प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। आचार्य जी, एक वेदांती होने के नाते आप लेफ़्टिस्ट (वामपंथ) और राइटिस्ट (दक्षिणपंथ) विचारधारा में से किस विचारधारा को ज़्यादा सही मानते हैं?
आचार्य प्रशांत: जब वेदांत है, तो लेफ़्ट-राइट की क्यों बात करें? क्यों तुम्हें जानना है कि ये ज़्यादा सही है कि वो ज़्यादा सही है? माने चुनना कुछ और ही है। हम बात केंद्र की करते हैं न? केंद्र माने सेंटर, आत्मा माने केंद्र। बस बात खत्म।
वामपंथ अगर समानता की बात करता है, सामाजिक न्याय की बात करता है तो समानता शरीर में तो हो नहीं सकती, मन में भी नहीं हो सकती, परिस्थितियों में नहीं हो सकती और कुछ भी समान नहीं हो सकता; एक ही चीज़ समान हो सकती है — आत्मा। जितनी भी विचारधाराएँ हों उनका जो सच होता है, वो तो वेदांत में है न? और जो विचारधारा जितना अपने आप को सच मानेगी, उतना वो कट्टर होती जाएगी और सच से दूर होती जाएगी। समझ में आ रही है बात?
प्रश्न ही विचित्र है। ऐसी सी बात है कि शिखर के अनुसार कौन-सी घाटी बेहतर है। अरे, जब तुम शिखर को जानते ही हो तो घाटियों की बात क्यों करनी है? कोई घाटी एक दृष्टि से बेहतर होगी, कोई दूसरी दृष्टि से बेहतर होगी। किसी एक समय पर कोई एक विचारधारा ज़्यादा उपयोगी हो सकती है, किसी दूसरे समय पर दूसरी। पर एक चीज़ है जो समय से मुक्त है, समयातीत है, सनातन सत्य है, तुम उसके साथ रहोगे न? या कुछ होना ही है? घाटी एक, घाटी दो, कुछ चुनना ही है? कोई मजबूरी है?
वामपंथ, दक्षिणपंथ ठप्पा क्यों लगवाना है? तुम किसी पंथ के लिए थोड़े ही पैदा हुए हो, तुम मुक्ति के लिए पैदा हुए हो। या एक और पहचान बनानी है अपनी कि मैं फ़लाने पंथ का हूँ? ‘मैं ये पंथी हूँ, मैं वो पंथी हूँ।’ वेदांत क्या बोलता है, ‘सारी पहचानों से?’
प्रश्नकर्ता: मुक्ति।
आचार्य प्रशांत: और आप पूछ रहे हो, ‘वेदांत के अनुसार कौन-सी पहचान बेहतर है?’ ये ऐसी सी बात है कि चिकित्सक के अनुसार कौनसा रोग बेहतर है। बताएँ भई डॉक्टर लोग (श्रोताओं से कहते हुए), ‘कौनसा रोग चुनना चाहिए?’ अगर चिकित्सक से पूछोगे तो वो कहेगा, ‘स्वास्थ्य चुनना चाहिए, रोग काहे को चुन रहे हो?’ चिकित्सा का तो अर्थ होता है सब रोगों से मुक्ति।
सच के पारखी बनो, विचारधारा के अनुयायी नहीं कि हम फ़लानी विचारधारा पर चलते हैं।
हम सच पर चलते हैं, कभी-कभार सच किसी विचारधारा से सांयोगिक रूप से मेल खा सकता है, होता है ऐसा। पर कोई भी विचारधारा चूँकि सत्य पर अनिवार्यत: आश्रित नहीं होती इसीलिए अगर वो कुछ समय तक, कुछ दूरी तक सत्य के साथ चलती प्रतीत भी हो, तो जल्दी ही पाओगे कि वो विचारधारा फिर अपने ही अनुसार चलने लगी है और सच को उसने छोड़ दिया है।
तो हमें विचारधाराओं से क्या लेना-देना है। हाँ, ज्ञान सब विचारधाराओं का होना चाहिए, बहुत अच्छी बात है। उससे इतिहास की धारा का पता चलता है, आज आदमी का मन जिस-जिस तरीके से संस्कारित है, कैसे पहुँचे हम उन संस्कारों तक, उसका पता चलता है। तो ज्ञान सबका होना चाहिए, लेकिन किसी भी विचारधारा का अनुयायी नहीं बनना है। मूल प्रश्न भूलना थोड़े ही है। मूल प्रश्न है, ‘मैं कौन हूँ और मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है?’
