इंसान हो तो ज़िंदगी से जूझकर दिखाओ

Acharya Prashant

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इंसान हो तो ज़िंदगी से जूझकर दिखाओ
दुनियादारी सीखो, भाई! और मुझसे अगर प्रेम है या कोई नाता है, इज्जत है, तो मेरी अभी स्थिति क्या है, वो समझो। प्रेम अगर है, तो प्रेम यह देखता है ना कि सामने वाला क्या चाहता है, उसकी क्या जरूरत है? प्रेम आत्म-केंद्रित थोड़ी हो जाएगा कि "मैं अपने तरीके से!" अपने तरीके से है, तो फिर प्रेम नहीं है, स्वार्थ है ना! यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। आचार्य जी, मैंने सुना है कि 20 साल पहले आपने अपने आईएम अहमदाबाद एमबीए के जस्ट बाद एक एक्सेल शीट बनाई थी, शायद अ जर्नी टू अ फ्री मैन के नाम से। उस शीट में शायद कुछ आपकी प्लानिंग थी कि आप कितनी जल्दी अपने लोन सेटल करके फ्री होना चाहते थे। तो मतलब आप तो स्पिरिचुअल इंसान हैं, तो स्पिरिचुअल जर्नी में फाइनेंशियल प्लानिंग और दुनियादारी के कैलकुलेशंस का क्या रोल होता है?

आचार्य प्रशांत: उस शीट का नाम था ‘फ्री मैन इन मार्च’, अ जर्नी टू अ फ्री मैन नहीं था। बहुत पुरानी एक्सेल थी, वो सेव करके अभी भी रखी हुई है। मेरी वो शीट बनी हुई थी कि मुझे कितनी जल्दी और किस तरीके से अपना कर्जा पटाना है।

आप लोग क्या सोचते हो? हर चीज़ का जवाब बस यही है—"अपने माही टटोल।"

वो शीट बनी हुई थी फ्री मैन इन मार्च, क्योंकि मैं जल्दी से जल्दी अपनी कॉर्पोरेट जॉब छोड़ना चाहता था। तो उसमें मैं अपने छोटे से छोटे खर्चे का हिसाब रखता था। एजुकेशन लोन था और कुछ मैंने कर्जे ले रखे थे, वो मुझे सब खत्म करने थे जल्दी से जल्दी।

अब वो मैंने जल्दी नहीं खत्म किए होते, तो यह संस्था नहीं बनी होती। आपको मालूम है, लोगों के एजुकेशन लोन 20-20 साल चलते हैं, हाउस लोन की तरह आजकल। हमने सब ढाई-तीन साल में निपटा दिया।

छवि बनाई है आप लोगों ने! सुनिए, आप लोगों ने छवि बना ली है अध्यात्म की—कि अध्यात्म का तो मतलब होता है एक बंद कमरा, एक सुनसान जगह, और एक ऐसा आदमी जिसे दुनियादारी की कोई तमीज़ नहीं है। जिसेको कह दो कि "जाओ, दुनिया में कुछ करके दिखाओ," तो उसकी टांगे कांपने लगती हैं या वो बोल देता है कि "नहीं-नहीं, हमें तो कोई जरूरत नहीं है, हमारी कोई रुचि नहीं है!"

आप मेरी शीट के बारे में पूछ रहे हैं, तो मैं आपको यह भी बता दूं कि मैं दुनिया में भी बहुत सारे तरीकों से अग्रणी रहा हूं, विजेता रहा हूं। और मैं यहां बस किन्हीं प्रवेश परीक्षाओं की बात नहीं कर रहा हूं।

बैंक से लोन लिया, तो जितनी अवधि का लोन था, उससे बहुत पहले मैंने उसे चुका दिया।

आपने कभी बाइक में ₹10 का पेट्रोल डलाया है? कुछ महीनों का एक अंतराल था जब मैं ₹10 का पेट्रोल डलाता था। और यह तब है जब मेरे पास एक अच्छी कॉर्पोरेट जॉब थी, आई.आई.एम के बाद।

मैं एक-एक रुपया रोक रहा था…, मेरे कुछ दोस्तों ने एक स्टार्टअप शुरू किया था। मैं दिन में जीई में काम करता था जेनरल इलेक्ट्रिक और 6-7 बजे वहां से फ्री होकर चला जाता था वो जो स्टार्टअप थी, मैं उसमें काम करता था और वो काम चलता था रात में 1-2 बजे तक। उसके लिए मैं दिल्ली जाता था, जॉब मेरी गुड़गांव में थी। बाइक से जाता था और वहां से काम खत्म करके रात में 2 बजे मैं वापस गुड़गांव आता था और बिना जूते उतारे मैं लेट जाता था। जूते छोटी थी मेरी—एक आप चारपाई बोल लीजिए। वो थी उसमें जूते बाहर लटक रहे होते थे, पांव ऐसे ही। मैं वैसे ही उठता था, ऑफिस चला जाता था। ऑफिस सुशांत लोक में मेरा फ्लैट था, वहां से मुश्किल से 10 मिनट की दूरी पे था। वहां चला जाता था।

