क्या स्वार्थी होना बुरी बात है?

Acharya Prashant

13 min
1.9k reads
क्या स्वार्थी होना बुरी बात है?
स्वार्थी होना गलत नहीं है, गलती तब है जब आपको अपना स्वार्थ पता ही न हो। जब मन पर डर और पुराने संस्कारों की धूल होती है, तब साफ़-साफ़ नहीं समझ में आता कि अपना स्वार्थ कहाँ है। इसलिए अध्यात्म चाहिए, जो आपको बताता है कि तुम्हारे लिए अच्छा क्या है। एक बार जब जान जाओगे कि अच्छा क्या है, तब ये परवाह नहीं करोगे कि कीमत क्या देनी पड़ेगी, कौन अच्छा बोलेगा, कौन बुरा बोलेगा? क्योंकि अपने लिए कुछ अच्छा करना बहुत अच्छा काम है। यही जीने का तरीका है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ये मैं अपनी पर्सनल लाइफ़ (निजी ज़िन्दगी) के बारे में पूछना चाह रही हूँ। तीन-चार साल पहले तक मैं ये सोचती रही कि शायद मैं बहुत सच्ची हूँ, मैं बहुत सही हूँ। तीन-चार सालों में ये लगा, पीछे की लाइफ़ (ज़िन्दगी) देखती हूँ, तो कभी पहले ये मैं प्राउड (गौरवान्वित) फ़ील (महसूस) करती थी कि मैं अपने पिता के काम आई, मैं अपने पति के काम आई, मैं फ़लाने के काम आई, ये आई, वो आई।

अब ये लगता है कि मैं किसी के काम नहीं आई, मैंने सिर्फ़ अपना मतलब निकाला। जहाँ मुझे पिता से मोह था तो पिता की टेंशन (तनाव) को दूर करने के लिए झूठों का सहारा लिया, जहाँ पति से मोह हुआ तो वहाँ मैनीपुलेशन (चालाकी से काम निकलवाना) हुआ, जहाँ अभी बेटे से मोह है तो उसकी ज़िन्दगी में भी बहुत मतलब मैनीपुलेशन जैसा ही लगता है।

पहले तेईस में जब शादी हुई, उसके पहले शायद ही कभी झूठ का मुझे नहीं लगता इतना सहारा लिया, पर शादी के बाद और माँ बनने के बाद और जब समाज में जो एक फ़ेक (नकली), मतलब मुझे तकलीफ़ जब आज होती है तो ये लगता है कि शायद पूरी ज़िन्दगी झूठ का आडंबर ओढ़कर ही बिताई। सोचती यही रही कि नहीं सब कुछ सही है, सच्चा है, पर कहीं मुझे सच नज़र नहीं आया। मुझे अपने आप में बहुत स्वार्थ नज़र आता है, और अभी अंदर से एक तकलीफ़ रहने लग गई है कि ये जंजाल जो अंदर है, ये कैसे?

आचार्य प्रशांत: देखिए, जिसको जो सही लगता है वो उसको करने के लिए यथासंभव सब कुछ करेगा। उसको आप रोक नहीं सकते।

ये एक मूल सिद्धांत समझिएगा। अगर आपको कोई चीज़ सही लग रही है — वो चीज़ कुछ भी हो सकती है — तो आप उसी चीज़ की दिशा में, उसी चीज़ के पक्ष में यथाशक्ति सबकुछ करेंगी-ही-करेंगी। आपको नहीं रोका जा सकता। फिर कोई आकर आपको बहुत नैतिकता की घुट्टी पिलाए, मॉरेलिटी (नैतिकता) के लेसंस (पाठ) दे, आप रुकने वाले तो हैं नहीं। क्यों? क्योंकि वो चीज़ ही आपको सही लग रही है।

तो इस बात का पछतावा कि स्वार्थ के लिए किया ये सब, इसका कोई विशेष लाभ नहीं है, क्योंकि आपने वही करा जो आपको सही लगता था।