कोई भी विचारधारा आपको सीमित ही करेगी। और जो सीमित हो गया, वो बेचैन हो गया। असीम होना नियति है। कभी पाया है कि एक विचारधारा के लोग दूसरी, विपरीत विचारधारा की अच्छाइयों की भी तारीफ़ कर दें? वो अनिवार्यत: एक-दूसरे की खोट ही निकालते रहते हैं। ये क्या है, ये बंधन है न? ये आपके ऊपर अब एक अनिवार्यतः थोप दी गई है, एक शर्त बाँध दी गई है। क्या? कि जो सामने वाला है, उसकी निंदा करो-ही-करो। तो हर विचारधारा लिमिटेशन होती है, सीमा होती है। वो आपको खुलकर सोचने नहीं देती, देखने नहीं देती, जीने नहीं देती; जैसे आप खूँटे से बँध गए और अध्यात्म है मुक्ति के लिए।
‘मैं इस रंग का खूँटा चुनूँ कि उस रंग का खूँटा चुनूँ, मैं इस रंग की बेड़ियाँ चुनूँ या उस रंग के बंधन चुनूँ, मुक्ति तो गई न?’ तो मुक्ति की क्यों तुमको भेंट, कुर्बानी करनी है? क्या आवश्यकता है? सम-द्रष्टा रहो, ज्ञान सबका रहे, पर ठप्पा कोई न रहे। कोई वामपंथ पर बात करना चाहे, करो न। कोई दक्षिणपंथ पर चर्चा करना चाहे, उस चर्चा में भी शामिल हो जाओ। खुले मन से शामिल हो जाओ। किसी चर्चा में तुम खुले मन से शामिल भी कैसे हो पाओगे अगर तुमने कोई ठप्पा लगा रखा है अपने ऊपर, कैसे हो पाओगे?
कल हम झुन्नूलाल की बातें कर रहे थे तो उसमें हमने लेनिन, स्टालिन, त्रोत्सकी सब पर बातें कर डाली । हम खुलकर बात कर पा रहे हैं क्योंकि वहाँ हमारा कुछ दाँव पर नहीं लगा हुआ है। समझ में आ रही है बात?
बहुत जल्दी से अपनेआप को किसी भी चीज़ से बाँध मत लिया करो। ये सब आवत-जावत चीज़ें हैं, इतनी विचारधाराएँ आईं, चली गईं। इतनी तरह की राजनीतियाँ आईं, चली गईं। इस पृथ्वी पर इतने तरीकों के नक्शे खींचे, क्या हुआ उन लकीरों का? और वो लकीरें आज भी बनती-बिगड़ती रहती हैं, लगातार बन-बिगड़ रही हैं।
इन चीज़ों से बहुत जल्दी तादात्मय नहीं बैठा लेना चाहिए। विचारधारा भी जिस स्रोत से निकलती है, जैसे-जैसे आगे बहती जाती है वो भी बदलती जाती है।
फ्रायड के शिष्य थे, ये सब युंग वगैरह। वो पहले तो उनके शिष्य रहे, उनकी बात सुन रहे हैं। फिर आगे चलकर उन्होंने कहा, ‘नहीं, फ्रायड ने जो कुछ बोला है, उसमें कुछ गड़बड़ है, हम कुछ नई बात बोलेंगे।’ लो एक चीज़ निकली है साइकोएनालिसिस (मनोविश्लेषण), वो आगे बढ़ती गई और बदलती गई।
कितना तुम अपनेआप को बाँधोगे किसी चीज़ से, कैसे कर लोगे? दम घुट जाएगा। किसी भी ‘इज़्म’ से, ‘वाद’ से, ‘पंथ’ से अपनेआप को मत बाँधो।
