प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। पहला प्रश्न तो मैं जानना चाहूँगा — आपका स्वास्थ्य कैसा है? और जब आपके बारे में सूचना मिली तो मैं देख रहा था कई लोग आपके लिए दुआ कर रहे थे, और कुछ लोग आपको आज का सत्र नहीं करने को कह रहे थे। और लोग ये भी कह रहे थे कि आचार्य जी हर हाल में अपना काम पूरा करते हैं, तो हमें भी अपना काम पूरा करना चाहिए और रोज़ की तरह अच्छे से आज का सत्र सुनना चाहिए।
मैं ये सोच रहा था कि आप हर समय किसी भी हाल में जो अपना काम है वो पूरा करते हैं, पर क्या हमारा काम सिर्फ़ इतना है कि हम सत्र सुनें और परीक्षाएँ दें, या कोई और बात है?
आचार्य प्रशांत: पहली बात तो ऐसा कुछ बहुत बड़ा हो नहीं गया था। ऐसा लग रहा था कि आगे हो सकता है और ज़्यादा हार्ट रेट बढ़ जाए, और थोड़ा दम-सा घुट रहा था और अनइज़ीनेस (बेचैनी) थी। यही अनुभव अगर गाड़ी में या ट्रेन में हो रहा होता तो मैं शायद नहीं उतरता। और फ्लाइट एक बार चल दे तो उसके बाद मामला इर्रिवर्सिबल (अपरिवर्तनीय) हो जाता है। हवा में तो बोलूँगा नहीं कि मुझे बाहर जाने दो तो इसलिए उतर गया था।
स्वास्थ्य में ऐसा कुछ न बढ़ा है न घटा है, जैसा चलता है वैसे ही चल रहा है। सत्र क्यों लिया? अगर आप अभी से लेकर के महीने के अंत तक देखेंगे तो शायद ही कोई दिन खाली है। और जो दिन खाली है, है बीच में एक दिन या दो दिन, उसमें उसके पहले और उसके बाद में भी कुछ लगा ही हुआ है। तो ऐसा नहीं था कि सत्र को स्थगित करके मैं किसी तरह का शारीरिक आराम पा जाता। तो तार्किक भी नहीं था कि मैं सत्र को आगे के लिए करूँ।
अगली बात, कर तो मैं लूँ स्थगित भी कर लूँ, आराम भी कर लूँ पर उसके नतीजे गड़बड़ हो जाते हैं न। मजबूर मैं वहाँ हो जाता हूँ जहाँ मैं आप लोगों को देखता हूँ। एक दिन का भी अंतराल होता है तो आप भूलने लग जाते हैं। दो दिन का अंतराल होता है, आप और ज़्यादा भूलने लग जाते हैं, और तीन दिन का अंतराल होता है तब तो कहिए ही मत। अंतराल दिए इसलिए जाते हैं कि आप परीक्षा की तैयारी कर लें, पर परीक्षा की तैयारी आप कितनी करते हैं वो मुझे आपके परीक्षा के अंकों से दिख जाता है।
मुझे ये बड़ा आप लोगों को लेकर डर लगा रहता है। जैसे बड़ी मुश्किल से बाहर कोई बच्चा खेल रहा हो एकदम उधमी नालायक किस्म का और उसको रिझाकर, पकड़कर, डाँटकर, बहलाकर, फुसलाकर, मिठाई दिखाकर उसको घर में बुलाया है और रात हो रही है। और वो ऐसा है कि वो बिल्कुल रास्ता देख रहा है कि ये सोएँ और मैं फिर से कूदकर बाहर निकल जाऊँ। आप लोगों को लेकर ये बड़ा मुझे लगातार डर लगा रहता है। इसमें कोई मैं आप लोगों की बुराई नहीं कर रहा हूँ। ये दुनिया ऐसी है। हर तरफ़ से तो आपको खींचा जा रहा है न। दुनिया तो अपना काम लगातार कर ही रही है। आप मुझसे कहते हो, ‘आचार्य जी अपना काम मत करो, आज सत्र मत लो।’ पहले दुनिया को रोको जाकर।
दुनिया आपको बाहर खींचने के लिए लगातार अपना काम कर रही है न, जैसे कि रस्साकशी चल रही हो। रस्साकशी जानते हैं ‘टैग ऑफ़ वॉर’। उसमें एक तरफ़ सौ लोग हैं, दूसरी तरफ़ मैं खड़ा हूँ और बीच में रस्से के झुन्नू टंगा हुआ है। झुन्नू की अपनी कोई चेतना जाग्रत हुई नहीं है। उसको तो दुनिया खींच ले, वो भी, दुनिया में भी सौ लोग एक साथ हैं बड़े प्रबल। दुनिया खींच ले तो खट से खींच जाता है, और दुनिया झुन्नू को खींच रही है। झुन्नू भी खींचने को तैयार बैठा हुआ है, ‘दुनिया खींचे हम खट से खींच जाएँ।’ और आप मुझे सलाह दे रहे हो, ‘आचार्य जी, आपकी तबीयत खराब थी तो आप काम छोड़ दो।’ मैं तो काम छोड़ दूँ, आप गीता छोड़ दो।
मैं तो जब इतना काम कर रहा हूँ तब भी आप नहीं टिक रहे हो गीता में, मैं काम छोड़ दूँ तो आप कहाँ टिकने वाले हो। दुनिया आपको खींचने को तैयार है, आप खींचने को तैयार हो। ज़्यादा ऊर्जा मेरी कोई आपको पढ़ाने में थोड़ी जाती है। ज़्यादा ऊर्जा तो बस इसी में जा रही है दिन-रात कि ये सब जो हैं, जो भीतर-ही-भीतर दुनियादारी से भरे हुए हैं, दुनियादारी से भरे होने के कारण मेरे प्रति, बल्कि सच्चाई के प्रति भी विरोध से भरे हुए हैं भीतर-ही-भीतर, छुप-छुपकर, इनको होश में रखा कैसे जाए!
