आचार्य प्रशांत: बताओ नीरज शुरू करते हैं।
नीरज चोपड़ा: हाँ जी, सबसे पहले तो बहुत बढ़िया लग रहा है आपसे बात कर के, वो पॉजिटिव एनर्जी दिख रही है और मुझे उस टाइम में ओलंपिक खेला ही था और उसके बाद मैं दूसरे कॉम्पिटिशन की तैयारी कर रहा था तो आपने ओलंपिक से रिलेटिड की कैसे हमारे लोग जब गेम चल रहा है तो एथलीट कुछ और करता है लाइफ में और वो उसके पर्सनल लाइफ या वैसे दूसरी चीज़ों की तरफ चला जाता है जबकि जो हमारा मुद्दा होना चाहिए वो यह होना चाहिए कि भाई जो हमारे इतने मेडल आ रहे हैं इनको दो-गुना या तीन-गुना कैसे करें तो वो थोड़ी चीज़ें हैं जो हमको स्पोर्ट्स के फील्ड में और ज़्यादा सोचना चाहिए कि हम किस तरीके से और बेहतर बन सकते हैं। अपने इंडिया का फ्लैग और ज़्यादा उठा सकते हैं। स्पोर्ट्स फील्ड में तो काफी हद तक हमारे जूनियर एथलीट है वो काफी बढ़िया कर रहे हैं और आगे आ रहे हैं लेकिन अभी भी बहुत कुछ चेंजेस और बहुत कुछ इम्प्रूवमेंट बाकी है।
आचार्य प्रशांत: बहुत खुशी है कि मेरा वो वीडिया मेरी वो बात तुम तक पहुँची। असल में जो पूरा विसडम का क्षेत्र है न, वो एक बहुत बुनियादी बात कहता है की कमज़ोरी के साथ जिया जा नहीं सकता है।
नीरज चोपड़ा: बिल्कुल
आचार्य प्रशांत: और खासकर जवान आदमी तो बहुत मजबूत होना चाहिए। संस्कृत में बोलूँगा फिर अनुवाद से ही बता दूँगा हमारे जो उपनिषद् है जो हमारे सबसे ऊपर के टॉप लेवल के ग्रंथ है वो एक बात कहते हैं कि नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो। सरल शब्दों में कहूँ तो यह कि सत्य, मुक्ति, ऊँचाई, एक्सिलेंस कमज़ोर आदमी के तो कभी पल्ले पड़नी नहीं है, उसको नसीब ही नहीं होनि है। ठीक है तो मजबूती बहुत जरुरी है और चूँकि हम लोग तन मन के जीव होते हैं तो बिना मजबूत तन के मजबूत मन भी नहीं हो सकता।
नीरज चोपड़ा: बिल्कुल
आचार्य प्रशांत: जवान आदमी को शरीर से बहुत मजबूत होना चाहिए।
नीरज चोपड़ा: हाँ जी
आचार्य प्रशांत: और इसी कोंटेक्स्ट में फिर ये जो तुम्हारी सफलताएँ रही हैं और जो तुम लोगों के सामने उदाहरण रख पाए हो वो बहुत सिग्निफिकेंट है लेकिन साथ ही साथ जो हमारा सिस्टम है, जिस वीडियो की तुम बात कर रहे हो उसमें हमने बात करी थी कि किस तरह से चीन में अगर एथलीट गोल्ड लेकर आता है तो सिस्टम की वजह से लेकर आता है और भारत में अगर एथलीट मेडल लेकर आता है तो कई बार वो सिस्टम के बावजूद लेकर आता है सिस्टम के खिलाफ जाकर उसको लाना पड़ता है। जो सपोर्ट सिस्टम से मिलना चाहिए उससे बहुत कम मिलता है।
लेकिन जो ग्राउंड लेवल पर स्काउटिंग है बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर है वो दूसरे देशों के मुकाबले हमारे यहाँ कम है। और बात सरकार की भी नहीं है जो हमारी सोसाइटी है सबसे पहले जो सरकार को चुनती है वो हमारी सोसाइटी अभी ऐसी नहीं हुई है कि वो रिस्क टेकिंग को प्रोत्साहित करे या सम्मान दे। तो हमारे यहाँ अभी भी बहुत ही चलता है कि कुछ पढाई कर लो, एक साधारण जॉब ले लो और सेफ हो जाओ, से क्योर हो जाओ, शादी….
नीरज चोपड़ा: आउट ऑफ बॉक्स
आचार्य प्रशांत: आउट ऑफ बॉक्स नहीं जाते हैं और आउट ऑफ बॉक्स के लिए भी मैंने जिसकी बात कर रहे हो आप उसमें बात करी थी। फोर सी है जो हमें रोकते हैं। तो पहला है कैपिटल की कमी, दूसरा है कल्चर हमारा, तीसरा है कन्फॉर्मिटी की हम झुक बहुत जल्दी झुक जाते हैं और बस जैसे भेड़ चाल है उसके पीछे पीछे और चौथी चीज़ मैंने कही थी क्रिकेट।
ये चार चीज़ें हैं जो हमारे जो पूरा एथलेटिक सीन है उसको विकसित नहीं होने दे रही है। हालांकि उसमें बदलाव तो आ ही रहा है और उस बदलाव के खुद तुम उदाहरण हो।
नीरज चोपड़ा: बिलकुल जी, मुझे पर्सनली एज़ एन एथलीट मैं कभी भी उस चीज़ को दूसरे तरीके से नहीं देखता कि हमारी टीम क्रिकेट टीम कहीं जीतती है या कहीं भी अच्छा प्रदर्शन करते है। मुझे बल्कि ये लगता है कि हम और स्पोर्ट में भी बहुत आगे जा सकते हैं। ऊपर उठ सकते हैं, जैसे क्रिकेट में लोगों के अंदर इतनी रूचि है वो देखते है तो वैसे ही दूसरे स्पोर्ट में जैसे ओलंपिक होता है। हमारे पास अब क्या है कि वो चार साल में ही ओलंपिक्स के टाइम ही लोग उसमें इतने जूनून से देखते हैं। दूसरा मौका हमको बहुत कम मिल पाता है जैसे बाकी कॉम्पिटिशन खेलते हैं, यूरोप में हमारे ज़्यादातर होते हैं या, यू एस में होते हैं तो लोग उतना उसको फॉलो नहीं कर पाते।
हमारे यहाँ पर कि अगर यहाँ पर कॉम्पिटिशन आये जो इंटरनेशनल एथलीट्स हैं वो यहीं पर कम्पीट करे ताकि हमारे लोग अदर स्पोर्ट में भी जाए जैसे…
आचार्य प्रशांत: देखो, वो तब तक नहीं हो पाएगी जब तक हम ये सोचते रहेंगे कि इस काम को सरकार करेगी या स्पोर्ट्स एसोसिएशन करेगी। मैं समझाता हूँ इसको। ऐसा नहीं है कि इंडियंस जो नॉन-क्रिकेटिंग स्पोर्ट्स हैं उनको फॉलो नहीं करते जो हमारे यहाँ थोडा इलीट वर्ग है उदाहरण के लिए जो फुटबॉल लीग दुनिया भर के, उनको फॉलो करता है।
इसी तरीके से टेनिस में बदकिस्मती की बात है टॉप हंड्रेड में हमारी प्रेजेंस नहीं है लेकिन फिर भी जब ग्रैंड स्लैम होते हैं तो इंडियनस उनको फॉलो करते हैं। क्यों फॉलो करते हैं क्योंकि वहाँ पर पैसा है, ग्लैमर है और भेडचाल है कि देखो वहां पर जो वेल मनीड लोग हैं और जो एडवांस लोग हैं वो फॉलो कर रहे हैं तो हम भी कर लेते हैं। भारत में जो थोड़े लेस ग्लैमरस स्पोर्ट्स है और जो थोड़े उपेक्षित स्पोर्ट्स हैं वो तो तभी सामने आएँगे जब ऐसे जवान लोग खड़े हों जो कहे की भाई इस स्पोर्ट पे मेरा दिल आ गया है। अब इसमें कैरियर हो, पैसा हो, नहीं हो, मैं आगे बढूँगा।
ये जरूर हो सकता है कि जब मैं आगे बढूँ तो मेरी वजह से ये स्पोर्ट फिर ग्लैमरस हो जाए। मेरे आगे बढ़ने के कारण फिर इसमें पैसा और स्पोंसरशिप और फॉलोअरशिप आ जाए। नहीं तो हमारा देश ऐसा है हमारे सोचने का, हमारी जो पूरी पूरी पिटी हुई लकीर बन गई है वो ऐसी हो गई है की हम उधर को ही चल देते हैं जिधर को सब चल रहे होते हैं।
तो हम फुटबॉल भी देख लेंगे अगर उसको जो तथाकथित सो कॉल्ड बड़े लोग होते हैं फुटबॉल देख रहे हैं, हम देख लेंगे, हम टेनिस देख लेंगे, कुछ और भी स्पोर्ट से हम देख लेंगे। हमारे यहाँ पर रग्बी और बेसबॉल को फॉलो करने वाले लोग भी हैं।
नीरज चोपड़ा: अभी ट्रैकेंडफील्ड अगर वर्ल्ड वाइड देखे जी तो मतलब अपने आप में एक अगर ओलंपिक्स की बात करें तो ट्रैकेंडफील्ड का एक अलग ही रुतबा है। हमारे देश में मिल्खा सिंह जी, पी टी उषा जी और पहले काफी ऐसे एथलीट रहे हैं अंजू बॉबी जॉर्ज जी जिन्होंने अच्छा किया है प्रदर्शन और आपने जैसे बोला कि इन स्पोर्ट्स की तरफ इतना वो था नहीं मतलब हाँ युसेन बोल्ट और सभी जो माइकल जॉनसन जो सभी अच्छे एथलेट उनको फॉलो किया है सभी ने।
लेकिन जब मेरी जर्नी स्टार्ट हुई तो मुझे नहीं पता था एथलेटिक्स के बारे में, जेवेलिन के बारे में, तो मैं भी एक तरह से उस भीड़ का ही हिस्सा था मेरे हिसाब से। कि मैं स्टेडियम में गया, मैं फिटनेस करने के लिए गया लेकिन जो मेरा डिसीजन था वो बिल्कुल भी यह सोचकर नहीं था कि हाँ क्रिकेट को ज़्यादा लोग देखते हैं और मुझे भी खेलना है या मैं बास्केटबॉल खेलता हूँ या मैं उधर सभी स्पोर्ट्स थे वो मल्टी स्पोर्ट मतलब एक स्टेडियम था उसके बीच में फुटबॉल भी खेलते थे, क्रिकेट भी खेलते थे, बास्केटबॉल भी था, अच्छा जी, हॉकी भी था, सभी अपने स्पोर्ट्स, जिसमे हमारे स्पोर्ट्स ऑलरेडी अच्छे हैं और जिसमे ग्लैमरस है, सब सब तरह का था, पर वो जेवलिन ही मतलब उसकी तरफ भी मेरी नजर गई और मन में वही चीज़ बैठी कि यार मुझे यही करना है, मुझे नहीं पता था कि मैं आगे मुझे स्पोंसर मिलेंगे, मुझे पैसा मिलेगा मैं ओलंपिक्स तक जाऊंगा नहीं जाऊंगा या फिर मैं अपना नाम बना पाऊँगा कि नहीं।
बस मेरे मन में बोला और माइंड कहीं न कहीं बस एक वो डायरेक्शन में चल पड़ा कि इसके लिए मुझे कुछ भी करना पड़े कितनी मेहनत करनी पड़े और एक समय तक टाइम ऐसा था कि घरवाले घरवाले मुझे भेजते थे कि भाई ग्राउंड का टाइम हो गया, चलो तैयार हो जाओ। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि आज की यंग जनरेशन में मतलब ठीक है। एक काम सौंपते हैं, आपको बोलते हैं कि हाँ जल्दी उठना है, ये करना है। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि जब सच में बदलाव आया मेरी लाइफ में या स्पोर्टिंग करियर में, या शुरुआत के दिनों में, वो तब आया जब मैं खुद उठने लगा, मैं खुद जाने लगा स्टेडियम में।
मुझे पता था कि मेरी आज बहुत ज़्यादा ट्रेनिंग है, लेकिन वो मुझे मजा आने लगा, वो वो पेन, मुझे अच्छा लगने लगा कि मुझे ट्रैवल करना है, मुझे बस से लटक के कैसे भी जाना है, मुझे स्टेडियम पहुंचना है।
उसके बाद फिर जो भी प्रोसेस आते टाइम वही बस निकल जाती थी। कभी सात बजे शाम को लास्ट बस होती थी, उसके बाद फिर लिफ्ट लेना या मतलब काफी वो टाइम ऐसा था।
आचार्य प्रशांत: मैं समझ सकता हूँ।
नीरज चोपड़ा: तो उस तरीके से स्टार्ट हुआ, लेकिन वो जो भी सोच थी उसके पीछे वो बिल्कुल भी मुझे यह नहीं पता था फ्यूचर के बारे में क्यूंकि आजकल जब कोई हम डिसीजन लेते हैं तो पहले ये सोच लेते हैं की फ्यूचर में अगर इसमें ये अच्छा हो गया तो क्या होने वाला है। बल्कि वो मेरी फैमिली में भी किसी को नहीं पता था की जेवलिन थ्रो या क्या क्या शुरुआत हो रही है और वो।
अपनी जर्नी से मैं इतना जरूर बता सकता हूँ, सर जैसे की हम बात कर रहे थे कि हम थोड़ा सा ऊपर निकले सोचे, निडर होके सोचे और अपने सच्चे मन से मेहनत करे सच्चे, दिल से क्यूँकि मेहनत में सर कोई कमी नहीं आने दी। मेहनत तो बहुत सच्चे मन से थी,
आचार्य प्रशांत: बहुत बढियाँ
नीरज चोपड़ा: काफी चीज़ें थी जो शायद से एक छोटे बच्चे को करने चाहिए या उस एज में लगता है की हाँ कोई परिवार में, आस पास, घर के आस पास कोई शादी है, वो अटेंड करना, फेस्टिवल अटेंड करना, वो चीज़ें तो है जो मैं मुझे छोड़नी पड़ी काफी।
लेकिन ये जरूर है कि जैसा आपने कहा की वो एग्जाम्पल सेट करना। अब वो सर वो एग्जामपल ऐसा सेट कर दिया है की बच्चे अभी दूसरों के लिए विश्वास करते हैं कि ट्रैक एँ ड फील्ड में, जेवेलिन में भी कुछ है और हमको ऐसा करना है और ये सर सर मैं ये बताना चाहता हूँ की ये सिर्फ जलन की बात नहीं है, मुझे लगता है कि कई बार मैं सोचता हूँ, मुझे लगता है कि मैं कोई दूसरा सपोर्ट भी करता, इसी डेडिकेशन और इसी मन के साथ, क्योंकि मेरे अंदर किसी को ऐसे टैलेंट नहीं लगा था कि अलग से मैं बहुत ज़्यादा टैलेंटेड हूं। लेकिन वो मेहनत जो भी था, सच्चे मन से, वो जर्नी थी, वो बहुत दिल से थी। तो अगर मैं कोई दूसरा स्पोर्ट भी चुनता….
