प्रश्नकर्ता: नमन, आचार्य जी। जीवन में अजीब-सा अधूरापन रहता है। लगता है कुछ कमी है लेकिन जीवन की भागादौड़ी और परिवार में इतना उलझे हुए हैं कि समय ही नहीं मिल पा रहा ईश्वर की आराधना के लिए। इस तरह निरंतर जीवन खर्च होता जा रहा है, समाधान क्या है? सब कुछ छोड़ भी नहीं सकते और इसको बिना छोड़े कुछ और पकड़ भी नहीं पाते। कृपया मार्ग दिखाने की कृपा करें। धन्यवाद।
आचार्य प्रशांत: अपनी ताकत में इज़ाफा करना पड़ेगा। अगर कह रहे हो कि अभी ऐसी हालत नहीं है कि जो पकड़ रखा है, उसको छोड़ सको और यह भी कह रहे हो कि कुछ और उठाना आवश्यक है तो तुम्हारी ही दोनों बातों को मिलाकर मैं कहता हूँ कि तुम्हें दोनों को उठाना पड़ेगा। जो पकड़ रखा है उसको उठाना पड़ेगा क्योंकि तुम बेबस हो, छोड़ तो पा नहीं रहे। और यह उत्तर मेरा उन सभी लोगों के लिए है, यहाँ बैठे हुए भी और वह सब भी जो ऑनलाइन देख सुन रहे हैं। जो कहते हैं कि कहा भी न जाए, रहा भी न जाए, पकड़ा भी न जाए, छोड़ा भी न जाए और निगला भी न जाए, उगला भी न जाए। मामला गले में फँस गया है। पारिवारिक, सांसारिक, सामाजिक बंधन हैं। आचार्य जी, आप कितना भी समझा लो कि आसक्ति मात्र है, बच्चा! मोह माया है; हमसे तो अब इस जन्म में छूटने से रहा। और साथ-ही-साथ यह भी पक्की बात है कि हृदय में वेदना उठती है, मन में बैचेनी है। ईश्वर भी चाहिए, सत्य भी चाहिए तो आप बताओ रास्ता क्या है। यह है न खूब प्रचलित सवाल? साझा है सबका। है न?
श्रोतागण: जी, बिलकुल।
आचार्य: सभी यही कहते हैं। कि अब कितना भी साफ़-साफ़ दिख जाए कि बोझ ही उठा रखा है पर अब इस बोझ से नेह लग गया तो लग गया, अब क्या बताएँ। हाड़-माँस का ही शरीर है, अब वृत्तियां हैं तो हैं, अब किसी से आसक्ति है तो है, ऐसे तो नहीं छोड़ सकते। भाई, आचार्य जी कह भी नहीं रहे कि छोड़ दो। यह अनर्थ कर भी मत देना। मैंने किसी से नहीं कहा कि घर छोड़-छाड़ कर के भाग निकलो, बल्कि जो भागे हुए हैं उनको घर वापस लौटाया है बहुत बार। और तुम्हारी दूसरी माँग यह है कि यह सब जो हमारा गोरख धंधा चल रहा है, इसके साथ-साथ हमें वह (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) भी चाहिए।
श्रोतागण: भगवान भी चाहिए, ईश्वर भी चाहिए।
आचार्य: वह भी चाहिए, वह भी चाहिए।
(सभी हँसते हैं)
तो मैं यह भी कहा करता हूँ कि जब यही चलाना है तो उसी को छोड़ दो। तो तुम कहते हो, ‘नहीं, वह भी चाहिए।’ मैं कहता हूँ, ‘यह नीचे वाला मामला (नीचे की और इशारा करते हुए), यह कुछ कम हो सकता है?’ कहते हो, ‘नहीं, यह तो जितना फैला दिया तो फैला ही दिया, अब यह पसर गया, अब यह नहीं कम होगा।’ कहता हूँ, ‘जब इसी में तुम्हारा इतना मन लगा है तो उसको (ऊपर की और इशरा करते हुए) भूल क्यों नहीं जाते? वह कौन-सा बड़ा ज़रूरी है? करोड़ों-अरबों हुए जिन्होंने कभी उसका नाम भी नहीं लिया, वह आराम से जी गए, मर गए। तुम्हें क्या फ़िक्र पड़ी है कि तुम्हें ऊपर वाले का ही नाम लेना है? छोड़ दो ऊपर वाले को। रब अपनी खुद देख लेगा। तुम्हारी उसे थोड़े ही ज़रूरत है।’ कहते हो, ‘नहीं, आप ही के पाँच-सात विडियोज़ देख लिए और आपने कहा है कि उसको नहीं पाया तो गुज़ारा नहीं।’ मैं कहता हूँ, ‘मैंने झूठ बोला था। उसके बिना भी गुज़ारा चल जाएगा, बिलकुल भूल जाओ उसको।’