एक घंटे का लंच ब्रेक होता था, उसमें वापस आ जाता था, आधे घंटे फिर नींद पूरी कर लेता था। फिर वापस चला जाता था। पांच-छह घंटे की नींद रात में, आधे घंटे के बीच में दोपहर में। वीकेंड पर काम न करना पड़े, इसीलिए वीकडे पर ही मैं और ज्यादा काम करके निपटा देता था। उसमें एक और मेरा स्वार्थ रहता था—अगर 8-9 बजे तक काम करके निपटा दो, तो 8:00 बजे वहां नीचे कैंटीन में खाना मिलना शुरू हो जाता था। वहीं खाना भी खा लेता था। वो खाना मुफ्त होता था। वहां से बाइक उठाकर दिल्ली, वहां काम किया, वहां से फिर वापस।

और वीकेंड्स पर क्या करता था? सैटरडे-संडे? यह तो वीकडेज़ की बात हो गई। तो वो, जिसको आप लोगों ने एचआईडीपी के रूप में जाना, मैं जाकर के उसके ट्रायल्स और टेस्टिंग करता था। कॉलेजेस में पढ़ाता था। और पूरे हफ्ते का कोर्स, क्योंकि मैं दो ही दिन में पढ़ाता था, तो एक दिन में 6 घंटे, 8 घंटे पढ़ाया करता था।

यह था "फ्री मैन इन मार्च।" "फ्री मैन इन अ पर्टिकुलर ईयर" भी नहीं। मैंने यह नहीं कहा था कि "फ्री मैन इन टू थाउजेंड सिक्स ऑर सेवेन।" मैंने महीना पकड़ा था कि इस महीने में मुझे अपने आप को आज़ाद कर देना है। और कैसे आज़ाद कर देना है बंधन? दुनिया से ही जुड़ने से बने हैं, ना? दुनिया में गया था एजुकेशन लेने के लिए, तो चढ़ गया भारी एजुकेशन लोन। तो दुनिया से फिर कैसे निपटना है, इसकी तमीज होनी चाहिए।

अब नहीं लगता है, पर मेरे समय में, जो लोग थोड़े पुराने होंगे, वे जानते होंगे—गैस का सिलेंडर भी लग जाता था कारों में, सस्ता पड़ता था। मैंने वह भी करा है। अरे, माने सिलेंडर लगाने की एजेंसी नहीं खोली! कल को कुछ भी छाप दो, कहीं, क्या पता... क्योंकि यह दुनिया कैसी है, उससे निपटना है मुझे।

कौन-सी आंतरिक मुक्ति होगी अगर बाहर मैं खुद ही बंधन पाल करके बैठा हुआ हूं? अब मुझे बंधन सिर्फ काटने नहीं थे, जल्दी काटने थे। बहुत अच्छी सैलरी मिल रही थी, पर वह सैलरी इसलिए नहीं थी कि मैं उसको भोग लूं। वह सैलरी इसलिए होती थी कि वह आती थी, तो उसमें से थोड़े से पैसे बस छोड़कर बाकी सब मैं बैंक को दे आता था कि लोन जल्दी खत्म करो।

मुझे कुछ और करना है। मुझे नहीं यहां कॉर्पोरेट में रहना। और मुझे दुनिया को जानना था। तो जितने अलग-अलग तरीके के अनुभव हो सकते थे, लिए। इसलिए भी कि एक कंपनी से दूसरी कंपनी जाने में एक हाईक मिलती है, वह भी तो था ही। और दूसरा यह कि मुझे कंसल्टिंग में जाना था। कंसल्टिंग में जाकर एक साल में चार अलग-अलग इंडस्ट्रीज़ को जान लिया मैंने। मैंने कहा जानो और मुक्त हो जाओ पता चल गया यहां मामला क्या है खेल कैसे चलता है?

जिस खेल का पता नहीं हो उस खेल में हारोगे कि नहीं हारोगे? जानना जरूरी होता है।

और यह मुझे कम्युनिटी से शिकायत है, बहुत विचित्र किस्म की इनवर्डनेस है। बाहर निकलने से पता नहीं कैसा संकोच है? कोई अभी Twitter पर मुझे टैग करके ट्वीट करे जा रहा है, यह बड़ा मस्त कमेंट है इसका इस्तेमाल करिए और पांच-सात अलग-अलग अकाउंट से वही आ गया! कुछ लिखा हुआ है, और उसके ऊपर लिख दिया है किसी ने कि "इसका इस्तेमाल करिए।" पांच-सात लोग पूरा ही उसको कॉपी करके, उसमें यह भी कॉपी कर लिया है कि "यह बड़ा मस्त कमेंट है, इसका इस्तेमाल करिए!"

अजीब!अजीब!