अजीब हालत है। दुनिया भी नहीं चाहती कि आप होश में रहो, आप खुद भी नहीं चाहते कि आप होश में रहो। मैं लगा हुआ हूँ कि किसी तरीके से कुछ हालत सुधरे, तो मुझे आप सुझाव के नाम पर ये बताते हो कि आचार्य जी, सत्र मत लो! बिल्कुल नहीं लेता सत्र, मैं सो जाता हूँ पर जब मैं सोकर के उठूँगा तो क्या आप नज़र आओगे?
भाई, धर्म का महीना चल रहा है और धर्म के महीने का मतलब ही होता है कि गीता हों, कि कृष्ण हों, कि संत हों, कि सत्य हो इससे दूरी बनानी है। इस महीने में जो कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ रही है संस्था को, उतनी किसी और महीने में थोड़ी करनी पड़ती है।
आप लोगों ने मतलब किस उपाधि से विभूषित करूँ आपको, क्या चाट-पकौड़ी की है आपने और क्या आपने साड़ियों और गहनों वाला काम करा है! और अभी तो वो भी आ रहा है न, वो सोना किस दिन खरीदते हैं? धनतेरस भी अभी आ रहा है। क्या आपने कार्यक्रम करा है! परीक्षा देने वाले लोग कम, सत्रों में उपस्थिति कम, बाज़ारों में भीड़ सबसे ज़्यादा। यात्राएँ सबसे ज़्यादा, रिश्तेदारी सबसे ज़्यादा, दुनियादारी सबसे ज़्यादा और आप चाहते हो कि मैं आराम करूँ। ये आपका हाल है, मैं आराम करूँ? मैं कर लूँगा आराम आप सुधर जाओ, मैं आराम कर लूँगा। और आप सुधरते नहीं हो तो कृपा करके मुझे आराम करने की न सलाह दो, न नसीहत। एक ही तरीका है मेरे आराम करने का, आप सुधर जाओ।
अब लिख रहे हो बड़ा-बड़ा संदेश, ‘आचार्य जी आप आराम कर लीजिए।’ और आपके नाम के साथ ऐप में बड़ा-बड़ा लिखा हुआ है चौंतीस पर्सेंट। वो चौंतीस पर्सेंट समझते हो न क्या है? परीक्षा में आपके अंक। चौंतीस पर्सेंट के साथ आप मुझे लिखोगे आराम कर लो, तो मैं कहाँ से आराम कर लूँगा। आराम तो छोड़ दो, मेरा पूरा मन एकदम उथल-पुथल में रहता है। ये बड़ी अजीब बात है।
मैं सबसे कितनी बार कहा करता हूँ कि मैं आज से दस साल पहले जीवन-निवृत्त हो गया था बिल्कुल। जीवन-मुक्त बोलूँगा तो बड़ी बात लगेगी, तो मैं जीवन-निवृत्त बोले दे रहा हूँ। सबसे अच्छी बात मालूम है क्या है? मैं सबसे कहा करता था कि कितने साल बीत गए मुझे सपना नहीं आता, “चाह गई चिंता मिटी मनुवा बेपरवाह।” कुछ लेना-ही-देना नहीं था।
बिल्कुल जो आखिरी बात थी उच्चतम, वो लोगों से कहा करते थे। कोई सुने, कोई समझे, इससे हमें कोई फ़र्क ही नहीं। सुना तो सुना, समझा तो समझा, हमें कोई मतलब नहीं। न जाने कौन-सा दिन था जिस दिन से ये प्रण लिया कि जो बात उच्चतम है, वो अधिकतम सब तक पहुँचनी भी चाहिए और तब से दुनियाभर का झंझट अपने ही ऊपर आ गया। मुझे कोई शिकायत नहीं है, मेरा ही चुनाव है। परिस्थिति ऐसी है, आप कह रहे हैं तो बता रहा हूँ।