जब किसी से बँधे नहीं होते तो सबको जानने के लिए स्वतंत्र हो जाते हो, कितनी अच्छी बात है। ‘मैं स्वतंत्र हूँ, सबको जानने के लिए, मैं किसी का शत्रु नहीं और मैं किसी से आसक्त या बद्ध भी नहीं। दुनिया के सब ग्रंथ मेरे हैं, मैं सबको पढ़ सकता हूँ। दुनिया के किसी भी विचारक, चिंतक, लेखक से मेरी कोई दुश्मनी नहीं, मैं सबको जान सकता हूँ। मैं जैसे मार्क्स को पढ़ सकता हूँ, वैसे ही कींस को भी पढ़ सकता हूँ, एडम स्मिथ को भी वैसे ही पढ़ लूँगा मैं।’
और तुम कह दो, ‘नहीं, ये सब तो बेवकूफ़ थे क्योंकि मैं तो मार्क्सिस्ट हूँ।’ तो फिर? और आमतौर पर धर्म के क्षेत्र में आप पाओगे कि जो अपनेआप को हिंदू बोले, उसे अन्य मतों के ग्रंथों का कुछ नहीं पता होता है; वो पढ़ेगा ही नहीं। बोलेगा, ‘छी-छी, ये तो गंदे ग्रंथ हैं, मैं इन्हें क्यों पढ़ूँ?’ वो इन्हें ग्रंथ भी नहीं मानेगा, वो दूसरे मतों की किताबों को अपशब्द और बोल देगा, जलाएगा।
अरे भई, श्रद्धा के नाते नहीं तो सामान्य ज्ञान के नाते ही पढ़ लो। किसी किताब का असर अगर करोड़ों-अरबों लोगों पर हुआ है तो क्या तुम एक साधारण उत्सुकता के नाते भी जानना नहीं चाहते कि उस किताब में क्या लिखा हुआ है। या ये कह दोगे कि इस किताब को छूना पाप हो गया या कुफ़्र हो गया।
और दिमाग में तुम्हारी अपनी किताब से ज़्यादा दूसरों की ही किताब घूमती रहती हैं। क्योंकि अपनी किताब से तुम्हें कोई लेना-देना नहीं, पढ़ी नहीं। दूसरों की किताब को गाली देने का तुम्हारा बड़ा मन रहता है, तो दूसरों की किताब नाच रही है दिमाग में। चलो दूसरों की किताब नाच रही दिमाग में तो एक बार पढ़ भी लो उसको। पढ़ेंगे भी नहीं, बस गाली देंगे?
पढ़नी न अपनी है न पढ़नी किसी और की है, क्योंकि पढ़े तो हम कभी भी नहीं, नहीं तो हाई-स्कूल फ़ेल काहे होते? ज़्यादातर ये जो गाली-गलौज कार्यक्रम चलता है, ये अनपढ़ों द्वारा ही चलता है और आज-कल तो विशेष रूप से। जो जितना होगा, वो उतना कूद-कूदकर के मीडिया, सोशल मीडिया पर शोर मचा रहा होगा, ट्रोलिंग कर रहा होगा, ये वो।
उदारमना बनिए।
आत्मस्थ होने का अर्थ होता है, ‘मुझे अब किसी से कोई खतरा नहीं।’ आत्मा परम सुरक्षा है, ‘मुझे अब किसी से क्या खतरा, मैं किसी से क्यों डरूँ।’ विशेषकर ज्ञान से मुझे कैसे कोई खतरा हो सकता है, मैं सब जान सकता हूँ, मैं सब समझ सकता हूँ।
‘आप किसी दूर दूसरे देश में रहते हैं, आप किसी और मत के अनुयायी हैं, आपकी पूजा पद्धति दूसरी है, आपकी विश्वास पद्धती दूसरी है; आप आइए बैठिए, मुझे बताइए आपके यहाँ पर लोग कैसे पूजा करते हैं, मुझे बताइए आपका दर्शन क्या है? मुझे बताइए आपके विश्वास क्या हैं? मैं सब सुन सकता हूँ, मुझे डर नहीं है कि मैं आपकी बात सुनूँगा तो कहीं मैं विधर्मी न हो जाऊँ।’