प्रश्नकर्ता: उस समय सही लगता था।

आचार्य प्रशांत: तो उस समय जो चेतना थी उसने उस समय का कर्म करा न। आज की चेतना से आप उस समय के कर्मों का मूल्यांकन करें, ये कोई लाभप्रद बात नहीं है।

प्रश्नकर्ता: अब जब मेरे बेटे के रिश्ते की बारी आई है, तो मैं वो सब नहीं करना चाह रही। इसलिए मैं हर बार पीछे खिंच जाती हूँ।

आचार्य प्रशांत: आज इस प्रश्न पर आना ज़्यादा फ़ायदेमंद है कि सही क्या है। क्योंकि जो चीज़ आपको सही लगेगी, आप अपना स्वार्थ उसी से जोड़ते हो न। इस बात को समझिए। हम ऐसा सोचते हैं कि मैं स्वार्थी हूँ इसलिए मैं गलत चीज़ कर रहा हूँ। नहीं, ऐसा नहीं है।

स्वार्थी तो हम सब होते हैं।

स्वार्थी तो हम सब होते हैं, और अहम् स्वार्थी हो ये उसके लिए आवश्यक भी है क्योंकि वो कहीं-न-कहीं तकलीफ़ में होता है कि ये है, कमज़ोरी है, खालीपन है, ये सब, बेचैनी है। हम जानते ही हैं कि भीतर का क्या रहता है।

उसके लिए ज़रूरी है कि वो स्वार्थी हो — स्व+अर्थी। उसे पता हो कि भई अपनी देखभाल कैसे करनी है, अपना जो है वास्तविक लाभ, कहाँ निहित है, उसको पता होना चाहिए।

तो इस बात के लिए बिल्कुल भी आपको ग्लानि करने की नहीं ज़रूरत है कि हम स्वार्थी हो गए, मतलबी हो गए। किसी चीज़ पर अगर आपको विचार करना चाहिए तो वो ये है कि क्या हम अपना स्वार्थ समझते भी हैं? इन दोनों बातों का भेद समझिए।

स्वार्थी होना कहाँ से गलत हो गया? मैं अभी बिल्कुल वही कर रहा हूँ जो मेरे स्वार्थ में है, शत-प्रतिशत वही कर रहा हूँ जो मेरे स्वार्थ में है। और प्रार्थना है मेरी कि वही करता रहूँ जो पूर्णतया मेरे स्वार्थ में है, उसमें कोई गलती नहीं है। गलती है आँखों में अगर जाला लगा हो तो, गलती तब है जब आपको अपना स्वार्थ ठीक से पता ही न हो तो।

उदहारण दे रहा हूँ, आपने अपनी बहन के लिए कुछ किया। आपने तो यही सोच के किया न कि आप अच्छा कर रही हैं।

प्रश्नकर्ता: पर आचार्य जी ये पता था कि...

आचार्य प्रशांत: ये नहीं हो सकता कि आपको एक चीज़ पता हो और आप दूसरी चीज़ कर रहे हों। हम कहते ऐसे ही हैं। हम कहते हैं, ‘साहब, फ़लाने की कथनी और करनी में भेद है या फ़लाना जानता है कि सही काम क्या है फिर भी ग़लत काम करता है।’ वास्तव में संभव नहीं है। वास्तव में दुनिया में हर आदमी वही काम करता है जो उसकी नज़र में सही होता है।

आप बहुत सरल तरीके से सोच कर देखिए न। अगर आपको कोई चीज़ पता है कि गलत है, तो आप उसे क्यों करोगे? कहीं-न-कहीं ले-देकर आपने गणित लगाया है कि इस वक्त आपके हित में या स्वार्थ में क्या है, और उस गणित का जो नतीजा आया है वही आपने कर डाला है।

आपको कहाँ भ्रम हो रहा है वो मैं बताए देता हूँ। आपको भ्रम वहाँ से हो रहा है जैसे लोग कहते हैं न कि मैं जानता तो हूँ कि सही क्या है, किन्तु मैं फिर भी कुछ गलत कर रहा हूँ।