जो व्यक्ति बिल्कुल अपने में तल्लीन रहता था मस्त-मगन, क्या खाया, क्या पहना, फ़र्क नहीं पड़ता। छ: फुट गुना दस फुट का कमरा था, उसमें मैं कम-से-कम पाँच-सात साल रहा हूँ मौज में। और उसके अलावा कई साल तक मैं, मेरा छोटा सा केबिन था, उसमें ही काम करता था और नीचे ज़मीन पर सो जाता था मौज बिल्कुल। मैं, मेरे खरगोश, मेरी ज़िंदगी, कुछ मेरे फूल-पौधे। सामने पब्लिक पार्क था वहाँ जाकर के बच्चों के साथ क्रिकेट खेल लेता था, मेरी आज़ादी।
जब लगा तो लोगों को, दस-बीस लोग, ज़्यादा नहीं — अब की तरह नहीं कि हाँ, ‘गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड’, बीस हज़ार, पचास हज़ार, एक लाख, कुछ नहीं। दस-बीस-तीस लोग लिए, अपना पहाड़ पर चले गए। वहाँ भी कोई नियम बाँधकर नहीं, योजना से नहीं, मन हुआ पाँच दिन रुके, मन हुआ पंद्रह दिन रुके। ये सब तब चला करता था, पर अब आप लोगों की अनुकंपा ये है कि आप लोगों ने मुझे गृहस्थों से ज़्यादा गृहस्थ बना दिया है। एक गृहस्थ के ऊपर क्या चिंता, तनाव और बोझ रहता होगा जितना मेरे ऊपर रहता है। न परिवार, न ब्याह, न बाल, न बच्चा, बाल देखो, बाल, कहाँ है बाल! लेकिन उसके बाद भी दुनियाभर का तनाव, और मुझे ही नहीं पूरी संस्था को।
हमारे यहाँ पर अभी आज कोई बता रहा था कि इंटरव्यू चल रहे थे तो वो एक आया, जिनका इंटरव्यू हो रहा है हायरिंग के लिए। वो बोलता है कि मेरी पुरानी कंपनी में न फाइव डे वर्क-वीक होता है तो जो हमारे यहाँ इंटरव्यूअर थे, साक्षात्कार-कर्ता, उन्होंने कहा कि नहीं, देखो हमारे यहाँ फाइव डे नहीं चलेगा। तो उसने कहा, जैसे निगोशिएट (मोल-भाव) किया जाता है उस समय पर, उसने कहा, ‘अच्छा-अच्छा, तो सिक्स डे।’ वो इंटरव्यूअर ऐसे चुप होकर के नज़रें झुका ली, बोलें, ‘नहीं, सिक्स डे भी नहीं, हमारे यहाँ सेवन डे वर्क-वीक है।’ मैं नहीं, पूरी संस्था की कमर टूटी जा रही है।
कॉल जाता है तो बिज़ी जा रहा है, बिज़ी जा रहा है, बिज़ी जा रहा है, और बिज़ी जा रहा है उसके बाद उठाएँगे नहीं। क्यों नहीं उठाएँगे? ‘वो त्योहार का महीना है, अब इस महीने में सोच रहे हैं कि गीता नहीं करनी चाहिए।’ ये कोई बाज़ार वाला काम थोड़ी चल रहा है, डिमांड एंड सप्लाई (माँग और आपूर्ति) कि डिमांड पहले से है और हम कोई चीज़ लेकर आ गए हैं जो सप्लाई है। वो बाज़ार में होता है, यहाँ मैं आपको ऐसी चीज़ दे रहा हूँ जिसकी कोई डिमांड ही नहीं है।
मैं आपको वो चीज़ दे रहा हूँ जो आपको चाहिए ही नहीं। कोई यहाँ ग्राहक थोड़े ही आते हैं। यहाँ तो छात्र आते हैं जिनको पहले ये समझाना पड़ता है कि शिक्षा ज़रूरी क्यों है। वो छात्र भी नहीं होते अपनी ओर से, वो न जाने क्या हैं, तो पहले तो उनको पकड़-पकड़कर ये समझाना पड़ता है शिक्षा ज़रूरी है। कोई प्री-एक्ज़िस्टिंग (पहले से मौजूद) डिमांड थोड़ी है उस काम की जो मैं कर रहा हूँ। बताइए कहाँ से आराम कर लूँ?