‘नहीं, मैं विधर्मी नहीं हो जाऊँगा भई, मैं आत्मस्थ हूँ।’ और जो आत्मस्थ होता है उसे किसी बात से कोई खतरा नहीं होता, ‘मैं सब जानूँगा।’ मैं हिंदू हूँ, लेकिन मैं बैठ सकता हूँ मुसलमान के साथ। और मैं उसके साथ बैठकर घंटों तक दीन (धर्म) की चर्चा कर सकता हूँ, कोई खतरा नहीं हो गया, कोई बुराई नहीं हो गई। और ऐसा हुआ है अतीत में, बहुत हुआ है।
हमें तो बस ये बताया जाता है कि बहसें होती थीं, लड़ाइयाँ होती थीं या शास्त्रार्थ बता दिए गए। नहीं, ऐसा ही नहीं होता था, प्रेम से भरे संवाद भी होते थे। और जब प्रेम से भरे संवाद होते हैं तो मन को एक खुलापन मिलता है। जो कुछ आप नहीं देख पा रहे होते, नहीं समझ पा रहे होते उस पर भी फिर आप नज़र डाल पाते हैं।
‘मैं ये ही नारा नहीं लगाता रहूँगा कि मेरी ही संस्कृति श्रेष्ठ है, मेरी ही विचारधारा उत्तम है। मैं जाऊँगा, दूसरे लोगों से बात करूँगा, दूसरी जगहों की यात्राएँ करूँगा। उनके तौर-तरीकों को, रिवाज़ों को, विचारों को समझूँगा और जहाँ जो श्रेष्ठ लगे उसे अपनाने में भी मुझे कोई हिचक नहीं है, क्योंकि मैं आत्मस्थ हूँ।’
‘मुझे क्या खतरा।’
और अपनाते तो हम हैं ही। कैसे नहीं अपनाते? हम यहाँ बैठे हुए हैं, कितनी ही बातें इसी ऑडिटोरियम (सभागार) में ऐसी हैं जो हमने अपनाई ही हैं गैर भारतीयों से। नहीं अपनाई है? भारत में तो श्रुति परंपरा थी, ये कागज़ ही कहाँ से आया? आप सब लिख रहे हो, कागज़ कहाँ से आया? हमारे यहाँ तो ओरल ट्रांसमिशन (मौखिक संचरण) होता था नॉलेज़ (ज्ञान) का। कागज़ कहाँ से आया? बताओ। अपनाते नहीं तो कहाँ से पाते?
कैमरे का आविष्कार भारत में हुआ? माइक का भारत में हुआ? चश्मे का भारत में हुआ? अधिकांशत: जो मेडिकल साइंस (चिकित्सा विज्ञान) है, जो आपकी प्राण रक्षा करती है, उसका भारत में हुआ (आविष्कार)?
इसी तरह से पश्चिम ने भी और अरब ने भी हमसे बहुत कुछ लिया है जो उनके यहाँ आविष्कृत नहीं हुआ था। शून्य से लेकर अलजेब्रा (बीजगणित) तक सब उन्होंने भारत से ली है न? तो ये होता है जब परस्पर संवाद होता है। कुछ तुम्हारे पास श्रेष्ठ है उसे हम ग्रहण करेंगे, कुछ हमारे पास अच्छा उसे तुम ग्रहण करो।
अभी आप बाहर गए, थोड़ा जलपान किया। आपने जो जलपान किया उसमें ही काफ़ी कुछ ऐसा है जो बहुत अच्छा है, उत्तम है लेकिन हमने कहीं से अपनाया है, तो उसमें क्या बुराई हो गई? भारत से भी विश्व बहुत कुछ लेता रहा है, तो उसमें क्या बुराई हो गई। जहाँ जो अच्छा मिले लेते चलो। आत्मा तो ऊँचाई के प्रेम का दूसरा नाम है। और ऊँचाइयाँ किसी एक काल, देश, स्थान, सीमा, विचार में बाँधी नहीं जा सकती ।
समझ में आ रही है बात ये?