और मुझे और अटैक कर रहे हो? दुनिया में विजय होना सीखो! मुझे यहां पर हारंतों और भगोड़ों की फौज नहीं बनानी है। ना मैं भागा हूं, ना मैं हारा हूं, ना मुझे भागते हुए और हारते हुए लोग अच्छे लगते हैं। ना मैं कभी मजबूरी का रोना रोता, ना मुझे मजबूर लोग अच्छे लगते हैं।

आप लोग मेरे पास आते हो, बोल देते हो कि "हमारे पास पैसा नहीं है, यह नहीं है, हम तो ₹500 भी नहीं दे सकते, अरे ₹1000 रूपए!" यह इस तरह की बातें करते हो मेरे सामने ऐसी बात करोगे, मैं एक मिनट में कह दूंगा, "इनको निशुल्क ले लो!" पर जितनी बार मैं यह बात सुनता हूं, आपके लिए मेरे मुंह का स्वाद कसैला हो जाता है।

क्यों हम ऐसी जिंदगी जी रहे हैं कि हमारे पास ₹५००-१००० भी नहीं है, वह भी दुनिया के सबसे ऊंचे काम के लिए? क्यों? मैं नहीं कह रहा हूं कि व्यक्ति झूठ बोल रहा है, कि वो आर्थिक दृष्टि से मजबूर है। बिल्कुल ऐसा हो सकता है कि वो सचमुच मजबूर हो, उसके पास सचमुच पैसे ना हों। मेरा सवाल यह है—तुम्हारे पास पैसे क्यों नहीं हैं? और यह सवाल कोई आध्यात्मिक गुरु आपसे नहीं पूछता, पर मैं पूछ रहा हूं, क्योंकि यह जिंदगी का बहुत जरूरी सवाल है। तुम ऐसे क्यों हो कि तुम्हारे पास ऊंची से ऊंची चीज के लिए भी धनाभाव है? क्यों नहीं कमाना जानते? और ठीक है, करोड़पति बनना एक अलग बात होती है। पर आज जैसी दुनिया है, और जैसी अर्थव्यवस्था है, उसमें एक सम्मानजनक कमाई करना भी अगर तुम्हें मुश्किल हो रहा है, तो तुम्हें अपने गिरेबान में झांकना चाहिए ना।

मैं अपने हाथों से प्रतिदिन, हमारे यहां पर एक इनबॉक्स है उसमें मेल आती है। रोज़—कभी दो, कभी पांच, कभी और ज्यादा यहां ये राघव बैठा हुआ है। मैं इसको खुद ही भेज देता हूं कि "राघव, अप्रूव कर दो!" लोग इतना-इतना बड़ा निबंध लिखकर भेजते हैं अपनी मजबूरियों का—"हमारा ऐसा है..." मैं पूरा पढ़ता भी नहीं। मैं कहता हूं कि अगर यह वाकई लिख रहे हैं इतना, तो इनको सब निशुल्क दे दो। दो निशुल्क, दो निशुल्क!

लेकिन मैं जितना पढ़ता हूं, उतना कोई मेरे मन में पुलक थोड़ी उठती है! कोई लाख रूपए महीने की बात होती और आप अपनी असमर्थता बताते, तो समझ में आती बात। पर एक बहुत छोटी-सी राशि भी आपके पास नहीं है जीवन का उच्चतम ज्ञान पाने के लिए? तो फिर आपको पूछना पड़ेगा कि आप जगत को लेकर के इतने असमर्थ क्यों हो? दुनिया से लड़ने का जज्बा क्यों नहीं है आप में?

कमाना भी एक युद्ध होता है। और कमाने का मतलब जरूरी नहीं है कि लालच या भोग हो। अभी बताया मैंने कि मैं कमाता था और उस समय पर, आज से 22-24 साल पहले, अगर 60 हजार मेरे हाथ में आता था, तो 55,000 जाकर बैंक को दे आता था। कमाने का मतलब जरूरी नहीं होता कि भोग है, पर कमाने में एक पुरुषार्थ होता है, कर्मठता होती है। और जो बात कमाने पर लागू होती है, कि संघर्ष, वही बात दुनिया के हर युद्ध में लागू होती है।

तो दिनकर जी का बड़ा अच्छा है कि — भाव कुछ ऐसा है कि तप और रण, यह दोनों सुरमाओं के ही काम होते हैं। और जो तामसिक व्यक्ति होता है, क्लीव, वो ना तप कर सकता है और ना रण कर सकता है। कुछ ऐसे ही शुरू होता है कि "तप और रण, ये दोनों सुरमाओं के ही काम," और आगे की कुछ पंक्ति अभी याद नहीं आ रही।

खेल सारा, बेटा, पैसे का है। एक मजेदार बात बताऊं, पैसा कहां तक जाता है? बड़े जो अखबार भी हैं, जिन्होंने मान लो मुझे लेकर के कोई अपमानजनक बात छाप दी है, वो खुद अपनी ओर से फोन करके कह रहे हैं कि "थोड़ा इतना पैसा दे दीजिए तो यह डिलीट कर देंगे और यह लिंक हटा देंगे।" सब पैसे के लिए ही किया जाता है। जो लोग मेरे खिलाफ भी यह सब करते हैं, तुम्हें क्या लगता है कि उनकी आस्था पर प्रहार हो रहा है नहीं, उनकी आस्था पर नहीं, उनके पेट पर प्रहार हो रहा है उनके लालच पर प्रहार हो रहा है।

ये वही लोग हैं जो अंधविश्वास की दुकान चलाते हैं। उन्हीं दुकानों से अपनी पत्नियों के लिए गहने ले आते हैं। यह मुझ पर प्रहार ना करें तो इनके बच्चों की फीस नहीं जाएगी और बीवी को साड़ी नहीं आएगी इनकी ये हालत है। दुनिया को समझना सीखो। आस्था युद्ध नहीं है, अर्थ युद्ध है।