और उस पर भी तुर्रा ये है कि मैं आपसे दसों साल तक बात कर लूँ, लेकिन मेरे ख़िलाफ़ कोई बाहर एक बात कर देगा तो आप कहते हो, ‘मैं तो कन्फ्यूज़ हो गया, मैं तो बहक गया, मेरे मन में तो शंका आ गई है।’ मेरी दस हज़ार बातें काफ़ी नहीं होती, बाहर से कोई फ़ालतू की एक दो बातें कर दे, वो काफ़ी होती हैं आपके मन में शंका जगाने के लिए। और जब शंका जग जाती है तो आप कहते हो, ‘अभी हम विचार कर रहे हैं।’
बड़ा भारी तुम्हारा भेजा है कि तुम विचार कर रहे हो। विचार करना तुम्हें आता होता तो तुम्हारी ये दुर्दशा होती जो आज है? और विचार भी बस तुम सब सही कामों के लिए ही करते हो कि अभी हम विचार कर रहे हैं। घटिया काम तुम खट से कर डालते हो। वहाँ कोई विचार नहीं होता, वहाँ बस कैलेंडर होता है, समाज होता है, रिश्तेदारी होती है, टीवी होता है। कैलेंडर ने बताया नहीं कि अमुक दिन आ गया है कि कूद पड़े। ये करना है, वो करना है। और कैलेंडर की भी गुलामी नहीं है, दुनिया की गुलामी है क्योंकि कैलेंडर तो ऐप पर भी है न। कैलेंडर तो ये भी बताता है कि आज सत्र है, उसमें नहीं कूद पड़ते।
ये आपके मेरे बीच की लड़ाई है, ये चलेगी। ये जो मैं आराम नहीं कर रहा न, ये मैं कोई इसलिए नहीं कर रहा कि मैं आपका बहुत बड़ा मित्र हूँ, तो आपकी सेवा करने के लिए मैं आराम नहीं कर रहा। ये जो मैं आराम है, ये मैं इसलिए नहीं कर रहा हूँ क्योंकि मेरी आपकी लड़ाई चल रही है। और मैं अगर आराम कर गया तो आप ये लड़ाई जीत जाओगे मेरे ख़िलाफ़। आप सोचते हो, अगर कोई आपसे मिलने के लिए आराम नहीं कर रहा तो आपका दोस्त होगा! नहीं, मैं आराम इसलिए नहीं कर रहा हूँ क्योंकि मुझे आपको जीतने नहीं देना है। ये संघर्ष है भाई, हमारा आपका।
आप क्या सोच रहे हो कि यहाँ पर कोई टीचर-स्टूडेंट रिलेशनशिप है? बिलकुल भी नहीं। मैं भली-भाँति जानता हूँ, सुबह से लेकर शाम तक मैं आपसे सिर्फ़ और सिर्फ़ संघर्ष में रहता हूँ। नहीं तो मेरे पास अपना क्या काम है? मुझे क्यों परेशानी झेलनी पड़ रही है? मैं तो कह रहा हूँ, मैं दस साल पहले जीवन-निवृत्त था। मुझे क्यों परेशानी इतनी झेलनी पड़ रही है? क्योंकि मेरी आपसे लड़ाई चल रही है। और आप हर तरीके से मुझे घायल करने की कोशिश करते हो।
घायल ऐसे ही थोड़ी किया जाता है कि किसी को गोली मार दो, घायल करने का तरीका होता है कि उस आदमी को इतना परेशान करो हर छोटी-से-छोटी बात के लिए कि वो कहीं का न बचे। ये हमारे आपके बीच का द्वन्द्व चल रहा है। अभी तक तो मेरा ट्रैक रिकॉर्ड ज़िंदगी में ऐसा नहीं रहा है कि मैं हार मान लूँ, चाहे वो प्रतियोगी परीक्षाएँ हो या ज़िन्दगी के अन्य संघर्ष, तो आपके खिलाफ़ भी मुझे नहीं लगता कि मुझे हार मिलने वाली है।
पर हाँ, ये लड़ाई लंबी चलेगी। हो सकता है ये लड़ाई मेरे खत्म होने के साथ भी खत्म न हो, पर इतना तो निश्चित है कि हारने वाला तो नहीं मैं। आप भी अड़े हुए हो, मैं भी अड़ा हुआ हूँ। आप कह रहे हो आपको नहीं बदलना; मैं कह रहा हूँ मुझे नहीं बदलना। देखते हैं क्या होता है।