आचार्य प्रशांत: दूसरे स्पोर्ट की भी नहीं है। ये जो रुख है न एटिट्यूड, ये हिंदुस्तान को एक स्पोर्ट में, दूसरे स्पोर्ट में और ज़िन्दगी के हर फील्ड में चाहिए। जहाँ पर एक छोटा बच्चा है, वो जाता है, वो हो, आर्डिनरी फैमिली से आ रहा है, और वो जाता है वहाँ पर, उसको जेवेलिन भी अवेलेबल है, चॉइस के रूप में, उसको क्रिकेट भी है, फुटबॉल भी है, क्रिकेट बहुत ग्लैमरस है, वहां बैडमिंटन भी रहा होगा, शायद रेसलिंग भी रही होगी, बॉक्सिंग भी रही होगी। हरियाणा का सीन उस मामले में अच्छा है, ये सारे उसको ऑप्शंस अवेलेबल है। लेकिन वो कहता है भाई, मुझे नहीं पता मुझे ये चीज़ क्यों बुला रही है। पर अगर मुझे बुला रही है तो मैं कम से कम डर के मारे तो नहीं रुकूंगा,
नीरज चोपड़ा: बिल्कुल
आचार्य प्रशांत: मैं नहीं रुकूंगा और जितनी मुझे इसको मेहनत देनी है मैं दूँगा। हिंदुस्तान को ये रुख हमें साइंस में चाहिए, हमें आर्ट्स में चाहिए, हमें पॉलिटिक्स में चाहिए, हमें आन्त्रेप्योनोरशिप में चाहिए, ये जो कर रहे हो न, ये एक तरह की आन्त्रेप्योनोरशिप हैं आन्त्रेप्योनोरशिप माने सिर्फ पैसा कमाना नहीं होता। कोई नई अच्छी चीज़ शुरू करना, सच्ची आन्त्रेप्योनोरशिप हैं, भले ही उसमें भविष्य का कुछ नही पता चल रहा है।
अभी जो बीच में एक बात बोली नीरज कि मुझे नहीं पता था इसमें आगे क्या मिलेगा जानते हो यही बात सब तक पहुँचाना हमारा मिशन है। इसी को शास्त्रीय तौर पर क्लासिकली कहते हैं, निष्काम कर्म। मुझे नहीं मालूम भविष्य इसमें मुझे क्या देगा, इसमे फ्यूचर का क्या होने वाला है पर मुझे ये पता है की ये चीज़ अभी मुझे ठीक लग रही है तो मुझे करनी है।
नीरज चोपड़ा: बहुत ही कम ऐसे परसेंटेज होते है कि लोग अपनी उससे रुकते हैं। कई बार फैमिली प्रॉब्लम ऐसी होती है या घर पर बोलते हैं कि नहीं ये नहीं कर सकते। दूसरा कोई कुछ काम कर लो, वो भी एक तरह का, मुझे लगता है कि रुकावट होती है। मैं इस चीज़ में, मैं इस मामले में काफी अच्छा रहा, क्योंकि मेरी फैमिली ने मुझे सपोर्ट किया, भले ही उस टाइम पे हम गाँव से थे, फाइनेंसियली वो उतनी बात की, एक एथलीट के लिए पूरा प्रोपर डाइट, खर्चा जैवलिन स्पाइक्स जूते हर चीज़ चाहिए, जितना जो भी था, लेकिन वो जो मेंटली स्पोर्ट मेरे साथ था कि भाई कोई दिक्कत नही चलो, क्योंकि कोई भी ऐसा काम शुरू करते है तो उसमे टाइम चाहिए। कम से कम चार से पांच साल आपको एक सही लेवल पर पहुंचने के लिए लगेंगे।
अभी क्या है सर सोशल मीडिया का जमाना है। क्या पता आपके किसी एक पोस्ट से आप इतने फेमस हो जाओ तो ऐसी बात है। तो ऐसे ऐसे जमाने में वो पेशंस कहीं न कही हो गया है।
क्योंकि जेवेलिन मैंने शुरू किया तो मुझे तीन साल लगे इंटरनेशनल लेवल तक पहुंचने में, छह साल में मैंने एक अच्छी जगह मैडल जीता इंटरनेशल लेवल पर जहाँ पर मेरी इंडिया के एथलीट्स में जिसने बाहर अच्छा कुछ किया है तो वहाँ पर गिनती आने लगी, छह साल लगे 10-11 साल लगे मुझे ओलंपिक तक पहुंचने में, मैडल लेने में, जबकि 10 साल में तो ऑलमोस्ट कइयों का कैरियर बन कर बिगड़ के सब कुछ हो…
आचार्य प्रशांत: जो कहीं और निकल जाते हैं
नीरज चोपड़ा: तो वो कहीं न कहीं बातें है जो की बहुत ज़्यादा ये चीज़ ध्यान में रखनी चाहिए।
आचार्य प्रशांत: वो बातें दिल से आती है, प्यार से आती है। जब आप जो कर रहे होते हो आप में उसके लिए 1 जज्बा होता है, प्यार होता है और क्लैरिटी होती है की मै ये इसलिए नहीं कर रहा हूँ क्यूँकि मुझे दस और लोगों ने करने को बोला है। मैं यह इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मैं समझ रहा हूँ की ये चीज़ मेरे लिए बिल्कुल ठीक है। तो फिर उसके बाद यह नहीं लगता कि पांच साल बीत गए, दस साल बीत गए, मुझे भी तक सक्सेस क्यों नहीं मिली। उसके बाद जीत और हार लगभग एक बराबर हो जाते हैं। जज्बा ऐसा होता है आदमी अगर उसमे हार भी रहा है तो जीत जैसा लगता है और अगर उसमे जीत जाता है तो ये नहीं लगता की कोई खास बात हो गयी। तो अब जिन जवान…
नीरज चोपड़ा: ऐसा ही फील होता है मुझे भी। कई बार मैं, मेरे दिमाग में बात आई जब मैं पिछले साल वर्ल्ड चैंपियनशिप खेल रहा था, तो एक ही ऐसा मैडल बचा था जो अपने पास गोल्ड नहीं था, बाकी ओलंपिक्स, वर्ल्ड चैंपियंस सौरी, ओलंपिक्स, कॉमनवेल्थ गेम्स, एशियन गेम्स, डायमंड लीग, ये सभी टाइटल हो चुके थे गोल्ड के रूप में। 1 सिर्फ वर्ल्ड चैंपियनशिप बचा था।
और मैं ऐसा सोच रहा था कि यार ये भी हो जाए, बहुत अच्छा होगा। एक कम्प्लीट एथलीट मतलब जिन में कोई भी ऐसी चीज़ नहीं बचेगी जो हमने ने जीती है। तो मैं उस दिन जीता और मैं जिस तरीके से उससे पहले दिन रूम में था, वैसे ही मैं वो गोल्ड मैडल के साथ आराम से। मतलब वो इतना फर्क नहीं पड़ा कि अब ये कुछ हो गया, मैं पार्टी करूंगा, सेलिब्रेट करना, वो चीज़ कहीं न कहीं अभी दूर जा रही है। लेकिन हाँ, अपना..
आचार्य प्रशांत: और ज़िन्दगी में ये नियम होता है कि जिस आदमी के लिए काम बड़ी चीज़ हो गई और जीत-हार छोटी चीज़ हो गई, उसको पता भी नहीं चलता वो बहुत ज़्यादा जीतना शुरू कर देता है। उसको पता भी नहीं चलता कि वो इतने मीटर से इतने मीटर और इतने मीटर कब पहुँच गया। जबकि अगर आप बहुत एक टार्गेट्स बेस्ड जीवन बनाओ कि मुझे ये करना है मुझे वो करना, उसमे प्रोग्रेस हो जाएगी। लेकिन जो प्रोग्रेस हो सकती है सिर्फ जज्बे के साथ, प्यार के साथ काम करने में, वो प्रोग्रेस कभी टार्गेट का पीछा करने में नहीं आने वाली है।
नीरज चोपड़ा: बिल्कुल जी और मैं तो मतलब ये बात है की अपने काम पे वो करना क्यूंकि जब भी मैडल्स वगैरह कुछ ऐसी बात होती है तो मैं तो ये बोलता हूँ की यार ये तो था ही नहीं कहीं जर्नी में ये चीज़ तो थी बात है। मेहनत करना और यही सब कुछ था कि बस मेहनत करनी है और वो मुझे मजा आता था और आज भी जब मैं जेवेलिन की मैं ट्रेनिंग करता हूँ तो मुझे मजा आता है की मैं ट्रेनिंग कर रहा हूँ मैं मेरा एक टारगेट है आगे आने वाले गेम्स के लिए या फिर उसके बीच में इंज्यूरी भी आती है सब कुछ आता है।
लेकिन वो जो मैं ये बातें काफी डीप होती है सर में अपने फील्ड में जो काम कर रहा हूँ वो मेरा एक लाइफ जीने का मतलब एक तरह से तरीका है अभी के लिए। मैं वो कई लोगों को वो मेहनत है मुझे सबसे ज़्यादा नफरत भी ट्रेनिंग से है वो शरीर तोड़ता है और सबसे ज़्यादा पसंद भी मुझे वही चीज़ है मतलब वो इस तरीके से बोल रहा हूँ, वो चीज़ है कोच प्लान बनाता है…
आचार्य प्रशांत: ये तुमको पता नहीं है तुम बातें बोल रहे हो न। वो हमारे फील्ड के पूरी आध्यात्मिक बातें है कि जो असली चीज़ होती है असली चीज़ है ट्रुथ रियलिटी उसका ये लक्षण हमेशा बताया जाता है कि परेशान बहुत करेगा की वो तोड़ेगा लेकिन आप उसके बिना जी भी नहीं सकते ठीक वैसे जैसे तुम्हारे लिए ट्रेनिंग हैं, वैसे ही एक वाइडर और डीपर सेंस में सत्य जो असली चीज़ होती है उसके लिए होता है की जो भी असली चीज़ ज़िन्दगी में आएगी उसको आप छोड़ नहीं पाओगे।
लेकिन साथ ही साथ वो चीज़ परेशानी बहुत करेगी लेकिन परेशानी के बावजूद आपका दिल आ गया है। वो, आशिक़ी है।
नीरज चोपड़ा: क्यूंकि जो मैं एक लाइफ जी सर क्योंकि वो है तो एक ही मतलब सब जो भी मेरे मैंने जितने साल अभी तक स्पोर्ट को दिए हैं उसमें सबसे बड़ा हिस्सा रहा है वो ट्रेनिंग का ही है कि मैं सात से आठ घंटे ट्रेनिंग रहती है उसके लिए ही पूरा दिन प्रिपरेशन होती है। अच्छी नींद लेना, अच्छा खाना खाना और फिर ट्रेनिंग करना सब कुछ है तो ट्रेनिंग के लिए ही और वो जो ट्रेनिंग होती है वो इतनी हार्ड होती है कि एक इंसानी शरीर के लिए उतना ज़्यादा बिना बात मेहनत करना, मतलब कि सुबह उठे फिर वो शरीर के साथ इतना हमने वो किया एक घंटा डेढ़ घंटा सर शरीर झेलता है उसके बाद फिर वो मेंटली हमको खरचना पड़ता है की भाई बस और करनी है अभी टार्गेट बचा है। फिर शाम को और ज़्यादा हैवी ट्रेनिंग होती है।
तो एक किसम से देखे तो वो डर भी लगता है की कल को इतनी हार्ड ट्रेनिंग है पर जब वो ट्रेनिंग खत्म हो जाती है और वो जब तरह से वो उस दिन का जो टारगेट है वो पूरा हो जाता है तो वो जो आनंद आता है उसके बाद जब आराम से लेटते हैं स्टेडियम में ऐसे की भाई हाँ ये खत्म कर दी है और बहुत अच्छी रही तो वो, वो सोच कर ऐसा लगता है कि ऐसा मजा ही नहीं है।
आचार्य प्रशांत: और इसमें एक मैं बात बताता हूँ, वो आनंद ट्रेनिंग के बाद तो आता ही है। छुपी हुई बात यह है कि जब ट्रेनिंग कर रहे होते हो और जिस्म टूट रहा होता है तब भी वो कहीं न कहीं पीछे मौजूद होता है। चूँकि वो मौजूद होता है इसलिए हम ट्रेनिंग छोड़ते नहीं जी, वो चीज़ ऐसी है, ये बात सबको समझनी पड़ेगी, कभी भी ऐसा नहीं होने वाला, आप सही काम कर रहे हो, ज़िन्दगी में, चाहे स्पोर्ट्स में हो, किसी भी फील्ड में हो, या आप सही काम कर रहे हो और उसमे बहुत प्लेजर आ जायेगा, बहुत मजा आ रहा है, बहुत मजा आ रहा है। भाई, अच्छा काम तो तोड़ेगा, अच्छा काम तो तोड़ेगा, आपका काम है, वो आपको तोड़ रहा है, तो भी आप उसे करते, रहो, करते, रहो करते रहो। और ये पूछो ही मत कि उसमें से मिला क्या?
अब कॉमन माइंड को बात अजीब लगती है कि जब कुछ मिला नहीं तो मैं मैं क्यों कर रहा हूँ, मैं क्यों टूट रहा हूँ, काम में टूट भी रहा हूँ, पूछो भी नहीं मिला क्या?
भाई यह मिस्टीसिझ्म हैं, यही छुपी हुई बात है जो इस छुपी हुई बात को दिल से समझने लग जाता है, वो फिर गोल्ड मेडलिस्ट हो जाता हैं।
नीरज चोपड़ा: ट्रेनिंग ज़्यादातर रिजल्ट्स या जो हमारी परफॉर्मेंस है, वो जब हम ट्रेनिंग कर रहे होते हैं, उस टाइम हमारा क्या एटीट्यूड होता है, उसके पीछे हमारे माइंड में क्या चल रहा है। अब कई बार इतनी मुश्किल ट्रेनिंग है, कोच ने बता दिया, हम ट्रेनिंग कर रहे हैं, और मेरे माइंड में चल रहा है की यार बस खत्म हो जाए, जल्दी या बहुत मुश्किल से हो रहा है, आज तो बहुत मुश्किल ट्रेनिंग है, बहुत ही हार्ड है। एक तो वो चले दिमाग में, वो मैं करूँगा तो पूरा, लेकिन मेरा जो ध्यान है वो कहीं दूसरी जगह पर है की यार बस खत्म हो जाए। खत्म होने के बाद मुझे वो अलग तरह का आनंद आया की खत्म हो गयी।
एक मेरा है ध्यान की, आज का जो टारगेट है, आज कोच ने बोला है तो इतने केजी तक उठाना है, मुझे उठाना ही है और वो उसके लिए मैं पूरा फोकस करके बाकी सब चीज़ों ध्यान हटा के वो उस दिन का, उस टाइम का जो मेरा काम है और मुझे यह पता है कि मैं क्यों कर रहा हूँ, ये तो वो पॉजिटिव एनर्जी को पूरा उसको इम्प्रूव करने में पूरी हम वहाँ पर लगाए। आज का जो ट्रेनिंग इतने मन से करना है तो उसमे सर फिर कहीं न कहीं थकावट या बाकी सब चीज़ें हैं, वो भी एक टाइम के बाद ऐसा हो जाता है, हम दिमाग के तौर से इतना स्ट्रोंग हो जाते है की वो मुश्किल ट्रेनिंग भी हम बड़े ही आनंद से करते हैं।
आचार्य प्रशांत: आनंद से करते हैं। लेकिन टिके रहने का जो सूत्र है, जो समझने की बात है वो ये है की वो दिन हमेशा नहीं आयेंगे की कोच हमें तोड़ रहा हो और हमारा मन करे तो तोड़ता हम टूटते, चलेंगे वो हमेशा नहीं होगा।
नीरज चोपड़ा: सबसे आसान समय ही होता है जब हम बहुत कंपिटिशन के पास होते है,
आचार्य प्रशांत: जब पास होते है, जो प्रेशर होता है तो कहते है कोच भी भाई साब जो करवाना है करवा,
नीरज चोपड़ा: फिजिकली आसान मेंटली वो टफ होता चला जाता है।
आचार्य प्रशांत: जीत के वो निकलते हैं, असली समझ लो काम उन्होंने करा जिनका जब मन नहीं भी कर रहा।
कोच, पर गुस्सा भी आ रहा है। जब लग रहा है यार कहीं और चला जाऊं, डिस्ट्रॅक्शन हो रहा है। मन का काम है चंचल इधर उधर भागना, तब भी छोड़ कर न भागे।
आचार्य प्रशांत: जब मन लग ही रहा है,
नीरज चोपड़ा: कंसिसटेंसी
आचार्य प्रशांत: हां, जब मन लग ही रहा है तब काम करा। ये अच्छी बात है, बड़ी बात नहीं है क्यूंकि मन तो लग रहा था। मन लगी रहा था, आपने काम कर दिया, यह अच्छी बात है, बड़ी बात नहीं। बड़ी बात तब है जब मन नहीं लग रहा, पर पता है कि यही सही काम है, कोच ने बताया है तो मैं करूँगा, मेरा मन नहीं लग रहा, पर करूँगा। क्योंकि सही काम है। जो ऐसा हो जाता है उसको कोई नहीं रोक पाता फिर।
नीरज चोपड़ा: जैसे कई एथलीट्स की ऐसी स्टोरी है। माइकल फेल् ने भी यह बात बोली है और मुझे लगता है कि ज़्यादातर खिलाड़ियों की उसकी ये स्टोरी है लाइफ की कि जब भी हम सुबह उठते हैं, क्योंकि हमारा, हमारी मेहनत कल कैसे उससे बहुत डिपेंड करता है कि आज शरीर कैसा फील कर रहा। है तो बड़ा मुश्किल होता है। उठना सुबह से वो बॉडी दर्द कर रही है। अगली ट्रेनिंग उससे भी ज़्यादा हार्ड है। वो माइंड में सोचना इतना हार्ड होता है। कई बार सुबह उठके क्यूँकी हम उठते ही हमारे दिमाग में एक चीज़ आती है कि यार आज क्या है।
आज भले ही स्लो मोर्निंग होती है लेकिन वो जो ट्रेनिंग का टाइम होता है वो बहुत ही मुश्किल भरा होता है। और वो उस शरीर के साथ जो कि कल से कल टूटा था, आज और ज़्यादा उससे मेहनत होने वाली है। कल और ज़्यादा जैसे आपने बोला, ऐसा हमेशा नहीं होता। एक टाइम आता है कि थोड़ा कम भी होता है।
लेकिन बहुत सारे एथलीट्स की ऐसी स्टोरी होती है कि वो सुबह उठ के जाना नहीं चाहते स्टेडियम या ग्राउंड पे या मेरे साथ भी कई बार ऐसा होता है कि मैं यार आज तो ऐसा फील हो रहा नहीं करूंगा। लेकिन फिर भी माइंड को ऐसे त्यार करके वहाँ तक जाना होता है। बस वहाँ पर पहुँच गए तो पूरा करके ही लौटेंगे। अगर वहाँ पर नहीं गए तो शाम को मुझे इतनी ज़्यादा गिल्टी महसूस होती है कि मैंने यार ऐसा क्यों किया।