दो देशों में लड़ाई हो, उनमें से जो ज्यादा बड़ी अर्थव्यवस्था होगी, 99% संभावना है वही देश जीतेगा। दो देशों में लड़ाई हो रही हो, जानना चाहते हो कौन सा देश जीतेगा? बस ये देख लो कि GDP किसका ज्यादा है। ज्यादा बड़ी जो इकॉनमी होगी, वही देश जीतेगा। और इकॉनमी ऐसे ही नहीं बड़ी हो जाती है।

गलत मत समझ लेना, मैं दुनिया के रंग में रंग जाने को नहीं कह रहा हूं। मैं दुनिया की दौड़ में फंस जाने को नहीं कह रहा हूं। मैं दुनिया की चक्की में पिसने को नहीं कह रहा हूं। लेकिन मैं कह रहा हूं कि अगर तुम्हारा बंधन ही आर्थिक है, तो उसकी काट भी तो आर्थिक ही रखनी पड़ेगी ना? और आर्थिक काट दो तरह से रखी जाती है—एक तो जो फालतू के खर्चे हो, वो बंद कर दो। और दूसरा यह कि आमदनी बढ़ा लो।

एक तो यही बहुत अच्छा है।

सामने युद्ध नहीं जिनके जीवन में, वे भी बहुत अभागे होंगे। या तो प्रण को तोड़ा होगा या फिर रण से भागे होंगे।

"जीवन के पथ के राही को क्षण भर भी विश्राम नहीं है, कौन भला स्वीकार करेगा जीवन एक संग्राम नहीं है?"

ये पूरा ही बहुत सुंदर है।

"दीपक का कुछ अर्थ नहीं है जब तक तम से नहीं लड़ेगा, दिनकर नहीं प्रभा बांटेगा जब तक स्वयं नहीं धकेगा।"

देखो, थोड़ा सुनने में बुरा लगेगा, दिल टूटेगा, पर जरूरी है, इसलिए बोले देता हूं। आप बार-बार आकर के ऐसे करोगे ना—"आचार्य जी, हमें आपसे बहुत प्यार है!" बड़ा-बड़ा दिल बनाओगे, लाल-लाल। बहुत अच्छा है। व्यक्तिगत तौर पर, मैं आपका हो गया। बोलो मुझसे क्या चाहते हो? ले लो!

लेकिन फिर मुझसे लोगे ही, मुझे कुछ दे नहीं पाओगे। और मैं बिना किसी शर्त के देने को तैयार हूं। ले लो! तुम सचमुच कह रहे हो कि तुम्हें इतना प्रेम हो गया है, तो फिर हम भी उपस्थित हैं। जो चाहिए, ले लो!

पर ये कौन सा प्रेम है, जो देख नहीं रहा कि मैं योद्धा हूं? मैं मैदान पर हूं मैं संग्राम में हूं। तुम बार-बार आकर मुझेI "आई लव यू" बोलोगे, मैं उससे क्या करूं? तुम सोचो ना! कोई युद्ध पर संग्राम कर रहा है और पीछे से, कभी इधर से कोई आकर कह रही है, "आई लव यू!" कोई कह रही है, "कैन आई किस यू?" उसके खून निकल रहा है। उसके हाथ में तलवार है। पसीना है, धूल है, और कोई आके पीछे से प्रणय निवेदन कर रहा है! यह कोई तुक है?

हाँ, हम सम्मान पूरा करते हैं आपके प्रेम का। "आचार्य जी, मैं तो आपकी मीरा हूं!" अरे, अर्जुन चाहिए! लेडी अर्जुन बनो! वहां पे हंसने-गाने के कि "मैं तो आपके लिए आपको एक गीत सुना रहा हूं," या "मैं आपके लिए नाच रही हूं!" मेरे पास वक्त है गीत सुनने का? मैं तो एक ही नृत्य जानता हूं अभी— ले, पटक, दे पटक! जो अखाड़े में होता है, नाच वही चल रहा है।

वो आप लोगों ने अभी चार-पांच दिन में देखा। मैं तो रोज देखता हूं ना! मेरे लिए तो हर दिन वैसा है, जैसा अभी आपने चार-पांच दिन में देखा है। और वैसे में कोई आकर के बोले, बार-बार— "आई लव यू आई लव यू!" तो इरिटेशन और होता है।

दुनियादारी सीखो, भाई! और मुझसे अगर प्रेम है या कोई नाता है, इज्जत है, तो मेरी अभी स्थिति क्या है, वो समझो। प्रेम अगर है, तो प्रेम यह देखता है ना कि सामने वाला क्या चाहता है, उसकी क्या जरूरत है? प्रेम आत्म-केंद्रित थोड़ी हो जाएगा कि "मैं अपने तरीके से!" अपने तरीके से है, तो फिर प्रेम नहीं है, स्वार्थ है ना!

मैं हलवाई हूं और वो मेरी महबूबा है। और चूँकि मैं हलवाई हूं, तो मैं रोज इनके लिए जलेबी लेकर पहुंच जाता हूं। एक छोटी सी बात बस मैं ध्यान नहीं देता—इनको डायबिटीज है! और बोलता हूं, "देखो डार्लिंग, मैं तुम्हारे लिए जलेबी ले आया हूं!" मैं यह देखूं कि मैं हलवाई हूं? या मैं यह देखूं कि इनको डायबिटीज है? बोलो!