सच्चाई तो ये है कि मैं जिस दूसरी फ्लाइट में आया हूँ, हृदय गति तो मेरी उसमें भी कुछ ऊपर-नीचे हो रही थी, तो मैंने किताब निकाली, मैंने अपने आप को मजबूर किया कि मैं किताब में डूब जाऊँ। और भीतर संघर्ष इतना चलता रहा कि थोड़ी देर में मुझे नींद ही आ गई। मैंने कहा, ‘चलो अच्छा है, दो घंटे की बात थी कट गया।’ मेडिकल तौर पर तो यही वाजिब होता कि मैं आपके सामने न बैठा होता, पर नहीं बैठूँगा तो आप तो हैप्पी फेस्टिव सीज़न (खुशहाल त्यौहारी मौसम) में चले जाओगे न।
आपके लिए वो सब धर्म है और ये जो यहाँ पर मैं आपको बता रहा हूँ, ये धर्म नहीं है। कोई आदमी जिसको अक्ल का ज़रा भी ठिकाना होता, वो कहता, ‘धार्मिकता तो असली यहाँ पर है और अगर ये धर्म का महीना है, तो इसमें तो मैं अतिरिक्त रूप से सत्रों को लेकर संवेदनशील रहूँगा — एक-एक परीक्षा दूँगा, एक-एक सत्र सुनूँगा, सारे काम करूँगा, संस्था का साथ निभाऊँगा।’ उसकी जगह धर्म के महीने में आप धर्म के काम से सबसे ज़्यादा दूर भागे हुए हो। आप बाज़ारों की रौनक बढ़ा रहे हो, आप ही से बाज़ारें बढ़ी हुई हैं, आप ही हो।
अभी संस्था के सात लोग यहाँ पर लौटे हैं। जो फ्लाइट का टिकट छ: हज़ार का होना चाहिए था, वो पंद्रह-पंद्रह हज़ार, पच्चीस-पच्चीस हज़ार के हैं। वो आपने ही सब दाम बढ़वा रखे हैं क्योंकि इन दिनों में आपको रिश्तेदारी करनी है, एक शहर से दूसरे शहर जाना है, गाड़ियों के टिकट नहीं मिल रहे, रेल के टिकट नहीं मिल रहे, फ्लाइट के टिकट नहीं मिल रहे, सड़कों पर जाम लगे हुए हैं। सत्र खाली पड़े हुए हैं। वो आप ही तो हो और कौन है!
आनन-फानन में; आप बंबई से दिल्ली का टिकट कितने का होता है, आप कल्पना कर लो। ये यहाँ बैठे हैं रोहित, ये बताएँगे; इकत्तीस हज़ार रुपए का टिकट था, ठीक, था कि नहीं था? साधारण टिकट इकत्तीस हज़ार रुपय का, वो किसने करवा दिया? वो लेकर आए हैं ताकि आपसे बात हो। किसने करवा दिया? आपने। एक टिकट की बात हो रही है। और साधारण क्लास में नहीं बैठना, इकोनॉमी (किफ़ायती श्रेणी) में आगे बैठना है तो उसका तो और, क्योंकि ये आपकी हैप्पीनेस का महीना चल रहा है। क्या हैप्पीनेस है ये! क्या चाह रहे हो? पत्ते की तरह झड़ोगे, लौटकर नहीं आओगे।
इस बार जैसे पिछली बार हुआ था तो आप सबको एक साथ ही बुला लिया था। वो देखने में भव्य लगता है, लेकिन उसकी एक बड़ी लिमिटेशन होती है। लिमिटेशन ये होती है कि मैं आपको जान नहीं पाता, मैं आपको देख नहीं पाता। कुछ लोग तो ऊपर वाली उसमें बाल्कनी में थे, वो तो मुझे बिल्कुल ही नहीं दिखाई पड़ते। तो मैंने कहा, ‘उतने ही लोगों को तीन में बाँटकर बुलाओ तो डेढ़-दो हज़ार की कैपेसिटी की जगह साढ़े-चार-सौ, पाँच-सौ की कैपेसिटी का ले लो, उसमें तीन बार बुलाओ। मेरी मेहनत तीन गुनी हो जाएगी, डेढ़ हज़ार को एक साथ बुलाओ तो मुझे एक बार बोलना पड़ेगा। तीन बार बुलाओगे, मेरी मेहनत तीन गुनी हो जाएगी पर तीन बार बुलाओ ताकि मैं सबकी कम-से-कम आँखों में आँख डालकर देख तो पाऊँ।’
जानते हैं, जितनी हॉल की कैपेसिटी है जब वो कैपेसिटी से ज़्यादा एप्लीकेशन कब की आ चुकीं। आइटी विभाग मुझसे बोलता है कि कैपेसिटी तो हॉल की इतनी है, इससे तो कहीं ज़्यादा एप्लीकेशन आ गई हैं, आप एप्लीकेशन मँगवाना बंद क्यों नहीं कर रहे। मैं उनसे बोलता हूँ कि तुम आइटी जानते हो न, मैं दुनिया जानता हूँ। मैं इनको जानता हूँ। ये एप्लीकेशन दे देंगे, जिस दिन इनको चलना होगा उस दिन धनिया कहेगी कि झुन्नू को बुखार हो गया है, कैसे चली जाऊँ। किसी का घर टूटने लग जाएगा, किसी की माँ सिर पटक-पटक कर जान देने लग जाएगी। ये जितने अप्लाई कर रहे हैं, इसमें से बहुत बड़ी तादाद है जो नहीं आने की है तो बाकियों को मौका दो, और एप्लीकेशन्स मँगवाते चलो। इसीलिए आपके पास बीच-बीच में वो आता भी होगा कि अप्लाई कर दो, अप्लाई कर दो।
