मत देना।
तुम्हारी हालत ऐसी है कि जैसे तुम अपनी उत्तर-पुस्तिका लेकर परीक्षक के पास जाओ और उससे कहो, ‘ये पहला सवाल है मेरा, देखिए। ठीक किया है न मैंने?’ वो बोले, ‘बिलकुल ठीक किया है।’ बोलो, ‘ये दूसरा सवाल है। देखिए। ये ठीक किया है न? जाँचिए।’ वो बोले, ‘बिलकुल ठीक किया है।’ फिर बोलो, ‘ये तीसरा सवाल है न, ये भी ठीक किया है।’ वो बोले,’ बिलकुल ठीक किया है।’ बोले, ‘चौथा भी ठीक किया है?’ ठीक किया है। ‘पाँचवाँ?’ ‘वो भी ठीक है।’ तो अब बोल रहा है, ‘अब दीजिए न मुझे अंक।’ और वो बोले, ‘तो अब ये लो। मैं कुल मिलकर तुम्हें देता हूँ शून्य। सब ठीक है तुम्हारा, लेकिन फिर भी मिलेगा शून्य।’
तुम हक्के-बक्के रह जाते हो। ये क्या हुआ? मैं तो बिलकुल ठीक हूँ। फिर भी मिला शून्य। तुम अंशों में ठीक हो। तुम एक-दो-तीन-चार-पाँच में ठीक हो। तुम ठीक तबतक नहीं हो, जबतक तुम पूर्ण में समाहित नहीं हो गए। अंशों में ठीक होना, इसी को तो कहते हैं — गलत होना। तुम यहाँ भी ठीक हो और वहाँ भी ठीक हो। इसीलिए तुम गलत हो, क्योंकि यहाँ और वहाँ तुम्हारे लिए उपस्थित है। बात समझ में आ रही है?
हिंसा से श्रेष्ठ है दया। और जो दया में बँधकर रह गया, उसका अंजाम हिंसा में बँधकर रह जाने वाले से कुछ भिन्न नहीं होता। जब न हिंसा होती है, न दया होती है, तो जो आकाशीय प्रवाह होता है, उसका नाम होता है करुणा।
दया मानसिक होती है। दया आपके मूल्यों पर आश्रित होती है। करुणा बस होती है। करुणा में आप ये नहीं कहते कि किसी की हालत खराब है, इसलिए करुणा है। करुणा में आप कुछ कहते ही नहीं। करुणा में आप होते हो। और आपका होना समस्त जगत के लिए शुभ और कल्याणप्रद होता है।
दया करते हो, करुणा होते हो। अंतर समझ लो।
परमात्मा का होना ही कर्तृत्व है। और तुम छोटे हो इसीलिए तुम्हारा करना कर्तृत्व होता है। अंतर है। वो बिना करे ही सब कर जाता है। उसका होना ही कर्तापना है। तुम कर-करके भी वास्तव में कहाँ कुछ कर पाते हो। समझ में आ रही है बात?