नहीं, तुम ये तो जानते हो कि सही क्या है, लेकिन उससे ज़्यादा तुम ये भी जानते हो कि जो सही है वो करने में कीमत क्या चुकानी पड़ेगी। उसका नाम नहीं ले रहे, वो कीमत चुकाने को तैयार नहीं हो रहे। या जो कीमत चुकानी है उसका ठीक से मूल्यांकन नहीं किया है।

ऐसा लग रहा है कि जो सही काम है वो करने में लाभ हो रहा है मान लो सौ का, और उसकी जो कीमत चुकानी पड़ रही है वो मान लो चुकानी पड़ रही है डेढ़-सौ की तो जो अंदरूनी गणित चला, उसने क्या नतीजा दिया? वो जो सही काम है वो मत करो। तो ठीक किया।

भाई, अगर वो काम करके पचास का नुकसान हो रहा था आंतरिक तौर पर, तो वो काम क्यों करते? गलती ये नहीं थी कि आपने गणित लगाया — गणित लगाना स्वार्थ होता है — गलती ये नहीं है कि आप स्वार्थी हैं और गणित लगा रहे हैं; गलती ये है कि आपने जो ये सौ और डेढ़-सौ का आँकड़ा लिया है न, ये आँकड़ा गलत था। लाभ हो रहा था दस-हज़ार का, और कीमत थी डेढ़-सौ की या पाँच-सौ की। आप ठीक से उनका मूल्यांकन नहीं कर पाए। वैल्यूएशन (मूल्यांकन) में गलती हो गई।

ये मत कहिए कि मैं अपनी बहन के लिए कुछ अच्छा करना चाहती थी, या अपने पिता के लिए कुछ अच्छा करना चाहती थी, या अपने लिए कुछ अच्छा करना चाहती थी, और ये मैंने बड़ी गलती कर दी। ये बहुत अच्छा काम है अपने लिए कुछ अच्छा करना, भाई। इसके लिए आप क्यों पछताएँ?

अपने लिए अच्छा करना बुरा काम कब से हो गया? लेकिन लोगों की हालत तो बहुत बुरी है। हर आदमी यही कहता है कि मैं स्वार्थी हूँ, या दूसरे स्वार्थी हैं। ओह, पीपल आर सेल्फ़िश, पीपल आर सेल्फ़िश (अरे, लोग स्वार्थी होते हैं, लोग स्वार्थी होते हैं)।

इतने लोग कह रहे हैं, पीपल आर सेल्फ़िश, इतने लोग कह रहे हैं कि सब स्वार्थी हैं, तो शायद सब स्वार्थी होंगे भी। अगर सब स्वार्थी हैं, तो फिर तो सबको खुश होना चाहिए, क्योंकि सब स्वार्थ दिखाकर क्या होना चाहते हैं? खुश ही तो होना चाहते हैं पर कोई मिल रहा है आपको? मिल रहा है?

दुनिया की तो हालत गोल है, शकल उतरी हुई है पूरी। स्वार्थी सभी हैं। अगर स्वार्थी हो, तुम्हें अपना सेल्फ-इंटरेस्ट (स्वार्थ) पता है, तो तुम्हारे चेहरे पर बारह क्यों बजे हुए हैं? गलत पूछ रहा हूँ सवाल, गलत पूछ रहा हूँ? अगर आप वाकई स्वार्थी हैं, तो मुझे बताइए न, आपकी हालत इतनी खराब क्यों है?