सीटें तो कब की भर गईं, फिर भी अप्लाई करवा रहे हैं क्योंकि हमें पता है कि जिस दिन आपको निकलना होगा उस दिन आप कहोगे, ‘अरे! ट्रेन का टिकट कन्फर्म नहीं हुआ।’ वो ट्रेन का टिकट की बात नहीं है, वो कोई और चीज़ है वो। वो चीज़ ये है कि आपके भीतर अज्ञान, कामना और डर इतना कूट-कूटकर भरा हुआ है कि आपको मुक्ति की तरफ़ ले जाना लगभग असंभव काम है, और मैं वो काम करने की चेष्टा कर रहा हूँ, और मैं तो वो करूँगा।
एक तो होता है कि कोई खराब हालत में है तो उसकी मदद न करो, बहुत आसान है। एक होता है, कोई खराब हालत में है, तुम्हारी मदद माँग रहा है, तुमने उसकी मदद कर दी। ये भी अच्छा काम है। मैं जो कर रहा हूँ, वो मालूम है क्या है? कोई खराब हालत में है, वो मदद चाहता भी नहीं है, मैं उसकी मदद करने की कोशिश कर रहा हूँ। नहीं, मैं इससे भी ज़्यादा कठिन काम कर रहा हूँ। वो जो खराब हालत में है, वो मदद चाहता भी नहीं और जब मैं उसकी मदद करने की कोशिश कर रहा हूँ, तो मेरा ही हाथ काट रहा है।
मैं उन लोगों को देख रहा था आज। जो ये साधारण फ्लाइट के टिकट बीस हज़ार, तीस हज़ार, पैंतीस हज़ार का ले रहे थे, वो सब साधारण मध्यमवर्गीय लोग थे, बिल्कुल आपकी तरह। और ये क्यों भाग रहे थे? क्योंकि इनको रिश्तेदारी निभानी है। रिश्तेदारी निभाने के लिए कोई कमी नहीं है, बिल्कुल कोई कमी नहीं है। एयरलाइंस पचास हज़ार का टिकट कर देगी, आप तब भी खरीदोगे क्योंकि अब रेल के टिकट मिलने बंद हो गए हैं। अब इस वक्त पर आप रेल का टिकट कराओगे तो अब नहीं मिलेगा, तो अगर एयरलाइंस पचास हज़ार का भी आपको देंगी। दिवाली जैसे-जैसे पास आएगी, अभी और कीमतें बढ़ेंगी। यही मध्यमवर्गीय लोग दे रहे हैं। कई तो ऐसा लग रहा था मध्यमवर्गीय भी नहीं हैं, निम्न-मध्यमवर्गीय हैं। वो भी वहाँ कतार में खड़े हैं। सब अपना दनादन-दनादन पैसे लुटा रहे हैं। ऐसा..
संस्था को लेकर के आपको गलतफ़हमी हो जाती है कि यहाँ पर खर्चे नहीं हैं, पर दुनियादारी में आपको कोई गलतफ़हमी नहीं होती। वहाँ आपको सारी कीमतें जायज़ लगती हैं। और वो कीमतें इसलिए जायज़ लगती हैं क्योंकि आपको दुनिया बहुत जायज़ लगती है। जिस दिन आपको दुनिया से ज़्यादा दीन जायज़ लगने लगेगा न धर्म, सच्चाई, उस दिन फिर मैं आराम कर लूँगा।
अभी आपकी हालत ऐसी नहीं है कि मैं आपको छोड़कर आराम करूँ। और इंसान हूँ, मेरे भी भीतर से कई बार आवेश उठता है कि छोड़ो न, जब इनको ही नहीं सुनना है तो मैं इनके पीछे क्यों मरा जा रहा हूँ! पर मेरे भी भीतर कोई घुसा हुआ है भूत, चुड़ैल। भूत कहता है कि ठीक है छोड़ देंगे इनको पर अभी अपने पास है हिम्मत, अभी-अभी है ऊर्जा। जब तक प्रयास कर सकते हो करो, आगे छोड़ देंगे। ये मेरे साथ धोखा किया जा रहा है। मुझे मालूम है, ये भूत जो है न, ये मुझे कभी आपको छोड़ने नहीं देगा। मैं जितनी बार ये निश्चय करूँगा, फ़ैसला बनाऊँगा कि अब इनको छोड़ ही देते हैं, ये उतनी बार कहेगा, ‘छोड़ देंगे इनको छोड़ देंगे, दो महीने बाद छोड़ देंगे।’ तो मैं तो फँस गया!