जिसने वेदांत को समझा है, अगर उसमें आप संकीर्णता पाएँ तो जान लीजिएगा — इसने कुछ नहीं समझा है। वेदांत चूँकि निडर बनाता है आपको, इसीलिए आपको खुला बनाता है। जो डर जाता है, वो बंद हो जाता है। जब तूफ़ान आता है, तो अपने खिड़की-दरवाज़ें क्या कर लेते हैं? बंद कर लेते हैं। जो डरेगा, वो बंद हो जाएगा। और जिसमें निडरता आ जाती है वो प्रस्तुत हो जाता है, वो उत्सुक हो जाता है।
वो कहता है, ‘बताओ, कहाँ क्या है? मुझे देखना है, जानना है, अनुभव करना है। और मुझे कोई खतरा नहीं कि कोई भी अनुभव मेरी जड़ों को हिला देगा। क्योंकि मेरी जड़ें किसी विचारधारा में नहीं हैं, मेरी जड़ें सत्य में हैं — कोई विचारधारा मुझे हिला नहीं सकती। तो मैं सब विचारधाराओं के लिए उपलब्ध हूँ — मैं ये भी पढ़ूँगा, मैं वो भी जानूँगा। कोई मार्ग मेरे लिए वर्जित नहीं है, कोई विचार मेरे लिए अस्पृश्य नहीं है।
दुनिया भर में एक विचित्र संकीर्णता का दौर चल रहा है। बचिएगा, दीवारें खींची जा रही हैं।
अरे, अध्यात्म है सब दीवारों को गिराने के लिए। असीम का क्या अर्थ होता है? सत्य के लिए हम कहते हैं असीम। तो ये सीमा, वो बंधन, ये विभाजन, ऐसे थोड़े ही जीना है।
और विभाजन तो हम इस कदर करते हैं कि ये नहीं कि मुसलमान का ईसाई से ही है या यहूदी और मुसलमान लड़ रहे हैं इज़राइल में, गज़ा में। विभाजन हम इस कदर करते हैं कि एक ही पंथ के भीतर भी दस प्रकार के विभाजन होते हैं। ये कौनसा अध्यात्म है? कहीं सुन्नी, शिया, अहमदिया बैठे हुए हैं, कहीं वैष्णव, शैव, शाक्त बैठे हैं। अभी हाल में आपने देखा नहीं, ‘तुम शैव हो, तुम्हारा क्या करना है यहाँ पर? हम तो राम मार्गी हैं, रामानंदी हैं, वैष्णव हैं।’ शिव को भी राम से विभाजित कर दिया।
अहंकार को विभाजन बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि अहंकार कैसा होता है? छोटा, क्षुद्र, झुन्नूलाल। उसको जितनी सीमाएँ दे दोगे, उन सीमाओं को वो बंधन नहीं मानता, उन सीमाओं को वो सुरक्षा मानता है। कई बार होता है, जानते हो जब अपराधियों को लगता है गैंगस्टर्स को कि जो उनका विरोधी गैंग है, वो उन्हें मार-मूर देगा, तो वो जेल चले जाते हैं। जान-बूझकर जेल चले जाते हैं। बताओ, क्यों? क्योंकि कैद में सुरक्षा है। ये अहंकार है — ज़बरदस्त अपराधी।
ये कैद को कैद नहीं मानता, कैद को सुरक्षा मानता है और सुरक्षा इसे मिल भी जाती है। कहता है, ‘यहाँ कैदी भले हो हम, पर कम-से-कम सुरक्षित हैं।’ तो उसे सीमाएँ चाहिए, छोटी-छोटी सीमाएँ चाहिए। ‘और छोटी सीमा दो और छोटी सीमा दो।’
