चित्रा त्रिपाठी: बहुत बहुत शुक्रिया और भगवान बुद्ध की मूर्ति हमारे सामने है। तो मैं बुद्धं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। इसी से शुरुआत करती हूँ। लेकिन जब भी आचार्य प्रशांत की बात होती है तो गीता का ज़िक्र करना बहुत ज़रूरी हो जाता है। कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। कर्म किए जा बिना फल की इच्छा के। गीता का आपके जीवन पर क्या प्रभाव है?
मैंने न जाने कितने आपके वीडियो देखे हैं। हर जगह गीता के संदेश को अलग अलग रूप में आप व्याख्याएं करते हुए दिखाई देते हैं। तो उसका संदेश क्या है और उसके बाद यहाँ पर मैं देख पा रही हूँ बहुत कम उम्र के यंग एज के यहाँ पर यूथ मौजूद हैं। हालांकि तालियां तो कम बजी हैं। जब तक इस प्रांगण के बाहर तालियों की गूंज नहीं जाए, तब तक माना नहीं जाता है। और इधर वाले तो लग रहा है कि दिन भर काम करके थक चुके हैं। अब उनको कुर्सी नहीं मिली है तो वो क्या कर सकते हैं। सारा खेल ही कुर्सी का है जब हम दिल्ली में होते हैं तो।
गीता के संदेश को युवाओं के सामने आप कैसे प्रस्तुत करेंगे?
आचार्य प्रशांत: देखिए, हमे इंसान बनाती है गीता। तो आप अगर पूछे कि जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है गीता का तो मैं कहूँगा जीवन ही गीता ने दिया है। प्रभाव किसी चीज़ पर तब पड़े जब वो चीज़ प्रभाव से पहले भी हो, जिनके जीवन में बोध साहित्य पहुंचा ही नहीं। मैं विनम्रता से कहता हूँ, उनके जीवन की अभी शुरुआत हुई ही नहीं। तो गीता जीवन को बेहतर नहीं बनाती है गीता जीवन देती है, गीता हमें पैदा करती है। तो इसलिए बहुत सारे जानने वालों ने, महापुरुषों ने गीता को मां कहा है अपनी कि वो हमें पैदा ही करती है। उसके पहले तो हम वैसे ही होते हैं जैसे इंसान का बच्चा पैदा होता है, तो पशुवत होता है, जानवर जैसे होते हैं। जब ज़िन्दगी में समझ आती है, बोध की गहराई आती है, ऋषियों का, ज्ञानियों का सानिध्य आता है, तब जा करके हम अपने आप को इंसान कहलाने के लायक बनते हैं। तो वही मेरा काम है। सब तक गीता का संदेश पहुंचा रहा हूँ।
और दुनिया के जितने भी उच्चतम बोधग्रंथ है, मैं सबको गीता ही मानता हूँ। तो वो सब गीता ही है। अलग अलग परिवेश की गीता, अलग अलग भाषाओं की, अलग अलग संदर्भों की गीता है वो, तो वो लोगों तक ले जाना और ले जाना इसलिए बहुत ज़रूरी है क्योंकि आज जो इंसान है, जिसको मैंने कहा कि पैदा, तो वो जानवर ही होता है, उसके पास आर्थिक और नॉलेज की, सूचना की, तकनीकी ताकत बहुत आ गई है। उस तक अगर हमने समझ नहीं पहुंचाई तो वो पूरी दुनिया को ही तबाह कर डालेगा। तो इसलिए ये जो गीता मिशन है, यह आज सिर्फ़ ज़रूरी नहीं है, यह आज के युग की अनिवार्यता है। मैं ऐसा समझता हूँ।
चित्रा त्रिपाठी: लेकिन जब हम गीता को पढ़ते हैं और कर्म के सिद्धांत को लेकर आगे बढ़ते हैं तो हमने यह भी महसूस किया है और देखा है जब भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को बता रहे होते हैं। अपने ही सामने कोई अपना खड़ा हो और उसके खिलाफ युद्ध करना हो। मौजूदा वक़्त में भी हमने देखा है, कई बार इस तरह की परिस्थितियां पैदा हो जाती है, खासतौर से युवाओं के सामने। तो इनको किस तरह से आप शिक्षित करेंगे और गीता को अगर कुछ शब्दों में बांध कर इनके सामने प्रस्तुत करना हो, ताकि इनके जीवन में बड़ा बदलाव आ पाए। तो आपका क्या संदेश होगा?
आचार्य प्रशांत: देखिए श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि दो तलों पर किसी से अपनापन हो सकता है। एक तो यह कि उससे जन्म का रिश्ता है, देह का रिश्ता है, खून का रिश्ता है, या कि परंपरा का रिश्ता है, समाज का रिश्ता है, संस्कृति का रिश्ता है, समय का रिश्ता है, कि पड़ोसी है हमारा जिसके साथ दस साल से पड़ोस है। तो एक तरह का अपनापन तो ये होता है कि मेरा भाई हो गया या मेरा दोस्त हो गया, या मेरा पड़ोसी हो गया, या कि मेरे ही पंथ का, मेरे ही समुदाय का हो गया। यह एक तरह का अपनापन है और दूसरे तरह का अपनापन होता है कि वो सब लोग जो अपनी ज़िन्दगी को एक सार्थक दिशा में ले जा रहे हैं, मैं उनको अपना मानता हूँ। जो खुद ऊँचा उठना चाहता है और मुझे भी ऊँचाई देना चाहता है, मैं उसको अपना मानता हूँ।
तो ये दो तरह का अपनापन है और गीता इनमें भेद करती है, नकार नहीं रही है, व्यवहारिक तल पर, तो हमें वही अपने लगेंगे ना। अपना भाई है, अपनी बहन है तो वो अपने हैं, अपना पडोसी है या जिन भी लोगों को हमने कह दिया माय दिस, माय दिस कम्युनिटी है तो वो अपने लगते हैं।
तो गीता कह रही है ठीक है, वो अपने हैं लेकिन उससे ऊँचा एक अपनापन होता है और उससे ऊँचा अपनापन वो होता है जैसे कि अर्जुन के श्रीकृष्ण अपने हैं। तो वहां कुरक्षेत्र में खड़े होकर के अर्जुन न अपनी माँ के वचन सुन रहे हैं, न अपने बड़े भाई के वचन सुन रहे हैं, न अपनी पत्नी के वचन सुन रहे हैं, जबकि उनके सा भी अपनापन तो है पर उनके साथ एक निचले दर्जे का अपनापन है, उसकी तुलना में श्रीकृष्ण के साथ एक ऊँचाई का अपनापन, एक दूसरे तल का अपनापन है। तो कृष्ण कह रहे हैं, जब इन दो तलों में संघर्ष आ जाए तो ऊपर वाले तल को चुनना, अपना उसे मानना जो तुम्हें ऊँचाइयां देता हो, चेतना की। और जो तुम्हारे साथ शरीर के माध्यम से या संस्कारों के माध्यम से या समय और संयोग के माध्यम से भी जुड़े हुए हैं, अपने हैं, कोशिश करो कि उनसे भी अपनापन ऊँचे तल का हो सके। सिर्फ़ इसलिए कि किसी से खून का रिश्ता हो गया तो उससे जो अपनापन आता है वो कोई बहुत गहरा नहीं होता। गहरा अपनापन तब होता है जब आत्मिक अपनापन हो। तो गीता उस आत्मा की ओर हमको ले जाना चाहती है।
चित्रा त्रिपाठी: लेकिन जब हम मौजूदा वक़्त में हम देखते हैं, खून के रिश्ते का आपने ज़िक्र किया, बहुत सारे सम्बन्ध मौजूदा वक़्त में विच्छेद हो रहे हैं। भाई भाई में हो, परिवार में हो, माँ बाप में हो, पति पत्नी का हो, तो उनके लिए क्या, क्योंकि जब भी हम इस बात का ज़िक्र करते हैं कि सम्बंधों का विच्छेद इतने बड़े पैमाने पर हर रोज़ इस तरह की खबरें आती है। उसको जोड़ने के लिए गीता का सार क्या है।
और एक और सवाल जो मेरे ज़ेहन में है। देखिए, आपने ज़िक्र किया कि जो हमें ऊपर लेकर जाए, हमें उसके साथ जोड़ना चाहिए। लेकिन मेरा ये सवाल है उसी में जब बात आ जाती है कमिया ढूंढ की या आपको कम तराने की आलोचना करने की तो आलोचना दो तरह की होती है। एक जो हमारी कमियों को सुधार कर आगे बढ़ने में मदद करती है। और दूसरी वो जो हमें मौजूदा वक़्त में हम जहाँ पर खड़े हैं, उसमें कमियां निकाल कर हमें और पीछे ढकेलती है, हमारे कॉन्फिडेंस को आत्मविश्वास को कमजोर करती चली जाती है। तो यहां पर हम कैसे भेद क है कि कौन हमें आगे लेकर जा रहा है?
आचार्य प्रशांत: बहुत बढ़िया मुद्दा है। पहला सम्बन्ध-विच्छेद का मुद्दा। देखिए जिस निचले दर्जे के अपनेपन की हमने बात करी न वहाँ अपनापन संयोग से होता है। हम अपना पड़ोसी चुनते नहीं हैं आमतौर पर। हम ये भी नहीं चुनते कि हम पैदा कहाँ होंगे, हम अपने भाई बहन नहीं चुनते, हम स्कूल में गए, वहाँ कौन हमारी क्लास में, हमारे सेक्शन में था, हमने ये भी नहीं चुना और ऐसे ही लोगों से ज़्यादातर हमारी दोस्ती हो जाती है। तो भी संयोग की बात हो गई बहुत हद तक। आप इस पूरी दुनिया में किस जगह पर पैदा होंगे वो भी आपने नहीं चुना, आपने अपना लिंग भी नहीं चुना। तो वो जो साधारण दर्जे के अपनेपन होते है वो संयोगिक होते है। और नियम यह है कि जो चीज़ संयोग से आएगी वो संयोग के पलटने पर चली भी जाएगी। तो इसलिए सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है।
एक दिन था जब लहर उठी थी, संयोग की हवा चली थी, कोई बहुत पसंद आ गया था। दूसरा दिन आएगा जब हवा का रुख बदल जाएगा। और जो कल बहुत पसंद था, अब वो पराया सा लगेगा।
तो अगर हम रिश्तों में स्थायित्व चाहते हैं। अगर हम ये चाहते है कि हमारे रिश्ते सहयोग की दया पर आश्रित न रहे। तो हमें उनको कोई ऐसा आधार देना पड़ेगा जो संयोगों से आगे का हो, संयोग से आगे का हो और वहीं जो आधार है, जिस पर संयोग का, समय का, समाज का, असर नहीं पड़ता, कृष्ण हमें वहां ले जाना चाहते हैं। शास्त्रीय तौर पर उसको आत्मा कहा गया है जो संयोग से परे है। जो तुम्हें समय ने नहीं दे दिया। वो ऐसी चीज़ नहीं है कि बस यूँही कोई प्रभाव पड़ा था। तो आप पर छा गई और प्रभाव हटेगा तो वो हट जाएगी। वो चीज़ आपकी अपनी है। तो जब रिश्तों में वो आत्मिकता रहती है तो फिर रिश्ते आसानी से नहीं टूटते और न फिर रिश्तों में शोषण होता है।
देखिए भारत में अगर हम वैवाहिक सम्बंधों की बात करे तो वैसे भी रिश्ते टूटते तो नहीं है ज़्यादा दुनिया भर में संबंध विच्छेद की तलाक की। सबसे कम दर भारत में ही है। लेकिन इतना ही काफी नहीं होता न कि दो लोग साथ रह रहे हैं। वो साथ रहने में एक रस भी होना चाहिए, एक-एक मित्रता होनी चाहिए, आनंद होना चाहिए कि साथ रह नहीं रहे है। वो तभी आएगा जब, जब रिश्ता उम्र के के संयोगों के कारण नहीं बन गया। इसलिए भी नहीं बन गया कि कुंडली मिल गई, इसलिए भी नहीं मिल गया कि जाति मिल गई, इसलिए भी नहीं मिल गया कि किसी की शक्ल पसंद आ गई। जब उस रिश्ते का एक गहरा आधार होता है तो रिश्ता लम्बा चलता है, तो रिश्ता भी अगर लंबा चलाना हो तो जाना तो आपको गीता की ओर ही पड़ेगा। और लोगों को डर लगता है कि अध्यात्म से रिश्ते टूट जाते है। यह बिल्कुल उल्टी बात हो गई ना। अध्यात्म रिश्तों को तोड़ता नहीं है, गहराई देता है, अध्यात्म रिश्तों को शुद्धि देता है, अध्यात्म रिश्तों को ताकत देता है। और दूसरी चीज़ आपने क्या बोली थी संबंधित क्षेत्र के अलावा?
चित्रा त्रिपाठी: अध्यात्म का आपने ज़िक्र किया। एक लाइन जोड़कर अगला सवाल में पूछ लेती हूँ। अध्यात्म से यकीनन मानसिक शांति भी मिलती है जो अगर आप कहीं कार्य करते हैं तो भी बहुत ज़रूरी होता है और परिवार के लिए भी तो वो आपको मजबूती प्रदान करता है। मेरा यह सवाल है आलोचना एक जो आपकी कमियों को सुधार कर आगे बढ़ने में मदद करती है और दूसरी इतनी आलोचना कर देंगे लोग कि लगेगा कि मैं तो कुछ हूँ ही नहीं। और हमारा कॉन्फिडेंस इतना कमजोर हो जाएगा कि आज हम जहाँ पर खड़े हैं, हम उसके पीछे चले जाते है। तो इसका भेद कैसे करें?