स्वार्थी होने का मतलब तो यही होता है न, ’आई टेक केयर ऑफ़ माई सेल्फ़-इंटरेस्ट, आई पुट माई इंटरेस्ट फ़र्स्ट (मैं अपने स्वार्थ का खयाल रखता हूँ, मैं अपने फ़ायदे को सबसे पहले रखता हूँ)।

प्रश्नकर्ता: पर वो झूठ के सहारे।

आचार्य प्रशांत: अरे, झूठ हो सच हो, इसका मतलब ये है कि आप अपना स्वार्थ नहीं जानते, आप नहीं जानते कि कौन-सा काम आपके लिए सही है। अगर आप वाकई जानती होतीं कि आपके लिए या आपकी बहन के लिए क्या अच्छा है, तो आप कुछ और करतीं। मैं ये नहीं कह रहा हूँ वो करिए जो आपके लिए बुरा है; मैं बस ये कह रहा हूँ कि आप जो सोच रहे हैं कि आपके लिए अच्छा है वो आपके लिए अच्छा नहीं है। ये दो बहुत अलग-अलग बातें हैं।

जब आप नैतिकता की दृष्टि से देखती हैं न, तो अक्सर ऐसा लगता है कि काम तो मेरे लिए यही अच्छा है, लेकिन ये ज़रा अनैतिक है, इम्मॉरल है, तो मैं ये वाला काम करूँगी। ये टिकेगा नहीं मामला क्योंकि अगर आपको लग यही रहा है कि ज़्यादा मज़ा उधर है, ज़्यादा लाभ उधर है, और सिर्फ़ नैतिकता के कारण आप कोई दूसरा काम करना चाहती हैं, तो ये दूसरा काम आप बहुत देर तक कर नहीं पाएँगी।

अध्यात्म ये नहीं कहता कि बुरा काम मत करो, अच्छा काम करो। साफ़ समझिएगा। ये सब किस्से नैतिकता के हैं, मॉरेलिटी के हैं। अध्यात्म में ये सब नहीं चलता कि बुरा-बुरा थू, अच्छा-अच्छा गप। न।

अध्यात्म में दूसरी चीज़ चलती है, अध्यात्म में बोध चलता है। क्या? बोध। बोध माने रियलाइज़ेशन। तुम समझो तो कि तुम्हारे लिए अच्छा क्या है, तुम जानते ही नहीं तुम्हारे लिए अच्छा क्या है। एक बार जान जाओ तुम्हारे लिए अच्छा क्या है, उसके बाद परवाह मत करो कि क्या कीमत देनी पड़ेगी, कौन अच्छा बोलेगा, कौन बुरा बोलेगा, चोट लगेगी कि नहीं लगेगी। क्योंकि जान गए न यही सही है मेरे लिए, इसी में है मामला, यही करना है अब उसके बाद फिर अथक और अटूट ऊर्जा जानी चाहिए, संकल्प होना चाहिए।

रिलेंटलेस परसूट ऑफ़ एनलाइटेंड सेल्फ-इंटरेस्ट (प्रबुद्ध स्वार्थ का अथक अनुसरण), ये है जीने का तरीका। समझ में आ रही है बात?

मैं फ़ालतू में इसमें ’एनलाइटेंड’ (प्रबुद्ध) शब्द लेकर आ रहा हूँ — ये तो शब्द सुनकर ऐसे ही मुझे खुजली हो जाती है। लेकिन फिर भी लाना पड़ रहा है, क्यों? क्योंकि जो साधारणतया हम सेल्फ़-इंटरेस्ट से मतलब लेते हैं, वो बहुत क्षुद्र होता है न। हम जब कहते हैं सेल्फ़-इंटरेस्ट, तो उससे हमारा आशय हो जाता है क्षुद्र स्वार्थ। तो इसलिए मुझे उसके साथ एक ये पुछल्ला जोड़ना पड़ रहा है, विशेषण, एनलाइटेंड सेल्फ़-इंटरेस्ट (प्रबुद्ध स्वार्थ)। वरना सेल्फ़-इंटरेस्ट अपने आप में काफ़ी है। समझ में आ रही है बात?