अरे! रिश्तेदारी इतनी निभा रहे हो, एक बहुत मासूम-सा सवाल है, तो तुम्हारे ये रिश्तेदार गीता सत्रों में क्यों नहीं हैं? इतना प्यार है रिश्तेदारों से तो ये तुम्हारे रिश्तेदार गीता सत्रों में क्यों नहीं हैं? सवाल वैध है कि नहीं? वाजिब सवाल है कि नहीं है? इतना प्यार है आपको रिश्तेदारों से और इतना प्यार है आपको धर्म से कि नवरात्रि, दशहरा, धनतेरस, छोटी दिवाली, बड़ी दिवाली इन सबके पीछे आप दीवाने हो, तो यहाँ तो हम राम के ही गीत गा रहे हैं। आप यहाँ क्यों नहीं मौजूद हो? और फिर मुझसे कहते हो, ‘आप आराम कर लीजिए।’
आपकी सज़ा ये है कि आप एक-एक जो काम करोगे, जो गुलामी की दिशा में होगा, जो बंधनों के पक्ष में होगा, आपकी सज़ा ये है कि आपके हर उस काम के साथ मेरी तकलीफ़ बढ़ेगी। आप जब भी ऐसे काम करना, निश्चित ये जानकर करना कि आप जो कर रहे हो, वो मेरे ऊपर एक वार है। ये जो आप नकली ठहाके गुंजाओगे न नकली पार्टियों में, वो आपका एक-एक ठहाका जान लेना कि मुझे चोट की तरह पड़ रहा है। मैं सब देख रहा हूँ।
आपको क्या लग रहा है, चोट बस यही है कि बीपी बढ़ गया, सिर घूमने लग गया, चक्कर आने लग गया। चोट ये नहीं है, चोट वो है जो मुझे दिन-रात मिल रही है। मेरा काम मेरी ज़िन्दगी है, जो मेरे काम में मेरे साथ नहीं है वो मुझे चोट दे रहा है, सीधा हिसाब। आपकी बेईमानी का एक-एक काम, ऐसे मान लीजिए कि मेरे शरीर से खून की तरह बहता है। वो आप अपने एकांत में नहीं कर रहे हो, आपका निजी मसला नहीं है। वो आपने घाव दिया है मुझे।
पर मामला इतना सीरियस नहीं होना चाहिए। हैप्पी दिवाली, वेयर इज़ द मिठाई (दिवाली की बधाई, मिठाई कहाँ है)! कितना डर है आप में? किससे डर रहे हो? क्या प्रॉब्लम है यार? सब कुछ तो समझा दिया, सब कुछ तो बता दिया। सब जानते हो उसके बाद भी ऐसे (डरने का अभिनय करते हुए)। ‘दुनिया क्या कहेगी? लोग क्या कहेंगे? पापा ने ऐसा बोल दिया, हम क्या जवाब दें?’
अभी एक देवी जी का आया, ‘मेरे पापा’, पता नहीं पापा जी, पति जी, कौन-से जी बोल रहे हैं, ‘उन्होंने बोला, कोई फ़लाने बाबाजी को लेकर कि वो फ़लाने बाबाजी के पास इतने बड़े-बड़े लोग आते हैं, तुम्हारे आचार्य जी के पास कौन आता है, उनमें क्या खासियत है? मैं चुप रह गई, मैं कुछ बोल नहीं पाई।’ क्या नहीं बोल पाई? क्या नहीं बोल पाई? अगर बात सिर्फ़ बोलने की है, तुम्हारे पास बोलने के लिए सौ तर्क हैं जो कि बिल्कुल प्रत्यक्ष हैं, और प्रत्यक्ष नहीं है तो मैं सौ बार बोल चुका हूँ अपने मुँह से। फिर से बताए देता हूँ।
तुम्हारे बाबाजी जितने भारतीय दर्शन हैं, सब पर बात करते हैं, जानते हैं, पढ़ा है, पाश्चात्य दर्शन पढ़ा है? तुम्हारे बाबाजी का वो शैक्षणिक बैकग्राउंड है जो आचार्य जी का है? और तुम्हारे बाबाजी के पास जो बड़े-बड़े लोग आते हैं न वो आते नहीं हैं, भेजे जाते हैं क्योंकि उसके साथ राजनीति चलती है। कोई नहीं आता अपनेआप वहाँ पर। उनको कभी लालच दिखाकर, कभी धमकाकर बाबाजी के दरबार में पेश किया जाता है ताकि पब्लिसिटी हो पाए कि बाबाजी बड़े आदमी हैं, ‘देखो, इतना बड़ा आदमी आया वहाँ पर।’ नहीं तो क्रिकेटर और फ़िल्मस्टार ऐसे वहाँ जाकर नहीं बैठ जाने वाले। तुम्हारे बाबाजी ने उतने ग्रंथों पर बात की है, जिस पर आचार्य जी ने की है? नहीं। और आप बोलते हो, ‘मुझे कोई तर्क नहीं मिला, मैं अपने पापा को क्या जवाब दूँ जब पापा ने ऐसा बोला?’ तुम्हें तर्क कैसे नहीं मिला?