आचार्य प्रशांत: इसमें तो भेद सामने वाले की नीयत में ही है सबसे पहले। किसी को बताना कि तुम ये गलती कर रहे हो और इसको सुधार लोगे तो बेहतर बन जाओगे एक बात है। और किसी के सुधरने की क्षमता ही समाप्त कर देना बिल्कुल दूसरी बात है। तो जब ज्ञानियों ने कहा है कि निंदक नियरे राखिये, तो उनका आशय है कि वो जो सचमुच आपको उठाने के उद्देश्य से आपकी निंदा करता हो, ऐसी निंदा को आलोचना कहते हैं। उसमें उसमें लोचन शब्द हैं माने देखना कि जो देख पा रहा है कि सचमुच आप कहाँ पर गलती कर रहे हो, जिसके पास खुद देख पाने की क्षमता है तो यह भी जानता है कि दूसरे को उठाने में अपना भी हित है। तो वो एक बात होती है और दूसरा ये कि ये आदमी खुद ही गिरा हुआ है तो थोड़ा सा बेहतर अनुभव करने के लिए चाहता है दूसरे और ज़्यादा गिर जाए तो ये हर समय लगा रहता है दूसरे की टांग खींचने में।
वो जैसे वो पुराना है नहीं कि मेंढक हैं और बाहर निकलना चाह रहे हैं, किसी बर्तन में फंस गए हैं और नीचे उसमें से गर्मी आ रही है, बाहर निकलना चाह रहे हैं। एक मेढक कूदने की कोशिश करता तो नीचे से सब मिलके उसकी टांगें खींच लेते हैं, वो निशानी है ऐसे आदमी की जो न सिर्फ़ खुद चेतना के तल पर गिरा हुआ है बल्कि उठना भी नहीं चाहता और वो चाहता है कि मैं गिरा भी रहा हूँ और फिर भी ऐसा महसूस करूँ की जैसे मैं बढ़िया हूँ, उठा हुआ हूँ तो मैं कैसे अनुभव करूँगा अपने बारे में अच्छा। जैसे पुराना उदाहरण है कि अपनी लकीर छोटी है लेकिन अपनी लकीर को बड़ा मानना है तो सामने वाले की लकीर भी छोटी कर दो। तो ये फिर सामने वाले को भी गिराने के लिए उत्सुक रहता है।
दूसरा व्यक्ति होता है जिसकी लकीर अब इतनी बड़ी हो गई है कि उसे अपने लिए अब कोई ख़तरा नहीं है, अपने लिए कोई कामना नहीं है, उसको पता है उसकी लकीर अब छोटी हो नहीं सकती है, उसे बढ़ने का भी अब कोई शौक रहा नहीं। तो फिर वो सब छोटी लकीरों के पास जाता है और उनको बताता है कि तुम छोटे रह जा रहे हो ये कारण है तुम्हारी प्रगति में यह बाधा है, यह भी एक तरह से खोट बताने वाली ही बात है लेकिन नीयत का अंतर है। तो उनको बता रहा है कि तुम अगर ये सब बातें अपने मन से निकाल दोगे, अपने आचरण से निकाल दोगे, अपनी मान्यताओं से हटा दोगे तो तुम भी एकऊँची लकीर बन सकते हो। तो मैं ऐसे कहूँगा कि आलोचक का जीवन में स्वागत करिए, पर जो बस खराब नियत वाला निंदक हो उससे बच के चलिए।
चित्रा त्रिपाठी: यह बहुत सुन्दर बात आपने कही है और मैं अपना अनुभव शेयर करते हुए चार लाइन में पर मैं आगे बढूंगी।
मैं गोरखपुर की रहने वाली हूँ और २००५ की बात है वहाँ पर मुझे बड़ा शौक था। मैं बहुत सामान्य परिवार में जन्मी तो मुझे बड़ा शौक था। मैं दिल्ली जैसे शहर में जाकर नौकरी करूं क्या ये ख्वाब कभी सच हो पाएगा नहीं हो पाएगा तो कुछ लोगों की अब मध्यम वर्गीय सामान्य परिवार का बच्चा क्या करता है। अपने टीचर्स के पास जाकर या जो भी उसको योग्य लगता है उसके पास जाकर, वो अपनी बातों को कहता है। तो मुझे आज भी अच्छे से याद है। यह २००५ का वाकया है कि जब मुझे कहा गया था कि इस लड़की के तो बड़े पंख निकल आए हैं, गोरखपुर में काम नहीं करना चाहती है, उसको तो दिल्ली दिखाई देता है। और हम लोगों के पास उतने संसाधन भी नहीं थे। दिल्ली तो बहुत दूर की बात थी, टिकट खरीदने तक के लिए दस बार सोचना पड़ता था। लेकिन आज मैं एबीपी न्यूज चैनल में वाइस प्रेसिडेंट हूँ। मैं यहाँ पर रात के ९ बजे और शाम के ५ बजे का शो करती हूँ और बहुत सारे आलोचक ज़िन्दगी में आए ज़िन्दगी में चले गए लेकिन जब हम अपने आत्मविश्वास को साथ में लेकर चलते हैं कि कुछ भी हो जाए, चिड़िया की आँख यही है, वही देखना है अर्जुन की तरह तो फिर हमें इधर उधर भटकना नही चाहिए।
खासतौर से युवाओं के लिए क्योंकि अगल-बगल बहुत सारे ऐसे लोग आचार्य जी हमारे जीवन का हिस्सा होते हैं और आजकल तो दिक्कत ये हो गई है कि अपनी खुशी में आदमी खुश नहीं होता है। दूसरों की खुशी देखकर वो ज़्यादा परेशान हो जाता है तो ऐसे लोगों से बहुत बच के रहने की ज़रुरत है और खासतौर से जो नकारात्मकता फैलाते हो।
चित्रा त्रिपाठी: अब मैं आ जाती हूँ आपके बहुत सारे वीडियोज़ में मैंने देखा है, श्रुति और स्मृति का आप ज़िक्र करते हैं और लोगों को समझाते हैं कि लोगों को इसके बारे में फर्क नहीं पता। तो आज इतने सारे लोग बहुत सारे यकीनन होंगे जिनको नहीं जानकारी होगी। तो आप कैसे बताएंगे कि श्रुति क्या है, स्मृति क्या है और ये दोनों हमारे जीवन को लेकर आगे कैसे बढ़ते हैं?
आचार्य प्रशांत: धन्यवाद आपका, आपने बहुत अच्छा मुद्दा उठाया। देखिए जो जिसको हम हिंदू धर्म कहते हैं या सनातन धर्म कहने लगे हैं। इसकी एक बड़ी पुरानी और बहुत सारी शाखाओं वाली धारा रही है, जैसे एक बहुत लम्बी नदी हो। तो उसमें हम जानते हैं उसमें से बहुत सारी शाखाएं टूटती भी हैं और बहुत सारी छोटी नदियाँ आकर के उसमें मिलती भी हैं जिन्हें हम कहते हैं ट्रीब्यूटरीज, डिस्ट्रीब्यूटरीज तो ऐसा ही रहा है। तो उधर समझ लीजिए कि अफ़ग़ानिस्तान से लेकर दूर आसाम तक और अरूणाचल तक और उधर इतना लम्बा उधर कश्मीर से लेकर के नीचे कन्याकुमारी तक और दो हज़ार साल इधर और दो हज़ार मान लीजिए करीब चार से पाँच हज़ार साल का दायरा जब सारा जो बोध साहित्य था वो रचा गया और संवाद के, संप्रेषण के बहुत अच्छे साधन उपलब्ध नहीं रहे क्योंकि हम बात कर रहे हैं ईसा से भी दो दो-ढाई हज़ार साल पहले की लेकिन बहुत सारे लोगों ने अपनी क्षमता के अनुसार जो भी उन्हें ऊँची सेऊँची बात लगती थी वो उन्होंने लिखी।
तो एक बहुत डायवर्स किस्म का कह लीजिए कि संकलन कलेक्शन पैदा हो गया। तो फिर ऋषियों ने कहा कि इसमें से जो कोर, केंद्रीय बात है उसको अलग कर देते हैं। और बाकी बातों को अलग कर देते हैं। रखते दोनों को हैं, पर एक भेद पैदा कर देते है। जो कोर बात है, बिल्कुल जनमानस की भाषा में समझा रहा हूँ, ताकि वरना श्रुति स्मृति। ऐसा लगता है कि बहुत टेक्निकल बात हो गई, तो बहुत मैं उसको जमीनी तौर पर समझाने की कोशिश कर रहा हूँ। तो जो कोर बात है, उसमे कोई छेड़ छाड़ हो ही न सके। यह निश्चित किया गया। और जो दूसरी चीज़ है, उसमे पूरी आजादी दी गई कि तुम्हें जो करना है करो। तो दो अतियां निर्धारित करी गई, कुछ शास्त्र, कुछ किताबें, एक तरफ कर दी गई। और कहा गया कि इनको छेड़ मत देना। उनको कहा गया अपौरुषेय। अपौरुषेय माने, यह इनसान की नहीं आई है। कहा गया कि ये इंसान की है, नहीं, तो इंसान इनमें रद्दोबदल कैसे कर सकता है इंसान इनका संपादन नहीं कर सकता, इंसान इनमें एक ध्वनी भी आगे से पीछे नहीं कर सकता।
और दूसरी ओर एक बहुत विस्तृत संकलन साहित्य का रखा गया, जिसमें कहा गया कि आप जब चाहो, जो चाहो जोड़ सकते हो, जिसमें हम कुछ नहीं बदल सकते, वो सनातन धर्म का मर्म है, वही सनातन धर्म है असली और उसका नाम है श्रुति, उसका नाम है श्रुति। और बाकी, वो सब कुछ जो अपौरुषेय नहीं है, मानो इंसान ने रचा है। और इसलिए इंसान उसकी आलोचना भी कर सकता है। और इंसान उस बात को और आगे भी ले जा सकता है। उसको कहा गया स्मृति।
और नियम यह बनाया गया कि चूँकि श्रुत केन्द्रीय बात है तो स्मृति को हमेशा श्रुति से मेल बनाकर चलना पड़ेगा, क्योंकि केंद्रीय बात तो श्रुति है। तो स्मृति में आप जो चाहे, जिस तरह की चाहे बात कर सकते हो, आप जितनी चाहो नई किताबें लिख सकते हो। यह बिल्कुल हो सकता है कि आज आप भी अपने ध्यान से, अपने बोध से कोई ग्रंथ लिखे और वो बहुत लोगों द्वारा स्वीकार किया जाए और लोग उसमें उपयोगिता पाएं, तो उसको भी स्मृति साहित्य में स्थान मिल जाए। तो स्मृति तो इंसानों के हाथ में है। संत साहित्य जो है, वो भी स्मृति में आ जाता है। और जबकि संत साहित्य भी बहुत हाल का है, कुछ सौ साल पहले का है। श्रुति में सिर्फ़, वेद और वेदांत आते हैं। वास्तव में वेद, वेदांत तो वेद का ही हिस्सा है। तो शुद्द माने, वेद और वेदों के भी दो हिस्से हैं। एक वो जिसमें कर्मकांड है, जिसमें पूजा, हवन, यज्ञ की विधियां हैं, देवताओं की स्तूतियां हैं। यह सब है।
और दूसरा वो जिसमें दर्शन है। तो वेदों में भी जो दर्शन है, उसको माना गया वेदों का शिखर, इसलिए उसको नाम दिया गया वेदांत। तो वेद स्वयं यह कहते हैं कि हमारा जो उच्चतम हिस्सा है, वो हमारा ज्ञानकांड है। इसलिए उसका नाम है वेदांत, वेदांत माने जहाँ पर, वेद पहुंच कर के अपनी निष्पत्ति पा जाते है। जो वेदों की ऊँचाई है आखिरी शिखर, पिक। तो श्रुति माने व्यवहारिक तौर पर हुआ वेदांत, वेदांत माने उपनिषद। और वेदांत को जब और व्यापक तौर पर हम लेते हैं तो प्रस्थानत्रयी आ जाती है जिसमें उपनिषदों के अलावा फिर भगवद्गीता और वेदांतसूत्र माने, ब्रह्मसूत्र बादरायण के वो आ जाते हैं।
तो बस इतना ही है, जो अपौरुषेय है, इतना ही है, जो कोर है, हिंदु धर्म का। बाकी जो सब कुछ है, वो बढ़िया है, अच्छा है, उसमें लालित्य हो सकता है, सौंदर्य हो सकता है, पर वो पूजनीय सिर्फ़ तब है जब वो उपनिषदों के साथ चलता हो अन्यथा वो बहुत अच्छा साहित्य माना जाएगा।
चित्रा त्रिपाठी: श्रुति आगे है, स्मृति पीछे हैं?
आचार्य प्रशांत: बिलकुल है। मैं इसमें उदाहरण दिया करता हूँ सुप्रीम कोर्ट का और जो लोवर कोर्ट होते हैं उनका। तो लोवर कोर्ट के पास भी जुरिस्डिक्शन होता है, वो भी अपने अधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं, जजमेंट पास कर सकते हैं। लेकिन लोअर कोर्टस कोई ऐसा जजमेंट नहीं दे सकते जो सुप्रीम कोर्टस के जजमेंट के खिलाफ हो। और लोअर कोर्ट ने ऐसा कोई जजमेंट दे दिया तो सुप्रीम कोर्ट फिर निरस्त भी कर देता है उसको। तो जो श्रुति है, वो सनातन धर्म का उच्चतम न्यायालय है। बाकी सब किताबें जो कुछ कहती हैं, कोई भी किताब हो स्मृति की, बाकी और उनमें सब हमारा इतिहास ग्रंथ आते हैं, हमारा षडदर्शन आता है, हमारे पुराण आते हैं, ये सब कुछ आता है। तो कह रहे है ये अच्छी बातें हैं, ये सब हैं, उसमे कहानियां हैं बहुत सारी, ये है, वो है सब, ये सारी बातें सुन्दर है। पर हम उनको धार्मिक आध्यात्मिक पूजनीय सिर्फ़ तब मानेंगे जब वो उपनिषदों के साथ चलती हो। अगर स्मृति की बातें उपनिषदों के साथ नहीं चल रही तो फिर स्मृति को भी नहीं माना जाएगा। श्रुति अकेली है जिसको सदा मानना पड़ेगा अगर आप अपने आप को हिन्दू बोलते हो तो। तो हिंदु धर्म जो है वो वास्तव में वेदांत का माने उपनिषदों का धर्म है।
लेकिन चूँकि जैसा हमने कहा इतना पुराना है और ये इतना विराट क्षेत्र था जहाँ पर साहित्य की रचना हुई सबने करी तो हजारों ग्रंथ आ गए। और आज भी ऐसा सहिष्णु है सनातन धर्म कि सबको अपने अपने ग्रंथ रचने की पूरी छूट है। आप जो कहना चाहते हो, आप कह सकते हो, कट्टरता नहीं है, ऐसा नहीं है कि एक बात है, एक किताब है और कोई नई किताब आ नहीं सकती, आप चाहते हो आप आज भी कुछ बोल सकते हो, लेकिन एक व्यवस्था कर दी गई है की भाई जो कुछ बोलना, ऐसा बोलना की उपनिषदों से वो मेल बिना कर चले। उपनिषदों के खिलाफ हो गए तो फिर जो तुम्हारी बात है वो तुम्हारे लिए ठीक हो सकती है। पर फिर आप ये नहीं कह सकते की वो बात सनातन है।
अब गड़बड़ क्या हो रही है कि स्मृति की जो बहुत सारी व्याख्याएँ हैं, जो आज प्रचलित है, वो श्रुति सम्मत है ही नहीं, और अगर स्मृति की व्याख्या श्रुति सम्मत नहीं है तो वो स्मृति फिर हिंदु धर्म की नहीं मानी जा सकती। और ज़्यादातर जो हिंदु हैं, जब उनसे कहा जाए कि तुम कौनसे ग्रंथ को पढ़ते हो, पालन करते हो तो वो किसी स्मृति ग्रंथ का ही नाम लेंगे, स्मृति ग्रंथ को आप पूजे ये निःसंदेह अच्छी बात है लेकिन आपको स्मृति का अर्थ वो करना पड़ेगा जो श्रुति के साथ चले। अगर आप स्मृति को पूछ रहे हो और उसका अर्थ ऐसा है जो उपनिषदों की बात से बिल्कुल अलग है जो कि हो रहा है आज, 99% लोग स्मृति को न जाने क्या अपना मन गढन अर्थ दिए हुए हैं तो फिर वो जो आप स्मृति का अर्थ कर रहे हो वो आपको मुबारक हो लेकिन वो सनातन अर्थ नहीं है।
चित्रा त्रिपाठी: कई बार बदली हुई परिस्थिति में हमने, अब तुलसीदास जी ने जो लिखा है उसको भी समय समय पर परिवर्तित किया जाता रहा है और हमने देखा है कि मौजूदा वक़्त में उसको लेकर कितने सवाल रामचरितमानस के तौर पर भी उठते हैं अब उस पर नहीं जाते हुए बहुत सारे लोग हैं यहाँ पर क्योंकि ये चर्चा चलेगी तो शास्त्रार्थ को लेकर बहुत लंबा विषय होता है और उसमें काफी वक़्त लग जाता है।
जो युवा आबादी इस वक़्त हमारे सामने हैं उनके लिए आपके पास क्या खास है। कई बार हमने देखा है अपने आत्मविश्वास को कमजोर करते हुए, अकेले बैठकर रोते हुए अगर कहीं फेल हो गए तो कई लोगों के दिमाग में गलत कदम उठाने की भी इस तरह की भावनाएं आती है जो बहुत बुरी होती हैं, कई अपने परिवार से या समाज से एक दूरी बना लेते हैं। तो ऐसे लोग जो हमारे सामने हैं जिनके जीवन की ये अलग-अलग व्यवहारिक समस्याएं हैं उन समस्याओं को ये कैसे दूर करे और इससे भी देखिए सोशल मीडिया का आचार्य जी जमाना है और मोबाइल पर सब कुछ केंद्रित है और मोबाइल का इस्तेमाल ये लोग ज़्यादा करते हैं लेकिन मोबाइल की एक दिक्कत यह भी है कि जो हम पढ़ते हैं वह बहुत लंबे समय तक याद नहीं रहता जबकि अगर हम किताबों में उसको पढ़ेंगे तो वो बहुत लंबे समय तक हमें याद रहता है।
तो इनके लिए आपके पास क्या शिक्षा है ताकि ये अपने जीवन को बदल पाए और जो भी इनका लक्ष्य है जो सपना है अपने मां बाप की जो इच्छा है यह समाज के लिए इनका जो कॉन्ट्रीब्यूशन होना चाहिए उसमें यह आगे बढ़ सके।
आचार्य प्रशांत: जवान आदमी को मजबूरी एकदम शोभा नहीं देती, एकदम। मजबूरी किसी को भी शोभा नहीं देती पर खासकर मैं जवान आदमी की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि आपके ऊपर तो न अभी आर्थिक कोई बंधन है। न आपके ऊपर अभी देह की बीमारी का बोझ है। न आप किसी अन्य तरीके से दबे हुए हो तो आपकी मजबूरी तो बस एक जगह से आती है। मान्यता, मान्यता। कुछ बातें ऐसी मान रहे हो जो आपको परेशान करे हुए हैं और उनके कारण ही आपकी ऊर्जा अभिव्यक्ति नहीं पा रही है। उनके कारण ही आपको बहुत दबा कुचला-सा, बहुत संकुचित जीवन जीने पर मजबूर होना पड़ रहा है तो मैं कहा करता हूँ कि अपनी मजबूरियों को परखो तो सही और पूछो अपने आप से इस इट नेसेसरी। है तो पर क्या आवश्यक है? मैं नहीं कह रहा हूँ कि काल्पनिक है मजबूरियाँ आपकी। लगती है आपको तो होगी, पर क्या जरुरी है, आवश्यक है? अब आवश्यक में भी फंस जाओगे, कई लोग कह देंगे कि आवश्यक तो सब्जेक्टिव होता है। हमें लगता है, आवश्यक है तो अब मैं उसको और, क्या अनिवार्य है? इस इट कम्पल्सरी? और अगर नहीं है तो ये देखो कि आपकी मजबूरी, फिर आपका चुनाव है।
जो चीज़़ अनिवार्य नहीं है, पर है इसका मतलब वो चुनी गई है, चुनी गई है ना। तो जो आप चुन करके जीवन में ला सकते हो, उसको आप चुन करके, जीवन से….