आचार्य प्रशांत: बात उस दिन की है, बात उस शाम की है, पर एक बात अभी उम्र कम है तो उतनी नहीं दिखाई देगी। बात पूरी ज़िन्दगी की है क्योंकि ये जो कर रहे हो न, ये सिर्फ एथलीट के तौर पर तुमको नहीं तैयार कर रहा है। यह तुमको एक दूसरा इंसान ही बना रहा है। एक दिन आएगा जब ट्रैक को अलविदा कर दोगे, रिटायर हो जाओगे। लेकिन ज़िन्दगी उसके बाद भी बहुत है, ये जो अभी अपने आप को अनुशासन दे रहे हो, जान लिया है सही काम क्या है, साधारण परिवार से आए थे, अपने दम पर मेहनत कर रही है, खड़े होकर पहुंच गए हैं और आज ट्रेनिंग करे ही जा रहे हैं।
ये चीज़ तुम्हें ज़िन्दगी भर के लिए कुछ और बना देगी जी और सिर्फ तुम्हे नही बना देगी। जितने लोग तुम्हें देख रहे हैं उन तक भी यह खबर पहुँच रही है की भाई जरूरी नहीं है कि दबी हुई ज़िन्दगी जी या कि बस अपने मनचले हिसाब से चल रहे हैं, डर के चल रहे हैं वैसे नहीं।
एक एक काम को पकड़ के और उसको अपनी ज़िन्दगी निछावर करके जिया जा सकता है और उसमें कला खूबसूरती होती है। लेकिन उसमें एक खतरा है भी। खतरा यह कि वो ये न सोचे की नीरज की खासियत यह है कि नीरज ने गोल्ड निकाल दिए, वन रैंकिंग हासिल कर ली, ये कर लिया, वो कर लिया।
मैं चाहता हूँ की तुम जब सबको अपना संदेश दो तो उसमें बोलो कि आप बस ये मत देखो कि मैंने सफलता क्या हासिल करी। आप ये देखो कि मैं किस बैकग्राउंड से उठा हूँ, मैं कितनी मेहनत कर रहा हूँ। और अगर मैं सफल नहीं भी हो रहा तो भी मुझे फर्क नहीं पड़ रहा है। मुझे प्यार है अपने काम से, मैं अपना काम अपने प्यार के लिए करूँगा हिंदुस्तान को ऐसे जवान लोग मिलने लग गए, ऐसे ज़्यादा नहीं सौ, पांच सौ हजार भी मिल जाए तो समझ लो राष्ट्र बिल्कुल बदल के खड़ा हो जाएगा।
नीरज चोपड़ा: एक बात बताना चाहूँगा सर की, जैसे आपने बोला कि अभी सभी को जीत दिखती है, मेडल दिखते हैं। लेकिन एक टाइम तक ऐसा था कि मैं पांच साल तक तो सीनियर लेवल, पर तो इतना कुछ जीत नहीं रहा था, टोक्यो ओलंपिक से पहले तक मैं डायमंड लीग, चीज़ों में पार्ट लेता था, मेरे आज तक कोई पोजीशन नहीं थी। ज़्यादातर जब मुझे खुद मैंने खुद को पहचाना या खुद के ऊपर थोड़ा और बिलीव हुआ कि हाँ मैं मैंने ओलंपिक में गोल्ड जीत लिया तो अब तो बाकी सब चीज़ों में भी मैं बहुत कुछ कर सकता हूँ। तो टोक्यो के बाद से मैं हमेशा फर्स्ट या सेकंड पोजिशन में रहा हूँ। उससे पहले ऐसा टाइम भी था कि मैं शायद कुछ नहीं जीता। तो ज़्यादातर टाइम सर जो मेरा जीतने का है वो बहुत ही कम है पर्दे के पीछे मेहनत वाले…
आचार्य प्रशांत: ये, ये
नीरज चोपड़ा: तो वो जो पर्दे के पीछे वाली मेहनत है वो उतने ही सिद्दत से, उतने ही लगन से करते रहो कि वो 10 साल जो मुझे टोक्यो मैडल जीतने में लगे। तो पिछले पूरे 10 साल थे उसके बीच में। तो वो जो पर्दे के पीछे की मेहनत थी, जहाँ पर मुझे कोई नहीं देख रहा था, मेरे पास कोई नाम नहीं था, लोग मुझे पहचानते नहीं थे, मैं ऐसे ही चला जाता था, फ्लाइट्स में हूं, मार्केट में हूँ, कहीं पर भी तो वो जो जर्नी थी वो है असली चीज़, जो जिसने आज यहाँ तक पहुँचा।
आचार्य प्रशांत: और वो ही जो असली चीज़ है, वो जितने भी तरीके से हो सके उसको लोगों के सामने लाओ।
नीरज चोपड़ा: जी
आचार्य प्रशांत: देश के लिए। एक अच्छी बात ये है कि देश को मेडल ला कर दिया देश के लिए, उससे ज़्यादा अच्छी बात यह होगी कि तुम हमारा, ये जो जो क्या बोलू लवलेस देश है न जी, तुम इसको आशिक़ी सिखा दो, असली काम से आशिक़ी की, 10 साल तक कुछ भी नहीं मिल रहा है, नहीं पूछ रहा हासिल क्या होगा, मैं कर रहा हूँ। क्योंकि मुझे पसंद है।
नीरज चोपड़ा: सब की अपनी एक मजबूरी होती है, पर उसमें से भी थोड़ा सा, डीपली, सोचें और थोड़ा उपर उठ के सोचे तो चीज़ें हैं काफी। जैसे कई बार मैं मानता हूँ कि लोगों को बस सोचना है कि बस कुछ काम मिल जाए और पांच, दस हजार रूपए का मेरा हो जाए, फैमिली चल जाएगी तो ये काफी मजबूरी भी हमारे देश के लोगों की की फैमिली चलानी है, ऐसी मजबूरी है।
अपने रिश्तों में, फैमिली के उसमें दबाव में इतने फंसे होते हैं कि उनको वो करना पड़ता है। पर फिर भी अगर मैं एक गाँव से उठके, ऐसी फैमिली से उठके जहाँ पर कोई स्पोर्ट्स का बैकग्राउंड नहीं है, ऐसा कुछ नहीं है। फिर भी ज़्यादातर स्टार्टिंग में तो मेहनत ही थी, बाकी सब चीज़ें तो बाद में शुरू हुई कि पैसा चाहिए वो सब चीज़ें। लेकिन उससे पहले तो मेहनत थी, जो खाना था नॉर्मल, खाना तो नॉर्मल था।
कोई ऐसा नहीं था की मैं बहुत ही फाईस्टार होटल्स, में जा रहा हूँ, या कहीं भी जा रहा हूँ, वो जो स्टार्टिंग की जर्नी थी वो नॉर्मल ही थी। और मुझे लगता है कि ऐसे ही शुरुआत होती है सभी की, बहुत ही..
आचार्य प्रशांत: सभी की ऐसी ही होती है। और जहाँ तक मजबूरी का भी सवाल है, देखो। ये जवान लोग जो आज कह रहे हैं कि हम दिल वाला काम असली काम नहीं कर सकते, क्योंकि हम मजबूर हो जाते हैं, जिन चीज़ों का तुमने जिक्र किया, फैमिली होती है, सोसाइटी होती है ये सब देखना होता है। जो जवान लोग कह रहे, हम मजबूर हो जाते हैं। यही तो कल को मा, बाप बनेंगे न चलो। तुम्हें पता चला की तुम मजबूर थे, कम से कम अपने बच्चों को मजबूर करना।
अगर तुम्हारे पेरेंट्स ने भी तुम्हारे ऊपर दबाव डाल दिया होता कि चल तू सरकारी नौकरी की तैयारी कर, चल, तू ये कर, तो हमको यह अथलीट नहीं मिलता। तो जो लोग मजबूरी की बात कर रहे हैं, हमें उनसे कहना होगा कि पहली बार देखो, मजबूरी उतनी घनी कभी होती नहीं जितनी तुम बता रहे हो। मजबूरी से संघर्ष करा जा सकता है। दूसरी बात, अगर तुम्हें मजबूरी का सामना करना पड़ा है तो कम से कम अब दूसरे को तुम मजबूर मत करना, तुम आज जवान हो, कल के तुम माँ बाप हो, अपने बच्चों को पूरी आजादी देना कि वो दिल से जी पाए।
नीरज चोपड़ा: सर मेरी फैमिली में एक आजादी की तो बात है कि उन्होंने मुझे एक फ्रीडम दिया, अपनी मेहनत करने का मौका दिया। वही तो उन्होंने मुझे एक चीज़ ऐसी दी कि हाँ कोई बात नहीं कर भाई, हम तेरे पीछे है। वरना तो उनको स्पोर्ट्स के बारे में, जैवेलिन के बारे में, कि स्पोर्ट्स की क्या डाइट होनी चाहिए उसके बारे में। हरियाणा में तो मानते हैं कि बस दो चम्मच घी के ज़्यादा डाल दिए, सब्जी में वो ज़्यादा होगा। दो बड़ा कटोरा दूध का दे दिया ये चीज़ें।
लेकिन जो उन्होंने सबसे अच्छी मेरे लिए किया है वो ये है कि मुझे एक एक समय दिया उन्होंने की भई कर मेहनत और उन्होंने देखा कि मैं कितने दिल से कर रहा था। मैं सुबह उठता था, मैं अपना समान पैक करता था, मैं सब कुछ बड़े बड़े डेडिकेशन से करता था। और वो चीज़ कहीं न कहीं उन्होंने मेरी हेल्प की।
आचार्य प्रशांत: और यही असली प्यार होता है। तभी मैंने कहा न कि ये जो हमारा प्रेम हीन का समाज हो गया है, इसको थोड़ा प्रेम सीखने की जरुरत होती है। प्रेम हम सोचते हैं, इसमें है कि हम बच्चे पर दबाव डालेंगे तो अपना करियर बना ले कि तेरे फ्यूचर का क्या होगा। उससे ज़्यादा प्रेम की यह बात है समझना कि भाई तेरा दिल कहाँ पर है, तू खुल के ज़िन्दगी कैसे जी पाएगा और हम तुझे उसमें सपोर्ट करते हैं।
नीरज चोपड़ा: पहली बात तो बता ही नहीं पाते पेरेंट्स को। मतलब ऐसा कुछ होता है कि बोलते हैं हम बच्चे में इतना दम नहीं होता कि वो अपने पसंद की चीज़ सब बता दे। वो मुझे नहीं पता कि ऐसा क्यों है क्योंकि मैं मैं अपनी जर्नी मुझे इतना पता है। पर मुझे अभी तक यह नहीं पता कि वो क्यूंकी मेरी जर्नी अलग रही है और मैंने अपनी ही जर्नी से मतलब मैं इतना पुरा साल घर से बाहर रहता हूँ या ऐसे रहा हूँ।
पर मुझे नही पता पैरेंट्स उस टाइम कैसा फील करते हैं या बच्चा उतना बोल नहीं पाता कि उसको शायद वो फ्रीडम मिल सके।
आचार्य प्रशांत: बोल इसलिए नहीं पाता क्योंकि उसने घर में सूंघ लिया होता है, भले ही उससे लफजों बोला गया हो, पर उसमें सूंघ लिया होता है कि यहाँ पर डिजायर expectations कामनाएँ पैरेंट्स की बहुत ज़्यादा है, तो उसको पता होता है कि अगर मैं उनके सामने जाकर कोई ऐसी बात बोलूँगा जो थोड़ी ऑफबीट होगी, जो थोड़ा अलग की होगी तो नाराज हो जाएँगे या इनका दिल दुखेगा और हम दूसरों का दिल दुखाना चाहते नहीं।
हिंदुस्तान में हमारा बहुत रहता है कि वो सारे काम करो, जिसमें दूसरे हराम से खुश रहे। लेकिन ये खुशी वगैरह के चक्कर में न जो हम ओलंपिक मेडल टैली में अपनी जगह देखते हैं,न, वो सिर्फ ओलंपिक मेडल टैली की नहीं है, वो ज़िन्दगी की हमारी जगह है।
हर बार एशियन गेम्स होते हैं, ओलंपिक्स होते हैं। हर बार मेरे पास सवाल आते हैं, उसको लेकर मैं हर बार बोलता हूँ। इस बार तो जो बोला वो छपा भी था कई जगह।
मैं कहता हूँ ये जो आप यहाँ देख रहे हो, ये सिर्फ एक आंकड़ा नहीं है कि साहब आपके इतने मेडल्स हैं, ये नहीं है और आप सबसे इतने नीचे खड़े हुए हो, चालीसवा नंबर है, असीवा नंबर है। ये सिर्फ 1 आंकड़ा नहीं है। यह आपके समाज की स्थिति है, यह दर्पण है कि हम लोग कैसे है।
क्योंकि ये स्पोर्ट्स का नेचर है कि उसमें 1 इनहेरेंट रिस्क होता है, ज़्यादा रिस्क होता है, अब्सोल्यूट नहीं होता पर एक साधारण जो बनी बनाई सेफ नौकरी होती है, उससे ज़्यादा रिस्क होता है। तो अगर आपका समाज ही बहुत डरा हुआ है तो रिस्क नहीं लेगा। रिस्क नहीं लेगा तो वो स्पोर्ट्स में दिखाई देगा? मेडल टेली में दिखाई देगा? हमें घर ऐसे चाहिए जिसमें माँ बाप प्यार जानते हो। जब प्यार होता है तो हिम्मत आ जाती है, अपने लिए भी आ जाती है, अपने बच्चों के लिए भी आ जाती है और जब मैं बच्चों की बात कर रहा हूँ तो इसमें मैं खास तौर पर नाम लूँगा लड़कियों का।
50 परसेंट मेडल तो अब फीमेल के हाथ में होते हैं। अभी तुम्हारा लास्ट ओलंपिक्स हुआ है। इसमे फिफ्टी परसेंट जो मेडल्स थे, वो फीमेल इवेंट के स्पोर्ट्स के थे।
नीरज चोपड़ा: अब तो फिफ्टी, पूरा मतलब।
आचार्य प्रशांत: अब तो फिफ्टी फिफ्टी, इस ओलंपिक में आके फिफ्टी हो गया।
नीरज चोपड़ा: और पूरा चांस ही मिलना चाहिए,
आचार्य प्रशांत: पूरा चांस मिलना चाहिए पर चांस नहीं मिलता। लड़का ही इतना डरा हुआ है की वो माँ बाप के सामने खुलकर अपने दिल की बात नहीं कर सकता तो लड़की क्या करेगी? और अगर फीमेल का वाला काउंटर आपने जो भर दिया तो फिर सोचिए आप कहाँ पहुँचेंगे अमेरिका की अगर 10 मेडल आते हैं तो उसमें से 6 तो उनकी जो फीमेल एथलीट्स होती हैं, वो लेकर आती है।
हमें एक एक खुलेपन का माहौल चाहिए, हमें मजबूती चाहिए। और हमें यह सोचना बंद करना पड़ेगा की ज़िन्दगी सिर्फ तभी अच्छी है जब वो हमारी एक्सपेक्टेशनस और हमारी इमेजेज के हिसाब से हो रही है। शायद आप जो सोच रहे हैं, उससे अलग जो कुछ होगा, वो आपके सोचे हुए से कहीं ज़्यादा खूबसूरत हो।
नीरज चोपड़ा: बिल्कुल
आचार्य प्रशांत: तुमने कभी ऐसा हुआ है, हां, तुमने कभी नहीं सोचा होगा। तुम्हारे पेरेंट्स ने कभी नहीं सोचा होगा कि आज नीरज वहां खड़ा होगा जहाँ वो खड़ा है। सिर्फ अपने लिए नहीं है, वो हिंदुस्तान के लिए इंस्पिरेशन बन रहा है। और मैं समझता हूँ कि इसके बाद कई और नीरज हैं जो खड़े होंगे होने चाहिए। बहुत जरूरत है आज।
नीरज चोपड़ा: मेरे केस में यह चीज़ अच्छी हो गयी कि मैं जेवेलीन ही मैने चुना और वही मुझे पसंद आया मैंने वो कर लिया, मैं यहाँ तक पहुँच गया। लेकिन शायद से कुछ ही परसेंट ऐसा होता है की हम प्रॉपर अगर उसके बारे में न सोच समझ के उसका पता न ऐसी चीज़ सुन ले उसमे इतने उसमे आगे पहुँच जाए।
क्यूंकि ऐसे शायद से काफी टैलेंट हमारे खराब हो जाते है जो की शायद किसी दूसरे स्पोर्ट में क्योंकि बाहर क्या होता है दूसरी कंट्रीज़ में उनको सभी स्पोर्ट्स खेलने का मौका मिलता है। फिर उसमे से कोचिज देखते है की ये सबसे बेस्ट कौनसा स्पोर्ट्स कर रहे है या कर रही है। फिर उसको उस स्पोर्ट्स में डाला जाता है, स्पेशल कोच के साथ काम किया जाता है।
अब मेरे मामले में तो ऐसा नहीं हुआ, मैंने तो बस शुरू कर दिया लेकिन मुझे ऐसा लगता है की ये चीज़ भी हमारे यहाँ पर शुरू और रही बात सर दूसरे की, मुझे लगता है की एजुकेशन और स्पोर्ट्स ये दोनों आपस में मिले हुए हैं। अब जो यू एस के एथलीट्स के मैडल आते है वो स्टूडेंट एथलीट्स होते हैं यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं एन सी डबल ए चैंपियनशिप जो हैं वहाँ की होती है वो पूरा वो खेलते हैं और प्रोपर वो ओलंपिक में भी जाते हैं और सबसे ज़्यादा जो मैडल जीतते हैं वो स्टूडेंट्स होते है।
आचार्य प्रशांत: यूनिवर्सिटीज़ के ही मैडल हैं एक तरह से
नीरज चोपड़ा: और उधर की यूनिवर्सिटीज़ मैंने देखी है, उनकी फैसिलिटीज़ मैंने देखी है। तो वो चीज़ें जो स्कूल हमारे स्कूल लेवल से, क्योंकि सर सबसे ज़्यादा यूथ जो है स्कूल और कॉलेज के हाथ में है, यूनिवर्सिटीज़ के हाथ में है।
तो अगर वो इस चीज़ को समझने लगे इस की कितना ज़्यादा जरूरी है ये टाइम क्योंकि जो आजकल सर टाइम चल गया है सोशल मीडिया का और हम लड़ते रहते हैं एक दुसरे से, हमारे लोग आपस में एक दूसरे लड़ते रहते हैं, पता नही इतना टाइम कहाँ से है उनके पास।
लेकिन वो टाइम जो है वो कहीं वो एनर्जी जो दूसरी जगह पर लगा सकते हैं वो तो खासकर में स्कूल को, कॉलेज को मैं यह बोलना चाहूंगा कि प्लीज बाहर के बारे में देखें जो जो भी मतलब स्कूल के प्रॉपर हैड हैं, प्रिंसिपल हैं वो एक बार देखें बाहर कैसे काम होता है।
तो अच्छी चीज़ हमको लेनी चाहिए यूनिवर्सिटीज़ है बाहर की वो इतनी अच्छी फैसिलिटी बनाते हैं कि उनके स्टूडेंट्स को कहीं जाने की भी जरूरत नही है उनको सब कुछ वहीं पर मिलेगा उनके आपस में यूनिवर्सिटी लेवल पर इतना कॉम्पिटिशन है और शायद से ओलंपिक से टफ पड़ जाता है तो वो चीज़ें हम बिल्ड क्यों नहीं कर सकते, इतनी बड़ी कंट्री होने के बावजूद?