मैं यह देखूं कि मैं हलवाई हूं, अतः मैं जलेबी दे सकता हूं? या मैं यह देखूं कि उनको डायबिटीज है, इसलिए वो जलेबी नहीं ले सकती हैं?

आप मुझे वो देना चाहते हो जो आप दे सकते हो। आप यह नहीं देख रहे कि मैं क्या ले सकता हूं और मुझे किसकी जरूरत है। वो इतना बड़ा, लाल-लाल धड़कता हुआ दिल टूटने दो उसको। मुझे कुछ और चाहिए। दुनियादारी सीखो! दुनिया में जितना सीखो, उतना अच्छा। आपको ही जिताने के लिए मैंने यह सारा खेल रचा है। मेरी आंखों के सामने ही हारोगे, और रोज हारोगे, तो मुझे कैसा लगेगा?

मैंने कहा था "फ्री मैन इन मार्च" फ्री होके मुझे क्या करना था? मैं तो फ्री हो गया! मैं फ्री इसलिए होना चाहता था, ताकि आपको फ्री कर सकूं। अब आप अनफ्री रहे रहे..."आचार्य जी, आप मेरी जान हो!" कुछ नहीं है उसमें। अभी बोल दिया है, तो कितनी बद्दुआएं आ रही होंगी! क्या करूं मेरा तो इतिहास ही रहा है दिलों को तोड़ने का। हर दिशा से आरोप ही यही रहा है कि यह बंदा किसी के प्यार की कीमत नहीं करता।

मुझे मत बताओ कि मैं अच्छा हूं, इसलिए तुम मुझसे प्यार करते हो। तुम अच्छे हो जाओ! मुझे मत बताओ कि मैं प्यार के काबिल हूं। आप अपनी पूरी काबिलियत पा लो। आपकी जीत में ही मेरा गौरव है। जाइए, संघर्ष करिए! जहां भी हैं, जिन भी बंधनों में उलझे हुए हैं, उनको तोड़िए, जूझिए! गलत शहर में फंसे हैं, तो शहर छोड़िए। गलत नौकरी में हैं, तो नौकरी छोड़िए। गलत मान्यताओं में हैं, तो मान्यता छोड़िए। दुकान चलाते हैं, आमदनी नहीं हो रही है, तो और जूझकर मेहनत करिए। गलत खर्चे पाल रखे हैं, तो गलत खर्चे छोड़िए।

यह थोड़ी है कि "आचार्य जी, हमने बैठकर के आपका सत्र सुन लिया!" सत्र, सत्र के लिए नहीं है! सत्र जिंदगी के लिए है! जिंदगी बदलनी चाहिए। मैं जिंदगी में आपको जूझते हुए और जीतते हुए देखना चाहता हूं। और जो लोग मेरे पास गीता के लिए आए हैं, बस... और जिंदगी के लिए नहीं आए... उनको जिंदगी तो नहीं ही मिलेगी, उनको गीता भी नहीं मिलेगी!

एक बहुत बड़ा वर्ग है इस "गीता कम्युनिटी" पर, जो कहता है— "नहीं, हम तो बस यहां पर एक एकेडमिक एक्सरसाइज करने आए हैं!" एकेडमिक एक्सरसाइज क्या है? कि गीता एक टेक्स्टबुक है, एक टेक्स्ट है, और हमें उसका इंटरप्रिटेशन इनसे समझना है, क्योंकि ये थोड़ा सा अलग तरीके का, रोचक और शायद गहरा अर्थ दे देते हैं। तो वो सुनने आए हैं। जिंदगी-वगैरह से हमें कोई मतलब नहीं। इन लोगों को मैं कह देता हूं— "जिंदगी तो तुम्हें वैसे भी बदलनी नहीं है, तुम यहां गीता के लिए आए हो। तुम्हें गीता भी नहीं मिलेगी! ना जिंदगी मिलेगी, ना गीता मिलेगी।

गीता भी सिर्फ उनको मिलेगी, जो जिंदगी से जूझने को तैयार हों, गीता की रोशनी में! मैं कोई संस्कृत साहित्य का शिक्षक हूं क्या? या हिंदी लिटरेचर का? कि तुमको यहां बैठकर के संदर्भ-प्रसंग-भावार्थ बता रहा हूं?"एक-एक पंक्ति का?

जान लगा के प्रयास करो।" उसके बाद परिणाम जो भी आता है, उसको जीत मानो। पर बंदा जुझारू चाहिए!

मैं छोटा था, तभी से ना टीवी पर कोई भी मैच आ रहा होता था। मैं बहुत जानू भी ना, वहां पे मेरी कोई रुचि भी ना हो लेकिन उसमें जो भी "अंडरडॉग" होता था, मैं उसके साथ हो जाता था।

समझ में आ रही है बात?

मान लो "ग्रैंड स्लैम" कोई है, "विंबलडन" है। अब सेमीफाइनल आ रहा है, ठीक है? और उसमें मैच चल रहा है माइकल चांग और बोरिस बेकर का। माइकल चांग का नाम ना सुना होगा आपने बहुत लोगों ने, वो लड़का-सा था। तो मैं बस यह देख लूं कि रैंक किसकी नीचे है? सीडिंग किसकी नीचे है? और जो नीचे वाला है, मैं उसके साथ हूं!मेरे साथ होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, पर मजा तो तब आता है ना जब "अंडरडॉग" जीते! जो पहले से ही ऊपर बैठा हुआ है, वो जीत रहा है, तो उसकी तरफदारी करके मुझे क्या मिलेगा?