(सभी हँसते हैं)
तो कहते हो, ‘नहीं, बात हमें समझ में आ गई है, उसके बिना गुज़ारा नहीं चलेगा। तो हमें दोनों चाहिए।‘ तो अब जब तुम्हारी ही ज़िद है कि दोनों चाहिए तो दोनों को उठाने लायक कंधे भी बनाओ। और कोई तरीका नहीं है। पहले तो तुम्हारी माँग असंभव है। चलो मान ली तुम्हारी माँग। तुम कह रहे हो सब काम, क्रोध, तृष्णा, लोभ, मोह, मात्सर्य ले करके चलना है और साथ-ही-साथ मुक्ति भी चाहिए। चलो ठीक है। तुम इतनी ज़िद करते हो तो ठीक है। लेकिन तुम यह भी कह रहे हो कि दोनों में से एक ही उठा सकते हैं। देखो न (प्रश्नकर्ता के पत्र के और इशारा करते हुए) कि सब कुछ छोड़ भी नहीं सकते और बिना छोड़े कुछ पकड़ नहीं पाते। नहीं, तो फिर यह नहीं चलेगा। कहीं तो तुमको थोड़ी रियायत करनी पड़ेगी न? अगर दोनों चाहिए तो दोनों को उठाने लायक ताकत भी तुम्हें ही पैदा करनी होगी। अब उठाओ दोनों को।
यह मत बोलो कि हमारे बारह-चौदह घंटे तो काम-धंधे और घर-परिवार में ही लग जाते हैं तो कहाँ से करें सत्संग और कैसे पढ़ें ग्रंथ को और कब भजन करें, कब ध्यान करें। अब यह बात नहीं कर सकते तुम। अब तुम्हें समय चुराना पड़ेगा। अब समय चुराओ, निकालो। जब तुमने यह ज़िद पकड़ ही ली है कि दोनों को साथ ले कर चलना है तो अब भुगतो। निकालो समय। जीवन में अनुशासन लाओ। भाई, फक्कड़ फकीर को कोई अनुशासन नहीं चाहिए क्योंकि उसके पास सिर्फ़ रब है। उसको और कोई ज़िम्मेदारी नहीं पूरी करनी। तो उसको किसी अनुशासन की भी ज़रूरत नहीं है। उसका अनुशासन परमात्मा ही होता है, उसे और कोई अनुशासन चाहिए नहीं।
पर गृहस्थ अगर कहे उसे गृहस्थी भी रखनी है और मोक्ष भी चाहिए तो उसको बड़े कड़े अनुशासन की ज़रूरत है क्योंकि गृहस्थी समय खूब खींचेगी। दुकान, घर, व्यापार समय खूब खींचेंगे। इसके साथ-साथ अब तुम्हें साधना करनी है। तो साधना के लिए समय अब तुम्हें इन्हीं चीज़ों से निकलना पड़ेगा। साथ-ही-साथ तुम घर-गृहस्थी और व्यापार का नुक़सान भी नहीं कर सकते। तो काम तुम्हें उतना ही करना पड़ेगा लेकिन पहले जो काम तुम सात घंटे में करते थे, अब तुम्हें पाँच घंटे में करना होगा। एक-एक क्षण को तवज्जो देनी होगी ताकि वह जो तीन घंटे निकले हैं, जो तीन घंटे निकले हैं वह तुम उसको (ऊपर की ओर इशारा) अर्पित कर सको।