और बड़ा हाॅल भी हो अगर तो वहाँ भी खतरा है न, क्योंकि बड़ा हाॅल होगा तो उसमें पंद्रह-बीस होंगे कैदी। क्या पता उनमें से कोई हमें मार दे? तो और छोटा करो और विभाजन करो और छोटा करो, एकदम सिंगल सेल (एकल जेल) में डाल दो हमको, सॉलिटरी कंफ़ाइनमेंट (एकांत कारावास) दे दो हमें। वहाँ पर कैद भले ही घनी है पर खतरा न्यूनतम है क्योंकि और कोई है नहीं — काटो, छोटा करो, छोटा करो। अहंकार विभाजन माँगता है।
वेदांत अहंकार को मुक्त करने का विज्ञान है।
आप वेदांती हो उसके बाद भी आप उस विचारधारा वालों को बुरा मानते हो, उस धर्म, उस पंथ वालों को पराया मानते हो, तो आप कौनसे वेदांती हो, क्या गीता पढ़ी है आपने? गीता तो एक ही धर्म बताती है न स्वधर्म। या गीता पचास तरह के धर्म बताती है? तो आपने पचास धर्म कैसे खड़े कर लिए? बोलकर कि मेरा धर्म ये, उसका धर्म ये, उसका धर्म ये, उसका धर्म ये, उसका धर्म ये, उसका धर्म ये।
भाई दो ही तरह के लोग होते हैं दुनिया में — स्वधर्मी और परधर्मी, पचास तो धर्म होते भी नहीं। या फिर श्रीकृष्ण शायद कुछ गलत बोल रहे हों। जब दो ही तरह के धर्म होते हैं, तो आप पचास धर्म, सत्तर मार्ग और डेढ़-सौ विचारधाराएँ कहाँ से ले आते हो? बताओ।
जो स्वधर्मी है उसको नमन करना है, उसका आश्रय लेना है, उसकी संगति की प्रार्थना करनी है और जो परधर्मी है, उसको राह दिखानी है, उस पर करुणा बरसानी है। बस यही धर्म है। या ये है कि परधर्मी को बोल दो, ‘ये तो विधर्मी है, इसकी गर्दन काट दो।’ और स्वधर्म माने क्या होता है कि जो मैंने ठप्पा लगा रखा है अपने धर्म का, वही ठप्पा जिसने लगा रखा हो, वो स्वधर्मी हो गया? कि हिंदू का हिंदू है स्वधर्मी और मुसलमान का मुसलमान है स्वधर्मी और बौद्ध का बौद्ध है स्वधर्मी। क्या स्वधर्म की ये परिभाषा है?
जो सत्य से ऊपर किसी और को न रखे, उसे स्वधर्मी कहते हैं।
दुनिया में जो भी इंसान, चाहे वो जिस देश में हो, जिस जगह पर हो, जिस रंग का हो, अमीर हो, गरीब हो, किसी लिंग का हो, बच्चा हो, बूढ़ा हो, पुरुष हो, नारी हो, जो भी व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है वो स्वधर्मी है। बात खत्म। अब उस पर ठप्पा क्या लगा हुआ है, उससे हमें क्या लेना-देना। ठप्पे तो बहुत तरीके के होते हैं, पर जिस किसी को सच्चाई से प्यार है, वो स्वधर्मी है। और जिसको अभी दुर्भाग्यवश सच्चाई से प्यार नहीं है, मैं कोशिश करूँगा कि वो सत्य की ओर आए। परधर्मी से भी मुझे कोई घृणा थोड़े ही रखनी है। करुणा फिर किसलिए है? अगर घृणा रखनी है, तो करुणा का क्या मतलब है फिर? तो कट्टरता, क्षुद्रता, संकीर्णता, ये अपने भीतर मत आने दीजिएगा, ये गीता का अपमान होगा।
समझ में आ रही है बात?