बोलो!
श्रोतागण: हटा…
आचार्य प्रशांत: हटा भी तो सकते हो न। तो देखो कि जो भी आपको तकलीफें हैं, दुख है, विषमताएं हैं, वो आपके चुनाव है। और वो ज़िन्दगी में आपकी तभी तक है, जब तक आप उनको पाल पोस रहे हो, दाना पानी दे रहे हो। हम अपनी तकलीफों को, अपनी कमजोरियों को खुद ही पोषण देते हैं। जिस दिन तुम अपनी कमजोरियों को, मजबूरियों को, दानापानी देना बंद कर दोगे, उस दिन ताकत अपने आप प्रकट हो जाएगी, बाहर आएगी। वेदांत कहता है, ताकत बाहर से कहीं नहीं खोजनी पड़ती। ताकत तो स्वभाव है। ताकत स्वभाव है, सब ताकतवर है यहां कोई नहीं बैठा है जिस में ताकत नहीं है, ताकत स्वभाव है।
लेकिन ताकत के ऊपर झूठमूठ की कमजोरी, मान्यता हमने पकड़ रखी होती है जबर्दस्ती। जिस दिन जो पकड़ रखा है, कमजोरी बना करके उसको छोड़ देते हो, उस दिन वो जो ताकत है, वो उद्भूत हो जाती है वो मेनिफेस्ट करने लग जाती है अपने आप को। लेकिन हम उल्टा करते हैं। जवान लोग भी, दूसरे लोग भी। हम कमजोरी पकडे पकडे, बाहर कहीं ताकत खोजने निकल पड़ते हैं। कमजोर तो रहेंगे, कमजोरी पकड़ रखी है, अपनी बड़ी प्यारी लगती है कमजोरी। मजबूरियों में बड़ी सुविधा लगती है। ऐसे ही थोड़ी मजबूरियां पकड़ी जाती है उनसे कुछ सुविधा मिल रही होती है। तो वो सब तो पकड़ रखा है, लेकिन साथ ही साथ ताकत भी चाहिए। ताकत चाहिए तो अब क्या करेंगे? बाहर जा करके ताकत खोजेंगे। कहेंगे आय विल बी एन अचीवर। आय विल गो आउट एन्ड बी स्ट्रोंग। बाहर कुछ नहीं मिलेगा। जो भीतर अपने दुर्बलता, झूठ-मूठ, जबर्दस्ती पकड़ रखी है, उसको गौर से देखो और देखो की विकल्प है उसको छोड़ने का छोड़ दो, यही है।
चित्रा त्रिपाठी: बहुत सुंदर बात आपने कही है। और आपकी बातों को आगे बढ़ाते हुए दो लाइनें मुझे याद आ रही हैं। खासतौर से युवाओं के लिए।
कि तकाजा है वक़्त का कि तूफान से जूझो, कहाँतक चलोगे किनारे किनारे।
तो ज़िन्दगी में जब भी इस तरह की विपरीत परिस्थितियां आए, जब लगे की ये राह बहुत कठिन नजर आती है। आपके खुद के भीतर का आत्मविश्वास ही आपको लेकर जाएगा। कोई कितना भी दिखे, जो भी सफल व्यक्ति है, कोई आपकी जान, पहचान का, हो सकता है, कुर्सी पर ले जाकर, थोड़ी देर के लिए बिठा दे, लेकिन वहां पर बैठे रहने के लिए। इसके लिए तो आपको योग्य होना पड़ेगा। और वो योग्यता आपको खुद के भीतर से लेकर आनी पड़ेगी, वो क्रिएट नहीं की जा सकती है। उसके लिए आपको खुद मेहनत करनी होगी।
अच्छा अब मेहनत शब्द का मैं इस्तेमाल कर रही हूँ तो मेहनत करने से आज का युवा पता नही क्यों वो भागता है। एक तो ये मोबाइल मतलब बहुत अच्छी चीज़ है हम हमारा भी सारा काम इस मोबाइल पर होता है देश के किसी कोने में रहे, विदेश में रहे कहीं पर भी। लेकिन मोबाइल एक तरीके से हमारे जीवन का अहम हिस्सा है तो बहुत सारी चीज़ें हमसे छीन के भी लेकर जाता है।
मैं अभी प्रयागराज कुंभ से आ रही हूँ, आज सुबह सुबह ही मैं वहां से लौटी हूँ तो कल रात को तकरीबन डेढ़ बजे के आस पास में अलग अलग हिस्सों में प्रयागराज में जाकर देख रही थी। तो मैंने देखा कि रात में जो छोटी छोटी दुकान देर में तो उनको हटा दिया जा रहा है भारी भीड़ की वजह से। रात में वो लोग दुकानें लगा रहे हैं और लोग कम आते हैं रात में खरीददारी के लिए तो ज़्यादातर लोग वहां पर बैठकर मोबाइल में कोई लूडो खेल रहा है, कोई यूट्यूब देख रहा है, कोई अलग सोशल मीडिया पर है तो मुझे देख के वो बहुत अच्छा लगा कि चलो। लेकिन जब ऑनलाइन क्लासेज होते हैं तो पता चलता है पंद्रह मिनट बच्चा ऑनलाइन क्लास कर रहा है, पंद्रह मिनट वो गेमिंग खेल रहा है। या नहीं लोगों में पंद्रह मिनट या कुछ पढाई कर रहे है और पंद्रह मिनट जाकर सोशल मीडिया झांक लेते हैं तो इसमें सुधार कैसे लेकर आए जाए। और सोशल मीडिया के जमाने में क्या आपको लगता है कि कितना वक़्त उस पर गुजारना चाहिए और कितना उससे दूरी बनाकर रखनी चाहिए?
आचार्य प्रशांत: अच्छा है, जो पहला हिस्सा था आपकी बात का मेहनत को लेकर था कि आज का युवा मेहनत से क्यों कतराता है? वो इसलिए कतराता है क्योंकि जिनको उसने मेहनत करते देखा है उनको बिल्कुल बिना दिमाग की मेहनत करते हुए देखा है। भारतीय आदमी बहुत मेहनत करता है आज भी। मैं बिल्कुल जेन ज़ी है अभी उनकी नहीं बात कर रहा पर जो आम भारतीय है बहुत मेहनत करता है, दिन भर खटता है। पर जो आज का लड़का है, लड़की है, वो जब उन लोगो को देखते है तो कहते है कि ये इतनी मेहनत कर रहा है इसको मिल क्या रहा है? तो ये जो मेहनतकश लोग हैं ये फिर जवान लोग के आदर्श तो नही बन पाते और बनना भी नहीं चाहिए। क्योंकि जो मेहनत कर रहा है वो अंधी मेहनत कर रहा है। वो शायद इतनी मेहनत कर इसलिए रहा है क्योंकि वो सही काम का ख़तरा नहीं उठाना चाहता। तो वो कहता है कि एक सुरक्षित काम करूँगा, भले ही उसमें दिन भर गधे की तरह खटना पड़े। अब गधा भी बहुत मेहनत करता है, कोई गधे को क्यों आदर्श बनाएगा? भले ही गधा बहुत मेहनती हो।
तो एक ओर पर तो ऐसे लोग हैं जो मेहनती हैं पर जिनकी मेहनत अंधी मेहनत है उस मेहनत में कोई बोध नहीं है। और दूसरी ओर उसने देखा है कि सफल वो सारे लोग हैं जिन्होंने कभी कोई मेहनत करी ही नहीं बस चालाकियाँ करी है। बस झूठ बोले हैं वो एकदम सफल हैं और बहुत बहुत जगहों पर यहाँ भी वहाँ भी, भारत में भी, दुनिया में भी बिल्कुल शीर्ष पर बैठ गए हैं बहुत कम मेहनत करके और बहुत ज़्यादा चालाकियाँ करके, और ये सब करके। दोनों ही स्थितियों में जवान आदमी कहता है मेहनत करके क्या मिलेगा? हम इनको भी देख रहे हैं जो मेहनत करते है और ये मेहनत करके बस गधे बने। और उनको भी देख रहे हैं, जो मेहनत नहीं करते है और मेहनत न करके और सब तरह की कुटिलताएँ करके वो शीर्ष पर पहुँच गए तो मेहनत मैं भी नहीं करूँगा।
लेकिन जानने वालों ने जो हमें समझाया है, वो बात न इधर की है, न इधर की है। वो बात कुछ और है। वो कहते हैं मेहनत तो पूरी चाहिए, लेकिन समझदारी के पीछे। और जो समझदारी, ज्ञान से थोड़ा कतराते हैं, वो तो कह दीजिए प्रेम के पीछे ज़िन्दगी में इश्क लाओ और फिर वो कमर-तोड़ मेहनत करवा ही देगा। हम कौन से इश्क़ की बात कर रहे हैं।
चित्रा त्रिपाठी: हाँ, यही मुझे लगा कि क्लियर करना बहुत ज़रूरी है, वरना पता चले कि यहाँ से जाने के बाद न जाने किस किस राह पर चल पड़े।
आचार्य प्रशांत: हाँ, पता नहीं फिर कौनसे इश्क़ की और कौन सी कमरतोड़ की बात कर ले ये।
(सब हँसते हैं)
हम कौन से इस की बात कर रहे हैं। यह बात हो रही है पारमार्थिक तल की। जो भीतर बैठा हुआ है, अहम उसकी सच्चाई के प्रति जो झुकाव होता है, वो इश्क़ कहलाता है। फिल्मी इश्क़ की बात नहीं हो रही है। जो लोक-संस्कृति का प्रेम है, उसकी बात नहीं हो रही है। मैंने तुमको दिल दे दिया, गुलाब का फूल ले लो, उसकी बात नहीं हो रही है। तो ज़िन्दगी में जब ऊँचाई के लिए आकर्षण आ जाता है, लगाव, झुकाव आ जाता है जिसको हम इश्क बोल रहे हैं, वास्तविक प्रेम बोल रहे हैं। तो फिर मेहनत अपने आप हो जाती है। तो मेहनत बहुत ज़रूरी है पर अंधी हमें सिर्फ़ गधा बनाती है। अंधी मेहनत से बचो पर मेहनत से मत बचो। मेहनत तो करनी पड़ेगी, पर मेहनत ऐसे ही मत करने लग जाना की कहीं भी लग जाए, मेहनत करे जा रहे हैं, करे जा रहे हैं, करे जा रहे हैं। नहीं, यह मत करने लग जाना, यह मत करने लग जाना।
इतनी प्रजातियां हैं दुनिया में। इंसान की अकेली प्रजाति है, जो कमरतोड़ मेहनत करती है, पशु पक्षी कोई उतनी मेहनत करती, जितना इंसान करता है। लेकिन इंसान से ज़्यादा बदहाल भी कोई नहीं है। तो बेकार की मेहनत मत करने लग जाना। खोजो की क्या है जिसके पीछे जान भी दी जा सकती है। और फिर उसके लिए जी कर दिखाओ। वो होती है असली मेहनत।
चित्रा त्रिपाठी: और इसको अगर थोड़ा और आगे बढ़ाते हुए जिस काम को हम प्यार करते है, जिसके बगैर हम रह नहीं पाते, जिसके कारण हमको नींद नहीं आती है, लगता है कि बस ये मिल जाए, ये जो काम है उससे हम कई बार हमने वो थ्री इडियट मूवी में भी देखा है कि परिवार वाले कुछ और बनाना चाहते हैं, हम कुछ और बनना चाहते हैं। और कई बार अगर उससे नहीं निकाल पाते हैं तो पिस के रह जाते हैं और फिर न इधर के रहे, न उधर के, तो बहुत ज़रूरी है अपने जीवन में कि जो भी लक्ष्य हम निर्धारित करें, उससे प्यार करें। अगर हम उससे प्यार कर रहे हैं उसी प्रेम का हाल है कि फरवरी का महीना भी चल रहा है। बहुत सारे लोगों की अपनी अपनी प्लानिंग भी होगी। लेकिन यहाँ पर उस प्यार की बात हो रही है जो आपका लक्ष्य है। अगर अपने लक्ष्य से आप प्यार करते हैं तो उसके लिए अगर आप जी तोड़ मेहनत भी करेंगे, थोड़ा कम भी करेंगे लेकिन उसको लेकर जो पैशन होगा न, वो दिन भर आपको उसी की तरफ आकर्षित करता रहेगा। तो आपको फिर अलग से कुछ जोड़ने की जरूरत नहीं होगी वह खुद ब खुद हो जाता है।
अब मैं आ जाती हूँ, उस सवाल पर, देखिए बहुत सारे लोग परिवार से घिरे होते हैं, फैमिली के लोग कुछ और चाहते हैं या आपने कहा कि अभी की जो युवा पीढ़ी है, उसके पास बहुत सारे माध्यम हैं। लेकिन कई लोग पैसों के संघर्ष से गुजरते हैं, कई पारिवारिक संघर्ष से गुजरते हैं। अभी हमारी बच्चियां बहुत आगे बढ़ रही हैं लेकिन फिर भी हमने देखा है, अभी भी हमारे समाज में है, बच्चे, लड़के और लड़कियों में भेद किया जाता है, परिवार वालों से भी और सोसाइटी के तौर पर भी। दिल्ली या बड़े शहरों की बात नहीं हो रही है लेकिन हम लोग इतनी रिपोर्टिंग करते हैं। गांवों में हमने देखा है मैं जातिवाद पर भी आउंगी, जिसको लेकर मौजूदा वक़्त में अलग अलग नैरेटिव चल रहा है। तो उनके लिए आपका क्या संदेश है उसको कैसे अपने आप से दूर रखें और अपने जीवन को आगे बढ़ाने में क्या चीज़ें हमें मदद कर सकती हैं?