मैं अभी भी कह रहा हूँ कि यह दोनों को साथ लेकर के चलने की कोशिश बड़ी नासमझी की कोशिश है। पर चलो कोई बात नहीं, ठीक, उसके दरबार में सब कुबूल हो जाता है। तुम्हारी यह कोशिश भी कुबूल हो जाएगी। तुम दोनों को साथ लेकर चल लो। लेकिन फिर तुम्हें अनुशासन चाहिए, समय चाहिए। यह नहीं कह सकते कि मुक्ति भी चाहिए और उसको हम पंद्रह मिनट भी देने को तैयार नहीं है, यह नहीं चलेगा। फिर छुट्टी निकालना सीखो। और छुट्टी माने यह नहीं है कि मैं कह रहा हूँ काम का घाटा कर लिया है, ज़िम्मेदारियाँ घर की छोड़ दीं। मैं कह रहा हूँ उतना ही काम कम समय में करो जिसको कहते हैं एफिशिएंसी (कार्यक्षमता)। बढ़ाओ न फिर। और वह ऐसे ही बढ़ेगी कि अगर समय निकाला नहीं तो साधना हो नहीं पाएगी। साधना समय तो माँगती है।
वह (ऊपर की ओर इशारा) कालातीत होगा, वह अकाल मूरत होगा। लेकिन उस तक पहुँचने के लिए काल की आवश्यकता पड़ती है न। तो काल तो चाहिए, समय तो चाहिए। चाहिए न? निकालो। फिर जितना तुम कटौती कर सकते हो अपने व्यर्थ के कामों में, करो।
तुम यही तो कहते हो कि घर को रोटी देनी है तो रोटी देने के लिए अगर समय लगा रहे हो, वाजिब है। पर तुम इधर-उधर व्यर्थ घुमक्कड़ी करने में, आवारागर्दी करने में, व्यर्थ चर्चा और गॉसिप (चुगली) करने में समय लगा रहे हो, वह समय तो काट सकते हो न? तो उस समय को काटो। उस समय का तो रोटी से कोई संबंध नहीं? बताओ। कि है? दफ़्तर में छह घंटे करते हो काम और उसके बाद दो घंटे बैठ कर के यारों से करते हो गपशप। काम के तुम्हें पैसे मिलते हैं। वह पैसे तुम्हें चाहिए। बात समझ में आयी कि वह पैसे तुम्हारे लिए बहुत ज़रूरी है, उससे तुम्हारा घर चलता है। लेकिन वह जो दो घंटे बेकार के गपशप करते हो वह तो ज़रूरी नहीं है न? उसको काटो। उसको काटो और वह समय लगाओ, अध्यात्म में लगाओ। अब यही तरीका है। यह जो अनुशासन है, यह तुम्हारी आध्यात्मिक माँसपेशियाँ मजबूत कर देगा। यह एक तरह की अंदरूनी वर्जिश है। इससे तुम मज़बूत बनके खड़े होगे। यह आत्मा का प्राकट्य है। क्योंकि बल सब आत्मा का ही होता है।
प्र२: एक कबीर साहब का एक श्लोक याद आ गया।
"कबीर कहूँ सो राम, सुनूँ सो सुमिरन, खाऊँ पियूँ सो पूजा । गृह उजाड़ एक सम देखो, भाव न कोई दूजा ।।" ~ संत कबीर
आदमी जब काम कर रहा है, वह काम भी तो सुमिरन-ध्यान है न?
आचार्य: हाँ, वह काम सुमिरन-ध्यान बन सकता है। पर बात यह है कि ज़्यादातर जो दुनियावी काम हैं वह बने ही राम विपरीत आधार पर हैं। तो फिर वह काम करते हुए सुमिरन कर पाना बड़ी टेढ़ी खीर है। तुम कोई ऐसा काम कर रहे हो जिसमें बेचना बहुत ज़रूरी है और तुम्हारे सर पर तलवार लटक रही है कि इतना ज़रूर बेचना हर माह और उतना नहीं बेचोगे तो मार खाओगे, तनख़्वाह भी कटेगी। अब तुमको पता है कि घर चलाने के लिए उतना बेचना ज़रूरी है। घर चलाने को तुमने बड़ी ज़िम्मेदारी माना है तो अब बेचना भी तुम्हारे लिए बहुत आवश्यक हुआ न? तो अब तुम कुछ भी छल-बल करके बेचोगे ही। अब छल भी कर रहे हो ग्राहक के साथ और कहो कि उसी वक्त हम सुमिरन भी कर लेंगे तो यह सुमिरन मेरी दृष्टि में तो बड़ा मुश्किल है। कैसे तुम किसी को ठगते हुए सुमिरन भी कर लोगे? और बड़े खेद की बात है अस्सी, नब्बे, पिच्यानवे प्रतिशत काम दुनिया में ऐसे ही हैं जिसमें किसी-न-किसी को चूना तो लगाना पड़ता है।
प्र३: आचार्य जी, साधना माने क्या?