और मैं गौरव के साथ कह सकता हूं कि अपनी जिंदगी में भी जो मैंने लड़ाइयां लड़ी हैं, सब की सब "अंडरडॉग" होकर लड़ी हैं! और बहुत सारी जीती भी हैं। "अंडरडॉग" होकर यह है कि अगर हार भी गए, तो शर्म कैसी? और "टॉप डॉग" होकर यह है कि अगर जीत भी गए, तो फक्र कैसा?

आप सब "अंडरडॉग्स" हो! कभी बिल्ली-कुत्ते की लड़ाई देखी है? बिल्ली छोटी होती है, पर बिल्ली-कुत्ते की लड़ाई देखना! इतने "चांटे" मारती है कुत्ते को पट पट पट वैसे! छोटे हैं, पर कूद-कूद के मारेंगे! यानि "Punching above one's weight!" मजा भी तभी आता है! और उसके लिए लाज की बात भी ज्यादा तब होती है जब वो छोटे से पिट जाता है। मैं किसी व्यक्ति को पीटने की बात नहीं कर रहा हूं। मैं जिंदगी की ही बात कर रहा हूं!

जहां भी हो, अपनी औकात से ज्यादा बड़ा पंगा लो!

प्रश्नकर्ता: धन्यवाद! "आचार्य जी।

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी! आचार्य जी, “सब कुछ अर्थहीन है! बस संयोग मात्र है। सब कुछ अब्सर्ड है!"

लेकिन बिना अर्थ खोजे...? मतलब हमें संसार की समस्याएं भी समझनी हैं? मतलब बड़ी लड़ाइयां लड़नी हैं? तो इन दोनों में मैं एक तरीके से सामंजस्य कैसे स्थापित करूं?

आचार्य प्रशांत: चलो, अपनी थोड़ी सी तारीफ सुना देते हैं तुमको! ताली-वाही बजा देना बढ़िया से!

उस दिन मुझे कहां से याद आ गया कि बाइक में ₹10 का पेट्रोल डलाता था? याद है, बोला था? तो उसी ₹10 वाले पेट्रोल की आगे की गाथा…

2003 में, जुलाई में, मैंने जीई गुड़गांव में ज्वाइन करी थी—जनरल इलेक्ट्रिक। अब जुलाई तो पता ही है, वहां पर क्या होता है? मानसून का होता है! पहली ही तनख्वाह मिली थी, तनख्वाह भी नहीं था, वो जॉइनिंग बोनस था मिला था वहां से। आ रहे हैं और गुड़गांव से जब आप जाते हो... तब मैं शुरू में अभी वहां पर गुड़गांव में लिया नहीं था फ्लैट अभी-अभी जॉब लगी थी, अपडाउन किया करता था। कहां से? गाजियाबाद से। शुरू के एक-दो महीने बस।

तो आप गुड़गांव से जा रहे हो, तो रास्ते में आता है महिपालपुर। वहां पर बहुत सारे ऐसे ही होटल हैं, छोटे-छोटे। मुझको तो पता था, मेरा "फ्री मैन इन मार्च" वाला प्रोजेक्ट एकदम मुंह फाड़े खड़ा था। मेरी एक्सेल शीट थी और मुझे उससे इंसाफ करना था कि सारे पैसे तो जल्दी से जल्दी ऋण मुक्त होने में, कर्जा पटाने में लगाने हैं, ताकि फिर आपकी सेवा के लिए हाजिर हो सकूं।

वहां से आ रहे, रास्ते में हो गई बारिश शुरू। और उस समय पर जो स्प्लेंडर आती थी, अभी भी उसमें पता नहीं होता है, नहीं होता है, पर तब उसमें स्पार्क प्लग होता था। आजकल पता नहीं कौन सी टेक्नोलॉजी है, अभी होता है स्पार्क प्लग? उसमें वहां नीचे, जो है, उसमें घुस जाता था पानी बारिश में। और उसमें पानी चला गया, तो जाहिर सी बात है, बाइक रुक जाएगी। बहुत मूसलाधार बारिश! तो दो बार, तीन बार, चार बार—वहीं महिपालपुर तक आते-आते मेरी रुकने लग गई। तो वहां महिपालपुर, वो होटल था। उसके पास गया, मैंने कहा, "मेरे पास मुझे देने के लिए बस ₹50 अधिक से अधिक!" हालांकि मेरे पास पैसे थे, मुझे साइनिंग बोनस ही जो मिला था, वह लाख से ऊपर का था। उस समय, 2003 में। मैंने कहा, "मैं नहीं दूंगा, मुझे कहीं और खर्चना है!"

मैं जा नहीं सकता था, क्योंकि वो जो उस बारिश में, वो बाइक आगे गाजियाबाद तक पहुंच ही नहीं सकती थी। बार-बार स्पार्क प्लग में पानी भर रहा था। तो उसने मुझे नीचे, जहां पर गंदे तौलिए और गंदे गद्दे रखे जाते हैं, और जो लॉन्ड्री के गंदे कपड़े रखे जाते हैं, उनका जो था... उसने कहा, "वो है।" मैंने कहा, "ठीक है! कोई दिन लड्डू, कोई दिन खाजा, कोई दिन फाकम-फाका जी! भेद क्या करना है? क्या भेद करना है?" वही जाकर सोए, वहीं से सुबह उठकर के सीधे ऑफिस चले गए, वापस गुड़गांव।

बात समझ में आ रही है?