आचार्य प्रशांत: देखिए, इंसान हैं अगर आप तो अपने खिलाफ जो कुछ बड़ी से बड़ी मूर्खता का और हिंसा का आप काम कर सकते हैं। उन कामों में से एक ये है- लिंग आधारित भेदभाव। क्योंकि इंसानों में 50% तो महिलाएं ही हैं। उनसे आप भेदभाव कर रहे हो तो माने आप उनको जानोगे ही नहीं कभी। और अगर नहीं जाना है किसी को तो बहुत ज़रूरी हो जाता है कि अपनी आँखें खराब कर ली जाए। भई एकाध कोई चीज़ हो, यह पूरा पेवेलियन है, इतना बड़ा है यहाँ मैं कह दूँ कि मुझे ये यहाँ पर, ये तौलिया रखा हुआ इसको नहीं जानना है। तो मैं ये कर सकता हूँ कि मैं हर तरफ देखूंगा मैं इस तौलिए की तरफ नहीं देखूंगा, उपेक्षा कर दूंगा, दिखाई ही नहीं देगा तो जानने की नौबत नहीं आएगी। पर यहाँ पर मान लीजिए 50% लड़कियां महिलाएं मौजूद हैं। और मैं कह दूँ कि मुझे इनको नहीं जानना है, इनके विषय में अपनी मान्यताएं रखनी है बस। तो वो हो नहीं पाएगा। क्योंकि मैं जहाँ भी देखूंगा दिखाई देंगी, ये 50% है। इनकी उपेक्षा करना संभव ही नहीं है। इन्हीं से पैदा होते हैं। घर में भी यही है बाहर तो उपेक्षा तो की नहीं जा सकती पर मैंने तो तय कर रखा है कि ये जो है ये हीन होती है, इन्फीरियर होती है और मेरे मन में इनके लिए मान्यताएं हैं। इन्हें घर में बंद करके रखो।
यूरोप के कई देशों में उन्हें अभी दो0, 40 साल पहले तक वोट देने का हक नहीं था, ड्राइविंग लाइसेंस नहीं मिलता था। तो मैं मान के चल रह है, उन्हें गाड़ी चलाना नहीं आता, इन्हें वोट देना नहीं आता, इन्हें कुछ नहीं आता तो उसके लिए फिर ज़रूरी हो जाएगा कि मैं अपनी आँखें ही फोड़ लूँ। क्योंकि अगर मैंने इनको गौर से देख लिया तो इनकी सच्चाई दिख जाएगी। और सच्चाई यह है कि हीन तो नहीं है, हीन तो नहीं है। और मुझे मानना ज़रूरी है कि ये हीन है। मुझे मानना जरुरी है कि हीन है। और जहाँ देखो यही दिखाई देती है तो मेरे लिए ज़रूरी हो जायेगा की मैं अपनी आँखे ही खराब कर लूँ। और जो अपनी आँखें खराब कर लेगा उसने तो अपनी ज़िन्दगी खराब कर ली उसे महिलाएं छोड़ दो कुछ भी ठीक से नहीं दिखाई देगा।
चित्रा त्रिपाठी: आचार्य जी, लेकिन बहुत से माँ बाप के लिए मैं दो लाइन में चाहूँगी आप जरूर कहें जो अपनी बच्चियों को आगे बढ़ने से यह बहुत सारी सामाजिक जो भी हो परिस्थितियां उसकी वजह से वो उनको रोकते हैं। तो उनके लिए जब आप जैसे लोग बोलेंगे तो मुझे लगता है की काफी ज़्यादा असर पड़ेगा जो अपनी बच्चियों को आगे बढे उनका क्या होता है अच्छा पढ़ ले गई। अब इसकी शादी करके अपनी जिम्मेदारी खत्म कर लेनी है। अच्छा हमारे पास पैसा है, बैंक में ये पैसा खर्च नहीं करना है, इसको दहेज में देना है।
हालांकि अब वो तमाम कुरीतियां टूट रही हैं लेकिन फिर भी लड़कियों को ये उनके दिमाग में डालने की बजाय की नई अठारह साल के बाद आपको नौकरी करनी है। इस समय के बाद आपको अपने पैरों पर खड़ा होना है। इस समय आपके पास इतना पैसा होना चाहिए। उसके बाद आप आगे की बात सोचें। हम बचपन से ही भरने लगते हैं कि बड़े हो कर शादी करनी है, तुम तो पराया धन हो तुम। मतलब आपको लाखों लाख लोग सुनते हैं और देश के कोने कोने तक आपके वीडियोज जाते हैं तो उन माँ बाप के लिए आपका क्या संदेश है?
आचार्य प्रशांत: देखिए माँ बाप को तो लगातार संदेश देता ही रहता हूँ और आपने ठीक कहा लाखों लोगों तक बात जाती है। मैं समझता हूँ लाखों महिलाओं के जीवन पर प्रभाव भी पड़ा होगा। शायद बहुतों की ज़िन्दगी पूरी तरह बदल गई है, बिल्कुल हुआ है। और माँ बाप को तो लगातार बोलता ही रहता हूँ। अगर अपने आप को हकदार मानते हो बाप बोलने के या माँ बोलने के तो फिर इंसाफ करो बच्ची के साथ, उनको तो बोलता ही रहता हूँ। पर एक बात और है उससे आगे की भी। बच्ची के साथ तब नाइंसाफी हो सकती है जब वो बच्ची थी, पर एक बार वो सोलह, अठारह की हो गई, पच्चीस या पैतीस की हो गई तो वो उस नाइंसाफ़ी को आत्मसात कर चुकी होती है।
ये जिस लिंग आधारित भेदभाव की हम बात कर रहे हैं न, इसको करने वाले सिर्फ़ पुरुष ही नहीं हैं, महिलाएं दूसरी महिलाओं के खिलाफ भी करती हैं और खतरनाक बात यह कि महिलाएं खुद अपने खिलाफ भी करती हैं।
चित्रा त्रिपाठी: बिल्कुल और उसमें बहुत सारा रोल होता है टी वी सीरियल का आप उठाकर देख लें तो उसमे एक महिला दूसरी महिला को पीछे खींचने में लगातार लगी रहती है और घर में महिलाएं गौर से इतना देखती हैं। फिर टीवी बंद करने के बाद उन चीज़ों को वो घर में अप्लाई करती है।
आचार्य प्रशांत: अब महिला अब महिला 35 साल की हो गई है मान लीजिए। ये तक हो सकता है कि माँ बाप दोनों गुजर गए हैं। माँ बाप तो इस दुनिया में ही नहीं है, लेकिन वो आज भी स्वयं को हीन मानती है और वो अपनी बच्ची में भी हिनता के संस्कार भर रही है।
चित्रा त्रिपाठी: बिल्कुल।
आचार्य प्रशांत: तो आखिरी जिम्मेदारी तो महिला को स्वयं उठानी पड़ेगी। दूसरे ने आपके साथ जो किया, सो किया आप अपने साथ बुरा क्यों कर रहे हो?
चित्रा त्रिपाठी: बिल्कुल
आचार्य प्रशांत: दूसरे ने आप पर कुछ प्रभाव, कुछ संस्कार, डाले तो डाले। और तब आप असहाय थी, दुर्बल थीं, आप ने स्वीकार कर लिया। पर आज भी क्यों स्वीकार करे हुए हो। तो अठारह पार कर गए ना। मैं तो कह रहा हूँ पैतीस की हो गई, पचपन की हो गई। तो महिलाओं की दुर्बलता का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि महिलाएं स्वयं ही उस दुर्बलता के साथ सामंजस्य बना बैठी है, एडजस्ट हो गई है। और जो व्यवस्था चलती है न, पितृप्रधान, उसमें इतना ही नहीं किया जाता कि बस शोषण कर लो महिला का। शोषण के एवज में उन्हें कुछ सुख सुविधाएं भी दे दी जाती है और उन सुख सुविधाओं की लत लग जाती है। सब जानते है महिलाओं का हितैषी हूँ इसलिए बोल रहा हूँ।
माँ बाप को इतना बोला है, मैंने इतना बोला है मैंने कि लड़कियों के साथ भेदभाव करते हो कि उनको और बोलने का कोई तुक नहीं समझता। तो मैं महिलाओं से बात कर रहा हूँ सीधे। मैं पूछ रहा हूँ कि आप ये बारगेन स्वीकार क्यों करते हो इसको फॉस्टिन बार्गेन बोलते हैं, जहाँ आदमी एक तरह से अपनी अपनी आत्मा बेच देता है कुछ सुख सविधाओं स्वार्थ के एवज में कि कुछ चीज़ें मिल रही हैं। बैठे बिठाए मिलेगा खाने को मिलेगा घर में हो, ऐसा हो, वैसा हो, तुम्हें काम करने की जरूरत क्या है तुम्हे आजादी की जरूरत क्या है तुम्हे देवी मान के पूजेंगे न। तुम घर संभालो तुम माँ हो और माँ तो पूजनीय होती। ये सब बातें।
महिला जब तक अपनी प्रगति का और मुक्ति का बीड़ा स्वयं नहीं उठाएगी, दूसरों से शिकायत करना और दूसरों से उम्मीद करना बात को बहुत नहीं आगे ले जा सकता क्योंकि दूसरों के पास अपनी ज़िन्दगी है भाई। और इस दुनिया में इतना निस्वार्थ, इतना निष्काम, कोई होता नहीं कि दुसरे के लिए अपनी जान दे दे। तो जिसको अपनी ज़िन्दगी बचानी है, जिसको खुद बेहतर करनी है, उसे अपना जिम्मा खुद लेना पड़ेगा। तो अब आप लोगों के ऊपर है कि आपको अपनी ज़िन्दगी कहां तक ले जानी है। पुरुष की शिकायत, पति की शिकायत, मां-बाप की शिकायत, व्यवस्था की शिकायत, इतिहास की शिकायत, परंपरा संस्कार की शिकायत, वो सारी शिकायतें जायज हो सकती है लेकिन उन शिकायतों से मुक्ति नहीं मिलने वाली। शिकायत कर कर के आज तक कोई नहीं तरा, जबकि उन शिकायतों को मैं नहीं कह रहा आपकी शिकायत गलत है, आपकी शिकायत बिल्कुल ठीक हो सकती है। पर अब शिकायत करना बंद करते हैं और संघर्ष करना शुरू करते हैं। जिसे आजादी चाहिए उसे संघर्ष करना पड़ेगा।
चित्रा त्रिपाठी: ये बहुत सुंदर बात आपने बोली है और यकीनन जब भी इस तरह की परिस्थिति आए तो खुद से पूछ लेना चाहिए कि हमें अपनी ज़िन्दगी से क्या चाहिए। कई बार उंगली पकड़ के माँ बाप एक छोर तक पहुंचाते हैं, वहां से कोई और मिलता है दूसरे छोर तक ले जाता है। बच्चा पैदा होने के बाद ज़िन्दगी महिलाओं की और बदल जाती है। तो जैसे जैसे महिलाओं की ये जो जीवन के चरण है वो आगे बढ़ते रहते हैं। लेकिन एक बार शांति से बैठ कर के खुद से पूछ लेना चाहिए कि हमें क्या चाहिए और हम किन चीज़ों में अपने आप को संतोष का अनुभव कराते हैं। हम किन चीज़ों से खुश है और मुझे लगता है कि आज की तारीख में बहुत कम ऐसा होता है जब महिला के पास इतना समय हो कि वो खुद से ये सवाल करें।
ये सवाल इसलिए भी ज़रूरी है और आचार्य जी मैंने तो देखा है जैसे हम लोग तो नौकरी करते हैं अच्छी पोजीशन पर आ चुके हैं लेकिन हालांकि इसके पीछे बहुत लंबा संघर्ष है, संघर्ष पीछे छूट जाते हैं जब सफलता सामने होती है तो। लेकिन बहुत सारी महिलाएं जो घर का कामकाज करती हैं उनको गिना ही नहीं जाता है। जैसे मैं अपनी मम्मी वो नौकरी नहीं करती थी लेकिन सुबह से लेकर सुबह 4 बजे से लेकर रात के दस-ग्यारह बजे तक लगातार वो करती रहती थी। लेकिन अगर पिताजी कमा के आएंगे तो सारा ख्याल उनका रखा जायेगा और घर में अगर किसी के भी अगर हाउसवाइफ हैं तो कहा जाता है तुम करती क्या हो दिन भर तो घर पे रहती हो। इस तरह का ताना दिया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि हम अगर एक दिन घर में खाना बनाने वाले या झाड़ू पोछा करने वाली नहीं आए तो हमारी ज़िन्दगी क्या होती है दिन भर वही करते हुए कर जाती है उनको बहुत कमतर आंका जाता है।
तो उनके लिए क्या है संदेश आपका? हमें पुरुषों से आगे नहीं जाना है। हमें पुरुषों के बराबर रहना है चाहे वो घर में काम करने वाली महिला हो, ऑफिस में काम करने वाली महिला हो या यहाँ पर बैठी हुई महिलाएं या लड़कियां या बेटियां हो।
आचार्य प्रशांत: जी, मैंने घर में रहने वाली महिलाओं को पुरुषों से ज़्यादा काम करते हुए देखा है।
चित्रा त्रिपाठी: सच बात है।
आचार्य प्रशांत: मैंने बाहर काम करने वाली महिलाओं को घर में आ कर के अपनी दूसरी पारी शुरू करते हुए देखा है। बाहर का काम कर लिया, अब घर का काम शुरू करो। मैंने घर में रहने वाली महिला को सबको खाना खिलाने के बाद खुद खाते हुए देखा है। मैंने देखा है कि कई बार कैसे, अब तो ठीक है, लोगों के पास पैसा आ रहा है। लेकिन फिर भी भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या है अनुपात में, जहाँ पर बाइके और धोबी के पैसे बचाने के लिए और ज़्यादा नहीं पांच सौ डेढ़ हजार दो हजार बचाने के लिए, वो अपने दिन के दो घंटे लगाने को तैयार हो जाती है, भले ही डिटर्जेंट से हाथ उनका कैसा भी हो जाए। मैंने ये सब होते हुए देखा है।
मैं चाहूँ तो अभी सहानुभूति के तौर पर उनसे बोल सकता हूँ कि तुम्हारे साथ बहुत बुरा हो रहा है और उनकी हालत देखता हूँ तो बहुत बुरा लगता है। मैं उनसे कह सकता हूँ कि मुझे तुम्हारे लिए रोना आ रहा है पर ये बोलने से कुछ होगा क्या? वो निःसंदेह घर में बिल्कुल गाय की तरह बंधी हुई है और बिल्कुल जैसे घर में हम किसी पशु को बांध लेते हैं और उसमें अपना ही स्वार्थ देखा करते हैं वैसा ही उसका हाल होता है। भारत के बहुत सारे घरों में यही हाल है, बहुत बुरा लगता है। लेकिन मैं पूछ रहा हूँ कि सहानुभूति व्यक्त करने से कुछ होगा क्या? ये तो उसको भी पता है कि उसका हाल बुरा है। मैं जा कर के बस वहाँ पे कह दूं अरे माई कॉम्मिजिरेशंस। मुझे बड़ी संवेदना है आपसे, इससे कुछ होगा क्या? तो सहानुभूति व्यक्त करने का समय गया। अब मैं उनसे दूसरा सवाल पूछना चाहता हूँ। मैं पूछना चाहता हूँ कि जब तुम्हारे काम की कद्र नहीं तो तुम कद्र जताते क्यों नहीं?
जहाँ तुम्हारे काम का कोई मूल्य नहीं, तो तुम वो काम करे क्यों जा रहे हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारा अपना डर ही है जो तुमसे वो काम करवा रहा है और झूठ मत बोलना कि प्रेम के नाते कर रहे हो। क्योंकि ये तो कोई प्रेम होता नहीं जो सौ तरह का अत्याचार और अन्याय बर्दाश्त कर ले।
चित्रा त्रिपाठी: बिल्कुल।
आचार्य प्रशांत: तुम घर में हर तरह की उपेक्षा झेलते हो जो कि कई बार क्रूरता जैसी होती है। तुम उसको झेलते हो और तुम्हारी हालत देख कर के कोई भी थोड़ा संवेदनशील आदमी हो तो रो पड़े। तुम ये जो इतनी अपनी दुर्दशा घर में कराते हो झूठ मत बोलो कि प्रेम के नाते कराते हो। मत कहो कि मुझे परिवार से बड़ा प्रेम है इसलिए ये मैं सब अपनी दुर्दशा बर्दाश्त करती हूँ। मैं पूछ रहा हूँ कहीं ऐसा तो नहीं कि सिर्फ़ डर है जो तुमको तुम्हारा जायज हक मांगने नहीं देता और डर तो किसी हालत में सही नहीं हो सकता।
अध्यात्म का केंद्रीय विषय ही यही है कि डर से कैसे मुक्ति मिले। आप उपनिषदों के पास जाएं और आप कहें कि मैंने ये सीखा कि बिना डरे कैसे जीना है। यही उनकी केंद्रीय बात है। तो आपने गलत नहीं कहा, उपनिषद बस यही सिखा रहे हैं कि बिना डर के कैसे जिया जा सकता है। तो अगर आप गृहणी है और आप घर में सिर्फ़ डर की वजह से खटती रहती है और डर और लालच स्वार्थ ये एक ही सिक्के के दो पहलू होते है। बिना स्वार्थ के कभी डर होता नहीं। तो चाहे आपको डर हो, चाहे स्वार्थ हो, वो एक ही बात है। तो आप ग्रहणी है और आप अपने साथ सौ तरह की दुर्दशाएं स्वीकार कर रही है तो मैं चाहता हूँ कि आप देखें कि इसमें आपके स्वार्थ कहाँ छुपे हुए हैं। इसमें आपका डर कहाँ बैठा हुआ है?