और हमारे पास यूथ की इतनी जबर्दस्त पॉवर है की अगर वो सही डायरेक्शन में चले गया न तो इंडिया का एकदम अलग ही फ्यूचर होगा।
आचार्य प्रशांत: देखो, अभी एक जो हवा बह रही है वो ये भी है की हम किसी और की ओर क्यों देखे, अमेरिका की दर से क्यों देखे?
तो जो लोग यह आर्गूमेंट लेके आये है, बाहर की ओर नहीं देखना है उनके लिए एक और दूसरा और ज़्यादा इफेक्टिव आर्गूमेंट हो सकता है, चलो बाहर की ओर मत देखो, अंदर की ओर देख लो। अंदर की ओर देखोगे तो यह पाओगे कि इंसान अकेला जानवर है जो अब जंगल में नहीं रहता माने जो उसका प्राकृतिक नेचुरल हैबिटैट था, वहाँ नहीं रहता है।
हम बाहर आ गए हैं लेकिन हमारी जो बॉडी है वो तो इतना इवॉल्व नहीं कर गई है न। आपकी बॉडी आज से 10 हजार साल पहले, 10 हजार साल पहले हमने खेती शुरू करी थी, उससे पहले हम जंगल में रहते थे। तो 10 हजार साल पहले के आदमी की बॉडी देखोगे और आज के आदमी की देखोगे तो बॉडी एसेंशियली आज भी वही है जो तब होती थी। भले ही हम जंगल से बाहर आ गए।
तो बॉडी हेल्दी रहने के लिए मांगती है कि तुम वही लेवल की फिजिकल एक्टिविटी करो जो तुम जंगल में करा करते थे। और अगर वो नहीं करोगे तो शरीर हमारा गिरेगा और जो हम हैं मनुष्य हम साइको-सोमेटिक होते हैं। साइको-सोमेटिक का क्या, मतलब?
कि हमारे में जो साइको होता है, साइको माने मन और सोमा माने बॉडी, ये दोनों आपस में जुड़े हुए होते है। इसका मतलब ये है कि इन दोनों में से अगर एक भी बीमार पड़ गया तो दूसरा भी बीमार हो जाएगा। माने अगर बॉडी आपकी वैसी नहीं है और उतना ही काम नहीं कर रही है और उतनी एजाइल नहीं है जैसे वो प्रकृति के साथ हुआ करती थी पहले, तो आपका मन भी बीमार पड़ेगा।
अब मन के बीमार पड़ने का नतीजा यह है कि आज हमारी जो पूरी पृथ्वी है, वो क्लाइमेट क्राइसीस हो गया। चाहे जो न्यूक्लियर थ्रेट है, वो हो गया, चाहे एक्सट्रेंशन ऑफ़ स्पीशीज हो गया। इनके कारण टोटल एनिहिलेशन माने, पूरा महाविध्वंस, एकदम महाप्रलय, उसके बहुत पास खड़ी हुई है। यह मन की बीमारी से हो रहा है। और हम कह रहे हैं कि मन और तन दोनों लिंक्ड होते हैं। साइकोसोमेटिक।
तो हमने जो अपने शरीरों के साथ कर लिया है वो बहुत हद तक रेस्पोंसिबल है कि आज जो हम इस पूरे प्लानेट के साथ कर रहे हैं, तो स्पोर्ट्स बस कोई ऐसी चीज़ नहीं जो आपको फिजिकली फिट रखेगी। अगर हमको इस पूरी पृथ्वी को भी बचाना है तो हमें इंसान को एक सही काबिल शरीर देना पड़ेगा फालतू, ऊर्जा वरना मन की ओर बढ़ेगी।
जो काम शरीर से हो जाना चाहिए था। आपके पास एनर्जी है, एक्जुब्रेंस है, आप उससे एक्सरसाइज करो, दौड़ो खेलो, कम्पीट करो, वो काम, फिर आप मन से करोगे और आप मन से करते हो तो फिर उसके जो नतीजे होते हैं, बहुत भयानक होते है। मैं एक्जाम्पल देता हूँ।
दुनिया में इस वक़्त सबसे बड़ी जो न्यूक्लियर स्टॉक पाइल है, वो किस देश के पास है? वो अमेरिका के पास है। ठीक है न, और वो इतनी ज़्यादा है कि सिर्फ अमेरिका अगर चाहे तो किसी एक देश को नहीं। इस पूरी पृथ्वी को कई बार समाप्त कर सकता है।
लेकिन दुनिया में सबसे ओबीज लोग भी कहाँ है अमेरिका में ही है और दुनिया की वो यूनिवर्सिटीज कहाँ है जो सबसे जयादा मेडल ले के आती है, वो भी अमेरिका में ही है। तो स्पोर्ट्स सिर्फ मेडल जीतने का एक जरिया नहीं होना चाहिए, स्पोर्ट्स एक डीपर अंडरस्टैंडिंग से आना चाहिए और पूरी पॉपुलेशन में प्रवेश करना चाहिए। ये ठीक नहीं है की आधी पॉपुलेशन तो आपकी ओवरवेट या ओबीज है और आपकी कुछ यूनिवर्सिटीज हैं, स्टैंडफर्ड हैं, ये हैं जो 10, 10, 20, 20 मेडल लेके आ रही है, एक एक यूनिवर्सिटी इतने इतने गोल लेके आ रही है तो उससे बात नहीं बनेगी।
हर इंसान को एक काबिल शरीर चाहिए नहीं तो ये जो नाकाबिल शरीर है न ये एक बहुत कमजोर बीमार और वायलेंट मन को जन्म देता है। और यह वायलेंट हमारे पूरे प्लानेट को खा गया।
नीरज चोपड़ा: स्पोर्टस से सर एक तो डिसिप्लिन सिखाता है, सुबह इतने बजे उठना है, ये खाना है। अब बाहर हम रहते हैं सारी चीज़ें। अब पहले इन चीज़ों का नहीं पता था। अब जैसे साफ़ सफाई रखनी है अपने उसमे।
जो छोटी छोटी चीज़ें हैं, वो एक अलग चीज़ होगी, डिसिप्लिन रखना है, अपना काम करना है, प्रॉपर साफ़ सफाई रखनी है की भाई हम अपने कंट्री में है, कभी भी पहले नहीं पता था चीज़ों का, पहले हम कुछ चीज़ खाए, फेंक दी, वो कर दिया, अभी बिल्कुल भी मन नहीं करता, अभी दूसरा भी खराब लगता है वो करते हुए।
तो वो चीज़ अगर थोड़ी थोड़ी चेंज आने लग जाए अपने आप में, जो सबसे ज़्यादा मुझे लगता है। तो सर पोलुशन इतना फैला हुआ है, लोग इतने ज़्यादा हैं, वो चीज़ें स्पोर्ट से मैं इसलिए कर रहा हूँ कि सभी एक्टिव होंगे स्पोर्ट्स में किसी भी स्पोर्ट्स को पकड़ेंगे डेली, कुछ न कुछ खेलेंगे। वो कभी अगर दिन में उन्होंने पांच मैच लगाए, तीन वो हार गए, दो जीत गए तो हार और जीत दोनों का मुंह देखेंगे तो वो कैसे बैलेंस करना है।
आचार्य प्रशांत: बिल्कुल।
नीरज चोपड़ा: दूसरी बात जो भी हम काम करेंगे, जो नेगेटिव एनर्जी है, जो हम पड़े पड़े, कुछ ना कुछ, किसी को कुछ बोल दिया, सोशल मीडिया है, कुछ लिख दिया वो जो नेगेटिव एनर्जी है, वो अगर हम अपनी जो नेगेटिव एनर्जी ग्राउंड पे निकाल लेंगे, पसीना निकाल लेंगे अपने शरीर को फिट करने के लिए, वो बहुत अच्छा लगता है।
आचार्य प्रशांत: भगवद्गीता में कहीं पर भी जेवेलिन शब्द नहीं आया है। स्पोर्ट्स की बात हुई है और उसी एक बात बताता हूँ। हमारा बड़ा ग्रंथ है, दुनिया की एक अनमोल किताब है। वो कहती है कि तन और मन एक होते है, तन और मन एक होते है। जिसको मन बोलते हैं न, वो भी है बॉडी ही ये जो माइंड और ब्रेन है, इसको हम अलग अलग जो करके देखते हैं। ये बहुत ज़्यादा कुछ अंतर है नहीं।
और ब्रेन क्या है। जैसे जैसे ये सब हैं मांस वैसे ही ब्रेन भी है। तो अगर ये ठीक नहीं है तो ये ठीक बिल्कुल भी नहीं चल सकता है। और आपके शरीर में आप खाना खा रहे हो, उससे एनर्जी बन रही है या तो उस एनर्जी का सही इस्तेमाल कर लो, नहीं तो आपने जो खाया है वो आपको खा जाएगा। ये इतनी बड़ी बात है।
आप जब स्पोर्ट्स में जाते हो तो स्पोर्ट्स आपको माइंड से माने, इमेजिनेशन से मुक्त कराता है। बताता हूँ कैसे?
बहुत ईमानदार चीज़ होती है स्पोर्ट्स। मैंने आई टी के दिनों से आपने देखा है कि जो हमारे यहाँ स्पोर्ट्स में लोग एक्टिव होते थे न, उनमें थोड़ा सा सीधा बना जाता था, एक मासूमियत आ जाती थी, क्यूंकि ये आपकी बाउंड्री बनी हुई है साहब आप कुछ खेल रहे हो, आप टेनिस बैडमिंटन खेल रहे हो, तो आप यह नहीं कह सकते की बाउंडरी यहाँ नहीं वहाँ है, क्योंकि मुझे वहाँ पसंद है।
आपका 89.94 मीटर आया है। आप यह नहीं कह सकते की एप्रोक्सिमेट करके बोल न 90 हो गया, 90 नहीं हुआ है भाई 90 बचा हुआ है, करके दिखाना है जी, हम इंतज़ार कर रहे हैं। 90 नहीं 100 कर के दिखाना है, हमें इंतजार है तो तो वो नवासी दसंल्व नौ चार अभी वो नौ चार है।
इतनी ईमानदार चीज़ होती है स्पोर्स। तो जो स्पोर्ट्स पर्सन होता है न उसकी कुटिलता अपने आप थोड़ी सी मैं नही कह रहा है, कोई रूल है पर आम तौर पर ऐसा होता है कि मन एक अनुशासन पा जाता है जब आप स्पोर्ट्स पर्सन बन जाते हो और आप ये नहीं कर सकते कि मैं खेल रहा था, बस एक प्वॉइंट तो बचा था, जीतने के लिए। एक प्वाइंट बचा था लेकिन अभी भी हो सकता है आप हार जाओ। अपोनेंट आपसे बहुत पीछे था, लेकिन हो सकता है कि उसने अपना अंतिम थ्रो ऐसा फेंका कि आपके हाथ वो गोल्ड आपसे निकाल गया। कुछ भी हो सकता है।
नीरज चोपड़ा: कुछ भी हो सकता है।
आचार्य प्रशांत: तो वो चीज़ें सिर्फ और सिर्फ फिजिकल एक्टिविटी से ही सीखी जा सकती है। फिजिकल एक्टिविटी ऑप्शनल नहीं है। अब हमारे यहाँ क्या हो गया है कि जो हमारा कल्चर है, हरियाणा में उतना नहीं है पर जब थोड़ा सा तुम हरियाणा से पूरब की ओर चलते हो तो उत्तर प्रदेश है, बिहार आ जाता है। पूरा जो हमारा हिंदी हार्टलैंड है, वो आ जाता है उसमें खास तौर पर।
उसमें जो अच्छे बच्चे की इमेज है नीरज, वो अच्छे बच्चे की जो इमेज है वो वैसे बाजू वाली नहीं है जैसे तुम्हारा ये राइट हैंड है। वो है कि वो एकदम कोमल सा, ऐसे गोरा सा जिसको कभी धूप नहीं लगी है, जो कभी बाहर जाके मेहनत नहीं करता है, जो शायद बस पढाई करता रहता है। हमने अच्छे बच्चे की वो इमेज बना दी है, अच्छे बच्चे ही नहीं, अच्छे जवान आदमी की भी।
ऐसे समझ लो जैसे की बहुत पुरानी फिल्म में होती थी, तुमने उनके हीरोज देखे है, वो तुमको ऐसे लगेगा नही उनको देखके की ये फिजिकली एक्टिव लोग है, एकदम पीछे चले जाओ तो मतलब सेवेंटीज से भी पीछे निकल जाओ।
तो हमने ये कांसेप्ट बना दिया है की साहब मन से अच्छा होना चाहिए। तन तो छोटी बात है। तन से आप चाहे कमजोर हो, चाहे मुलायम हो, चाहे जैसे भी हो, जवान हो, के भी आप बहुत मुलायम मुलायम हो, तो भी चलेगा दिल से अच्छा होना चाहिए। हमें यह समझना पड़ेगा और यह बात साइंस की भी है, गीता की भी है, स्पिरिच्वलिटी की भी है कि जो तन से अच्छा नहीं है, उसके लिए मन से अच्छा होना असम्भव तो नहीं है पर बहुत मुश्किल हो जाएगा।
नीरज चोपड़ा: तन की सर वही आदमी समझ सकता है जिसने वो सख्ती या वो स्ट्रैंथ वो महसूस की है बोडी की। कि इंसानी शरीर किस हद तक कैपेबल है, कितनी फिटनेस तक जा सकता है। क्योंकि ऐसे भी काफी एग्जाम्पल्स हुए हैं मैराथन में लगा लो या किसी स्प्रिंट इवेंट में। साइंस ने भी कहीं न कहीं बोला था कि शायद इंसानी शरीर या इंसान इतने तक नहीं दौड़ सकता या इतनी देर में नहीं कर सकता।
वो भी इंसान ने करके दिखाया है।
आचार्य प्रशांत: और यही चीज़ जो है, थोड़ा सा और रिफाइंड तरीके से बोली जाएगी तो विज्डम का प्रिंसिपल होता है एक कि आई एम नॉट द बॉडी, आई एम नॉट द बॉडी।
वो वास्तव में ये कहा जा रहा है कि आई डू नॉट केयर इफ द बॉडी इस पेनिंग। मैं समझ सकता हूं कि शरीर के दर्द से और और जबान के स्वाद से और आलस से इनसे ज़्यादा कीमती कुछ और है और मैं वो करके दिखाऊंगा।
नीरज चोपड़ा: बिल्कुल
आचार्य प्रशांत: जिसने ये करना शुरू कर दिया, वो फिर ज़िन्दगी में बहुत आगे जाता है। भारत जो पिछली कई शताब्दियों में बहुत पिछड़ा, हर तरीके से, विज्ञान में भी, लड़ाइयों के मैदान में भी। उसका शायद एक बड़ा कारण यह था कि हमने बॉडी की बड़ी उपेक्षा करनी शुरू कर दी, हमने कहना शुरू कर दिया जो तन है, यह तन तो कुछ नहीं है, मिट्टी में मिल जाना है। तन का तो ख्याल करो मत और दिल को बिलकुल शुद्ध रखो पाक। साफ रखो।
नहीं, नहीं, नहीं, नहीं, यह नहीं हो पाएगा। आज के हिंदुस्तान को ये समझना पड़ेगा कि अगर आपको अच्छा मन चाहिए तो उसके लिए मजबूत तन आपको चाहिए ही चाहिए। ये कोई, यह, कोई साइंस की बात नहीं है, यह गीता की भी बात है।
ये जो आरामतलबी है कि लेट गए हैं और इंस्टाग्राम चला रहे हैं। ये जवान आदमी को कहीं का नहीं छोड़ती।
नीरज चोपड़ा: जो मेहनत करने का है, वो कहीं दूर चला जाता है, उस चीज़ से दूर जाता रहता है। पता नहीं लगता कि इस टाइम वो इतने सुस्त हो गए हैं। आचार्य प्रशांत: और जितना दूर जाता है उतना वो अपने मन में जस्टिफिकेशन, रेशनलाइजेशन खड़े कर लेता है की मै तो ठीक ही कर रहा हूँ, दूर जाकर के क्या हो गया, सभी करते है तो मैंने भी कर लिया। एक दिन और कर लिया।
नीरज चोपड़ा: तो हमारे पास इतनी जबर्दस्त एक शक्ति है मतलब अपने यूथ की। अगर उसको सही डायरेक्शन में तरीके से यूज किया जाए तो…
आचार्य प्रशांत: और सही डायरेक्शन में यह चीज़ हमेशा बार बार इम्फेसाइज करनी चाहिए कि देखो सही का मतलब सक्सेस नहीं होता है, सही का मतलब सिर्फ सही होता है।
नीरज चोपड़ा: अगर काम को सही तरीके से मेहनत से..