कई बार होता है कि हिंसा को छोड़ना आसान होता है, दया को छोड़ना और मुश्किल। अब तो हिंसा की अपेक्षा दया, माया का ज़्यादा प्रभावी अस्त्र बनी। जिसे तुम छोड़ न पाओ, सो माया। जो दया न छोड़ पाए, वो गिरफ़्त में है माया की। लेकिन जबतक हिंसक हो, तबतक हिंसा की अपेक्षा दया को प्रमुखता देना, जबतक हिंसक हो। और दया को प्रमुखता सिर्फ़ हिंसा की सापेक्षता में ही दी जा सकती है। जब जाएँगे तो हिंसा और दया, दोनों एकसाथ जाएँगे। जब जाएँगे तो द्वेष और दया, दोनों एकसाथ जाएँगे।
दया समझ लो एक प्रकार की सूक्ष्म हिंसा है। जब तुम कहते हो कि पहले हिंसक था, अब दयालु हूँ। तो तुम सिर्फ़ ये कह रहे हो कि तुम स्थूल हिंसा से सूक्ष्म हिंसा पर आ गए हो। जब हिंसक थे, तो स्थूल था द्वैत, जब दयालु हो तो सूक्ष्म है द्वैत। हिंसा अभी भी है। भेष बदलने से बात थोड़े ही बदल जाती है।
कल्याण की खातिर दया की बात कर रहे हो न। कल्याण दया से नहीं होता, कल्याण करने से नहीं होता। कल्याण कल्याणमूर्ति होने से होता है। तुम्हारे इरादे एक तल पर अच्छे हैं, पाक हैं; पर तुम्हारे इरादे कभी फ़लित नहीं हो सकते। तुम्हारे इरादों में अमृत है, तुम्हारे स्पर्श में ज़हर है।
तुम चाहो भी किसी का भला, तो उसको स्पर्श करोगे, उसका बुरा हो जाएगा। तुम्हारी हालत ईंधन जैसी है, लकड़ी जैसी है। कोई जलते हुए घर में फँसा हो। और ईंधन का एक बुत बोले कि मैं जाऊँगा और इसको बचा लूँगा। तो क्या होगा? उसके निकट आने से आग और भड़केगी। जो फँसा हुआ है, वो और जल्दी मर जाएगा। इरादा यही था कि बचा लूँ। पर तुम्हारी काया कुछ ऐसी है, तुम्हारी हस्ती कुछ ऐसी है कि फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम क्या चाहते हो। तुम्हारे होने से ही गड़बड़ हो जाती है। बात समझ रहे हो?
तुम्हारी हालत ऐसी है कि जैसे पेड़ की एक डाल पर दस लोग बैठ गए हो। और डाल चरमराकर टूटने को हो और वो हाय-हाय करते हो। और तुम सद्भावनावश पेड़ पर चढ़ो और कहो, ‘मैं आ रहा हूँ बचाने।’ और डाल बस टूटी, टूटी। एक ग्राम और वजन वो नहीं ले सकती है।
डाल की हालत ये है कि लोग अपने जूते इत्यादि उतरकर नीचे फेंक रहे हैं, कपड़े नीचे फेंक रहे हैं कि इतना भी वजन कम करो क्योंकि डाल अब इतना भी वजन नहीं ले पा रही है। और तुम सद्भावना से प्रेरित जाते हो, कहते हो तुम, ‘दसों को बचा लूँगा, आ रहा हूँ।’ चढ़ जाते हो उसी डाल पर बचाने के लिए। दसों को लेकर डूबोगे। करुणा क्षय दूसरी है।
दया बात करती है दूसरों को बचाने की। करुणा में समग्रता है। करुणा जानती है कि तू बचा तो मैं बचा और जब डाल टूटेगी, तो तू भी जाएगा और मैं भी जाऊँगा। बचेंगे तो दोनों, नहीं तो कोई नहीं। और जो करुण है, वो जान गया है स्वयं को बचाना। वो वहाँ स्थापित हो गया है, जहाँ अब कोई क्षय नहीं है, कुछ नश्वरता नहीं, कोई मृत्यु नहीं। उसने स्वयं को बचा लिया है। चूँकि उसने स्वयं को बचा लिया है, इसीलिए उसने अखिल संसार को बचा लिया है।
जो दयालु हैं, उसका तो अभी अपना होना ही शंका की बात है। आयाम का अंतर है दया में और करुणा में। परमात्मा करुण है, दयालु नहीं। आदमी दयालु हो सकता है, करुण नहीं। जो आदमी करुणा को प्राप्त हो गया, उसको अब आदमी कहना ठीक नहीं। उसको तो तुम अब बुद्ध कहो, कि श्रीकृष्ण कहो, कि बुद्धत्व कह दो, कि कृष्णत्व कह दो। उसको अब आदमी कहा, तो तुम्हारी ज़बान साफ़ नहीं है, भाषा ठीक करो।
आ रही है बात समझ में?