आपका डर है जो अंततः आपका शोषण कर रहा है कोई बाहर वाला नहीं। बाहर वाले को दोष दोगे तो बहुत होगा, अधिक से अधिक सहानुभूति मिल जाएगी और सहानुभूति देने में मेरी कोई रुचि नहीं है। सहानुभूति देने वाले तो बहुत होते हैं। आके अरे, अरे, अरे बड़ा बुरा हो रहा है आपके साथ क्या बताएं, हाउसवाइफ्स इतना काम करती हैं, पर कभी उनको क्रेडिट नहीं मिलता। अरे ये जीडीपी कैलकुलेट करने का तरीका भी बहुत बेकार है। हाउसहोल्ड, वर्क को जीडीपी में काउंट नहीं किया जाता है। ये सब लिप-सर्विस है, इससे कुछ नहीं होता।
ये सब करने से जो घर में खट रहा है, उसकी हालत में सुधार हो जाता है क्या? वो तो बस घर में ये कर रहा है कि दिन भर आलू के पराठे और धनिया टमाटर की चटनी बना रहा है दूसरों के लिए। और जिनके लिए पराठे और धनिया चमाटर की चटनी बन रही है, वो खा-पी के निकल जाते हैं, दुनिया देखते हैं, कैरियर आगे बढ़ाते हैं, घूमते हैं, फिरते हैं सब तरीके से जो भी उनकी प्रगति है, विकास है, करते हैं। और ये अगले दिन के लिए फिर से आलू छीलने शुरू कर देती है और चना भिगोना रख देती है।
तुम ये अपने साथ करवा रही हो, तुम इंसान हो, तुम क्यों करवा रही हो अपने साथ ये? किसी दूसरे को दोष हम बिल्कुल दे सकते हैं, पर दूसरे को दोष देकर क्या मिलेगा बोलो? हर आदमी अंततः अपनी स्थिति के लिए और अपनी बेहतरी के लिए खुद जिम्मेदार होता है ना। अकेले आए थे, अकेले जाना है, किसी दूसरे पर कितनी हम आशाएँ टिकाए? तो अपनी जिम्मेदारी खुद उठाइए और देखिए आपको अपने लिए क्या करना है।
चित्रा त्रिपाठी: और थोड़ा बोलना भी सीखना होगा। लगातार खटते जाने के मुकाबले थोड़ा हम किन चीज़ों से परेशान हैं, क्या परिस्थितियाँ हमारे सामने है यह घर वालों को बताना होगा।
आचार्य प्रशांत: चित्रा जी मुझे लगता है बोलती तो खूब है ये, लेकिन बोल के ही रुक जाती है। घर में जब महिला दुखी होती है तो बोलती तो बहुत है। और जो घर के बाकी लोग होते हैं उसको बोलने देते हैं। कहते हैं इसका बोलना कुकर की सीटी की तरह है। प्रेशर रिलीज हो जाता है। वो चिल्ला लेगी, इधर उधर कर देगी, रसोई में बर्तन पटक देगी और शांत हो जाएगी। मैं कह रहा हूँ बर्तन पटकने भर से शांति नहीं आनी चाहिए। जंजीरें तोड़े बिना शांत मत हो जाना।
ये जो हमने एक स्टीरियोटाइप भी बना रखा है न। द टॉकेटिव फीमेल कि महिलाएं बोलती ज़्यादा हैं, बोलती ज़्यादा है। वो इसीलिए ज़्यादा बोलती है क्योंकि बोलने के अलावा उनके पास कुछ है नहीं। तो उनकी जितनी कुंठा है, उनके भीतर जितना आक्रोश है, उसको बस वो शब्दों से व्यक्त करती हैं। उसके अलावा अब समय आ गया है कि कर्म के माध्यम से अपना आक्रोश व्यक्त किया जाए और अपना स्थान हासिल किया जाए।
चित्रा त्रिपाठी: और ये खासतौर से आप जितने लोग यहाँ पर मौजूद हैं। जब भी हम पलट के अपनी माँ को देखते हैं, जो हाउसवाइफ हैं खासतौर से, तो उन्होंने हमारी ज़िन्दगी में क्या बदलाव लाया है। एक समय के बाद हम उसको भूलने लगते हैं। हमें लगता है कि नहीं, यह तो उनका काम ही था। हमें पाल पोस कर, अपनी रातें खराब करके हमें आगे बढ़ाना। लेकिन पलट कर जब आप देखेंगे तो पाएंगे कि उन्होंने अपनी ज़िन्दगी को जितना सैक्रीफाइज किया है ताकि आप अपने सपने को सच कर पाएं। तो उनके प्रति आप ऋणी जरूर रहे आभार जताएं।
और रिश्ते पर एक आखिरी सवाल। उसके बाद में कुंभ और अमृत को लेकर कुछ सवाल हैं मेरे मन में वो जानूंगी। आखिरी सवाल रिश्ते से जुड़ा हुआ ये है बहुत सारे युवा जो दिनभर मोबाइल में लगे हुए हैं, अपने आप में बिजी हैं, दोस्तों के साथ हैं, यहाँ हैं, वहां हैं अगर, कहीं बाहर रहते हैं या युवा ही नहीं, बहुत सारे ऐसे लोग जो नौकरी की तलाश में बाहर चले गए, बाहर रहते परिवार के साथ माँ-बाप पीछे छूट जाते हैं छोटे शहर में, गाँव में या अकेले, बड़े, बड़े घरों में भी उनके लिए क्या संदेश है? बहुत सारे ऐसे लोगों को, मैं जानती हूँ जो पलट कर अपने ही माँ बाप को फोन करने में दस बार सोचते हैं या बहुत सारे इसमें भी लोग होंगे उनको नहीं याद होगा कि आखिरी बार हमने अपने माँ बाप को फोन करके उनके दिल की बात कब सुनी थी या कब जानी थी। तो ऐसे लोगों के लिए आपका क्या संदेश है?
आचार्य प्रशांत: देखिए, जब तक इंसान के भीतर गीता नहीं आती, गीता से मेरा आशा है, बोध ग्रंथ। सामने बैठे हुए हैं, महात्मा बुद्ध उनकी बात को भी मैं गीता में ही गिनूंगा वो भी गीता है। तो जब तक इंसान के भीतर गीता नहीं उतरती न, तब तक इंसान स्वार्थ का पुतला भर रहता है। सिर्फ़ स्वार्थ। तो माँ बाप से जो लेना था, ले लिया और उसके बाद अपने रास्ते चल दिए। और उसके बाद माँ बाप के लिए अगर कुछ कर भी तो इसलिए की कुछ नहीं करेंगे तो समाज थूकेगा या कि इसलिए कर दिया की परंपरा और संस्कार ने सिखाया है कि माँ बाप के प्रति ड्यूटी रेस्पांसिबिलिटी कर्तव्य है। प्रेम के नाते नहीं, बस कर्तव्य के नाते। और बहुत अंतर है न? प्रेम के नाते, किसी लिए कुछ करना और कर्तव्य के नाते करना, ये बहुत अलग बातें हैं।
प्रेम हमारे पास होता नहीं है। न हम ये गिन पाते हैं कि दूसरे से हमको मिला क्या है। ठीक है बिल्कुल, हो सकता है कि आपके माँ बाप बहुत पढ़े लिखे न हो। गाँव कस्बे के हैं, आप आज बाहर निकल गए हैं जैसे आपने कहा, कहीं बाहर निकल गये हैं। अब आप ऊँची पढ़ाई कर रहे हैं। आपकी कहीं जॉब लग गई है, कुछ हो गया है। पर कुछ मूलभूत बातें तो थोड़ा बताइएगा, अगर आपको वो वैक्सिनेशन न कराते टिटनेस वगैरह के टीके न लगाते तो आप चल जाते।
देखिए, जब माँ बाप बच्चों पर छाते हैं और उनकी चेतना को अवरुद्ध करने का काम करते हैं, तो मैं माँ बाप को थोड़ी डांट लगाता हूँ। लेकिन जब ये जो बच्चे हैं, इन पर स्वार्थ इतना छा जाता है कि ये भी याद नहीं रखते कि एक दिन था जब तुम बिल्कुल असहाय थे, मजबूर थे। और दो लोगों ने तुम्हारे लिए बहुत कुछ किया है। ठीक है उन्होंने भी, हो सकता है अपने अज्ञान में करा हो। ठीक है तुम्हारे लिए कुछ करने में, हो सकता है उनका भी स्वार्थ हो, पर जितना भी उन्होंने करा है, क्या तुम उतने का भी ऋण अभी तक चुका पाए हो?
दूसरी बात, तुम अगर कह रहे हो कि मैं उनसे बात नहीं करता हूँ, तो बात भी तुम अब इस नाते नहीं करते हो कि उनसे बात करके तुम्हारी कोई आतंरिक हानि हो जाएगी। तुम बात इसलिए नहीं करते हो, तुम्हे बात करने के लिए दूसरे ज़्यादा रोचक लोग मिल गए है। कोई ऐसा नहीं है कि तुम चेतना के शिखर पर चढ़ गए हो तो इसलिए माँ बाप तुम्हें बहुत नीचे के लगते हैं। बात बस इतनी सी है जब तक माँ बाप से स्वार्थ पूरा हो रहा था, तो जाके माँ का आँचल पकड़ के झूलते रहते थे कि माँ आज मेरे लिए यह बना दे, वो बना दे। बाप के पीछे चलते थे कि पापा सौ का एक पत्ता और दीजिएगा, आज तुमको सौ का वो पत्ता बॉस से मिलता है तो बॉस के आगे पीछे झूलते हो।
चित्रा त्रिपाठी: क्या बात है। बहुत सही बात है।
आचार्य प्रशांत: पहले मां थी जीवन में आज प्रेमिका या पत्नी आ गई है, तो उसके पीछे पीछे आँचल पकड़ कर घूमते हो। स्वार्थी तुम तब भी थे, स्वार्थी तुम आज भी हो। जैसे माँ बाप को पीछे छोड़ है, स्वार्थ पूरा हो जाने पर, वैसे ही जिनके साथ आज उन्हें भी कभी न कभी पीछे छोड़ दोगे। और जिनके लिए आज तुम कर रहे हो एक दिन ऐसा आएगा कि ये भी तुम्हें छोड़ देंगे, ये तुम्हारी सजा होगी, ये तुम्हारी सजा होगी। और इस पूरी चीज़ का केंद्रीय कारण क्या है कि ऑपरेट तो तुम भीतर एक अज्ञान के केंद्र से ही हो रहे हो। ये बात माँ-बाप पर भी लागू होती है जब वो बच्चे की परवरिश करते हैं, बड़ी उम्मीद रखे की। एक दिन बड़ा होगा। तो हमारे लिये ये करेगा, वो करेगा, बिना ये देखे कि तुमने अपने माँ बाप के लिए क्या किया था।
जब आप अपने माँ बाप के लिए बहुत कुछ नहीं कर रहे, तो आपका बच्चा जो नियम ही है प्रकृति का वही भूल जाते हो। जो भी कोई स्वार्थ पर चल रहा है, वो दूसरे का उसी दिन तक है जिस दिन तक उसका स्वार्थ सिद्ध हो रहा है। जिस दिन स्वार्थ पूरा हो गया, उस दिन वो छोड़ेगा ही छोडेगा। बहुत उम्मीदें रखना कोई बात नहीं है।
बच्चों में इसीलिए निस्वार्थता के बीज डालें इसको कहते हैं संस्कार। हमने संस्कारों का बहुत ही संकीर्ण अर्थ निकाल लिया है। हमारे लिए संस्कार का क्या मतलब है। छठे दिन यह कर दिया, फिर नामकरण कर दिया, फिर मुंडन कर दिया फिर उसके बाद विवाह के संस्कार हो गए। जब मरने गया तो मरण संस्कार हो गया। हमने संस्कार का यह मतलब निकाल लिया है। यह सब संस्कार है निःसंदेह पर यह बाहरी संस्कार है। भाई और जीते हम अपने अन्दर है।
मूंड मुड़ाये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए।
बाहरी संस्कार ठीक है। आपको करना है तो करिए, पर बाहरी संस्कार पर्याप्त नहीं होते। भीतरी संस्कार ये होता है कि बच्चे से अगर चाहते हो कि उम्र भर प्रेम का रिश्ता चले तो बच्चे को पहले प्रेम सिखाओ तो सही। जिसको तुमने प्रेम सिखाया ही नहीं, वो तुमसे भी प्रेम नहीं करेगा। जिसको तुमने निस्वार्थ होना सिखाया ही नहीं, वो तुम्हारे लिए भी निस्वार्थ नहीं रह पाएगा।
बचपन से ही बच्चे को सिखा रहे हो कि जहाँ भी कहीं पर अपना लाभ दिखाई देता हो, उसी गली निकल लेना तुम्ही ने बच्चे को सिखाया न। जब वो बड़ा हो गया और देख रहा है कि तुम से उसे कोई लाभ नहीं मिल रहा तो तुम्हारी तरफ काहे को आए? वो तुम्हारी ही सीख का अनुकरण कर रहा है। तो बच्चे को सही संस्कार दीजिए और सही संस्कार रूढ़ि से परम्परा से नहीं आते, वो आध्यात्मिक होते हैं। वास्तविक संस्कार देना सीखिये बच्चों को।
चित्रा त्रिपाठी: बहुत अच्छी बात कही है। इसी को थोड़ा, सा और विस्तार देते हुए आपने संस्कार का ज़िक्र किया माँ बाप जिस भी तरह से पालते हैं और बहुत ज़रूरी हो जाता है कि बचपन से ही उनके भीतर जो हमारे पारिवारिक मूल्य होते हैं, उनका संचार किया जाए। और जिस सोलह संस्कार का ज़िक्र अक्सर हम किताबों में पढ़ते हैं, प्राचीन इतिहास की, उसको भी लेकर वो आगे बढ़े। लेकिन मौजूदा वक़्त में कई बार हमने ये भी देखा है कि जब हम थोड़े बड़े हो जाते हैं और ऐसा लगता है कि मां बाप थोड़े पीछे भी छूट रहे हैं। जब हम अच्छा कमाने लगते हैं, मैं ऐसे बहुत सारे परिवार को आचार्य जी जानती हूँ। अलग अलग हिस्सों में जब हम रिपोर्टिंग करते हैं तो हमें पता चलता है कि रिश्ते किस कदर, कहाँ पर आकर खड़े हो गए हैं और बहुत तकलीफ भी होती है इस चीज़ को देखकर। हम अच्छा कमा रहे हैं लेकिन गाँव में बैठी हुई हमारी जो मां है, वो अपने दवा के लिए संघर्ष कर रही है। हम बहुत अच्छा कमा रहे हैं हम महंगे ब्रांडेड कपड़े पहन रहे हैं, लेकिन घर पर जो पिता है, उसको सोचना पड़ रहा है कि होली या दिवाली में हम कपड़े खरीदें या फिर उसको बचा कर रखें ताकि अगर कुछ बीमार होते हैं, फिर उसका इलाज करा पाएं। हम अच्छा कमा रहे हैं बीवि और बच्चों पर खूब खर्च कर रहे हैं, हम अपनी तमाम सुविधाओं के लिए उन पैसों का इस्तेमाल कर रहे हैं, महंगे मोबाइल खरीद रहे हैं, अच्छे मॉल में घूमने जा रहे हैं लेकिन गाँव में बैठे हुए हमारे माता पिता समय पर स्विच ऑन करते हैं, लाइट का और ऑफ कर देते हैं, ये सोचते हुए कि ज़्यादा बिजली का बिल नहीं आ जाए। मैं भरूंगा कैसे? तो बहुत जरुरी है आप जीवन में जितना भी कमाए, उनमे से एक छोटा सा हिस्सा जरूर होना चाहिए।
देखिए, जिन्होंने हमें जन्म दिया है, उनके प्रति जीवन भर कृतज्ञता का भाव होना चाहिए। क्योंकि हम जन्म का कितना भी मूल्य हो, वह नहीं चुका सकते। तो हमेशा उन भावनाओं को लेकर जब हम आगे बढ़ेंगे तो मुझे लगता है कि वही वास्तविक अर्थों में वही संस्कार होगा, जिसको लेकर यहाँ पर हम चर्चा कर रहे हैं।
अब कुंभ में मैं आपको लेकर जाऊंगी, लेकिन उसके पहले आचार्य प्रशांत आप, आगरा में जन्मे आपने बड़ी नौकरी ज्वाइन की, आपका मन नहीं लगा, आपने वो नौकरी छोड़ी। फिर गीता के सार को आप समझाने लगे।
अब मेरा ये सवाल यह है एक वक़्त पर प्रशांत त्रपाठी कहे जाने वाले व्यक्ति अचानक से आचार्य प्रशांत क्यों बन जाते हैं? क्या आपको इस बात का डर था कि आप ऊँची जाति से जो आजकल सो-कॉल्ड हम देखे राजनेताओं में खास तौर से ऐसा होता है। हालांकि मैं कुंभ में जब स्तान करते हुए लाखों लाख लोगों को देख रही थी तो उसमें कोई जाति का, वर्ग का भेद नहीं था। उसमे करोड़पति भी उसी गंगा में डुबकी लगा रहा था, जहाँ पर पचास रूपए हर रोज़ कमाने वाला एक व्यक्ति भी। किस बात का डर था कि आपको अपने आगे से अपना जो सरनेम है, वो हटाना पड़ गया?