उसके बाद फिर, उसी कॉर्पोरेट, फिर उसी कॉर्पोरेट लाइफ में यह भी हुआ कि कंसल्टिंग असाइनमेंट्स में कंपनी भेजती थी, तो फाइव स्टार्स में रुकवाती थी। उसी में यह भी हुआ कि कंपनी भेजती थी, तो फाइव स्टार में रुकवाती थी। जी में गया था, तो उन्होंने जो साइनिंग बोनस दिया था, उसमें वार्डरोब अलाउंस भी था। वार्डरोब अलाउंस यह था कि आप एक बड़ी MNC, दुनिया की सबसे बड़ी MNC में से एक में मैनेजेरियल पोस्ट पर ज्वाइन कर रहे हैं तो आप पहले तो जाकर के कई-कई हजार के कपड़े खरीदिए, ताकि जब आप आएं तो आप बिल्कुल लगने चाहिए कि आप GE के मैनेजर हो! क्या लगना चाहिए?

ये सब एक बराबर है! तुम इन चीजों में अंतर नहीं करना होता है। कभी फाइव स्टार का कमरा भी मिल जाएगा, अच्छी बात है। और कभी बेसमेंट में जाकर, जहां पर वो सड़े हुए तौलिए और सब उनकी गंदी लॉन्ड्री और गंदे गद्दे-वद्दे पड़े हैं, वहां पे सोना पड़ रहा है, वो भी अच्छी बात है।

समझ में आ रही है बात?

आजादी और गुलामी में अंतर है, वह अंतर हम पकड़ेंगे। बाकी, हम नहीं अंतर मानेंगे। मान-अपमान में अंतर नहीं मानेंगे। अपमान सहकर अपना काम होता है, बहुत अच्छी बात है। हां, काम हुआ कि काम नहीं हुआ—इसमें हम अंतर मानेंगे। बहुत मान मिल गया, काम नहीं हुआ—तो यह कोई बात है? मान पाने के लिए ही काम छोड़ दिया—यह कोई बात है?

भेद करना पड़ता है, पर साधक की तरह भेद करो, मूर्ख की तरह नहीं। और अगर सही भेद कर रहे हो, तो सही भेद करते-करते एक दिन अभेद में पहुंच जाते हो। फिर भेद करने की कोई जरूरत ही नहीं बचती। पर बहुत आखिरी बात है उसकी, हम बात भी नहीं करेंगे। हम तो जीवन भर बात करेंगे सही भेद करने की— डिसक्रिशन, विवेक, विभाजन रेखा सही जगह पर खींचनी है।

समझ में आ रही है बात?

प्रश्नकर्ता: जी सर! हर निर्णय को उसी एक फ़िल्टर से हमें देखना है कि यह मुझे मुक्ति की ओर ले जा रहा है या मुझे उसके विपरीत, और उसी दिशा में बहते रहना है?

आचार्य प्रशांत: और ये जीवन भर करना पड़ेगा?

प्रश्नकर्ता: एक जैन, आपने कहानी सुनाई थी। जब आप बता रहे थे, तो मुझे याद आई कि वह जो एक साधु होता है—पहले पेड़ से कुछ नहीं गिरता, दूसरे से गिरता है, फिर तीसरे से फल गिरता है अपने। तो वही आपकी बात से मुझे उसी कहानी की याद आ रही थी कि मिले तो वो फाइव स्टार का भी वैसा ही है, और नहीं मिले तो फिर..

बस... वो हमारे लिबरेशन की ओर होना चाहिए।

आचार्य प्रशांत कोई बड़ी बात नहीं कि यह जो मैं घटना बता रहा हूं, यह 2003 की घटना है। और 2003 में ही, किसी फाइव स्टार में रुक गया हूं, या कंपनी ने ही डिनर करा दिया हो—कुछ ऐसा बिल्कुल हो सकता है। 2003 में नहीं हुआ होगा, तो अगले साल हुआ होगा। अगले साल तो बाकायदा कंसल्टिंग में आ गया था, हुआ होगा। पर ना इसका अंतर पड़ना चाहिए, ना उसका अंतर पड़ना चाहिए। इनमें कोई अंतर है ही नहीं! जहां अंतर नहीं है, वहां अंतर देखना मूर्खता की बात है। और जहां अंतर है, वहां अंतर ना देखना और बड़ी मूर्खता की बात है। और स्टार के चक्कर में कॉर्पोरेट लाइफ में ही फंसा रह जाता, तो कितनी बड़ी मूर्खता हो जाती! जब तक अहंकार है, तो उसको भेद तो करना पड़ेगा। भेद माने—डिफरेंस, सेपरेशन, सीइंग वन एज सुपीरियर टू द अदर। यह करना पड़ेगा! बट वेयर आर यू ड्रंग द बाउंड्री? व्हाट इज द क्राइटेरिया ऑफ डिमार्केशन? यह बहुत जरूरी है!