और ये तो बिलकुल मत करिएगा कि नारेबाज़ी वगैरह कर रहे हैं आप और कह रहे हैं कि मैं तो गीता जानता हूँ, आचार्य प्रशांत के साथ मैंने उपनिषद् पढ़ें और गीता पढ़ी, तो अब मैं और घोर कट्टर हो गया हूँ। ये नहीं होना चाहिए।
निडर हो जाइए, सत्य में स्थापित हो जाइए, आकाश जैसे उन्मुक्त हो जाइए, सबके लिए उपलब्ध हो जाइए।
मज़ा नहीं आ रहा सुनने में? कुछ हुड़दंग करना है? उसमें ज़्यादा मज़ा आता है आप लोगों को।
दुनिया में जितने ऊँचे लोग हुए हैं, उनमें से बहुतों में आप पाएँगे कि वो मात्र अपने धर्म के ज्ञाता नहीं थे, वो सब धर्मों के ज्ञाता थे। रामकृष्ण परमहंस तो बाकायदा कुछ-कुछ समय के लिए सब धर्मों के अनुयायी ही बने, क्योंकि निडर थे। बोले, ‘मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता।’ सरमद का नाम सुना है आपने? वो यहूदी घर में पैदा हुए और उसके बाद उस समय पर जितने मत उपलब्ध थे, उन्होंने न सिर्फ़ सबका अध्ययन किया बल्कि पालन भी किया। औरंगज़ेब ने गर्दन कटवा दी सरमद की।
विनोबा भावे हैं, उनके भाष्य, उनकी व्याख्याएँ आपको सिर्फ़ हिंदू ग्रंथों पर नहीं मिलेंगी। उन्होंने कहा, ‘सबकुछ पढ़ूँगा, क्यों न पढ़ूँ?’ और आप निकट आ जाइए तो यही बात जिद्दू कृष्णमूर्ति साहब पर लागू होती है। उन्होंने कभी प्रत्यक्ष रूप से किसी भी ग्रंथ पर बात नहीं की, पर उनकी शिक्षा-दीक्षा जब हुई थी तो उन्हें सबकुछ पढ़ाया गया था।
विवेकानंद जब अमेरिका में थे और इंग्लैंड में थे, तो लगातार ईसाइयों से ही तो बात कर रहे थे न? ईसाइयत के बारे में विवेकानंद ईसाइयों से ज़्यादा जानते थे। गहरा अध्ययन है उनका और सब समझते थे, तब जाकर के वो हार्दिक बातचीत कर पाते थे। आज के समय के और निकट आ जाइए। ओशो, उन्होंने क्या बस एक धारा और एक मत पर बात की?
जब वृक्ष की जड़ें मज़बूत होती हैं न, तो वो तूफ़ानों में भी मस्त झूमता है। वो कहता है, ‘बढ़िया तूफ़ान आया है।’ मस्त झूम रहा है क्योंकि उसकी जड़ें ऐसी मज़बूत है कि तूफ़ान क्या, भूकंप न हिला पाए। वेदांत उन जड़ों का नाम है। और यही कमज़ोर सा हो वो पौधा, तो साधारण सी भी हवा चले तो उसको लगता है, ‘आज तो जान गई।’ तो फिर उस पौधे को चारों तरफ़ बाड़ वगैरह लगाकर के बड़ी सुरक्षा देनी पड़ती है।
ज़रा-ज़रा से कमज़ोर पौधे होते हैं उनको तो एक ज़रा सी बकरी आकर चट कर जाए। और विशाल वट होते हैं, तो जो लोग रहे हैं गाँव वगैरह की तरफ़, देखा होगा उन्होंने साॅंड भी आ जाता है तो साॅंड अपनी पीठ पर खुजली करता है पेड़ से रगड़-रगड़कर, तने से। और जैसे पेड़ को भी उसमें आनंद है, या पेड़ कहता है कि हाय-हाय! मर गया, इतना भारी साॅंड।
अब वो सात-सौ किलो का है साॅंड कम-से-कम। और वो पूरी जान से क्या कर रहा है? अपनी पीठ रगड़ रहा है तने से। वृक्ष का कुछ नहीं जा रहा, वृक्ष कह रहा, ‘करो, तुम रगड़ो, हम झूम रहे हैं।’ और वहीं कमज़ोर सा कोई है मरियल, उसको बकरी से भी खतरा है। तो कमज़ोर, मरियल मत बनिए कि बकरी दिखी और बोले, ‘हाय-हाय।’
अगर गीता को सुना है और कृष्ण को गुना है तो भीतर एक अटूट विश्वास आना चाहिए न?