आचार्य प्रशांत: नहीं, कोई कोई चीज़ आपके साथ तभी जुड़ी रहे जब उसकी जरूरत हो। जिस चीज़ की जरूरत ही नहीं और वो फिर भी आप से जुड़ी है तो तो बोझ कहलाती है बस। आप अब मैंने कुछ पहन रखा है, आपने कुछ पहन रखा है, सबने कुछ पहन रखा है यहां पर कुछ मौजूद है, यहां पर कुछ मौजूद है, कुछ भी तभी मौजूद हो न, जब उसकी कोई फंक्शनल युटिलिटेरियन वैल्यू हो। जिस चीज़ की जरूरत रहे न, यह जरूरत समाप्त हो गई हो। यह जरूरत अब बहुत, बहुत कम हो या बस बस ऑफिशियल औपचारिक जरूरत बची हो, उसको रखे रहना तो ऐसा ही हैं की जैसे किसी व्यर्थ, फालतू, चीज़ को रखे रहना।
शिक्षक सबके लिए एक समान होता है। शिक्षक के लिए उचित नहीं है कि वो अपने आप को संकीर्ण बना ले किसी भी वर्ग, गुट, समूह, जाति, पंथ, समुदाय, वर्ण आदि से जोड़ कर के। जिस दिन इन लोगों ने मुझे पहले सर बोलते थे, असल में आचार्य शब्द जो आया न, वो सोशल मीडिया की मेहरबानी है वरना सर ही चल रहा था। जब फेसबुक वगैरह पर अकाउंट बनाने लगे तो वहाँ हुआ कि नाम क्या लिखा जाएगा। पहले वहाँ नाम प्रशांत त्रिपाठी ही था, अब वो सर प्रशांत त्रिपाठी करते तो ऐसा लगता है मजाक हो रहा है। तो हिंदी में शिक्षक के लिए आचार्य शब्द होता है बहुत साधारण से, तो वहाँ से आया था। अब एक बार आप शिक्षक हो गए, इन लोगों ने शिक्षक मान लिया। उसके बाद मैं कहूँ कि मैं फलाने वर्ण का हूँ और ये मेरा गोत्र है और ये सब है, ये सब है तो शोभा नहीं देता, बड़ी छोटी बात हो जाती है।
आपको पता है इनको मैं क्या सिखाता हूँ।
हम बोलते हैं और गीता कम्युनिटी के मुझे
(सब हाथ उठाते हैं, जो प्रतिभागी हैं)
बाप, रे बाप, रे बाप। तो ये सब जानते हैं। और ये चाहें तो मेरे साथ दोहरा सकते है।
जाति हमारी….
श्रोतागण: आत्मा।
आचार्य प्रशांत: गोत्र हमारा
श्रोतागण: ब्रह्म।
आचार्य प्रशांत: सत्य हमारा
श्रोतागण: बाप हैं।
आचार्य प्रशांत: मुक्ति हमारा
श्रोतागण: धर्म।
चित्रा त्रिपाठी: क्या बात है। बहुत सुन्दर। लेकिन ऐसी सोच कहाँ आती है? आजकल आप आचार्य होने के नाते आपके सामने ये तमाम विद्यार्थी हैं इस वजह से आप अपनी भावनाएं प्रकट करें। लेकिन नेतागिरी तो बिना इसके चलते ही नहीं है। जाति का जो जहर कह लें, या जो भी भाव, लोगों में भरने का काम दो दोस्त हैं, लेकिन नेता बता देंगे कि ये इस जाति का है, ये इस जाति का। भले दोनों में आपस में घनिष्ठता हो। अभी ये जो मौजूदा कड़वाहट है, खासतौर से हम राजनीतिक जमात को देखते हैं, वो समाज को प्रभावित करती है, उसको कैसे रोकने में मदद मिल सकती हैं?
आचार्य प्रशांत: मैं नेताओं को कभी दोष देता ही नहीं। वो तो बस बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। गंगा बहाई तो हमी लोगों ने है। और कुछ नेताओं को थोड़ा मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ। वो उतने ज़्यादा मूर्ख होते भी नहीं, जितना उनके पब्लिक वक़्तव्य उनको दर्शाते हैं। वो अपने आप में समझदार लोग होते हैं थोड़े, पर अगर वो जनता से आगे समझदारी की बात करे तो जनता किसी भी तरह की समझदारी के लिए तैयार भी है क्या?
मैं नेताओं का पक्षधर नहीं हूँ, ये भी नहीं कह रहा कि बहुत समझदार होते हैं। मैं कह रहा हूँ कि वो उतने लंपट नहीं होते जितना वो मीडिया में दिखाई देते हैं। जब आम आदमी स्वयं पाखंडी है, जब आम आदमी भयानक रूप से जातिवादी है, तो नेता आके उससे और क्या बात करे नेता को तो वोट चाहिए। उसके लिए वोट पाने का सबसे सरल आसान एफिसिएंट तरीका है कि वो आपसे आ कर के जाति के नाम पर कुछ उत्तेजक बातें कर दे और आप उसको वोट डाल दोगे। जब आम आदमी खुद धर्मांध हो, धर्म को न समझता हो फिर भी कट्टर हुआ जा रहा हो, तो नेता के लिए तो बहुत आसान है न? नेता कहता है मैं जा कर के वोटों का बह रहा है, मैं मैं मैं समेट लेता हूँ। तो ये लोकतंत्र है भाई। नेता आसमान से नहीं आता, नेता जमीन से उठता है, लोगों से उठता है।
चित्रा त्रिपाठी: जो नेता इस तरह की बातें करते हैं, जो जातिवाद को बढ़ावा देते हैं, उनका ये कहना है की बहुत सारी जातियां पीछे रह गई है, उनको आगे ले आने के लिए बताना ज़रूरी है कि ये कौन सी जाति से हैं।
आचार्य प्रशांत: देखिए, अगर हमारा कोई भाई बहन पीछे रह गया हो तो उसको आगे लाना तो निश्चित रूप से हमारा फर्ज है, निश्चित रूप से हमारा फर्ज है। जिस हद तक किसी की जाति को जानना या किसी को जाति से संबोधित करना ज़रूरी है, ईमानदारी से, उसको ऊपर उठाने के लिए, उस हद तक, सिर्फ़ उस हद तक, सिर्फ़ उस हद तक उसकी जाति महत्वपूर्ण हो जाती है, सिर्फ़ उस हद तक। लेकिन आप किसी को उठाने के लिए उसकी जाति पूछ रहे हो ये एक बात है। और आप किसी को फंसाने के लिए उसकी जाति पूछ रहे हो, यह बिल्कुल दूसरी बात है।
मुझे कम दिखाई दे रहा है, मुझे कम दिखाई दे रहा है। आप आ कर के मुझ से पूछो कि तुम ही हो ना, वो जिसे कम दिखाई देता है, क्योंकि तुम्हारे साथ अतीत में अत्याचार हुए हैं, हुआ था, मान लिया, मेरे साथ कुछ हुआ था, और कुछ ऐसा कर दिया गया कि मुझे कम दिखाई दे रहा है। अब ये आगे पूछा तुम्हे कम दिखाई दे रहा है तो एक तो ये हो सकता है कि वे चाहते हैं कि मेरा इलाज हो जाए और जितने मेरे भाई बहन हैं, मैं भी उन्हीं के बराबर साफ़-साफ़ देख पाऊँ एक यह हो सकता है। और दूसरा ये हो सकता है कि जैसे ही मैंने बोला कि मुझे कम दिखाई दे रहा है, वैसे ही आगे मेरा जो रूपया पैसा रखा था, ये लेकर चंपत हो गए कि इसको तो वैसे ही कम दिखाई दे रहा है तो इसको और लूट लो। तो जाति पर आधारित जितना डिस्कोर्स है, उसमे से अधिकतर वो हैं जो पिछड़े हुओं को और पिछड़ा रखने के लिए है। उसमें वो सहृदयता, वो ईमानदारी बहुत कम है कि मैं उसकी जाति नहीं देख रहा हूँ, इंसान देख रहा हूँ, मैं अपना भाई देख रहा हूँ और अगर वो पीछे है तो उसको अपने बराबर लेके आना मेरी जिम्मेदारी है।
और मैं समझता हूँ जब तक हम अपने आप को जाति से संबोधित करते रहेंगे न, तब तक दूसरे की भी हमें जाति ही दिखाई देगी। बड़ा मुश्किल है कि मैं खुद को तो कहूँ कि मैं अमुक जाति का हूँ और दूसरों का नहीं भाई हम जातिवाद ही नहीं है। तुम बस इंसान हो और तुम हमारे भाई हो और हम तुम्हारी मदद करना चाहते हैं। व्यावहारिक रूप से ऐसा हो नहीं पाएगा।
चित्रा त्रिपाठी: हमारे समाज की विडंबना ही है की जाति है जो जाती ही नहीं है। जातिगत जनगणना। क्या आपको लगता है कि वो देश के लिए ज़रूरी है?
आचार्य प्रशांत: जो बात अभी कहीं, जातिगत जनगणना के पीछे नीयत क्या है और उस डेटा का इस्तेमाल क्या होने वाला है? अगर तो नीयत यह है कि पता चलेगा कि कौन सी कौंस्टीटुएंसी में कितने प्रतिशत ये है और कितने प्रतिशत ये है तो कितने प्रतिशत ये है तो हमारा फिर जो वोट का एलगोरिदम है, उसको हम ज़्यादा एक्यूरेट डेटा फीड कर पाएंगे और हमारी वोट गैदरिंग मशीन ज़्यादा एफिशिएंटली रन कर पाएगी। तब तो इससे गिरा हुआ काम नहीं हो सकता कि आपने जा करके एग्जैक्टली पता कर लिया कि इस कांस्टीट्वएंसी में यादव इतने प्रतिशत है और कोहली इतने प्रतिशत हैं और ब्राह्मण इतने प्रतिशत है। पहले तो आप अनुमान पर चलते थे कि शायद 4 से 6 प्रतिशत है। अब आपको बिल्कुल ठीक ठीक पता चल गया। ४.२३ प्रतिशत, वो भी इन इन क्षेत्रों में कंसेंट्रेटेड है. तो सोचिए ये जानने के बाद अब आप कितने घोर रूप से जातिवादी कैंपेनिंग करेंगे, करेंगे न? तो अगर इसलिए जातिगत जनगणना करनी है तो धिकार है। लेकिन अगर आप सचमुच ये इस्तेमाल करने वाले हो डेटा का कि मुझे पता चल गया कि उस पॉकेट में ऐसे लोग कंसेंट्रेटेड हैं, जिनको मदद की जरूरत है, जिन तक सहायता पहुंचाए जाने की जरूरत है। ये वो जगह है जहाँ नए स्कूल खोलने की जरूरत है। ये वो जगह है जहाँ पर अस्पतालों की जरूरत है, या महिला सशक्तिकरण केंद्रों की जरूरत है। तब यह जो जो कास्ट बेस्ड डेटा है, तब यह उपयोगी हो जाएगा। बात हमारी नीयत की है।
चित्रा त्रिपाठी: हां, लेकिन नियत, १९३१ के बाद तो जातिगत जनगणना यूपीए शासनकाल में २०११-१२ के बाद दो में हुई, लेकिन वो आंकड़े जारी नहीं किए गए। लेकिन मौजूदा वक़्त में इतना ज़्यादा जाति जाति हो रही है इस वजह से ये सवाल पूछना बहुत ज़रूरी था क्योंकि आपको फॉलो करने वाले बहुत बड़ी तादाद में लोग हैं और उनके मन में जो भी भ्रम हो, जो भी शंकाएं हो, उसका समाधान होना चाहिए। अब मैं आपको लेकर चलती हूँ कुंभ।
देखिए ए बी पी न्यूज पर मैं खुद मौनी अमावस्या के दिन जो भगदड़ हुई थी, मैं वहीं पर थी और हमने कवरेज भी की। 30 लोगों के मारे जाने का दावा सरकार की ओर से किया गया है। लेकिन मैंने ये भी देखा कि जिस सनातन धर्म का हम ज़िक्र करते हैं और उस सनातन धर्म के एक जाग्रत स्वरूप को देखना हो, तो कुंभ में जब आप जाएंगे तो एक बिल्कुल अलग दुनिया पाएंगे। अभी तक तकरीबन 37 करोड़ लोग वहाँ पर डुबकी लगा चुके हैं, जो अपने आप में न जाने कितने देशों की आबादी को पीछे छोड़कर आगे बढ़ चुका है।
अब जिस अमृत कलश की, हम बात करते हैं, हमने पौराणिक कथाओं में सुना है, जाना है समझा है कि समुन्द्र मंथन हुआ, अमृत निकला, फिर उसकी बूंदे गिरी और उसके बाद बारह सालों में महाकुंभ का आयोजन होता है। अमृत क्या है अगर आपके शब्दों में हम जानना चाहे?