आचार्य: जो आपकी वास्तविक बेड़ियाँ हैं उनको काटने का नाम साधना है। आपकी साधना यही थी कि आपने शराब से मुक्ति पाई। वह साधना हुई। अब वह साधना कहीं किसी शास्त्र में नहीं मिलेगी लेकिन वही साधना है।
जो सधा हुआ न हो, जो बिगड़ैल हो, जो चंचल हो, जो ऊटपटाँग उल्टी चाल चलता हो उसी को साध लेने का नाम है साधना।
साधना समझते हो न? कि किसी ने कोई कला साध ली, किसी ने कोई विद्या साध ली। कभी-कभी कहते हैं कि यह जो जानवर है, यह सधा हुआ नहीं है।
श्रोतागण: जैसे घोड़ा।
आचार्य: जैसे घोड़ा साध लिया। तो भीतर हमारे जो पशु बैठा है, हमारी जो सारी पाशविक वृत्तियां हैं वह कैसी हैं? वह सधी हुई नहीं हैं। वह तिरछी-तिरछी, दुलकी-दुलकी चलती हैं। कुछ भी। रैंडम (सहसा उत्पन्न) कह सकते हो या यह भी कह सकते हो वह अधर्म की ही दिशा चलती हैं। साधने का मतलब है कि उन सब को संयमित करके अब धर्म की दिशा मोड़ दिया यही, साधना है। साधना करते समय यह पूरा ख़याल रहे कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जो बिगड़ैल है और चंचल है वह तो वहाँ (दूर के ओर इशारा करते हुए) बैठा है और साध हम यहाँ (पास के ओर इशारा करते हुए) रहे हैं। साध किसको रहे हो फिर?
साधने का मतलब फिर समझ लो हुआ कुश्ती कि जो अनुशासन में आने को तैयार नहीं है, जो असाध्य हो रहा है, जो अनुशासन मानने को तैयार नहीं हैं, जो सिद्धि में आने को तैयार नहीं है उसके साथ तुमने लड़ी कुश्ती और उसको साध लिया, कि अब तू सही-सही चल। तू जैसा बहका-बहका चलता था, दिशाहीन, बुद्धिहीन, धर्महीन, यह नहीं चलेगा।
तो अपनी दोषों से लड़ना साधना हुई, अपने डर से लड़ना साधना हुई। अपनी वृत्तियों से लड़ना, यह साधना हुई। तो साधना करने के लिए सबसे पहले क्या ज़रूरी है? यह पता तो हो कि मेरा दोष है क्या।
प्र४: जब हम अपनी तरफ़ से तो सही कर रहे हैं। हम कह रहे हैं कि हमने साध लिया, हमें पता है कि हम किसी का बुरा नहीं कर रहें, कुछ गलत नहीं कर रहे किसी के साथ, हेल्पफुल (लाभदायक) हैं। उसके बावजूद क्यों ऐसा होता है?