आचार्य प्रशांत: बस। अगर आप सही कर रहे हो तो यही सक्सेस है। उसका रिजल्ट कल कितना आएगा कितना नहीं आएगा, आप उसकी बहुत परवाह नहीं करो। कल बिल्कुल हो सकता है कि आप जो भी पैसे, बहुत बना लो, बहुत प्रसिद्ध हो जाओ बहुत मेडल जीत लो।
पर अगर वो आप नहीं भी जीत रहे तो भी आप पाओगे कि आपके भीतर एक फुल फिलमेंट है। क्योंकि आपने ज़िन्दगी सही बिताई, आपकी रीढ़ सीधी रहेगी, आपको झुकना नहीं पड़ेगा।
नीरज चोपड़ा: बिलकुल जी
आचार्य प्रशांत: आपको ज़िन्दगी के महत्वपूर्ण फैसलों में बहुत ज़्यादा पूछना नहीं पड़ेगा। दूसरों से ज़िन्दगी क्लियर रहेगी, सरल रहेगी, सहज रहेगी, मस्त सोओगे मस खाओगे, मस्त दौड़ोगे मस्त खेलोगे।
नीरज चोपड़ा: मुझे खुद ऐसा लगता है कि मुझे क्या पसंद है, मुझे सबसे ज़्यादा मुझे बाकी की चका चौंध, इससे मतलब इतना वो नहीं है। मेरा मन नहीं करता कि भई मैं हमेशा कैमरा के आगे उपस्थित रहूं या सब चीज़ें मुझे उतनी अटेंशन ज़्यादा पसंद ही है। क्यूंकी मैं सिंपल अपनी ट्रेनिंग करना और स्पोर्ट्स के उसमे मे रहना मैं बहुत ज़्यादा पसंद करता हूँ।
कि ट्रेनिंग करनी है, खाना पीना है, सोना है। फिर अपना जो भी एक्स्ट्रा काम है, ज़्यादातर वही वाली लाइफ। मेरे मेरे मन में वही था किस तरीके से मैं और ज़्यादा आगे आ सकता हूँ।
आचार्य प्रशांत: अच्छा नीरज। यह याद रखना कि क्या नहीं करना है, दुनिया में और भारत में भी एथलेटिक्स में, दूसरे स्पोर्ट्स में बहुत सारे ऐसे एग्जाम्पल्स मौजूद है जो बहुत कुछ ऐसा कर रहे हैं जो तुम्हें नहीं करना है किसी भी हालत में। तुम्हारे पास अभी एक पॉवर आ गई है लोगों को इन्फ्लूएँ स करने की। किसी भी हालत में वो पॉवर गलत दिशा में नहीं रहनी चाहिए।
नीरज चोपड़ा: बिल्कुल
आचार्य प्रशांत: आज आप अगर देखोगे। खासकर क्रिकेट में तो वहां दिखाई पडता है कि अच्छा स्पोर्ट है अपने आप में। हमने परफॉर्म भी कर। और उसमे बहुत सारे ऐसे प्लेयर्स हो गए हैं जो क्रिकेटर्स कम हैं और वो सेलिब्रिटी ज़्यादा हो गए हैं। स्पोर्ट्सपर्सन रहना सेलिब्रिटी मत बन जाना।
यह नहीं होना चाहिए कि अब आपका ट्विटर प्रोफाइल है या कुछ भी है, आपका यू ट्यूब है, वो समाज को संदेश देने का एक माध्यम है। उस पर अगर सिर्फ एँडोर्समेंट पड़े हुए हैं, उस पर सिर्फ यह पड़ा हुआ है कि फलाना केक खरीद लो, फलाने शर्ट खरीद लो, फलाने एअरफोन्स खरीद लो। और कई बार तो ये सब भी होता है। वो पान, मसाला, वो सब भी चल जाता है।
वो सब नहीं होना चाहिए। बहुत जरूरी है। कि हम लोगो को क्या बता रहे हैं और जो बता रहे हैं उससे और ज़्यादा चैम्पियन पैदा होंगे और कहीं ऐसा न हो कि उससे कहीं कोई समाज को नुकसान हो जाए।
मैं उदाहरण देता हूँ। जो भी करोगे, अभी तुमको दुनिया देखेगी, भारत देखेगा। अब मान लो कोई कॉम्पिटिशन है जिसमे पता चलता है कि अल्बो में समस्या थी, नी में समस्या थी, जैसे ज्योइंट में समस्या थी, उसके बावजूद कॉम्पीट करा भले मैडल नहीं आया तो पता भी नहीं चलेगा तुमने लाखों लोगों को क्या मैसेज दे दिया है और उनको कितनी ताकत दे दी है। बहुत ताकत की बात है।
दूसरी और अगर उनको पता चल रहा है, उदाहरण के लिए कि नीरज की कोई गर्लफ्रेंड हो गयी या है। और नीरज कहीं पर कॉम्पीट करने गया था और गर्लफ्रेंड ने कहा कि मेरी तबियत खराब है, तो तुम वापस आ जाओ, मुझे देखने के लिए नीरज वापस आ गया। तो इससे सिर्फ कोई पर्सनल लेवल, पर कुछ नहीं हुआ है। इसलिए हमने पूरी पूरी पीढ़ी को न जाने क्या सन्देश दे दिया।
और यह काम वहाँ बहुत ज़्यादा होता है जहाँ ग्लैमर आ जाता है। उस ग्लैमर से थोड़ा बचकर चलना है। आप अच्छे प्रोडक्ट्स को एँडोर्स करो, जहाँ आपको सचमुच लगता है कि हाँ, मैं एँडोर्स कर सकता हूँ, वह करो। पर यह नहीं होना चाहिए कि मैं अब एक टूल बन गया हूँ सिर्फ एँ डोर्समेंट का, कैपिटलिज्म का, कमर्शियलिज्म का, चीज़ें बेचने का, हमको ऐड थोड़ी बनना है, हम स्पोर्ट्स पर्सन हैं, हमारी डिग्निटी हैं, हमें विज्ञापन नहीं बनना है।
नीरज चोपड़ा: ये तो बिल्कुल देखना चाहिए की भई हाँ हम कैसे ब्रैंड्स के साथ एँडोर्समेंट कर रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: जो एक मिनिमम थ्रेशोल्ड है आपने अपने लिए उतना बना लिया और वो भी आपने ढंग के ब्रांड्स के साथ कॉलेबोरेट करके बना लिया। वो एक चीज़ है।
वो जो उसका दूसरा एक्स्ट्रीम है न, उससे बचना जरूरी है उसका दूसरा एक्स्ट्रीम। ये होता है टारगेट कर रहा हूँ की 1000 करोड़ कमाने है और उसके लिए मैं कोई भी अनाप शनाप काम कर रहा हूँ।
नीरज चोपड़ा: नहीं नहीं वो तो नहीं वो तो मतलब वो वो फिर हमारा मकसद बदल गया न।
आचार्य प्रशांत: हाँ वो बात सिर्फ ब्रांड एँडोर्समेंट में नहीं होती, वो बात अपनी पर्सनल लाइफ में भी होती है। मैं एक मैच के ऊपर एक बहुत इम्पोर्टेन्ट मैच के ऊपर या सीरीज के ऊपर अगर कह रहा हूँ कि मेरी फैमिली को मैं प्रायरिटी दे रहा हूँ तो मैंने लोगों को यह बोला है कि साहब जो जो आपकी इमोशनल बातें हैं और ये सब हैं वो आपकी ड्यूटी से बढ़के होती है। अब इमोशनल बातें ड्यूटी से बढ़कर होती है, यही बात अगर कोई सोल्जर बोलने लग जाए कि मैं बॉर्डर छोड़ रहा हूँ, मैं तो इमोशनल हो रहा हूँ, मैं घर जा रहा हूँ, कोई डॉक्टर बोलने लग जाए, मैं सर्जरी छोड़ रहा हूँ, मैं इमोशनल हो रहा हूँ, घर जा रहा हूँ तो क्या होगा?
तो लोगों को दिल से चुनना। जो चुना है उससे प्यार करना जी और फिर उस पर किसी भी तरीके से अडिग रहना, भले ही कितना भी इमोशनल टर्मोइल रहा हो। ये सिखाना बहुत जरूरी है और वो चीज़ पक्की है वो जरूर करके रखना। हम बिल्कुल नहीं चाहते हैं कि जो हमारे यहाँ ट्रेडिशन रही है कई बार तो एथलीट्स को अपने मेडल बेचने पड़े हैं यार, उनकी इतनी खराब हालत रही है।
नीरज चोपड़ा: उनकी इतनी खराब हालत हो, वही मुझे लगता है जी कि नॉर्मली हम खासकर यहाँ पे इतना वो मिल नहीं पाता था। अगर हम यही चीज़ें फिर वही मैं पहुँच जाऊंगा सर कि बाकी दूसरी कंट्रीज में अगर हम यूएस में देखे तो उनके मुकाबले तो हमारे पास कुछ भी नहीं है। पैसे की बात करो या एँडोसमेंट की बात करो, कुछ भी नहीं है।
लेकिन जितना जो कुछ भी हो रहा है ये हमारे पास एथलीट्स के पास 1 ही होता सर डॉक्टर है या बिजनेस मैन है या कोई भी फील्ड है, उनके पास कोई रिटायरमेंट या उसका ऐसा टाइम ही है, सर वो कर सकते हैं। मेरे लिए वो तीस, पैंतीस साल तक के ये 30 साल तक वो इंज्युरी या उससे भी कम।
आचार्य प्रशांत: उसमे और भी चीज़ें हैं। उसमे जैसे एक तो ये हो गया की पैसा एँडोर्समेंट ब्रांड एक भी और भी चीज़ें हैं।
चूँकि तुम अब प्रसिद्ध हो और लोग इज्जत से देखते हैं और इंस्पायर होते हैं देख कर के तो सोशल मुद्दों पर जो स्टैंड होगा या पॉलिटिकल मुद्दों पर या आर्थिक मुद्दों पर, जो भी चीज़ें हैं जो आम समाज को प्रभावित करती है, इनको लेकर के मीडिया बात करने आयेगा। वो आयेंगे: बताओ बताओ बताओ, इसको बताओ, ये बताओ बताओ, कहीं कोई इरिटेशन हो रहा उसपर बात करने आ जायेंगे। कहीं कुछ हो रहा है कहीं बाढ़ आ गई, कुछ भी हो सकता है, कहीं कोई लड़ाई हो गयी उसपर हो सकता है। वहाँ पर हमें, मैं चाहूँगा कि ये याद रहे कि वही स्पिरिट जो हमें चैंपियन बना गई, वो स्पिरिट पीछे नहीं हटनी है, न अपने लालच में आना है, न डर में आना है, जो सही बात है, वो बोलनी है।
इसमें फिर एक चीज़ और भी है कि जो जरूरी मुद्दे हैं, हमें कोशिश करनी चाहिए की हमें उनका पता भी हो। उदाहरण के लिए जैसे अभी मैंने क्लाइमेट चेंज की बात करी जी, मैंने एक्सटेंशन ऑफ़ स्पीशीज की बात करी थी, बहुत अच्छा होगा अगर हमें इनका पता हो। और जब वो बातें तुम्हारे जैसे किसी व्यक्ति से पहुँचती है यूथ तक, तो वो फिर रिसीव करते हैं, कहते हैं ये हमारे सामने हमारा चैंपियन है।
अगर ये इस बात को बोल रहा है, अगर इसने इस चीज़ को स्टडी करा है और ये कह रहा है कि ये सीरियस मुद्दा है, तो हमें सुनना चाहिए। तो जो हमारी पॉपुलैरिटी होती है, फेमडम होती है, उसके साथ ये हम समझे अगर हमे जिम्मेदारी आ गई है कि हमें पता भी हो कि दुनिया के जो मुद्दे हैं उनमें से कौन सा जरुरी है और उसपर फिर हमें क्या रुख रखना है। वो तो बहुत अच्छी बात है, अगर नहीं पता तो मैं बोलूँगा ही नहीं, फालतू बात में माइक आ गया, कुछ भी बोल रहे हैं, वो नहीं करना है।
लेकिन जो जरूरी मुद्दे हैं उस पर यह भी कोशिश करो की एक अच्छा इन्फॉर्म, ओपिनियन कल्टिवेट करके आगे बढ़ाओ। ये ये देश अभी बहुत बहुत जरूरतमंद है हमें।
नीरज चोपड़ा: मैं सर उतना नहीं कर पाया, मैं सच्चाई बताऊं तो मैं उस लेवल तक पढाई नहीं कर पाया, या मैं उतना आगे तक नहीं जा पाया, क्योंकि मेरा मैंने स्पोर्ट्स चुन लिया, और फिर हमारे यहाँ पे, वो सिस्टम नहीं है कि दोनों चीज़ों को एक साथ आगे उठा सके। तो अब मुझे जितना पता है, मैं जितना भी पता कर पाता हूँ, सर, जिस तरीके से मेरा दूसरे टॉपिक्स पे इंटरेस्ट बनता है, जितना ही पता लगता है उतना ही लगता है सर।
मुझे लगता है की दिमाग उस तरीके से डेवलप हो, स्टार्टिंग से ही तो वो काफी फर्क पड़ता है। आपकी पढ़ाई में आपको इंटरेस्ट आता है, उस टॉपिक के बारे में आप बहुत जल्दी सीख जाते हैं।
आचार्य प्रशांत: नहीं ये ऐसा बिल्कुल मत सोचो। दिमाग अभी भी उस पर डेवलप हो जायेगा। जैसे उदाहरण के लिए मैं बताऊँ कि जितनी देर में हम ये बात कर रहे हैं उतनी देर में कम से कम सौ से चार सौ स्पीशीज, स्पीशीज माने जैसे, जैसे समझ लो की एक बिल्ली है तो बिल्ली एक अपने आप में स्पीशीज है। ठीक बिल्लियों की बहुत स्पीशीज होती है। वो हमेशा के लिए एक्सटिंक्ट हो गयी।
तो झटका लगेगा न, इतनी सी देर हमने भी बात करी है कुल और इतनी देर में पेड़ पौधे ऑर्गेनिज्म एनिमल्स, इनकी कम से कम 400 स्पीशीज हमेशा के लिए एक्सटिंक्ट हो गयी। अब वो कभी लौट के नहीं आयेंगी।
झटका लगा तो ये ऐसी चीज़ नहीं है की अगर हमें बचपन से बैकग्राउंड मिला था तो ही पता चलेंगे। मुझे भी लाइफ में किसी स्टेज पर आके सब बाते पता चलनी शुरू हुई तो इन बातों को मैं चाहूँगा की पता करो और ये बातें ज़िन्दगी में और एक प्यारा मकसद देंगी।