अच्छा हुआ, ये नहीं कह दिया कि समझ में आ गई। क्योंकि ये बात समझ में आने की नहीं है। ये बात कही ही इसलिए जाती है ताकि तुम जान सको कि हर बात समझ में आने की नहीं है। उससे मन विनीत रहता है।
श्रोतागण: संत बुल्लेशाह बार-बार कहते हैं कि तुम आए हो, तुम हो, और लैंग्वेज में बोल देते हैं कि तुम हो इग्ज़िस्ट...। अब वो क्या इग्ज़िस्ट, पता नहीं। उसको तो जान नहीं सकते और इसको कहते हैं कि तुम आए हो।
आचार्य: दोनों बातें वो एकसाथ बोलते हैं न। “तू ही है, मैं न ही रे सजना।” बुल्लेशाह की बात हमें इसलिए समझ में नहीं आती। क्योंकि हम अपनी हस्ती को बचाए रखना चाहते है। और फिर कहना चाहते हैं कि तू है। न-न-न। फिर नहीं। “जब हरी है, मैं नाहि।”
बुल्लेशाह दोनों बातें एकसाथ बोल देते हैं, इसीलिए उनका कथन सार्थक है। वो कहते हैं, “तू ही है, मैं नाही रे सजना।” हम कहना चाहते हैं कि हम हैं, और तुम हो, और बसंत बहार है। ये गड़बड़ है बात। तुम्हें सिर्फ़ उसको होने का हक देना पड़ेगा, खुद तुम्हें पूरी तरह हटना पड़ेगा। फिर तुम बुल्लेशाह को जान पाओगे। हो ही जाओगे बुल्लेशाह।
आदमी अध्यात्म में ये भूल कर जाता है। खुद रहते हुए उसको जानने की कोशिश करता है। “प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समाय।” तुम हो, तुम्हारे पूर्वाग्रह हैं, तुम्हारे सिद्धांत हैं, तुम्हारा मन है — जो सुरक्षित भी रहना चाहता है यदि, और अनंत सत्य का पान भी करना चाहता है, तो फिर मात्र निराशा है।
वहाँ न दया मूल्य है, न न्याय मूल्य है। तुम अगर अन्यायी हो, तो तुम अपनी हार को जीत बोलोगे। तुम्हें अगर न्याय पसंद है, तो तुम अपनी जीत को जीत बोलोगे। वहाँ पर मामला ये है कि तुम अपनेआप को हारा कहो, चाहे जीता कहो, हो तुम हारे हुए ही। अब ये बात तो तुम्हें बड़ी अजीब लगती है। सबकुछ हमने ठीक किया, फिर भी हमें क्या सिद्ध किया जा रहा है?
श्रोता: हारा।
आचार्य: हारा हुआ। तुमने किया सब ठीक, पर हो तुम?
श्रोता: गलत।
आचार्य: कर तो तुम सब ठीक रहे हो, पर तुम हो? गलत। जैसे कीचड़ का बुत पोंछा लगाता हो। तूने किया तो सबकुछ ठीक, लेकिन तू जहाँ कदम रख रहा है, वहीं गंदा हो रहा है। तेरा करना गलत नहीं है, तेरा होना गलत है भाई! कीचड़ का बुत पोंछा लगाएगा, तो मोक्ष थोड़े ही पाएगा।
कीचड़ के बुत को पोंछा नहीं लगाना है, पूंछ जाना है। पर अपनी ओर न देखना पड़े, इसके लिए वो दुनिया में पोंछा लगाता है। वो दुनिया को पोंछने को तैयार है, स्वयं पूंछ जाने को तैयार नहीं है। इसीलिए वो जहाँ भी कदम रखता है, वहाँ और गंदगी ही फैलाता है। इरादा भले ही उसका सफ़ाई का हो, पर उसकी हस्ती से गंदगी उठती है। उसकी करनी से नहीं, उसकी हस्ती से।
तो बुरा मत मानना। ये न कहने जाना कि देखो, हम सबकुछ तो ठीक कर रहे हैं। तुम कर रहे होगे सबकुछ ठीक, पर तुम हो कौन?
‘मैं सही कैसे हो सकता हूँ?’ ये तुमने यही पूछ लिया कि गलत सही कैसे हो सकता है। अब गलत है, तो गलत है। गलत सही कैसे हो जाएगा? तो तुम्हारी माँग कभी पूरी नहीं होगी। तुमने ज़रा दरियादिली दिखाई, तुमने कहा, ‘अब आप इतना ही ज़ोर दे रहे हैं, तो हमने मान लिया कि हम गलत हैं। अब बताइए कि हम सही कैसे हो सकते हैं?’