तुम जवान हो। तुम अपने लिए कोई साथी चुन चुके होगे या चुनोगे। अब तुम उसमें चुनोगे, तो चुनने का तो मतलब ही होता है न, भेद स्थापित करना? चुनने का मतलब यह होता है कि पाँच हैं, तो एक को इधर किया, चार को उधर किया। यही होता है न चुनना? आधार क्या है? चुनना तो है ही, आधार क्या है? आधार यह है कि कौन सेक्सी है और कौन ऑर्डिनरी है? या आधार यह है कि किसके खोपड़े में क्या है?

तो अध्यात्म चुनने को नहीं मना करता, वह कहता है—सही आधार पर तो चुनो! चुनो, चुने बिना तो काम चलेगा ही नहीं, क्राइटेरिया सही होना चाहिए। यह नहीं कि फ्रेश रोटी के लिए गुलामी की रोटी खा ली क्योंकि गुरु जी ने बोला है कि फ्रेश रोटी सुपर फूड होता है। मुझे यह सब लानतें भेजते हैं। कहते हैं, "आप वैसे तो आचार्य हैं, और खुद अपना देखिए—आपका खाना-पीना कैसा है?"

कभी पैकेट फाड़ के नमकीन, पूरी ऐसे अंदर डाल दी! कौन अब उसको थोड़ा-थोड़ा उसमें हाथ डाल के करे? तो पूरा फाड़ो और ऐसे ले—पूरी एक बार में अंदर! "नहीं! यह कोई तरीका है?" कोई देख लेगा, तो लानतें भेजेगा! और क्या खा रहे हैं? कभी मैगी बना रहे हैं, कभी कुछ और!

यह नहीं कि मैं हमेशा यही खाता हूं, पर मतलब... जब भी पकड़ा जाता हूं, तो यही खाते पकड़ा जाता हूं। वो मेरा दुर्भाग्य है! कहते हैं, "आप यह सब यही करते रहते हो! दो रात पहले का लेकर फ्रिज में छुपा दिया और बाद में जाकर खा रहे थे, वो भी बिना गर्म किए!" क्यों कर रहे हो? मुझे कोई शौक नहीं है! मुझे भी बहुत अच्छा लगता कि मुझे सेहतमंद खाना वगैरह मिल जाए, बहुत अच्छी बात है! पर मैंने वही सब देखा होता, तो आज तुम्हारे लिए मैं यहां तक नहीं आ पाता!

उन्हीं सब चीजों पर मैंने बहुत ध्यान दिया होता, तो आज तुम्हारे सामने खड़ा ही नहीं होता मैं! क्योंकि वो चीजें पूरा दिन खा सकती हैं—"इतने बजे नहाना है और कुकुंबर यहां ऐसे लगाना है!" और यह नहीं कि मुझे पता नहीं है! मुझे भी वह सब पता है! और नहीं पता हो, तो जाकर के गूगल से पूछ लो, चैट जीपीटी से पूछ लो। छोटी बातें हैं, तो सबको पता चल जाएगा। इसमें कौन सा भारी ज्ञान है? "टर्मरिक को ऐसे यहां पर लगाना चाहिए, पिछवाड़े में, उससे एकदम शाइन आ जाती है!" मैं पिछवाड़ा ही चमकाता रह जाऊं, तो जिंदगी कब चमकती? कहीं न कहीं तो ध्यान देना पड़ेगा!सही जगह पर ध्यान दो!

जब मुक्त हो जाओगे, पारमार्थिक पहुंच जाओगे, तब किसी भी विषय पर ध्यान देने की बाध्यता से आजादी हो जाएगी। पर जब तक वहां नहीं पहुंचे हो, किसी को तो चुनना पड़ेगा ध्यान देने के लिए, और बाकियों को कहना पड़ेगा—"तुम पर ध्यान नहीं देते!" बाकियों को कहना पड़ेगा, "तुम पर ध्यान नहीं देते।" तुम्हारी फिक्र नहीं करते। यही बात तुम्हारी जिंदगी का फैसला कर देगी कि किस पर ध्यान देते हो और किसके प्रति उदासीन हो जाते हो। बेकार की बातों पर ध्यान देना बंद करो।

प्रश्नकर्ता: कर्म तो होगा ही, तो हम वो करेंगे जो सक्सेस... हां, बहुत बढ़िया!

आचार्य प्रशांत ऐसे कहो, "चुनना तो है ही, बिना चुने तो चल ही नहीं सकते।" वो कोई मुक्त पुरुष होते हैं, जिन्हें चुनना नहीं पड़ता। हमें तो चुनना है। तो जब चुनना ही है, तो सही चुनाव करेंगे और जहां भेद नहीं है, वहां भेद नहीं देखेंगे। शर्ट खरीदने गए हो, अब यह मत कहो कि नहीं, मुझे फलानी वेवलेंथ वाला पिंक चाहिए। अरे, काली मिले तो काली ले आओ, सफेद मिले तो सफेद ले आओ, एक बार में चार ले आओ, समय बचाओ। वहां पर खड़े होकर क्या कर रहे हो 8 घंटे से एक स्पेशल वाला वायलेट कलर ढूंढ रहे हो? यह कौन सा भेद कर रहे हो तुम? यहां कोई भेद नहीं है। कुछ भी पहन लो, समय बचाओ, समय दूसरी चीज में लगाओ। भेद वहां करो।

प्रश्नकर्ता: जी आचार्य जी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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