आचार्य: देखो उसके आगे की जो यात्रा होती है न, वह साफ़-साफ़ यह देखने की यात्रा होती है कि इंसान के लिए क्या ज़रूरी है? जैसे-जैसे यह स्पष्ट होता जाएगा कि वह (ऊपर के और इशारा करते हुए) ज़्यादा ज़रूरी है, उसके सामने यह (नीचे की और इशारा करते हुए) कम ज़रूरी है, वह ज़्यादा ज़रूरी है उसके सामने यह कम ज़रूरी है, वैसे-वैसे तुम अपना समय उसको ज़्यादा, और ज़्यादा, और-और ज़्यादा देते जाओगे और इसको जो समय देते हो, वह कम, कम, और कम करते जाओगे। लेकिन यह जो समय का विभाजन है, यह जो मूल्यों की वरीयता है, यह बदलेगी तभी जब पहले तुम्हें दिखाई दे कि ज़रूरी क्या है। जब तक यही सब कुछ बहुत ज़रूरी लग रहा है तब तक तो मुश्किल से पंद्रह मिनट ही दे पाओगे उसको।
प्र५: एक बात तो यह है कि पंद्रह मिनट बैठने की आवश्यकता ही नहीं है अगर पूरा दिन ही उसके सुमिरन में या जो भी आप काम कर रहे हो उसको ध्यान में रखते हुए करें और यह बात समझ में आ गई बिलकुल ठीक से। दूसरी बात आपने कही कि अगर ऑफिस में छह घंटे लगा रहे हो और दो घंटे आपके पास बचे हैं तो उसको सुमिरन में लगा दो, तो उस दो घंटे में क्या करें?
आचार्य: उस दो घंटे में देखो कि दिन कैसा बिताया। देखो कि जो लोग तुम्हें कुछ समझाना चाहते थे, वह क्या बात बोल गए हैं। बहुत सारी चीज़ें ऐसी होंगी जो तुम्हारी नज़र में नहीं आ रही होंगी पर दूसरों ने देखी हुई है और वह तुमसे प्रेम करते हैं, उनका स्नेह है तुम पर तो वह समझाना चाहते हैं। गुरुओं की वाणी है, उसको पढ़ो। जब उसको पढ़ोगे, अगले दिन दफ़्तर जाओगे तो वह जो छ: घंटे दे रहे हो, उस छ: घंटे में और ज़्यादा सतर्क रहोगे।
बात बहुत सीधी है। जिन्हें मुक्ति से प्यार हो जाता है, उन्हें फिर मुक्ति के ग्रंथों से प्यार हो जाता है। वह बार-बार लौट के जाते हैं। इतना सारा आध्यात्मिक साहित्य है, वह उसी में लोटपोट होते हैं। इतने गीत हैं, उन गीतों को बार-बार सुनते हैं। इतने पाठ हैं, उनको सुनते हैं। इतने प्रवचन हैं, उनको भी सुनते हैं। आध्यात्मिक जगहें हैं, उनमें जाते हैं। समझना चाहते हैं कि मंदिर क्या हैं, मंदिरों के इतिहास क्या है। इन सब में रुचि जग जाती है। तो उस दो घंटे में करने के लिए बहुत कुछ मिल जाता है।
तुम फिर जानना चाहोगे कि यह मथुरा-वृंदावन की बात क्या है। फिर तुम समझना चाहोगे कि बुद्ध में वैराग्य कहाँ से उठा था। क्या लिखा है लोगों ने इस बारे में। इस पर ही अगर गूगल करने लगोगे तो काफ़ी समय लग जाएगा न? फिर तुम समझना चाहोगे कि चाहे स्वर्ण मंदिर हो, चाहे हरमंदिर साहब हों, इनके पीछे का इतिहास क्या है, प्रेरणा क्या थी। और यह सब बातें पढ़ने में रोचक भी हैं, ज्ञानवर्धक भी हैं और मन को शुद्ध भी करती हैं।
तो ऐसा नहीं है कि वह दो घंटे क्या करना है, यह तुम्हें इधर-उधर पूछना पड़ेगा या सामग्री की तुम्हें कमी पड़ जाएगी। सामग्री इतनी है, इतनी है कि तुम उसका उपयोग जीवन भर भी करते रहो तो वह चुकने नहीं वाली। बल्कि एक मुकाम तो ऐसा आता है जब तुम सामग्री पढ़ते-पढ़ते, पढ़ते-पढ़ते स्वयं ही सामग्री का सृजन भी करने लगते हो। बुल्लेशाह के गीत पढ़ते-पढ़ते-पढ़ते एक दिन तुम्हें पता भी नहीं चलता, तुम्हारी ज़बान भी कुछ गुनगुनाने लगती है, उसमे कुछ मौलिकता होती है। तुम्हें पता चलता है कि तुम भी संतकवि हो गए। चलो संत नहीं भी हुए तो कम-से-कम कवि हो गए। तो इस तरीके से गाड़ी आगे बढ़ती है, खेल अपने निष्कर्ष तक पहुँचता है।