नीरज चोपड़ा: इंटरेस्ट तो सर मेरा पता नही क्या क्या मैं सोचता हूँ। मैं ब्रह्माण्ड के बारे में सोचता हूँ, क्या चीज़ है पता ही नहीं लगा सकता, कुछ परसेंट भी नहीं पता लगा सका।
मतलब चीज़ें तो काफी है जो शायद से इंसान कहीं तक भी नहीं पहुंचा है अभी तक। लेकिन वो इंट्रस्टिंग लगती है लेकिन अब ये भी नहीं पता है कि वो 1 समय का भी होता है कि हमारे ट्रेनिंग या उसके बीच में कितना समय बसता है। उसमें हम कैसे दे सकते हैं। तो 1 1 चीज़ें पहले से ही प्लैंड हुई होती है तो इंटरेस्ट तो काफी है पर वो सही डायरेक्शन और सही तरीके से कैसे सीखी जाए।
आचार्य प्रशांत: मैं इसमें स्वागत करता हूँ ठीक वैसे जैसे यहाँ मिलने के लिए आ गए। मैं भी उपलब्ध हूँ, संस्था भी उपलब्ध है इस वक्त पे ज़िन्दगी के और जानने लायक बड़े बड़े मुद्दे क्या हैं, जब चाहो जितना चाहो समय लो, मुझे व्यक्तिगत रूप से खुशी होगी, इस बारे में तुमको बात करके तुमको बता कर के।
और एक बात और बोलता हूँ। चैम्पियन तो एक वो है जिसने मेडल जीत लिया। और जब ये बातें पता लगने लगेगी न तो व्यक्तित्व में एक अतिरिक्त गहराई आएगी, एक नया आयाम खुलेगा वो एक अलग किस्म की चैंपियनशिप होती है।
नीरज चोपड़ा: ये तो जी इंसान की बनाई हुई चीज़ें हैं। खेल बना दिया, जैवेलिन को मतलब जैवेलिन का कहीं, अभी तक महाभारत में वैसे युधिष्टर जी का बोलते थे की महाभारत में वो भाला रखते थे। लेकिन जैसे आपने बात की की जंगल में लोग रहते थे, तो यही तो था भला उसे शिकार कर के लोग…
आचार्य प्रशांत: जितने भी स्पोर्ट्स होते हैं न, वो सब जो जंगल बिहेवियर है उसी का सिमुलेशन होते है किसी न किसी तरीके से। बातचीत जहाँ पहुँच गई है वो बातचीत पहुँच गई है जंगल से बाहर कॉन्शियसनेस के लेवल पे।
और मैं कह रहा हूँ की अगर हमें एक ऐसा बंदा मिल पाए अरे बहुत बड़ी बात मान रहा हूँ, लेकिन बोलने में क्या जाता है। ऐसी बात मिल पाए जो तन से भी मजबूत है, फील्ड पर भी चैंपियन है और दिमाग से उसे ज़िन्दगी के और दुनिया के सारे मुद्दों की जानकारी भी है, समझता भी है सोचो वो इंसान कैसा होगा और हमारे हिंदुस्तान को अगर वैसे 1000 जवान लोग भी मिल जाए, सोचो हम कहाँ पहुँच जायेंगे।
नीरज चोपड़ा: वो 1000 तो वो अलग ही लेवल का मोटिवेट करेंगे, सर
आचार्य प्रशांत: अलग ही लेवल का मोटीवेशन होगा और वो इंसान तुम भी हो सकते हो
नीरज चोपड़ा: जितने तरीके से मैं कर सकता हूँ मेडल जीत के …
आचार्य प्रशांत: अभी बहुत कुछ बाकी है, अभी बहुत कुछ बाकी है।
नीरज चोपड़ा: कईयों को लगता है की शायद से बहुत मेहनत कर लिया, सब कुछ हो गया तो मुझे रिटायरमेंट के बाद थोड़ा सा आराम लेना है।
आचार्य प्रशांत: रिटायरमेंट के बाद लाइफ के फील्ड का चैंपियन बनना है और रिटायरमेंट के बाद ही नहीं वो प्रक्रिया रिटायरमेंट से पहले शुरू हो जानी चाहिए। हम क्यों सोचे की हमें जो करना था वो हमने खेल के मैदान पर किया ज़िन्दगी तो खेल के मैदान से बहुत ज़्यादा बड़ा मैदान है। तो वहाँ पर चैंपियन बनकर निकलो।
और जिस आदमी में यह दम है कि वो एक साधारण पृष्ठभूमि से उठ करके हरियाणा के गाँव से उठ कर के दुनिया पर छा गया वो क्या नहीं कर सकता। वो क्यों कहे की मैं सिर्फ जेवलिन में चैंपियन रहूँगा, वो ज़िन्दगी मैं भी चैंपियन हो सकता है।
नीरज चोपड़ा: जी बिलकुल, ये मुझे खुद नहीं पता था की मैं जेवलिन में यहाँ तक आऊंगा तो कोई भी फील्ड हो सकता है, ऐसा नहीं है, कोई भी फील्ड हो का है।
आचार्य प्रशांत: और तुम्हें खुशी उस दिन मिलेगी, मैं एक टीचर हूँ इस नाते से बता रहा हूँ। जिस दिन तुम देखोगे कि तुम्हारे पीछे तुमने एक बहुत बड़ी श्रृंखला खड़ी कर दी है और उनमें से कुछ ऐसे तुमसे भी आगे निकाल रहे है,
नीरज चोपड़ा: वही चाहिए सर। वही सोच है कि सब मुझे पूछते हैं कि कोई दूसरा नीरज आ सकता है क्या, इंडिया से? बोलता हूँ नीरज क्यों लेना है। मतलब कुछ भी नही हूँ। मैं सच में अपने आप को ऐसा नहीं मानता मैंने कुछ अलग एक्स्ट्राआर्डिनरी किया है, एक्स्ट्राआर्डिनरी करने के लिए तो कुछ अलग ही होगा। मतलब वो बहुत कम एज में वर्ल्ड रिकॉर्ड तोड़ मानता हूँ की भाई एक अलग ही दुनिया में परचम लहरा दे हिंदुस्तान का, इंडिया का कि ये देखो कैसा आया एथलीट तो ऐसा तो अभी तक यहां से निकला नहीं है।
आचार्य प्रशांत: वर्ल्ड रिकॉर्ड भी तोड़ दे और पर्सनैलिटी और एक्शन भी उसका मल्टी डायमेंशनल हो। वो जवेलिन के फील्ड में भी है और हो सकता है वो सोशल फील्ड में भी हो सकता है लिटरेरी फील्ड में भी हो। वो उसके ऊपर है कि उसे और कौन सी फील्ड। उसने यह भी नहीं कहा है की मुझे एक ही फील्ड में रुककर रखना है। वो ऐसा भी हो सकता है कि वो एक साथ कई फील्ड्स में है या एक के बाद एक कई फील्ड्स में है।
नीरज चोपड़ा: मैं ये चाहता हूँ कि मेरे से तो कई हजार गुना मतलब अच्छे अपने मतलब न केवल जेवेलिन में हर एक फील्ड में निकले और बस वही है कि एक प्राउड जरूर होता है जब कहीं भी जाते हैं कहीं खेलने गया मतलब वहाँ पर हजारों एथलीट्स होते हैं लेकिन 5, 10 एथलीट को ही प्रेस कान्फ्रेंस में बैठने का मौका मिलता है। उसमें नीरज का भी उसमें नाम है इंडिया से।
जब हम मैडल जीतते हैं फिर राष्ट्र गान में बजता है तो ये जरूरी चीज़ है जो मुझे खुद में ऐसा महसूस होता है की हा कुछ ऐसा किया है की कुछ अलग से धरती पर आये है तो कुछ ऐसा किया है और और कुछ भी बाकी हो सकता है तो उसके लिए मेहनत जारी है।
हर एक को सोचना चाहिए कि जैसे मेरी जर्नी रही है मै एकदम निकाल के कोई बैकग्राउंड ऐसा नहीं था, यहाँ तक आ सकता हूँ तो कोई कुछ भी कर सकता है, कोई किसी का, किसी को नासा में जाना है या किसी दूसरे फील्ड में जाना।
आचार्य प्रशांत: लगे रहना चाहिए और कभी किसी फील्ड को यह कह देना चाहिए कि यही तो मेरा फील्ड है, दुनिया के सारे फील्ड आपके है। आप जब पैदा हुए थे तो आपके ऊपर बस कोई 1 फील्ड खुदा हुआ नहीं था।
नीरज चोपड़ा: ये तो सलेक्ट हुआ जी जो मुझे पता नहीं था, ये तो फील्ड ही ऐसा था जो मेरी शायद से कहीं बैकग्राउंड में कहीं भी नहीं था। तो ये ऐसा चुना मैंने तो इसकी शायद ऐसी क्या पता कुछ और भी हो सकता था।
आचार्य प्रशांत: हो सकता है की अभी तो बस यात्रा शुरू हुई हो, पता नहीं कौन कौन सी फील्ड खुलने बाकी हो। मैं चाहूँगा हमारा जो इंटरेक्शन हुआ है उससे बस ये सम्भावना ये पॉसिबलटी खुल पाये तुम्हारे लिए और जितने जवान लोग देख रहे होंगे, जवान बूढ़े भी देख रहे हैं सभी के लिए की यात्रा अभी शुरू ही हुई है।
भले ही आप बस 70 साल के भी तो भी यही कहो की जर्नी तो शुरू हुई है। और अभी न जाने क्या क्या खुल सकता है जो खुल सकता है मै उसकी पॉसिबिलिटी को बंद नहीं करूंगा।
नीरज चोपड़ा: मुझे ऐसा डर लग रहा है कि यार मैं यह एक्सरसाइज करूँगा तो यार शायद नहीं मुझे कुछ हो सकता है। एक तो वो डर है। एक हम परिवार में है या फिर यार दोस्त हैं या दूसरे इंसान का डर है कि यार अब जैसे इमोशनल डर आ गया की मैं ऐसे बोल दूँगा तो बुरा लग जाएगा। एक वो डर है वो उस तरीके के भी तो डर काफी होते है, मतलब एक अपने तक बात है, वो डर है उसको आदमी कहीं न कहीं पीछे छोड़ सकता है। लेकिन दूसरे इंसान का डर है कि यार हमारी खुशी या हमारा मूड या हमारा इमोशन दूसरे इंसान का क्या रिप्लाई होगा। उस पर डिपेंड करता है तो वहाँ पर फंस जाता है। उसका क्या हो सकता है।
आचार्य प्रशांत: उसका ये हो सकता है कि हमें समझना पड़ेगा कि दूसरे को अच्छा क्या लगता है वर्सेज दूसरे के हित में क्या है। जैसे छोटे बच्चे का एग्जाम्पल ले लो, उसका इमोशन हर्ट हो जाएगा अगर तुम उसको टॉफ़ी नहीं दोगे, पर वो चार टॉफियाँ खा चुका है। वो रोएगा अगर टॉफ़ी नहीं दोगे। पर इस कारण से मैं उसको टॉफ़ी दे नहीं दूँगा। मुझे पता है वो टॉफ़ी उसके वेलफेयर में नहीं है, उसको प्लीज करेगी, उसको पसंद आएगी पर उसके लिए अच्छी नहीं है।
तो फिर जब ये जानने लग जाते हो तो दूसरों को इमोशनली हर्ट करना उतना बड़ा मुद्दा नहीं रह जाता। आप कहते हो मुझे वो करना है जिससे तुझे फायदा होगा। आपका कोच आपके साथ वो करता है, जो आपको प्लेजेंट लगता है या वो करता है जो आपके लिए सचमुच अच्छा है।
नीरज चोपड़ा: वही है जी जो सचमुच अच्छा है।
आचार्य प्रशांत: जो सचमुच अच्छा है। कोच को लेकर कई बार तो गुस्सा भी आ जाता है न।
नीरज चोपड़ा: मेरे साथ। अभी तक कोच को ऐसा मौका नहीं मिला कि उसको ऐसे पुश करना पड़े है। क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि वो जो प्लान बनाते है मैं, मैं अपने आप ही उतना, उसको इतना ज़्यादा उससे करता हूँ कि कोच को अभी तक ऐसा मौका नहीं मिला कि यार पुश करना पड़े।
आचार्य प्रशांत: एक स्टूडेंट ऐसा होता है। एक कोच मैं हूँ की मुझे कितना पुश करना पड़ता। लेकिन कोच को ये बहुत अच्छे से पता होता है। कि मेरा काम यह नहीं है कि मैं उसको खुश रखूँ, मेरा काम यह है की मैं उसको बिल्कुल ऊँचाइयाँ दे दू, आसमान दे दू।
यही बात हमें अपने हर रिलेशनशिप में याद रखनी पड़ेगी कि दूसरे को खुश रखना छोटी बात है। हम उसे दुखी नहीं करना चाहते, बिल्कुल नहीं। अगर वो खुश रह सकता है तो रह ले। लेकिन जहाँ कहीं भी कनफ्लिक्ट यह आएगी कि मैं उसको खुश रखूँ या कुछ ऐसा करूँ जो उसकी सच्ची वेलफेयर में है, जहाँ उसका असली हित है, तो मैं वो काम करूँगा कि उसका असली हित है, भले ही उस असली हित में उसको थोड़ा बुरा लगता हो।
बुरा लगता है तो मैं पास जाऊंगा, मैं माफी मांग लूँगा। मैं कहूँगा, मैं बहुत माफी मांगता हूँ कि मेरी वजह से तुम्हें हर्ट हुआ लेकिन यह हर्ट जरूरी है। इसके बिना तुम्हारा डेवलपमेंट नहीं होगा, तुम्हारी अच्छाई नहीं होगी।
बहुत अच्छा रहा कि यह सवाल पूछा। क्योंकि हिंदुस्तान में ये जो इमोशनल एँ गल है न, यह दुनिया के बाकी देशों से बहुत ज़्यादा है, बहुत ज़्यादा है। हम बहुत ज़्यादा इमोशनल लोग हो जाते है। ये बात हमारी संस्कृति में, कल्चर में।
हम मानते हैं कि इमोशन बहुत बड़ी चीज़ होती है, इमोशन बड़ी चीज़ होती होगी, लेकिन इमोशन से ज़्यादा बड़ी चीज़ होती है सच्चाई। इमोशन से ज़्यादा बड़ी चीज़ होती है कि दूसरे का हित कहाँ है, हित मतलब, रियल वेलफेयर, वो कहाँ है।