अपने मुँह मिया-मिट्ठू बनकर बोल रहा हूँ, ‘मेरी उपलब्धियाँ, मेरा बैकग्राउंड हर दृष्टि से यूनिक है।’ तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं है किसी को देने के लिए? मेरी मेहनत अपनेआप में उत्कृष्ट है, तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं है? वो मेहनत तथ्यों के रूप में सामने है। डेढ़-सौ किताबें हैं, तुम्हें कोई जवाब नहीं मिला पापा जी को देने के लिए? और जब तुम्हारी ये हालत है तो मैं आराम कैसे कर लूँ? मैं डेढ़-सौ किताबों को तीन-सौ किताब बनाऊँगा ताकि तुम्हें जवाब मिल जाए पापा जी को देने के लिए!
‘मुझे कोई जवाब ही नहीं मिला पापा जी को देने के लिए।’ पापा जी ने कहा, ‘बाबाजी के पास बड़े-बड़े आदमी आते हैं, आचार्य जी के पास क्यों नहीं आते?’ ‘मुझे कोई जवाब नहीं मिला, अब मैं रज़िस्टर नहीं करूँगी क्योंकि पापा जी ने तर्क जीत लिया है।’ तुम्हें जवाब मिला नहीं या तुम्हारा डर इतना ज़बरदस्त है कि तुम्हारे मुँह से जवाब निकलता नहीं?
भरी रहती है कम्युनिटी इन्हीं बातों से। ‘फ़लाने ने आचार्य जी के बारे में ऐसा बोल दिया, मैं कुछ बोल नहीं पाया।’ तुम बोल नहीं पाए क्योंकि कमज़ोर हो, स्वार्थी हो। तुममें पौरुष की कमी है तो तुम जानो। नहीं तो जिन्हें बोलना है, उनके पास बोलने के लिए उपन्यास भरकर मसाला है। वो इतना बोलें कि सुबह से रात हो जाए। ‘मैं कुछ बोल नहीं पाया!’
तुम्हारे मुँह पर स्वार्थ का ताला लगा है तो कोई क्या करे! तुम नहीं बोल पाए और चाहते हो कि मैं भी न बोलूँ। ‘आचार्य जी आप भी मत बोलिए, आराम करिए।’ मैं आराम करूँ? तुम तो कहीं कुछ नहीं बोल पाओगे दुनिया के आगे, कम-से-कम मैं तो बोलता रहूँ। दुनिया के आगे जाते ही घिघ्घी बन जाती है। फिर लोग पूछते हैं, लोग पूछते हैं, लोग कहते हैं, ‘आचार्य जी के पाँच करोड़ हैं यूट्यूब पर ही अनुयायी तो ये कहीं दिखाई क्यों नहीं पड़ते?’ दिखाई इसलिए नहीं पड़ते क्योंकि डरपोक हैं।
छुप-छुपकर अभी भी सत्र देख रहे होंगे न जाने कितने लोग, तो कैसे दिखाई पड़ेंगे? ये थोड़ी सड़कों पर सामने आएँगे, ये थोड़े ही घोषणा करेंगे। तो बहुतों को ताज़्जुब होता है, कहते हैं, ‘ये सब हैं तो इतने सारे पर ये कहीं दिखाई क्यों नहीं पड़ते?’ क्योंकि छुपे हुए हैं इसलिए नहीं दिखाई पड़ते। डर के मारे छुपे हुए हैं। उनके घरवालों को भी नहीं पता है कि वो.. हिम्मत ही नहीं है। और मैं आपको फिर दोष भी नहीं दे सकता क्योंकि मैं आपके लिए काम कर ही इसीलिए रहा हूँ, क्योंकि आपकी हालत इतनी खराब है।
डॉक्टर पेशंट को कैसे दोष दे दे बीमार होने का! डॉक्टर उसके पास है ही इसीलिए क्योंकि वो बीमार है। तो मैं एक सीमा से आगे आपको दोष भी नहीं देता हूँ कि आप इतने ज़्यादा भयभीत रहते हो। पर आप भयभीत रहते हो तो रहो, मुझे मेरे कर्तव्य से मत रोको। जब तक आपकी ये हालत है, जो है, मुझे तो कुछ करना पड़ेगा न।
और है कुछ? ये सन्नाटा क्यों है भाई! सब भग गए, कोई नहीं बचा। कुछ और है?