आचार्य प्रशांत: चलिए बिल्कुल, एकदम जमीन पर लाकर के कोशिश करते हैं सबके लिए। तो हम जो होते हैं न कभी अकेले नहीं रह पाते। जिसे मैं कहते हैं अहम ईगो सेल्फ, वो हमेशा जुड़ता है किसी से और जिससे जुड़ता है, वही उसकी ज़िन्दगी बन जाता है। उदाहरण के लिए पहली चीज़ जिससे हम जुड़े होते हैं, वो तो बॉडी ही होती है देह। हर आदमी कहता, मैं ये हूँ। मैं, मेरी सुनो तो हम देह को छू के बोलते है तो हम इससे जुड़े होते हैं। यह तो शारीरिक तल पर हो गया। उसके बाद मानसिक तल पर हम पैसे से जुड़ जाते हैं कि पैसे से हम जुड़ गए हैं मेरी आइडेंटिटी पैसा बन गया है। फिर हम परिवार से जुड़े होते हैं माँ, बाप भी भी बच्चा इनसे जुड़े होते हैं। फिर बहुत लोग धर्म से आइडेंटीफाइड होते हैं, मैं हिंदू हूँ, मुसलमान हूँ, ये हूँ। फिर कोई किसी विचारधारा से आइडेंटिफाइड हो सकता है। मैं कम्यूनिस्ट हूँ, मैं ऐसा हूँ।
हर आदमी किसी न किसी चीज़ से जुडा होता है। कोई ऐसा हो सकता है जो कहते हैं कि मैं इस मिटटी से बहुत आडेंटिफाइड हूँ या मैं उस, उस भवन से बहुत आइडेंटीफाइड हूँ। जिस चीज़ से जुड़े हो हमने कहा वही हमारी ज़िन्दगी बन जाती है। और हम जिन भी चीज़ों से जुड़े होते हैं, वो सब वो होती हैं जो बदल जाती है, बदल जाती है। बदलने का मतलब होता है जैसी आज थी, वैसे कल नहीं रहेगी, कल नहीं रहेगी। शास्त्रीय तौर पर इसको ऐसे कहा जाता है कि तुम जिस भी चीज़ से जुड़े हो, वो मरण-धर्मा है। कल जैसी थी वो आज नहीं रहेगी, माने वो बदल जाएगी, माने मर जाएगी। और वही चीज़ तुम्हारी ज़िन्दगी थी तो वो चीज़ अगर बदल गई तो माने तुम मर गए।
तो इसलिए कहा जाता है फिर की इंसान जो है, वो हमेशा मृत्यु के खौफ में जीता है। क्योंकि वो अपने आप को जोड़ कर के ही ऐसे विषयों से रखता है जो बदलते रहते हैं। और ये हमें पता है भीतर ही भीतर कि मैं जिस से जुड़ा हूँ, वो वो नहीं रहेगा जैसा मुझे आज लगता है। इसलिए हर आदमी भीतर ही भीतर खौफ में रहता है। तो अमृत का क्या मतलब हुआ? अमृत का मतलब हुआ। ऐसी किसी भी चीज़ से अपने आप को न जोड़ना, पहले नकार की भाषा में बात करूंगा और फिर सकार की भाषा में भी बोल देंगे। नकार का मतलब हुआ अमृत का, कि किसी भी ऐसी चीज़ से अपने आप को मत जोड़ो, जो कल तुम्हें धोखा दे देगी। चीज़ धोखा इसलिए नहीं देती कि उसकी नीयत होती है धोखा देने की। चीज़ धोखा इसलिए देती है क्योंकि वो मजबूर होती है, वो प्रकृति के अंतर्गत वशीभूत होती है। वो न भी चाहे तो उसे बदलना पड़ेगा। आप कह देते हो मैं माँ हूँ, मेरा बच्चा मेरी पहचान है, माँ है तो बच्चा ही तो पहचान होगा वरना माँ कैसे? बच्चा न भी चाहे तो बच्चा कल बदल जाएगा। ऐसा नहीं है कि बच्चा जानबूझ कर, आपको धोखा देने के लिए बदल रहा है। बच्चे की मजबूरी है कि उसको बदलना पड़ेगा। और बच्चा जब बदलेगा तो आपको बहुत दुख होगा।
तो अमृत का मतलब हुआ: अ-मृत! नकार की भाषा है, मृत्यु का द्योतक है। मतलब किसी ऐसी चीज़ से मत जोड़ो जो कल बदल जानी है, जिसकी कल मृत्यु हो जानी है मृत्यु माने बदलाव। जो आज है, वो कल नहीं, इसी को मृत्यु बोलते हैं बदलाव। मत जोड़ो, मत बहुत गंभीरता से लो किसी किसी भी ऐसे विषय को जो परिवर्तनशील है। और सकार की भाषा में, इसको ऐसे बोलेंगे की, अपने आप को उससे जोड़ लो, जो अकाल है, अनंत है, अविनाशी है, जो कभी बदलने वाला नहीं। ये कुंभ का मतलब है।
चित्रा त्रिपाठी: बहुत सुन्दर, बहुत ही सुन्दर शब्दों में आपने वर्णन किया है। और यकीनन जितने लोग अगर महाकुंभ में नहीं जा पाए होंगे, इन शब्दों के जरिए वो जरूर अपने आप को वहाँ पर पा रहे होंगे। अब मेरा आपने अपनी बातों को कहते हुए कई बार जोड़ शब्द का इस्तेमाल किया है। अब मेरा अगला सवाल यह है यह जो हमारा समाज है, ये आपस में किस तरह से जुड़ा रहे। इनके बीच कोई विभेद, चाहे वर्ग का, चाहे धर्म का, चाहे जाति का, चाहे पैसों का। ये जो ऊंच नीच की बार-बार हम बात करते हैं, देखिए, जब हम काफी समृद्ध हो जाते हैं, ज्ञान के तौर पर आप इतना पढ़ते लिखते हैं, और आपकी बातें बहुत दूर तक असर भी करती है। हम एक दूसरे से किस तरह से जुड़े, ताकि एक समाज के तौर पर हम आगे बढ़े, एक देश के तौर पर हम आगे बढ़े। और मान लीजिए एक हमारा दोस्त है, वो पारिवारिक तौर पर बहुत संपन्न है, हम थोड़े कमजोर हैं, तो हम उसको भी मदद कर पाए जुड़कर। ताकि वो भी अपनी ज़िन्दगी को आगे ले जा सके, बेहतर बना सके।
आचार्य प्रशांत: देखिए, हम जब देखते हैं दुनिया को, तो यहाँ सब कुछ अलग अलग है। आप बैठी हैं, मैं बैठा हूँ, हममें भेद ही भेद आपको दिखाई देंगे, ये इतने लोग यहाँ बैठे हैं। किन्हीं भी दो लोगों की शक्लें भी एक जैसी नहीं है, कोई भी दो लोग ऐसे नहीं होंगे जो बिल्कुल एक ही पल में पैदा भी हुए हैं उम्र भी सबकी अलग है, सब कुछ अलग है, विविधताएं ही विविधताएं हैं। माने भेद ही भेद हैं, माने अंतर ही अंतर है।
तो फिर हम एक कैसे हो जाए? तो एक हम बस वहाँ हो सकते हैं जो हम सबमें साझा है। और अगर हमने उसको नहीं खोजा, नहीं जाना, जो हम सब में साझा है, तो हमारी मजबूरी हो जाएगी एक दूसरे से लड़ते रहना, क्योंकि अलग तो हम हैं ही, हम नहीं इसको इनकार कर सकते कि हम अलग नहीं है। और पाखंड करके हम कहते हैं कि हम एक हैं, हम एक है, तो ये बड़ी ऊपरी एकता होगी, जो चलती नहीं है। हम कह सकते हैं कि भई हम इस आधार पर एक है, उस आधार पर एक है वो। बहुत तरह की इस तरह की फर्जी एकताएं लायी गई और इतिहास ने उन सब एकताओं को बिल्कुल खंडित कर दिया, उनको चूरा चूरा कर दिया, कहीं का नहीं छोड़ा। कोई एकता चलती नहीं है।
आत्मा अकेली एकता है, जो नष्ट नहीं होती, बाकी सब एकताएं नष्ट हो जाएंगी। क्योंकि आत्मा का अर्थ ही है वो जो शरीर, समाज, प्रकृति और संयोग से परे है, जिसमें कोई भेद नहीं होता, उसे आत्मा बोलते है आत्मा माने वो जो न आपको शरीर से मिला है, न समाज से मिला है, न मन का है, न संस्कार का है, उसको आत्मा बोलते हैं। सारा अध्यात्म आत्मा को ही अनावृत करने का प्रयास होता है कि आत्मा के ऊपर जो मैंने अहंकार चढ़ा रखा है न, उसकी व्यर्थता देखूं और उसको हटा दू, छोड़ दू। और जैसे जैसे व्यक्ति आत्मा को हासिल करता जाता है, वैसे वैसे उसे दिखता जाता है कि जो भेद थे, वो तो सब ऊपरी ही थे, हम भेदों में लिपटे हुए थे। मैं कहूँ मैं पुरुष हूँ, आप स्त्री है मैं फलाने जगह का रहने वाला, दूसरी जगह की रहने वाली, तो ये भेद थे। और जहाँ भेद है, वहाँ लड़ाई होगी। तो लड़ाइयां लाजमी है और लड़ाइयां होती रहेंगी। मनुष्य का पूरा इतिहास लड़ाइयों का इतिहास है।
आप हिस्ट्री पढ़ने जाते हो, वहाँ बार बार आपको क्या बताया जाता है? ११९२ (1192) याद करो, १५२६ (1526) याद करो, १७५७ (1757) याद करो। ये सब क्या है, लड़ाइयों के साल है। लड़ाइयां क्यों होती है क्योंकि हमे और सामने वाले में हमेशा अंतर होता है। लड़ाई होगी जब तक वो भी न देखे की वो वास्तव में आत्मा मात्र है और मैं भी देखू आत्मा मात्र और आत्मा और आत्मा एक होती है। आत्मा और आत्मा बस एक होती हैं। ऊपरी काम करने से आत्मा की प्राप्ति नहीं होती है। ऊपर ही काम अधिक से अधिक रिमाइंडर हो सकते है।
अब जैसे अभी आप कुंभ की बात कर रही थी।तो ज्ञानियों ने एक बड़ा सुन्दर वक़्तव्य दिया है आत्मा के संदर्भ में। कि सब बन तो तुलसी भये। आप सारे वनों को देखे, वह आपको अंतर ही अंतर दिखाई देंगे। सब अलग अलग है। इतने तरह के पेड़ हैं, सब अलग है। अगर एक ही प्रजाति के दो पेड़ तो भी उनका कद काठी सब अलग अलग है। तो नहीं नहीं, अलग अलग नहीं है। सब वन एक है तुलसी है। सब वन तुलसी भये, बोले ऐसे ही सब पत्थर होते है, अलग होते हैं। कोई दो पत्थर बिल्कुल एक सी नहीं होते। बोले नहीं, नहीं, नहीं सब वन तुलसी भाई, सब पत्थर शालीग्राम। वैसे सब नदियाँ अलग अलग दिखाई पड़ती है। दुनिया भर में इतनी नदियाँ छोटी बड़ी है वो। बोले नहीं, नहीं, नहीं सब नदियाँ गंगा भाई, सब नदियाँ गंगा है। कब? ये सारी विविधताएं कब समाप्त हो गई? जब पाया आतम राम। सब वन तो तुलसी भय और सब पत्थर शाली ग्राम और सब नदियां गंगा भई। जब पाया आत्मराम,
आत्मा मिल गई तो सब नदियाँ गंगा हैं। आत्मा को पा लिया तो जितनी वनों की विद्धता सब हट गई, सब वन तुलसी है। अब किसी पेड़ को नहीं काट पाओगे। ये बोल के कि यह तो बेकार पेड़ है मैं तो बस तुलसी को पूछ। सब वन, तुलसी भाई और सब पत्थर शालीग्राम समझते है। जो दैवीयता का प्रतीक छोटा पत्थर होता है, हमारे घरों में पूजा जाता है। शालीग्राम पत्थर। सब नदियां गंगा भई जब पाया आतम राम। तो आत्मा अकेली है, जो एकता ला सकती है। वरना तो बस यही से ऐसे ऐसे।
और आत्मा विविधता को मार नहीं देती। आत्मा तो विविधता का कहती है उत्सव मनाओ। क्योंकि विविधता के रहते हुए भी हम एक है, तो तुम भी अलग रह लो, हम भी अलग रह लो, हम अलग रहते हुए भी एक है। तुम तुम्हारे जैसे रहो, हम हमारे जैसे रहेंगे, हम फिर भी एक है तो आत्मा अकेली है जो सच्ची एकता ला सकती है।
चित्रा त्रिपाठी: बहुत सुन्दर तरीके से आपने अपनी बात रखी है। और मुझे पूरी उम्मीद है कि जितने लोग इस बात को सुन रहे होंगे बहुत सारी बातें आप से वो सीख कर जायेंगे। और जीवन में अब तक आपने जो कुछ नहीं किया है, कहा जाता है कि हर सुबह नई ज़िन्दगी का श्रीगणेश है। यानि कि जब हम अगली सुबह अपनी आंख खोलते हैं तो एक नया जीवन ईश्वर हमें दे रहे होते हैं तो हम उसके जरिए शुरुआत कर सकते हैं। उसके लिए भूल जाना चाहिए कि हम कितनी उम्र में खड़े हैं, हम किस परिवार से आते हैं, हमारे पास पैसे हैं या नहीं है, हम समाज के किस छोर का हिस्सा है। अगर उसको पीछे छोड़ कर हम ये सोचेंगे, यह हमारा लक्ष्य है। इस तरह से हमें आगे बढ़ना है अध्यात्म की प्राप्ति के लिए, ये उपाय करने हैं परिवार को जोड़े रखने के लिए ऐसे ऐसे काम करना है। माँ बाप हमारे जैसे भी हो, जहाँ कहीं भी हो, हमें उनका ख्याल रखना है। जब इस मनःस्थिति से हम आगे बढ़ेंगे तो शायद हम अपने जीवन को और बेहतर बना पाएंगे।
और चलते चलते एक आखिरी सवाल, जिसका ज़िक्र बहुत ज़रूरी है। और सवाल ये है कि सब कुछ होते हुए भी कई बार हम खुश नहीं होते हैं। हम बहुत पैसे कमा रहे होते है, हम खुश नहीं हैं। परिवार में हमारे पास सब के चेहरे खिले हुए हैं, लेकिन हम खुश नहीं है। ऑफिस में सब कुछ अच्छा चल रहा है, फिर भी खुश नहीं है। इसके पीछे की मनो स्थिति क्या होती है वो जो खुशी है, जो हमें अंदर से आती है, जिस आत्मा का आप ज़िक्र कर रहे हैं कि कई बार ऐसा होता है कि हम चुपचाप बैठे होते हैं, लेकिन हम मंद-मंद मुस्करा रहे होते हैं। और कई बार ऐसा होता है कि सब कुछ हमारे पास होता है लेकिन फिर भी दिल के भीतर कुछ कमी सी होती है कि हम खुश नहीं हैं। और हम तलाश रहे होते हैं कि आखिर इसके पीछे की वजह क्या है, तो आप एक आध्यात्मिक गुरु होने के नाते क्या समझते हैं?