नीरज चोपड़ा: पर सच्चाई सर कई बार ऐसा भी होता है कि हमको उस चीज़ का पता है। लेकिन दूसरे हम ऐसा भी कर सकते हैं की अपना काफी अच्छा रिश्ता। हमारे फैमिली मेंबर को हम उसकी वजह से खो दे। मतलब वो बात हम सच्चाई के उसमे बोले वो दूसरा न समझ पाए और वो उस चीज़ से।
आचार्य प्रशांत: उसमे फिर मेहनत करनी पड़ती है। देखो कोच इनको बोल दे कि तुम जाओ मेहनत करो, और कोच खुद सो जाए तो रिश्ता टूट जाएगा।
नीरज चोपड़ा: बिल्कुल।
आचार्य प्रशांत: लेकिन उसको देखेगा न कि मुझे मेहनत नहीं कराई जा रही, वो मुझे मेहनत करा रहा है, पर फिर मेरे साथ वो खुद भी लगा हुआ है तो फिर रिश्ता नहीं टूटता है। यह बात, ये प्यार की बात आती है। मैं तेरे साथ मेहनत करने को तैयार हूँ, देख मैं तेरे ऊपर अत्याचार नहीं कर रहा। मैं तुझसे कुछ ऐसा कह रहा हूँ जिसमे तुझे कठिनाई पड़ेगी, पर वो कठिनाई में तेरे साथ मिल के झेलूँगा, मैं भी तेरे बगल में खड़ा हूँ। तो फिर रिश्ता बचा रहेगा, फिर रिश्ते में एक अलग तरह की चमक आ जाती है।
ये फिर वो एक इजी रिलेशनशिप नहीं होती और डिफिकल्ट ये वेरी प्रेशियस रिलेशनशिप बन जाती है। वो टूटता तब है जब मैं बोलता हूँ की तुम तो जाओ, वहाँ पर जाओ और छह घंटे तक पढाई करो और मैं जा रहा हूँ समोसे खाने। तो यह नहीं चलेगा कि मुझे तो बोल दिया, पढाई करो या कुछ और, करो या या रनिंग करो और खुद समोसे खा रहे हैं नहीं।
अगर मैं तुझसे मेहनत कराऊंगा तो मैं तेरे बगल में खड़ा हूँ, मैं भी मेहनत करूँगा, दोनों मिलके करेंगे, फिर रिश्ता नहीं टूटता फिर किसी को नहीं लगता कि हमारे साथ इनजस्टिस हुआ है।
जब भी कभी एक लीडरशिप पोजीशन में या 1 रिलेशन में, जिसमें इमोशनल एँगल हो, दुसरे को किसी कठिनाई में डालो और कठिनाई में तो देखो डालना पड़ेगा अगर सचमुच प्यार होता है न, तो दूसरे को कई बार कठिनाई में डालना पड़ता है तो दूसरे को कठिनाई में डालो न, तो हमेशा उसके बगल में खड़े हो कर डालो।
उसको देखना चाहिए अगर यह हमें ट्रबल दे रहा है तो खुद डबल ट्रबल झेल रहा है। फिर वो नहीं कहता की अन्याय हुआ। वो इजी रिलेशनशिप क्या करेंगे हम लेकर? कि ईजी रिलेशनशिप वैसी होती है की बॉडी के साथ भी ईजी रख ली और ऐसे ही घूम रहे हैं, सब घूमते हैं।
ऐसी बॉडी तो तब बनी न जब बॉडी के साथ भी तुमने बॉडी कितना चिल्लाई होगी नहीं करना है, नहीं करना है, नहीं करना है। पर बॉडी के साथ तुमने एक डिफिकल्ट रिश्ता रखा।
नीरज चोपड़ा: वो अभी तक भी चिल्लाती है, चिल्ला ही रही है इसकी सुन नहीं रहा हैं कोई
आचार्य प्रशांत: उसी से तो बॉडी बन गई है, उसी से तो बॉडी ऐसी हो गई है की मतलब लोग ऐसी बॉडी पाने के लिए कुछ भी देने को तैयार हो जाए। तो हम स्पोर्ट्स में जो अटक जाते हैं कई बार उसमें ये इमोशनल फैक्टर भी बहुत होता है।
लड़का ट्रेनिंग कर के घर लौटा, माँ ने देखा की एकदम थका हुआ है, माँ ने ये भी देखा की चलो कहीं इंजरी हो गई है। और माँ ने बिल्कुल घर सर पर उठा लिया की क्या करना है, शरीर तोड़ के कौन सा तू छप्पर फाड़ देगा कहाँ से जा कर के मेडल जीत लाएगा, अरे जब तेरी टांग ही टूट जायेंगी, शरीर बर्बाद हो कहीं नहीं जाना। और कोच को फ़ोन करके बिल्कुल बुरा भला बोल दिया कि तुम मेरे लड़के को तोड़े दे रहे हो या लड़की को बोल दिया।
लड़कियों तो बोला जाता है तो उसको इतनी एक्सरसाइज करा रहा है, इसके कंधे निकल आयेंगे इसकी बॉडी मर्दानी हो जाएगी इसकी शादी नहीं होगी। जी ये जो इमोशनल चीज़ है ये हमारा बड़ा नुकसान करती है, इमोशन प्यारे हो जाते है जब वो क्लैरिटी के पीछे पीछे चले। इमोशन अपने आप में नही बुरे होते पर ब्लाइंड इमोशन बहुत बुरा होता है।
नीरज चोपड़ा: मेरी माँ खुद इस चीज़ में बोलती है जब मैं एक्सरसाइज करता हूँ बहुत हैवी वेट उठाता हूँ उनको वीडियो देख के मेरा चेहरा ऐसा होता है की में बहुत ज़्यादा तकलीफ में हूँ। तो उनको लगता है कि क्यों कर रहा है ये सब कुछ है वो, पर उनको ये बोलता हूँ मैं नहीं करूँगा, दूसरा कर जाएगा, फिर आप भी बोल है यार उतना मैं यहीं पर बैठ जाऊंगा आगे।
एक बार मैं ट्रेनिंग करके आया सर जो स्पोर्ट्स में काफी हम कहीं किसी मसल को बहुत ज़्यादा तकलीफ होती है तो हम आइसिंग करते हैं उसे तो हम वैसे भी प्रोपर पूरा बॉडी आइस में डालके बैठते हैं थोड़ी देर। तो मैं सर्दी के अन्दर आइस लग रहा था तो अपने पैर पे आर्म्स पे जहाँ मुझे दर्द हो रहा था, उसमें भी उनको तकलीफ थी की क्या है यह क्यों पागल वाली हरकत कर रहां हैं।
आचार्य प्रशांत: बिल्कुल, उनकी हाल समझ सकता हूँ बिल्कुल समझ सकता हूँ, बिलकुल समझ सकता हूँ। उन्हें कैसा लग रहा होगा, अपना बच्चा पैदा कर रहा है, बड़ा करा हैं, फिर देख रहे हो की यहाँ लाल है या काला है, आइस लगा रहा है, दर्द हो रहा है।
वेट उठाते हैं तो शकल भी ऐसी हो जाती है कि जान निकल रही है, मैं समझ सकता हूँ लेकिन फिर असली माँ वो है न, हम बोलते है की माँ जो होती है वो जीवनदायनी भी होती है और मुक्ति दायनी भी होती है तो माँ हो, बाप हो या जिस किसी से भी प्यार करते हो उससे रिश्ता हो उसमें उसको फ्रीडम देना बहुत जरूरी है, सिर्फ जीवन देना जरूरी नहीं है।
नीरज चोपड़ा: वही है उन्होंने, उनको दर्द भी होता है लेकिन उन्होंने फिर भी है छोड़ा हुआ है भाई चल तू कर लो।
आचार्य प्रशांत: बहुत बड़ा क्रेडिट जाता है। फिर माताजी को। और हिंदुस्तान को ऐसी माएँ चाहिए जो अपने इमोशन से ज़्यादा अपने बच्चे की वेलफेयर को तवज्जो दें। अब छोटी सी बात है। मुझे पता है कि मेरे बच्चे के लिए अच्छा ये है बच्चे के लिए, बच्ची के लिए है कि या हॉस्टल में जाकर पढ़ाई करे और ममता के नाते इमोशन के नाते है
नीरज चोपड़ा: घर से दूर जाए, हमसे दूर चले जाएँ।
आचार्य प्रशांत: घर का माहौल खराब है तो भी घर में रखा हुआ है, ये कैसे ठीक हो सकता है आप उसको खुद से दूर भेज दो, आपको इमोशन हर्ट होगा लेकिन इसमें उस बच्चे की भलाई है और ये बात हर रिलेशनशिप में याद रखनी है।
मिया बीवी का रिलेशनशिप, वो बाप बेटे का हो, किसी का हो दोस्त यार करो किसी का
नीरज चोपड़ा: और घर पर अगर मैं घर पे सोचता कि मुझे ओलंपिक तक पहुँचना है तो नहीं था पॉसिबल। हमको एक वो उससे बाहर जाना ही पड़ता है। घर परिवार छोड़ना पड़ता है, वो सही जगह पर जाना पड़ता है कि हाँ यह है।
आचार्य प्रशांत: जो सक्सेस है किसी भी किसी भी लड़के की लड़के की, उसमें दिखाई देता है कि ये सक्सेसफुल हो गया लेकिन हमेशा उसमें उसके माँ बाप का योगदान होगा।
नीरज चोपड़ा: बिल्कुल
आचार्य प्रशांत: माँ बाप के योगदान के बिना 10 गुना और मुश्किल हो जाएगा ज़िन्दगी सही तरीके से जीना और यही सब जो जो यंगस्टर्स हैं, जो आज बहुत तरह की बातें करते हैं, रेस्पॉन्सिबल होते हैं, जिनके बारे में सोशल मीडिया की बात कर रहे थे तुम इन्हीं को कल पेरेंट्स बनना है।
ये आज एक दुसरे को लेकर अपने इमोशन कंट्रोल नहीं कर पाते लड़का लड़की तो अपने बच्चे को लेकर क्या इमोशन कंट्रोल करेंगे। फिर बच्चे बर्बाद होते हैं।
नीरज चोपड़ा: बल्कि इस उसमें तो मैं एक बात बोलना चाह मेरी जो फैमिली है मेरे पापा, उनके छोटे तीन भाई हैं, सभी साथ में रहते हैं और जिस तरीके से आज के जमाने में सभी रह रहे हैं काम तो मुश्किल है लेकिन जैसे मेरे कजन्स हैं वो हम बचपन से ही साथ मे रहे है। अभी तक जॉइंट फैमिली। है तो हमेशा घर पर जाता हूँ, वो बहुत ही अच्छा माहौल होता है, सभी खुश होते हैं, मजाक करते है, आपस में लड़ाइयां भी होती है, पर दो में लड़ाई होगी, दो अलग से बैठ के उनको समझायेंगे ठीक हो जायेंगे। तो मतलब ये चल रहा है, यह बहुत अच्छा है
मतलब मैं ऐसा सोचता हूँ कि यार जब हम अच्छे से वो रिलेशनशिप उस तरीके से बनाये तो ज़्यादा से ज़्यादा लोग भी रह सकते है या दो भी नहीं रह सकते है। मतलब वो आपस में समझने की बात है की आप अपनों को अपना समझ के दिल से वो बुरा तभी लगता है जब हम उनको सच्चाई बोल देते हैं कि ये तो गलत कर दिया, बुरा मानते हैं। फिर दूसरा बोल देता है कि अरे बात तो ठीक ही इसने की है, बात तो गलत तूने काम भी गलत किया। फिर वो समझते हैं कि हाँ ठीक है।
आचार्य प्रशांत: मजेदार बात पता है ज्वाइंट फैमिली में भी इमोशन मैनेज करने पड़ते हैं उसको बुरा लगता है सच्चाई बोल दो, दो में भी जैसा कहा, दो में भी बुरा लग सकता है अगर समझदारी नहीं है। अकेला आदमी है न, उसको खुद को भी भारी पड़ता है जब वो खुद को सच्चाई बोलता है।
हमारी पहली समस्या वहाँ शुरू होती है कि हम खुद को ही नहीं सच्चाई बोलते हम खुद को ही धोखा देने में बड़े एक्सपर्ट होते हैं।
जो खुद को धोखा दे रहे और दूसरे को सच्चाई कैसे बोलेगा? आप क्यों नहीं बोल सकते की मेरी आज की ट्रेनिंग पूरी हो गई, खुद को धोखा दे लिया।
नीरज चोपड़ा: बिना करें बोल दिया की हाँ चलो खत्म नहीं करते, आज तो ऐसे ही लग जाएगी।
आचार्य प्रशांत: ऐसे ही लग जाएगी ट्रेनिंग, प्रिपरेशन हुई नहीं है भी टूर्नामेंट से पहले और खुद को समझा लिया नहीं मेरी प्रिपरेशन पूरी है ये जो बाकी हैं इन दो को तो पता आयेंगे नहीं, दो आउट ऑफ फॉर्म चल रहे हैं और सब कुछ बढ़िया है और मेरा पक्का।
नीरज चोपड़ा: नहीं फिर तो मुश्किल है हाँ।
आचार्य प्रशांत: आदमी खुद को धोखा देना जो बंद कर देता है और ज़िन्दगी में बहुत आगे जाता है और बहुत प्यारा जीता है और दूसरों के लिए भी वो सहारा बनता है, रौशनी बनता है
और यही मेसेज है जो पहुँचाओ हमारा। ये जो देश है जो बहुत ज़्यादा भेड़ चाल में चलने का आदी हो गया है। बहुत ज़्यादा इमोशंस को ही बिल्कुल भगवान समझने का आदि हो गया है जो, जो ढर्रा चला आ रहा है पिछले कई सालों से उसको बदलने को तैयार नहीं है। जो कुछ ओरिजिनल इनोवेटिव करने में थोड़ा डरता है।
इस देश तक ये संदेश पहुंचाओ कि 1 साफ सुथरी निडर ज़िन्दगी जी जा सकती है। 1 ऐसे फील्ड में भी एक्सेल करा जा सकता है जिसमें अभी तक हमारा कोई खास रिकॉर्ड नहीं था और एक्सेल ही नहीं करा है, एकदम एवरेस्ट पर चढ़ गये हैं दुनिया जीत के दिखाई नंबर वन हुआ जा सकता है और नंबर वन हम नहीं भी होते तो हमें कोई अफसोस नहीं होता क्योंकि हमने अपने दिल का काम किया।
नीरज चोपड़ा: जो हमारा इतिहास भी रहा है, मुझे ज़्यादा पता नहीं है लेकिन जो हमारे ग्रंथ है, जो हमको पुराने टाइम से सीखना चाहिए, जो हमारी लैंग्वेज रही है..