तो मैं कह रहा हूँ, ‘तुम बराबर गलत।’ अब तुम कह रहे हो, ‘मुझे सही होना है।’ तो किसको सही होना है? अब गलत को सही होना है। गलत सही कैसे हो सकता है। गलत तो गलत है। फँस गए। तुम न सिर्फ़ गलत हो, तुम ऐसे गलत हो कि सही भी नहीं हो सकते।
‘क्या इस पूरे ब्रम्हांड में मेरे लिए कहीं इंसाफ़ नहीं है? ये शोषण है। मुझे दमित किया जा रहा है।’ है तो है। यह तो ऐसे ही चालेगी, ऊपर वाले की गड्डी है। तुझे बुरा लगता है, तो उतर जा। दीवार पर बड़ा-बड़ा लिखकर टाँग दो। ‘तुझे बुरा लगता है, तो उतर जा। ये तो ऐसे ही चलेगी। ऊपर वाले दी गड्डी है।’
अपने कानून एक तरफ़ रखो। अपने सिद्धांत एक तरफ़ रखो। तुम्हारे सिद्धांत इस दुनिया में स्वीकार होते होंगे। बड़े-बड़े कानूनविद होंगे, बड़े विद्वान होंगे, विश्वविध्यालयों के विभाग होंगे, जिन्होंने तुम्हारे कानूनों को और सिद्धांतों को बड़ा ओहदा और दर्ज़ा दे दिया होगा, बड़ी स्वीकृति मिल गई होगी। उधर तुम्हारा कोई सिद्धांत नहीं चलता। चैन चाहिए तो अपने कानून रखो एक तरफ़ और उसका कानून समझने की कोशिश करो।
अपने कानूनों में इतने खोए हो कि जो अस्तित्वगत कानून है, जिसे कभी ताओ कहा जाता है, कभी रुत कहा जाता है। वो तुम्हारे पल्ले ही नहीं पड़ता। बजाय इसके कि तुम समझो कि ज़मीनी हकीकत क्या है? तुम अपने नियमों और सिद्धांतों के हिसाब से ज़मीन को चलाना चाहते हो। तुम्हारे हिसाब से नहीं चलेगी भाई। तुम कहते रहो कि गधा और घोड़ा बराबर हैं, तुम सौ तरह के खेल रचो, माया रचो, नहीं होगा।
तुम कहते रहो कि परमात्मा आदमी की कल्पनाभर है, चैन नहीं मिलेगा, बजाओ ढपली। चैन नहीं पाओगे। बाँटो पर्चे। चैन नहीं पाओगे। जितनी ढपली बजाओगे, जितने पर्चे बाँटोगे - पाँच साल नहीं तो दस साल बाद, या तो सेक्स, या तो शराब, या राजनीति, या झूठ, या किसी अन्य तरीके का प्रपंच – इन्हीं के शरणागत नज़र आओगे।
क्योंकि किसी-न-किसी की तो शरण लेनी है। हठ पूरा है तुम्हारा अगर कि सच्चाई की शरण नहीं लेनी, तो इन सबकी शरण लेनी पड़ेगी।
न झुकना विकल्प नहीं है। सब बराबर नहीं होते, है कोई तुमसे ऊँचा उसके सामने झुकना पड़ेगा। हाँ, है कोई तुमसे ऊँचा। तुम्हें लगता है बुरा, तो लगे। झुकना पड़ेगा। और अगर उसके सामने नहीं झुकोगे, तो सज़ा ये है कि नीचे वालों के सामने झुकना पड़ेगा।
या तो ऊपर वाले के सामने झुक लो, नहीं तो सज़ा ये मिलेगी कि ऊपर वाला तुम्हें बहुत छोटा लगता था न, कि ये तो बहुत छोटा है इसके सामने कैसे झुकें, तो अब जो वास्तव में छोटे हैं, उनके सामने झुकोगे।
जो बड़े के सामने झुकने से इनकार करता है, उसे सज़ा ये मिलती है कि उसे तमाम तरह के छोटों के सामने झुकना पड़ता है। बड़े के चरण स्पर्श नहीं कर सकते, तो तमाम तरह के छोटों के तलुए चाटने पड़ेंगे। ये ज़िंदगी बन जाएगी तुम्हारी।