आचार्य प्रशांत: देखिए सब कुछ पाने के बाद भी अगर आप खुश नहीं है तो अब आपको कुछ छोड़ने की जरूरत है। क्योंकि खुशी शायद पाने की चीज़ है ही नहीं। थोड़ी देर पहले हमने कहा था, ताकत स्वभाव है। तो जिन्होंने कहा, ताकत स्वभाव है उन्होंने यह भी कहा है कि आनंद स्वभाव है। तो जब स्वभाव है तो बाहर से तो पानी की जरूरत ही नहीं न उसे। आनंद तो है ही भीतर, लेकिन दुखी हम फिर भी है। तो मतलब, दुख हमने कहीं से उठाया है। दुख हम बाहर से लेकर आए हैं तो कुछ छोड़ने की जरूरत है। मैंने जो आपने पाया है न, जिसको आप अपनी उपलब्धियां, या अचीवमेंट बोलते हो, उसमें ही दुख है। आनंद तो अनुग्रह की तरह होता है, वो गिफ्ट की तरह होता है। वो भीतर मौजूद होता है उसके लिए कोई विश्व विजय नहीं करनी पड़ती है। वो वो है। वो जैसे किसी की भेंट है, तोहफा है। वो उपहार है।
आप पैदा हुए हो न तो आनंद भीतर बैठा हुआ है, पर उसके ऊपर बहुत सारा धुआं जमा होता है। उसको अहंकार बोलो, मान्यता बोलो, अज्ञान बोलो, अविद्या बोलो, वो सब इकट्ठा होता है वो दुख है। दुख इसमें नहीं होता कि अभी पाने में कुछ कसर रह गई है। दुख इसमें होता है कि बहुत सारी उलटी पुलटी चीज़ें पा ली हैं। दुख पाने में कमी का नाम नहीं है। दुख गडबड चीज़ों को पा लेने का नाम है। तो जो पा रखा है उसको थोड़ा छोड़ना सीखिए और गड़बड़ चीज़ उठा ली है उसको पाए पाए आप कहे, अभी मुझे दुख किस बात का है। मान लीजिए, किसी बात का दुख है, मैं कपड़ों के भीतर है, कुछ फटा हुआ है या किसी तरह का कोई कांटा है जो पीठ में चुभ रहा है और मुझे दुख है। और मैं उसको पाले हुए ही, क्योंकि मुझे इज्जत बहुत प्यारी है तो मैं ये जो कोट है वो उतार ही नहीं सकता और मैं कैसे स्वीकार कर लूँ कि मैं इतना मूर्ख हूँ की मैं कपड़ों के साथ कांटा भी पहन आया।
तो न तो मैं अपनी इज्जत उतार सकता हूँ न अपने आप को मूर्ख घोषित कर सकता हूँ। तो वो काटा पीठ पर धारण करे करे में कुछ पाने के लिए व्याकुल हूँ। मैं कह रहा हूँ मुझे अभी सुख पाना है, मुझे अभी और अचीवमेंट चाहिए, तो दुख दूर हो जाएगा? हम यही करते हैं। दुख को अपनी पीठ नहीं, अपनी छाती में हमने खुद ही घुसेड रखा है और उसको वहां बैठाए-बैठाए हम सुख पाना चाहते हैं। पाने से नहीं होगा, कोट को उतार दीजिए। बहुत सारी चीज़ें जो आपके लिए इज्जत वगैरह की बात है, जो आपके लिए सुख सुविधा की बात है, उनको छोड़े बिना दुख नहीं छूटेगा।
चित्रा त्रिपाठी: बहुत सुन्दर। अब मुझे लगता है चलते चलते बहुत सामने कुछ लोग होंगे जिनके जेहन में कुछ सवाल होंगे पूछ लेते हैं।
प्रश्नकर्ता: नमस्ते। आचार्य जी, आपके काम को कई बार प्रतिरोध और आलोचना का सामना करना पड़ता है। तो आपको मतलब कौन सी कोई चीज़ है जो आगे बढ़ने में या प्रेरणा देती है?
आचार्य प्रशांत: जितना विरोध आता है उतना और पता चलता है न काम ज़रूरी है। काम अगर असली नहीं होता तो सब नकली दिशाओं से उसको विरोध क्यों आ रहा होता? मैं सिर्फ़ यही थोड़ी देखता हूँ कि विरोध आ रहा है। मैं ये भी तो देखता हूँ न किससे विरोध आ रहा है।
तो विरोध की क्वालिटी और क्वांटिटी दोनो देखी जाती है। और वही बता रहा है कि काम बहुत ज़रूरी है। और लगन से इसको आगे बढ़ाओ।
प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी, मैं एक स्कूल में रसायन विज्ञान, पढाता हूँ ग्यारहवीं, बारहवीं के विद्यार्थियों को। और हम अपने आस पास क्लाइमेट चेंज में आपको काफी समय से फॉलो भी कर रहा हूँ। लैबरेटरी में विजिट करते हैं। बच्चों के दिमाग में बहुत सारे सवाल हैं इसको लेकर। ऐज़ अ शिक्षक ऐज़ अ टीचर में क्या कॉन्ट्रिब्यूट कर सकता हूँ ताकि हम आने वाली पीढ़ी के लिए बेहतर अर्थ जैसे हम रहते है…
आचार्य प्रशांत: बेहतर तो नहीं छोड़ पाएंगे। हाँ यह है कि कम बर्बाद करें, ये हो सकता है। बेहतर क्या छोड़ेंगे? क्लाइमेट चेंज की विभीषिका तो और भयानक होनी है। तो बेहतर क्या छोड़ेंगे? बच्चों की बात कर रहे है तो उन्ही बच्चों को जीना है उस पृथ्वी पर जिसको हम आज बर्बाद कर रहे हैं। तो वही तो है जो समझेंगे और बहुत साधारण-सी बात है। इसमें जो साइंस है वो बहुत सिम्पल है। बेटा कैसा लगेगा अगर अभी क्लास रूम में हो, तुमको बाहर धूप में खड़ा कर दिया जाए तो? बोलेंगे धूप में जायेंगे तो दस मिनट चक्कर आ जाएगा। बोले बेटा कैसा लगेगा। अगर आज से बीस साल बाद जो बाहर का टेम्प्रेचर है, वही क्लास रूम के अन्दर होने लग जाए तो? यही होने जा रहा है। ये जो दुनिया है, यह बात हमें जाहिर नहीं की जा रही है हमारे सामने जो आंकड़े लाए जाते हैं, कभी डेढ़ डिग्री बोला जाता है, कभी तीन डिग्री बोला जाता है। हम शायद पांच डिग्री से ज़्यादा औसत तापमान में बढ़ोतरी की ओर गिर रहे हैं। और ये इन्हीं बच्चों को झेलना है।
बताना बहुत आसान है। धूप सब समझते हैं, गर्मी सब समझते हैं, बारिश भी सब समझते हैं। ये सब क्लाइमेट चेंज के प्रभाव है। सूखा भी सब समझते हैं। अपना घर छोड़ के किसी और जगह पर या किसी और देश में इमिग्रेट करना पड़े, यह भी सब समझते हैं। तूफान सब समझते हैं। यह तो बच्चा भी समझता है न? कि रोज़ ही रोज़ तूफान आ रहा हो तो बेटा कैसा लगेगा? जबर्दस्त सूखा पड़ रहा हो तो कैसा लगेगा? वाइल्ड, फायर्स भी सब समझते हैं। खूब बारिश होगी, जब जबर्दस्त बारिश होगी तो बहुत सारी ग्रीनरी फैल जाएगी अचानक बारिश दो महीने बारिश बारिश हुई तो चारों तरफ हरा हरा हो जायेगा। और फिर छह महीने तक कड़क धूप पड़ी है। तो आग लगेगी। क्योंकि ये जो हरा हो गया था, वो भूरा हो जाएगा। और वो जलेगा, कैसा लगेगा बेटा? और कैसी होगी हो दुनिया जिसमें तूफान आ रहे हैं, आग लग रही है, बारिश हो रही है, सूखा पड़ रहा है, गरीब की जान जा रही है?
इसकी साइंस इतनी सरल है कि बच्चों को आसानी से समझाई जा सकती है। समझाइए। उन्हीं को जीना है इसमें।
प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। सर आपके अनुसार भारत के सामने आज सबसे बड़ी समस्या क्या है? चुनौती क्या है? आर्थिकता, नैतिकता या बौद्धिक।
आचार्य प्रशांत: चाहे कोई राष्ट्र हो, चाहे कोई व्यक्ति हो, कोई समुदाय हो और चाहे कोई भी समय हो, तो बात बस आज की नहीं है और बात बस भारत की नहीं है। समस्या तो हमेशा सिर्फ़ एक होती है। अज्ञान उसके अलावा कभी कोई समस्या किसी के लिए नहीं रही। भारत क्या है हम और आप ही तो भारत है न? और हम और आप अगर जानवर जैसे रहेंगे, हमें कोई होश नहीं, हमें अपने होने का जरा बोध नहीं। हम बेहोशी में इधर-उधर कुछ भी हरकतें कर रहे हैं। तो भारत राष्ट्र, उज्ज्वल, स्वर्णिम कैसे हो जाएगा? हमे सुधरना होगा, हमें बेहतर बनना पड़ेगा न। तभी तो भारत बेहतर हो पाएगा। तो बेहोशी अज्ञान यही हमेशा अकेला अभाग होता है और भारत का है, आज भी है और बाकी दुनिया में भी यही है।
प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी, नमस्कार चित्रा जी। मेरा नाम अमरनाथ है और मैं भारतीय जनसंचार संस्थान दिल्ली का विद्यार्थी हूँ और मेरा प्रश्न आचार्य जी से है। अभी आपने स्तुति और स्मृति की बात की, उसमें आपने, वेद और वेदांत की बात की, दोनों की बात की, तो क्या वेद और वेदांत में कोई अंतर है? चूंकि ऐसी कई सारी बातें हैं, जैसे कि कर्मकांड वगैरह जो वेद का हिस्सा है, लेकिन इसे वेदांत जो है, सिरे से नकार रहा है। तो इन दोनों में क्या डिफ्रेंसेज है और क्या वेदांत और वेद में कोई भिन्नताएं हैं इसके बारे में सर…
आचार्य प्रशांत: दोनों के तल अलग अलग है न? वेदांत नकार की बात नहीं करता। वेदांत अगर कहेगा ये मत करो तो उसने करने की भाषा में बात कर दी न। वेदांत करने की, या न करने की भाषा में बात करता ही नहीं है। वेदांत, जानने की भाषा में बात करता है। कर्मकांड में बात होती है, करने की भाषा में, और वेदांत में ज्ञान कांड में बात होती है जानने की भाषा में। जानो! जो कुछ भी कर रहे हो, या हो रहा है, उसको जानो। देखिए ऋषि हमारे बड़े सत्यनिष्ठ थे, बहुत ईमानदार थे, पाखंड नहीं था उनमें। तो जो पूरी प्रक्रिया रही है वेदों की, वो उन्होंने जस की तस उठा कर आपके सामने रख दी है। यहाँ से शुरुआत हुई है, और यहाँ निष्पति हुई है। तो शुरुआत हो रही है प्रकृति पूजन से, उसके बाद आते हैं या उसके साथी आते हैं वास्तव में प्रकृति के प्रति कुछ प्रश्न। और फिर जब आप पहुंचते हो वेदांत में, तो वहाँ पर आता है प्रकृति का अतिक्रमण। प्रकृति का ट्रांसेंडेंस। प्रकृति से आगे ही निकल गए हम। और वो पूरी प्रक्रिया उन्होंने आपको बता दी कि देखो ऐसे ऐसे हुआ है, और जो शुरू में हुआ है, वो न हुआ होता तो जो अंत में हुआ है, शायद वो भी न हो पाता। छुपाने की उन्हें कोई जरूरत नहीं थी। तो उन्होंने पूरी बात आपके सामने बता दी है। वह कोई दो बातें एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं, वो एक ऑर्गेनिक प्रक्रिया है।
क्या आप ऐसा कहेंगे कि फल तो रसीला होता है और मीठा होता है, और तना तो कड़ा होता है, और खुरदुरा होता है। तो तना और फल एक दुसरे के विरोधी होते हैं, विरोधी नहीं होते। वो एक ही और्गेनिक प्रक्रिया हैं। एक ही विकास की, श्रंखला की दो कड़ियाँ हैं, एक कड़ी पहले की एक कड़ी अंत की।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, नमन। मेरा प्रश्न यह था कि आपने बताया कि सब भेदों को दूर करने का एक ही उपाय है कि हम अपनी आत्मा को जान पाए। और जो अध्यात्म, जिसको हम बोलते है, अध्यात्म ये हमने देखा कि अध्यात्म की पराकाष्ठा पर जो पहुँच जाता है, वही वहाँ पर भेदभाव शुरू हो जाता है। जिसको आपने बोला, श्रीमद्भगवद्गीता जो कि हमारा मूल ग्रन्थ, जिसको बोलना चाहिए, जो श्रुति, जो आप बोल रहे है, जिसको चेंज नहीं करा जा सकता, उसी गीता में आप देखेंगे की उसके हंड्रेड्स सॉफ डिफ्रेंट, वर्जन है। तो उसमे एक गीता जिसने अध्ययन किया है, और वो दूसरा जिसने गीता उसे देखेंगे, उसको लैंग्वेज ही नहीं समझ में आ रहा है कि यह वही गीता जो मैंने गीता पढ़ी है। तो उसमे डिफ्रेंस, इतना अध्यात्म में इतना पराकाष्ठा पहुँचने के बाद भी।
आचार्य प्रशांत: देखिए, कोई भी भाष्य, कोई भी ग्रंथकार, कोई भी गुरु अंततः आप ही चुनते हैं। आपने कहा, गीता पर बहुत तरह की टिप्पणियां हैं, भाष्य है, अनुवाद है, ये हैं। और सब में अंतर है बहुत। कोई भी व्यक्ति सबको तो नहीं पढने लग जाता। एक पर उँगली आपने रखी न। आपने किस आधार पर रखी है? और जब आपने ही चुना, चाहे गुरु हो, चाहे ग्रंथ हो, चाहे भाष्य हो, तो फिर आखिरी जिम्मेदारी भी किसकी है? आपकी है न? तो आपके विवेक से बड़ा कोई नहीं होता, आपके विवेक से बड़ा कोई नहीं होता। आप गीता का भी कोई अर्थ या अनुवाद उठा रहे हो तो अपने आप से पूछो कि इसमें क्या मैंने विवेक का इस्तेमाल करा है क्योंकि आखिरी बात तो मेरा विवेक ही है, मेरा ही विवेक है। कोई बहुत बड़ी बात वहाँ लिखी भी हो, उसका अर्थ तो मैं ही करूँगा न? मुझ तक वो बात नहीं पहुँचेगी, मुझ तक वो अर्थ पहुँचेगा जो मैंने करा है, या मुझ तक वो पहुँचेगा जो मैंने उस व्यक्ति से चुना और उस व्यक्ति को किसने चुना? मैंने चुना।
तो आपको देखना होगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई बहुत प्रचलित भाष्य है आप इसलिए उसकी ओर चले गए? कहीं ऐसा तो नहीं कि गीता की कोई प्रति आपको मुफ्त की मिल गई है तो इसलिए आपने घर में रख ली? कहीं ऐसा तो नहीं की किसी प्रकार की गीता का बहुत प्रचार हो रहा है तो आपने उसको सच मान लिया? आपका अपना विवेक कहां है? और कोई बड़ी से बड़ी बात भी बोली गई हो, वो आपके काम नहीं आएगी बिना आपके विवेक के। बड़े से बड़े गुरु भी अवतार भी बेचारे मजबूर हो जाते हैं, जब उनके सामने कोई विवेकहीन मनुष्य पड़ जाता है। क्योंकि समझना तो आपको है, सामने वाला ऊँची से ऊँची बात समझा रहा होगा। आप समझने को तैयार ही नहीं हो, तो क्या कर लेगा बेचारा।
कृष्ण भी बेचारे कुछ न कर पाए। अगर आप समझने को तैयार न हो। तभी तो गीता, वहां इतना बड़ा कुरुक्षेत्र है। अर्जुन भर को बस दी गई है क्योंकि अर्जुन के पास वो डिवोशन था, वो सुनने की क्षमता थी। बाकी वहां युधिष्ठिर भी खड़े, युधिष्ठिर को गीता नहीं दी गई। कौरव दुर्योधन, वगैरह तो छोड़िये जो धर्मराज थे, उनको तक को भगवद्गीता नहीं दी गई। तो आपको देखना होगा कि आपका विवेक कहाँ है? आपके पास विवेक होगा तो गीता आपको मिलेगी और आपके पास अगर विवेक नहीं होगा तो गीता के नाम पर न जाने क्या उठा लाएंगे। और बहुत सारे इसी तरीके के विकृत अर्थ गीता के प्रचलित भी हैं।
चित्रा त्रिपाठी: गीता से हमारी बात शुरू हुई थी और गीता पर आकर इसका समापन हो रहा है। बहुत सुन्दर तरीके से आपने तमाम बातों का वर्णन किया, कई सवालों के जवाब भी दिए। आपका जो भी प्यार, सम्मान, दुलार सवाल, जो भी है, आपका स्वागत है, हम तक पहुँचाते रहे। वक़्त हमें इतने की इजाजत देता है। बहुत धन्यवाद आपका। हमेशा से ही आपको सुनना बहुत अच्छा लगता है और आज एक बार फिर से तालियों की गड़गड़ाहट बताने के लिए काफी है कि यह मंच कितना सम्मानित महसूस कर रहा है आपको यहाँ पर पा कर।
आचार्य प्रशांत: बहुत धन्यवाद।