आचार्य प्रशांत: इंडिया के साथ मालूम है क्या हुआ है? वही हुआ है जो श्रीकृष्ण ने गीता में बताया है। तो हमारे यहाँ पर है। ये सब लोग बड़े मजे में गाया करते हैं।
कहते हैं आग दहके पर धुएँ से प्रकाश ढक सा जाता है। जब काम भरा हो काम माने डिजायर, जब काम भरा हो आँख में, तब सच नजर नहीं आता है।
तो गीता के श्लोक हैं जिसमें श्रीकृष्ण बोलते हैं की आग हो सकता है बड़ी जबरदस्त हो हिंदुस्तान के पास भी ऐसी एक बहुत जबरदस्त आग है कोर में, लेकिन उसके ऊपर जब काला धुंआ छा जाता है न तो रोशनी कहीं नजर नहीं आती।
और दूसरा वो उदाहरण देते हैं आईने का, दर्पण का। वो कहते हैं बहुत प्यारा दर्पण हो सकता है, लेकिन एक बार उसके ऊपर धूल जम गई न तो कुछ नजर नहीं आता। हमारे हिंदुस्तान के साथ ये हो गया है।
हमारी आग के ऊपर, हमारी आदतों का धुआं छा गया है। हमारे दर्पण के ऊपर, हमारे भ्रमों का, अंध-विश्वासों का, प्रथाओं, परंपराओं का, मान्यताओं का कचड़ा जम गया है, धूल जम गई है।
हम ये सब हटा दे। तो बिल्कुल हिंदुस्तान निखर के सामने आएगा। वही बात जो गीता कहती है वो आज हटाने की बहुत जरूरत है।
और उसको हटाने में तुम्हारे जैसे नौजवान है, वो बहुत उपयोगी है और वो बहुत अच्छा काम कर रहे है। जितना कर हे है उससे बहुत ज़्यादा और उन्हें करना चाहिए। फिर देखो हम कैसे निकल कर आते हैं। हम डेढ़ सौ करोड़ लोग हैं यार, डेढ़ सौ करोड़ लोग हैं। सोचो हमारे पास ओलंपिक्स में कितना होना चाहिए।
नीरज चोपड़ा: होना तो बहुत कुछ चाहिए जी, पर वह है कि हमारा जो स्पोर्टिंग कल्चर है वो नहीं था। मैंने पढ़ा था कि इतने लोग इंडिया में स्पोर्ट्स देखते नहीं हैं जिससे ज़्यादा चाइना में बैडमिंटन खेलते हैं।
आचार्य प्रशांत: भारत की अपेक्षा जो ओलंपिक्स के बाद मैंने बात कही थी। भारत की अपेक्षा चीन में लगभग सौ गुने स्टेडियम है, वो भी मल्टी- पर्पस। हमारे यहाँ तो स्टेडियम कम है, उसमें से भी ज़्यादातर बस क्रिकेट स्टेडियम है। हमारा जो स्पोर्ट्स बजट है वो करीब है 400 मिलियन डॉलर का चीन का है साढ़े 3 बिलियन डॉलर का 8 गुना हमसे ज़्यादा है। हमारी जो स्पोर्टिंग इंडस्ट्री है, वो मुश्किल से 2 3 बिलियन डॉलर की है। चीन की हमसे सौ गुना ज़्यादा है, 200 गुना ज़्यादा है क्यूंकि और उसमें सिर्फ ये नहीं आता कि स्पोर्ट्स इक्यूपमेंट वगैरह सबकुछ आता है। उसमें फिसिओ-थेरेपी भी आती है, उसमें इंफ्रास्ट्रक्चर बना दिया, उसका रेंटल भी आता है। उसमें बहुत सारी चीज़ें आती हैं।
तो हमको यह देखना पड़ेगा कि ज़िन्दगी चीज़ क्या है, उसमें जरूरी क्या है और उसमें बेखौफ हो कर के अपने आप को इन्वेस्ट करना पड़ेगा।
नीरज चोपड़ा: मुझे लगता है कि हर 1 इंडिविजुवल को यह चीज़ समझनी पड़ेगी।
आचार्य प्रशांत: और इंडिविजुअल आगे तब आता है जब उस इंडिविजुअल के ऊपर से वो जो धुआ है न, जिसकी श्रीकृष्ण गीता में बात करते हैं, जब वो धुआं हटाया जाता है, उस धुएँ को हटाने की प्रक्रिया को बोलते हैं सेल्फ ऑब्जर्वेशन, लीडिंग टू सेल्फ नॉलेज।
आदमी जब अपने ही दिल में झांक कर देखता है और ईमानदारी से खुद से पूछता है यह मैं क्या कर रहा हूँ ये मुझे किसने सिखा दिया, मैं किस दिशा में जा रहा हूँ, मैं खुद से झूठ क्यों बोल रहा हूँ मैं अपने आलस को जस्टिफाई क्यों कर रहा हूँ, मैं अपने डर को सपोर्ट क्यों कर रहा हूँ? ये सब चीज़ें जब इंसान अपने ही अन्दर देखता है तो फिर उससे वो धुआं हटता है, आईने के ऊपर से धूल हटती है और फिर चीज़ें निखर के सामने आती है।
तब जाके फिर ये जो डेढ़ सौ करोड़ लोग हैं, ये वो पाएँगे जिस जिस इज्जत की दुनिया में हकदार है। नहीं तो अभी तो मतलब वर्ल्ड चैंपियनशिप होती है एथलेटिक्स में। उसमें तुम्हारा ही मैडल रहते हैं वो देख कर के अच्छा लग जाता है। 2020 में भी तुम्हारा ही गोल्ड था अकेला, 2021 वाला जो था।
इस बार भी, बस गोल्ड रही गया सिल्वर था नहीं तो हम कहीं होते ही नहीं है वहां पर जितने हमारे टोटल मेडल होते है उससे कई गुना चीन के गोल्ड होते है।
हम निश्चित रूप से इस अपमान के हकदार तो नहीं है, इतने बुरे लोग नहीं हैं। हमारे पास एक बहुत, बहुत अच्छा विजडम का इतिहास है। हमारे पास बहुत अच्छा स्पिरिचुअल लिटरेचर है। अतीत में हमने साइंस में और दूसरे क्षेत्रों में भी बहुत अच्छा काम करा हुआ है।
तो आज की जो हमारी दुर्दशा है, हमें इसे बदलना होगा, हमें फिर से निखर के सामने आना पड़ेगा। और ये बात इसकी नहीं है बस की भारत सामने आए, भारत अगर निखर के सामने आता है तो वो बात पूरी दुनिया के लिए अच्छी होगी। लेकिन डर के साथ नहीं हो पाएगा वो काम
नीरज चोपड़ा: दूसरे टॉपिक पर बोलूँगा मुझे इतना पता नहीं है, मैं कुछ गलत ही बोलूँगा।
आचार्य प्रशांत: नहीं, नहीं, आप बोलो।
नीरज चोपड़ा: तो स्पोर्ट्स के उसमें ऐसा है कि जो हमारे युथ को एक मन में वहम हो गया है कि डोपिंग लेके हम अच्छा वो कर देंगे तो वो चीज़ काफी बढ़ रही है। वो हम जहाँ भी देख रहे हैं, कहीं भी ट्रायल होते हैं। स्टेट के तो इंजेक्शन मिलते हैं, टैबलेट्स मिलती है।
मैं अपने दिल से बोलता हूँ की मैंने कभी भी इन चीज़ों का कभी वो नहीं किया, और मैं यहाँ तक आ गया हूँ। तो 1 दिमाग ही वो है की हमको जो कोचेज हैं, जो भी मतलब ऐसा बताते हैं बच्चों को, मैं उनको रिक्वेस्ट यही करता हूँ की बच्चों को थोड़ा सही डायरेक्शन में ले जाए, क्यूंकी वो शयद से बहुत अच्छे बन सकते हैं लेकिन 1 ऐसी चीज़ है कि वो उन चीज़ों में घुस गए, वो स्टेरोयडस में घुस गए तो फिर वो नहीं आ सकते आगे, बिल्कुल भी।
तो ये चीज़ है जो इंडिया में, इंडिया के स्पोर्टिंग कल्चर में बहुत ज़्यादा आ रही है। आज के दिन और ये बहुत ज़्यादा चिंता का विषय इसलिए है क्योंकि एथलीट थोड़ा सा अच्छा होता है, 4 साल के लिए बैन लग जाता है, क्योंकि फिर उस का करियर बिल्कुल बर्बाद,
आचार्य प्रशांत: बर्बाद हो गया। देखो ये जो एथलीट होता है न नीरज, वो समाज की मिट्टी से ही उठता है। इन्हीं शहरों गाँवों से एथलीट निकल आता है। जब वो ये देखता है कि घूस देखे नौकरी लग जाती है, झूठ बोल कर के आप सोशल मीडिया पर या कहीं पर सुपरस्टार या इन्फ्लूएँ सर हो जाते हो। बहुत तरीके की गंदी हरकतें करके भी आप पॉलिटिक्स में सक्सेसफुल हो जाते हो।
जब वो लाइफ के हर फील्ड में देखता है न कि बेईमानी करके सक्सेस मिल रही है, तो फिर वो कहता है स्पोर्ट्स में भी बेमानी करके सक्सेस क्यों नहीं मिल सकती, ये चल रहा है स्पोर्ट्स में ही मिल सकती?
लेकिन उम्मीद का क्या करें। उम्मीद ऐसी चीज़ होती है जो कहती है की वो उस फील्ड में था, नकल करके एग्जाम पास करके वो ऑफिसर बन गया।
अभी तो ये हो रहा है कि यू पी एस सी में भी बेईमानी करके लोग आईएस बन जा रहे हैं। फिर वो बाद में भले पकड़े गए, पर 1 पकड़ा जाता है न, तो लोगों के मन में उम्मीद बैठ जाती है, 1 पकड़ा गया है क्या पता 5 और बने न पकड़े गए हों।
तो ये जो हमारा पूरा समाज है न, इसकी जड़ों से सफाई करनी पड़ेगी तभी हम ये डोपिंग जैसी समस्या का असली हल निकाल पाएँ गे। वरना तो ये बिल्कुल ठीक है, और जरूरी है कि हम जाके हर जगह पे बताए है कि भाई डोपिंग में मत घुस जाना, नए लड़कों को भी बताए, कोचेस को बोले। इसके अलावा जो टेस्टिंग प्रोसेस है वो इतना स्ट्रिक्ट हो की इस तरह के कोई काम कभी..
नीरज चोपड़ा: जो एथलीट थोड़े उभरते हैं, जो थोड़ा बहुत मैडल जीते हैं उनके पास एकदम कहीं न कहीं से पैसा आता है, वो फैमिली से बहुत नार्मल, साधारण परिवार से होते हैं, वो सोचते हैं कि हम गाडी ले लें, घर बना लें, ये कर लें। वो इतना ही सोचते।
तो किस तरीके से फाइनेंशियल उनको अपने आप को संभाल के रखना है ताकि वो आगे जैसे हम बात कर रहे हैं कि मैं बाकी के बारे में, बाकी चीज़ों के बारे में सोच सकता हूँ। मैं हर तरीके से अभी ठीक हूँ, मैंने इतनी मेहनत की।
तो वो क्या होता है कि एथलीट्स कमाते हैं, किसी ने गाड़ी ले लिया, अपने घर बना लिया, बहुत बड़ा और जो भी 1 2 करोड़, जो भी कहीं से आए, कुछ सभी खत्म, उसके बाद जो वही सेम डेडिकेशन है या वो कंसिस्टेंसी है वो उतनी मेंटेन नहीं कर पाते।
आचार्य प्रशांत: उतनी मेंटेन नहीं कर पाते। नीरज चोपड़ा: और उसके बाद फिर एकदम से वो वहीं पर रह जाते हैं। जहाँ पर है, उनको बहुत तकलीफ आती है क्यूंकि उनका लाइफ के बारे में सोचने का कि मुझे, गाडी, शायद और टारगेट बन जाते हैं कि यह मुझे ऐसे बनाना। अब घर वो तो बड़े हो जाते हैं, मेंटेनेंस बढ़ जाती है लेकिन मेहनत घट जाती है और वहाँ…
आचार्य प्रशांत: सिर्फ बरबादी होती हैं
नीरज चोपड़ा: तो वो काफी ऐसे…
आचार्य प्रशांत: जो मैंने बोला न, देखो जो एथलीट भी हैं, वो समाज से ही उठा है। मैं बिल्कुल इसी के पैरेलल 1 उदाहरण देता हूँ। एकदम दिखाई पड़ेगा कि चल क्या रहा है और फिर ये भी समझ में आयेगा रोके कैसे इसको ये जानते होंगे कि जो आन्त्रेप्योनरशिप होती है, स्टार्टअप होती है, लोग कंपनियां बनाते है, उसमें से 95 प्रतिशत फेल कर जाती है जी।
लोग जब कहते हैं न कि अब मैं अपना काम करूंगा, मैं अपनी कंपनी बनाऊंगा, वो 20 में से 19 कंपनियां जो है वो फेल कर जाती हैं। 3 साल के अन्दर अन्दर ठीक है, वो क्यों फेल कर जाती है। जानते हो? बिल्कुल उसी वजह से जिस वजह की तुमने बात करी।
इसलिए नहीं कि उनकी रिवेन्यू माने इनकम बहुत कम थी, इसलिए क्योंकि जिसने बनाया था, उसने फूंकना शुरू कर दिया और जैसा तुमने कहा न कि अपने खर्चे बढ़ा लेते हैं। उसने अपना कॉस्ट स्ट्रक्चर, इतना बड़ा कर लिया कि कह रहा है कि अब जितनी बड़ी मेरी, मेरा कैश बर्न हो गया है, जितना बड़ा मेरा कॉस्ट स्ट्रक्चर हो गया है, उतना तो रेवेन्यु आई, नहीं रहा।
तो कहता है इसका मतलब मेरी जो कंपनी है, वो फ्लॉप हो गई। मेरे काम के लिए बंद कर दो, जबकि कंपनी फ्लॉप नहीं हुई है, कंपनी फेल नहीं हुई है, कंपनी में रेवेन्यू आ रहा है। लेकिन आपने अपनी उम्मीदें इतनी बड़ी कर ली है, आपने खर्चे इतने अपने बढ़ा लिए हैं। कई बार फंडिंग की मनी से, दूसरे माने कर्जे के पैसे से, आपने अपना इतना बढ़ा लिया है कि अब आपको लग रहा है कि जो आ रहा है वो बहुत कम है।
तो ले दे के इन दोनों मामलों में तुम्हें सिमिलारिटी क्या दिख रही है। सिमिलारिटी यह दिख रही है कि इंसान को थोड़ी सी सक्सेस मिली और उसने उस थोड़ी सी सक्सेस को यूज कर लिया अपनी सारी हसरतें पूरी करने के लिए।
जब तक इंसान सोचेगा कि लाइफ में सक्सेस का काम ही यह यह कि मैं उसको कंज्यूम करूँगा, अपनी कामनाएँ अपनी हसरतें पूरी करूंगा, तब तक वो बर्बाद होता ही रहेगा। कंपनी भी बंद होती रहेगी। और जो स्पोर्टपर्सन हैं, एथलीट है, चाहे वो पॉलिटिशियन है, चाहे वो कोई भी है, चाहे वो साइंटिस्ट है, कोई भी है, वो पायेगा की, वो भी परास्त हो रहा है और ज़िन्दगी में हार रहा है।
तो ये कब नहीं होता हैं। यह तब होता है जब आदमी कहता है कि मैं मेहनत इसलिए नहीं कर रहा है की पैसा आ जाए और मैं जल्दी ही उसको भोग के घर बना लूं गाड़ी खड़ी कर लो। मैं मेहनत इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मेरे कोई काम जो है न, दिल आ गया है, दिल आ गया है। अब दिल आ गया मतलब ये कि इतनी आसानी से सक्सेस नहीं भी मिल रही है। मैंने कंपनी खड़ी करी है, बहुत ज़्यादा, उसे पैसा नहीं भी रहा तो भी मैं उसमें लगा रहूँगा।
क्योंकि मैं काम कर ही इसलिए नहीं रहा हूँ की उसमे से बहुत पैसा आये, काम कर रहा हूँ काम के लिए और काम करने में बिल्कुल मजा आ रहा है तो मैं करने जा रहा हूँ।
हर वो आदमी जो चाहे स्पोर्ट्स में हो, चाहे लाइफ में, किसी भी फील्ड में हो, पॉलिटिक्स में होगा तो वो जाकर धांधली करेगा, वो आर्ट्स में होगा तो अपनी आर्ट्स पे कॉम्प्रोमाइज कर देगा। वो अपनी साइंस में होगा तो अपनी साइंस बेच देगा। वो अगर एजुकेशन में होगा तो अपने स्टैंडर्स को डायल्यूट कर देगा।
र वो आदमी जो कहता है कि मैं काम कर रहा हूँ ताकि इस काम से मुझे पैसा मिल जाए। फिर मैं उस पैसे से मौज करूँगा। ये आदमी औंधे मुंह गिरने के लिए खुद को तैयार कर रहा है। यह काम कभी भी नहीं करना है।
हमें बहुत गलती गलत पट्टी पढ़ा दी गई है। हमें बताया गया है की पढाई इस लिए कर रहे है की प्लेसमेंट लग जाए। स्पोर्ट्स में इसलिए जा रहे हो कि तुम एक दिन सेलिब्रिटी बन जाओ। कुछ और इसलिए कर रहे हो कि उसमें भी तुम्हें एक दिन कंजम्शन का भोगने का मौका मिल जाएगा। यह बहुत गलत बात है।
आप वो करो जो करने में आपको मौज है। मैं नही कह रहा, भूखे मरो बिल्कुल कमाओ अपने लिए 1 बेसिक फाइनेंशियल सिक्योरिटी तैयार करो। लेकिन काम को कंजमशन का मुहताज मत बनाओ। यह मत कह दो की पैसा आ रहा है और पैसा आ रहा है खाना पीना शुरू कितने सारे, हमने तो स्पोर्ट्स पर्सन को बर्बाद होते देखा है। शुरू में 1 2 साल सक्सेस मिली। उसके बाद सक्सेस यहाँ खोपड़े पर चढ़ गई और उसके बाद वो बर्बाद हो गए। यह चीज़ हमने कितने ही फील्ड में कितनों के साथ देखी है।
स्टूडेंट्स तैयारी कर रहे होते हैं एँट्रेंस एग्जाम वगैरह की। वो। पहले 6 महीने में उनके पेपर अच्छे चले गए और उनको जहाँ भी तैयारी कर रहे थे, उनको बताए गए तुम्हारा बहुत अच्छा चल रहा है और पता चलता है इसका तो 2 2 साल तक कहीं सलेक्शन नहीं हो रहा क्योंकि वो बस उसी में खुश हो गया, उसको बता दिया, सब हो रहा। उसने आगे पार्टी करनी शुरू कर दी।
नीरज चोपड़ा: इतना अपने आप को इतना वो रखो, चाहे, ऊँचे से ऊँचे लेवल पहुँच जाए। फिर भी हमको ये लगना चाहिए कि यार बहुत कुछ बाकी है।
आचार्य प्रशांत: बहुत कुछ बाकी है।
नीरज चोपड़ा: अब मैं ओलंपिक मैडल के बाद काफी लोगो को ऐसा लगा था कि हो गया बस, बस हो चुका है अभी, लेकिन वो मुझे लगा था कि वो तो शुरुआत हो। अभी तो और मैं क्या कर सकता हूँ। अभी तो थ्रो और बढ़ानी है। और किस तरीके से मैं अपने आप को निखार सकता हूँ, किस तरीके से कम्पीट कर सकता हूँ। तो वो तो शुरुआत हुई थी अगर, मैं वहाँ पर सोच हो गया है, यहाँ पर, नहीं बैठा होता जी में आज।
आचार्य प्रशांत: इसको गीता ऐसे बोलती है कि जब काम दिल से निकलता है न, दिल से, वहाँ पर बात चलती है, बोध, अंडरस्टैंडिंग, आत्म-ज्ञान। मैं उसको दिल बोल रहा हूँ। काम जब दिल से निकलता है तो उसका अंजाम क्या होगा, इसकी परवाह बहुत कम हो जाती है।
क्योंकि दिली काम कर रहे हैं न अब अंजाम परिणाम फिक्र ही नहीं है, फुरसत नहीं है सच पूछो तो। फुरसत नहीं है कि कौन समय लगाये और कौन परेशान हो की अब, आगे क्या हो।
नीरज चोपड़ा: आज टाइम आयेगा…
आचार्य प्रशांत: जब होगा तो देखा जाएगा। देखेंगे क्या हो गया।
नीरज चोपड़ा: बहुत अच्छी रही जी। और वैसे भी तो हम बैठे हैं कैमरा के सामने, वैसे भी अगर हमको कभी ऐसे बात करनी होगी
आचार्य प्रशांत: ज़िन्दगी के जितने भी मुद्दे होते हैं, चाहे वो सोशल लाइफ के हो किसी भी लाइफ में, तो उस पर बातचीत करने के लिए हमेशा स्वागत है तुम्हारा, हमेशा।
नीरज चोपड़ा: थैंक्यू जी