एक बार समझ में आ गया कि कहाँ आपका वास्तविक स्वार्थ है, 'सेल्फ़-इंटरेस्ट' है, उसके बाद लाठी लेकर पीछे पड़ जाइए उसके। कहिए कि अब तो छोड़ना ही नहीं है इसको, 'रेलेंटलेस परसूट' (अथक अनुसरण)।

प्रश्नकर्ता: अभी थोड़ा-थोड़ा ये चीज़ समझ में आने लगी है। तभी वो सब पीछे का सिस्टम समझ में आया कि कहाँ मेरा वो इंटरेस्ट (स्वार्थ) नहीं था।

आचार्य प्रशांत: डर रहा होगा कुछ और रहा होगा। देखिए जब दिमाग पर डर वगैरह का कोहरा होता है न, या पुराने संस्कारों की धूल होती है तो साफ़-साफ़ नहीं समझ में आता कि अपना सेल्फ़-इंटरेस्ट कहाँ है। फिर आदमी आत्मघाती कदम उठा लेता है।

गौर करिए इस पर कि अभी आपके लिए, या आपके बेटे के लिए वास्तव में क्या सही है। और एक बार समझ में आने लग जाए क्या सही है, फिर उससे डिगिएगा नहीं। जब आ गई बात समझ में तो फिर डिगने का क्या सवाल है? और अगर वाकई बात समझ में आ रही है तो उस पर अडिग रहना बहुत आसान हो जाता है, अगर वाकई आ रही है समझ में। अगर कहें कि बात समझ में आ रही है फिर भी डगमग-डगमग है तो जान लीजिएगा कि समझ में ही नहीं आई है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक चीज़ से जो हल्का सा डर लगता है, वो इस बात का कि बेटा सब बातें सुनता है। क्योंकि माँ-बाप की बात उसके समझ में भी आती है थोड़ी और करते-करते वक्त निकल जाए, और शादी क्योंकि जिस हिसाब से मान लो नहीं हो पाई तो लगता है कल को बोलेगा, ‘इस बुढ़िया की वजह से मेरी शादी नहीं हो पाई।’

आचार्य प्रशांत: मैं ऐसा सोचने लगूँ, तो लाखों ऐसे लोग है जो कहेंगे, ‘इस बुड्ढे की वजह से मेरी शादी नहीं हो पाई।’ आपको तो एक आपका बेटा बोलेगा, मुझे गरियाने वाले तो कितने लाख लोग होंगे जो कहेंगे कि इसी की वजह से हमारा…।

अगर आप सही कर रहे हैं तो फिर ये सोचने कि क्या ज़रूरत है कि परिणाम क्या आएगा, क्या नहीं आएगा? और आपको अगर भविष्य का सोचना ही है, तो पूछिए आप अपने आप से कि आप यही क्यों सोचती हैं कि बेटा गाली देगा कि बुढ़िया की वजह से शादी नहीं हुई? आप ये क्यों नहीं सोचती हैं कि बेटा बिल्कुल अहोभाव में रहेगा कि ऐसी माँ मिली जिसने मुझे इतनी व्यर्थ चीज़ से बचा दिया, ये विचार क्यों नहीं आ रहा?

प्रश्नकर्ता: ये भी आता है, पर वो भी आता है।

आचार्य प्रशांत: हाँ तो आप स्पष्ट कर लीजिए न कि मामला असली क्या है। जब ये दो हों सामने, तो दोनों से बातचीत करिए कि असलियत कहाँ है, ज़्यादा सही क्या है। और ज़्यादा सही क्या है उसका निर्णय लेना कोई कल ज़रूरी नहीं है वक्त दीजिए अपने आप को।

जिसे क्लैरिटी (स्पष्टता) हम बोलते हैं, वो ऐसे रातों-रात अचानक से नहीं चमक पड़ती। धुॅंध छटने में वक्त लगता है। बेटा अभी अठाईस का हो गया है, अड़तीस का थोड़े ही हो गया है उसको वक्त दीजिए। ज़िन्दगी को देखे, समझे, उसके अनुसार फिर वो अपना कदम उठाएगा। देखकर, समझकर अगर वो निर्णय लेता है कि उसे विवाह करना है, तो अच्छी बात है, करे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories