प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। आचार्य जी, मेरी दिली तमन्ना थी कि मैं एक स्टैंडअप कॉमिक बनूँ, क्योंकि मुझे लोगों को हँसाना बहुत पसंद है। मैंने एक-दो आपके वीडियोज़ देखे थे, उसमें एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री (मनोरंजन उद्योग) जो है उसको लेकर आपका व्यू (दृष्टिकोण) उतना मुझे पॉज़िटिव (सकारात्मक) नहीं लगा, जो कि नहीं ही है, तो मैं इसमें थोड़ा स्पष्टीकरण चाहता हूँ। क्योंकि इस वजह से मैं थोड़ा द्वेष में आ चुका हूँ कि ये फ़ील्ड (क्षेत्र) मुझे आगे पर्स्यू (लक्ष्य करना) करनी भी चाहिए या नहीं। फिर और भी जीवन को लेकर प्रश्न खड़े हो गए।
आचार्य प्रशांत: अच्छा, किसी भी इंसान के साथ कौन-सी चीज़ है जो उसके काम की होती है?
प्रश्नकर्ता: मेरे खयाल से उसका शरीर और दिमाग।
आचार्य प्रशांत: आप अभी बहुत नए हो।
प्रश्नकर्ता: हाँ।
आचार्य प्रशांत: ये जितने भी सत्र हो रहे हैं, हम चाहे गीता की बात करें, लाओत्ज़ू हैं, है न? सब हमारे शुभ चिंतकों ने हमें कौन-सी चीज़ देनी चाही है?
प्रश्नकर्ता: मुक्ति।
आचार्य प्रशांत: मुक्ति, ठीक लिबरेशन।
प्रश्नकर्ता: लिबरेशन। हाँ, फ़्रीडम (आज़ादी)।
आचार्य प्रशांत: आप दूसरे को जो कुछ भी दे रहे हैं, उसको किस कसौटी पर जाँचा जाए? मैंने आपको एक किताब दी तोहफ़े में, वो किताब आपके लिए अच्छी है या बुरी है, इसका निर्धारण कैसे करें?
प्रश्नकर्ता: उसको पढ़कर, और उसमें अगर कुछ फ़ायदा है, तो उसको अपने जीवन में अपनाकर।
आचार्य प्रशांत: उस फ़ायदे का क्या नाम है? अभी आपने ही बोला था। एक ही फ़ायदा है, जो किसी को दिया जा सकता है। और एक ही फ़ायदा है, जो अपने आप को भी दिया जा सकता है। क्या नाम है उसका?
प्रश्नकर्ता: मुक्ति।
आचार्य प्रशांत: तो वो मुक्ति कोई कॉन्सेप्ट थोड़े ही है कि आप उसको एक जवाब की तरह बता रहे हो, पर जब उसका एप्लीकेशन (उपयोग) आ रहा है तो आप कुछ और बोल रहे हो, नहीं। उसको हमें ईमानदारी से स्वीकार करना है कि एक इंसान जो दूसरे के लिए अच्छी-से-अच्छी चीज़ दे सकता है उसका नाम है लिबरेशन फ़्रॉम बॉडेजेज़ (बंधनों से मुक्ति)। क्योंकि हम सब बंधन में फँसे हुए लोग हैं। तमाम तरीके के पिंजड़ों में फँसे हुए लोग हैं न हम? बाहर भी पिंजड़ा, भीतर भी पिंजड़ा, है न? तो मैंने आपको कोई किताब दी, वो आपके लिए अच्छी है या बुरी, इसका फ़ैसला आप कैसे करोगे?
प्रश्नकर्ता: स्वयं अवलोकन करके।
आचार्य प्रशांत: (ठहाका मारते हुए) कॉमिक (हास्यकार) तो आप हो। इतनी देर से मैं पूछ रहा हूँ कि कुछ भी किसी के लिए अच्छा कैसे होता है, तो आप उसमें क्या बोल देते हो?
मुक्ति।
प्रश्नकर्ता: हाँ।
आचार्य प्रशांत: तो मैं आपसे पूछ रहा हूँ, ‘किताब अच्छी कब होगी?’ तो क्या बोलोगे?
प्रश्नकर्ता: मुक्ति मिली कि नहीं, वो बात।
आचार्य प्रशांत: हाँ। तो मैं आपको कोई किताब दूँ, तो उसको आप इसी आधार पर परखोगे न? उसका टच स्टोन (कसौटी) उसका, लिटमस टेस्ट यही होगा न कि उस किताब को पढ़कर लिबरेशन मिल रहा है, फ़्रीडम मिल रही है या बंधन, बॉन्डेजेज़ और ज़्यादा सख्त हो रहे हैं। है न?
प्रश्नकर्ता: ठीक है।
आचार्य प्रशांत: तो किताब अच्छी है या बुरी — फिर से बोलिए — किस आधार पर हम देखेंगे?
प्रश्नकर्ता: मुक्ति के।
आचार्य प्रशांत: ठीक है। आप कहीं घूमने गए, वो अच्छा है या बुरा किस आधार पर देखें?
प्रश्नकर्ता: एक्सपीरियंस (अनुभव)।
आचार्य प्रशांत: एक ही चीज़ है जो किसी भी बात को अच्छा या बुरा बनाती है, क्या?
प्रश्नकर्ता: उससे आप मुक्त हो रहे हो कि नहीं।
आचार्य प्रशांत: मुक्ति, राइट लिबरेशन (सम्यक मुक्ति)। लिबरेशन फ़्रॉम बॉन्डेजेज़। क्योंकि हम परेशान लोग हैं। हम सबके भीतर तनाव बैठा हुआ है, अज्ञान बैठा हुआ है, बहुत तरह की व्यर्थ बातें बैठी हुई हैं। हमें उससे फ़्रीडम चाहिए। यही मुक्ति है, यही लिबरेशन है। है न?
प्रश्नकर्ता: जी।
आचार्य प्रशांत: तो आप कहीं घूमने गए। आपकी यात्रा सफल रही या नहीं रही, कैसे पता करेंगे?
प्रश्नकर्ता: उसको पाकर।
आचार्य प्रशांत: किस आधार पर मैं कहूँ कि मेरी यात्रा सफल रही या नहीं रही?
प्रश्नकर्ता: मुझे वो मंज़िल मिली कि नहीं।
आचार्य प्रशांत: एक ही मंज़िल है पाने लायक। क्या बोलते हैं उसको?
प्रश्नकर्ता: लिबरेशन।
आचार्य प्रशांत: लिबरेशन, ठीक है। तो किताब अच्छी है बुरी है, कैसे तय हुआ?
प्रश्नकर्ता: वही जो...।
आचार्य प्रशांत: डज़ इट लिबरेट मी फ़्रॉम माय इनर बॉन्डेजेज़ (क्या ये मुझे मेरे आंतरिक बंधनों से मुक्त करती है)? ठीक है?
प्रश्नकर्ता: हाँ।
आचार्य प्रशांत: तो मेरी यात्रा भी अच्छी है या बुरी है, कैसे तय होगा?
प्रश्नकर्ता: मैं लिबरेट (मुक्त) हुआ कि नहीं।
आचार्य प्रशांत: भीतर जो मेरे कचरा भरा हुआ था वो इस ज़र्नी (यात्रा) के बाद कुछ हटा कि नहीं हटा। अगर हटा, तो फिर मेरी यात्रा सफल कहलाएगी। ठीक?
प्रश्नकर्ता: जी।
आचार्य प्रशांत: आपकी ज़िंदगी में कोई आता है। आप उसके साथ एक शाम बिताते हैं। ठीक है? आपको कैसे परखना चाहिए कि आपने जो दो-चार घंटे बिताए वो सफल थे या नहीं? सफल, उपयोगी जो भी कहिए, थे कि नहीं।
प्रश्नकर्ता: उससे कुछ काम की बात या कुछ और।
आचार्य प्रशांत: एक मात्र काम की बात कौन-सी होती है?
प्रश्नकर्ता: लिबरेशन की।
आचार्य प्रशांत: लिबरेशन। तो किसी इंसान के साथ दो-चार घंटे बिताए, तो वो दो-चार घंटे वैल स्पेंट (अच्छे बीते) थे या बर्बाद गए, ये कैसे पता करेंगे?
प्रश्नकर्ता: उस क्षण में मुक्त हुए कि नहीं।
आचार्य: उस व्यक्ति के साथ रहकर मेंटल क्लटर (मानसिक कचरा) हटा या नहीं हटा। यही तो फ़्रीडम है — फ़्रीडम फ़्रॉम द मेंटल गार्बेज़ (मानसिक कचरे से मुक्ति)।
प्रश्नकर्ता: जी।
आचार्य प्रशांत: है न? तो किसी भी चीज़ को गुड या बैड, सफल या असफल, उपयोगी-अनुपयोगी सिर्फ़ एक आधार पर बोला जा सकता है। किस आधार पर?
प्रश्नकर्ता: कि वो चीज़ आपको मुक्ति की ओर लेकर गई कि नहीं।
आचार्य: तो एंटरटेनमेंट (मनोरंजन) भी किस आधार पर अच्छा होगा या बुरा होगा?
प्रश्नकर्ता: उसने आपको मुक्त किया कि नहीं।
आचार्य प्रशांत: क्लटर (कचरा) बढ़ा दिया या क्लटर साफ़ किया। क्योंकि मुक्ति बोलते तो बहुत लोग डर जाते हैं कि कोई बहुत भारी आध्यात्मिक, मिस्टिकल (रहस्यमय) सी बात हो रही है। तो यही समझ लो फ़्रीडम फ़्रॉम क्लटर (कचरे से आज़ादी)। सबके यहाँ क्लटर है न? हेज़ (धुंध) है एक, गंदगी, कोहरा है न, एक फ़ालतू की चीज़ जमा है, वही तो हटाना है। वही विज़डम (प्रज्ञता) है। तो एंटरटेनमेंट भी कौन-सा अच्छा है?
प्रश्नकर्ता: जो दिमाग से गंदगी को हटाए।
आचार्य प्रशांत: और अगर एंटरटेनमेंट गंदगी बढ़ाए, तो कैसा है?
प्रश्नकर्ता: बुरा।
आचार्य: समझ में आ रही बात अब कुछ? ठीक है?
कॉमेडी भी कौन-सी अच्छी है?
प्रश्नकर्ता: जो लोगों को साफ़ करे।
आचार्य प्रशांत: और अगर स्टैंडअप कॉमेडी सफ़ाई की जगह दिमाग को और ज़्यादा कूड़े-कचड़े से भर दे, तो अच्छी है कि बुरी है?
प्रश्नकर्ता: खराब।
आचार्य प्रशांत: तो क्या मैं पर से (अपने आप में) कॉमेडी और एंटरटेनमेंट के खिलाफ़ हूँ?
प्रश्नकर्ता: नहीं।
आचार्य प्रशांत: मैं किसके खिलाफ़ हूँ?
प्रश्नकर्ता: गंदगी के।
आचार्य: गंदगी के। अगर ऐसी कॉमेडी हो सके जो क्लटर साफ़ करती हो और क्लेरिटी (स्पष्टता) देती हो, तो मैं उस कॉमेडी का समर्थन करूँगा कि नहीं?
प्रश्नकर्ता: बिल्कुल करोगे।
आचार्य प्रशांत: तो आप ऐसी कॉमेडी करो न जो क्लेरिटी देती हो, और हमें ऐसी कॉमेडी की बहुत सख्त ज़रूरत है। हम चाहते हैं कि लोग हँसें और अपनी बेवकूफ़ियों पर हँसें। यही तो है कटिंग योर ओन इनर क्लटर (आपनी आंतरिक गंदगी साफ़ करना)। हम सचमुच चाहते हैं कि लोगों को अपनी मूर्खताओं पर, अपने प्रिज़ुडिसेस (पूर्वाग्रहों) पर हँसना आए।
हम जिन चीज़ों को ज़िंदगी बना बैठे हों, दो कौड़ी की होती है बहुत बार। पर हम उनको सीरियसली (गंभीरता से) लेते हैं। जो इतने सीरियस (गंभीर) लोग हैं, हम चाहते हैं वो हँसे। पर उसकी जगह अगर हम उनको इधर-उधर की ऐसी ही सस्ती बातों पर हँसा रहे हैं, तो मेरे हिसाब से उस हँसी की कोई कीमत नहीं है। वो हँसी बल्कि एक डिस्ट्रेक्शन (भटकाव) है। वो हँसी एक सुविधाजनक बहाना बन जाती है अपनी ज़िंदगी को वैसे ही चलने देने का जैसे वो चल रही है मरी-गिरी हालत में अभी।
तो कॉमेडी, एंटरटेनमेंट, ये सब बहुत अच्छी चीज़ें हैं यदि ये मुझे आईना दिखा सकें तो। पर उतनी हिम्मत और उतनी काबिलियत बहुत कम एंटरटेनर्स (मनोरंजन करने वालों) में होती है, कुछ में होती है।
आप अगर कॉमिक्स (हास्य कहानियाॅं) को देखेंगे, एंटरटेनर्स को देखेंगे तो उनमें बहुत ऐसे हुए हैं, जिनको सुनने के बाद सिर्फ़ आपका सस्ता मनोरंजन नहीं होता मेंटल अपलिफ़्टमेंट (मानसिक उत्थान) हो जाता है एक तरह से बिना आपको पता लगे। आप सोचते हो मैं तो सिर्फ़ हँसा हूँ। आप सिर्फ़ हँसे नहीं हो, आप हल्के हो गए हो उसको सुनकर। ऐसी कॉमेडी करो न।
प्रश्नकर्ता: ओके (ठीक है)। गुरु जी, कोई आप बता दो।
आचार्य प्रशांत: गुरु जी-गुरु जी नहीं?
प्रश्नकर्ता: हाँ, सॉरी।
आचार्य प्रशांत: ये कॉमेडी थी एक और, एक और जोक था अभी। हाँ, गुरु जी।
प्रश्नकर्ता: नहीं, नहीं। अभी तो मैंने आप ही को मानकर रखा है।
आचार्य प्रशांत: क्या बता दूँ?
प्रश्नकर्ता: वो उनके एग्ज़ांपल (उदहारण) दे दीजिए।
आचार्य प्रशांत: क्या करोगे एग्ज़ांपल का? नकल करोगे?
प्रश्नकर्ता: उनसे कुछ सीखना है।
आचार्य प्रशांत: सीखने के लिए ये है। ये, ये (मेज़ पर रखे ग्रंथ की ओर संकेत करते हुए)। इनसे जो सीखा न आज के सत्र से। आज लाओत्ज़ु से जो सीखा — ठीक है — इसी को जाकर के लोगों की भाषा में, लोगों के संदर्भ में, इन द लैंग्वेज़ एंड कांटेक्सट् ऑफ़़ द पीपल (लोगों की भाषा और संदर्भ में) बता दो। उससे बढ़िया कॉमेडी नहीं होगी। और ऐसा नहीं होगा कि शॉ (कार्यक्रम) खाली चला जाएगा, बहुत लोगों को मज़ा भी आएगा और बहुत उनका फ़ायदा भी होगा।
किसी और कॉमिक को कॉपी (नकल) करने की ज़रूरत नहीं है, न उससे कुछ कहो कि मुझे इंस्पिरेशन (प्रेरणा) लेनी है। इंस्पिरेशन यहाँ से लो। जो कॉमेडियन गीता पढ़ता हो, जो कॉमेडियन उपनिषद् पढ़ता है, जो कॉमेडियन विज़डम लिटरेचर (बोध साहित्य) पढ़कर आ रहा है, वो कॉमेडियन लोगों को हँसा-हँसाकर मार देगा। लिखिए इसको, ‘मुझे ऐसा कॉमेडियन चाहिए, जो लोगों को हँसा-हँसाकर मार दे।’ क्या करे? हँसा-हँसाकर मार दे।
प्रश्नकर्ता: डीप (गहरी) बात बोल गए।
आचार्य प्रशांत: अरे, जैसे पहले की बातें ऐसी हल्की थी, उथली थी? पर मज़ा आ रहा है न? हँस रहे हो न आप?
प्रश्नकर्ता: जी हाँ।
आचार्य प्रशांत: तो कॉमेडी हुई न अभी? आप किस बात पर हँसे, उथली बात पर या डीप बात पर?
प्रश्नकर्ता: बहुत डीप है, बहुत डीप है।
आचार्य प्रशांत: डीप बात पर मज़ा आया कि नहीं आया?
प्रश्नकर्ता: बहुत ज़्यादा मज़ा आया।
आचार्य प्रशांत: तो डीप बात भी कॉमेडी कर सकती है। देखो, डीप बात पर कैसा हँसे मज़े में। और डेप्थ (गहराई) में जो कॉमेडी होती है, वो तो बेमिसाल होती है बिलकुल।
आचार्य प्रशांत: गहराई में जाओ तो वहाँ जितनी विसंगतियाँ हैं, कंट्राडिक्शंस हैं, वो सब पता चलते हैं। और हँसी आपको जब भी आएगी, मालूम है किसी कंट्राडिक्शन पर ही आएगी। जहाँ कुछ ऐसा होगा, जो होना नहीं चाहिए पर है।
प्रश्नकर्ता: हाँ।
आचार्य प्रशांत: मैं आपसे बोलूँ, ‘एक आदमी गधे पर बैठकर जा रहा है।’ आप हँसोगे? थोड़ा-बहुत हँसोगे। क्योंकि इतनी ही विसंगति कार पर जाना चाहिए था, गधे पर जा रहा है। अब एक गधा आदमी पर बैठकर जा रहा था। (प्रश्नकर्ता हँसते हैं) ये देखो हँस पड़े। क्यों हँस पड़े? बोलो-बोलो, जल्दी बोलो।
कॉमेडियन आप हो कि मैं हूँ? क्योंकि कुछ ऐसा हो रहा है, जो होना?
प्रश्नकर्ता: नहीं चाहिए।
आचार्य प्रशांत: नहीं चाहिए। और हमारी ज़िंदगी में तो लगातार वही सबकुछ हो रहा है जो होना नहीं चाहिए। आप लोगों को हमारी ज़िंदगी का ही आईना दिखा दो न। हम सब अपने गधों को अपनी पीठ पर बैठाकर चल रहे हैं। इतनी जोर की हँसी आएगी कि मज़ा आ जाएगा।
कुछ ऐसा है जो बेमेल है, विसंगत है, एब्सर्ड है और हमारी ज़िंदगियाँ एब्सर्डिटी (मूर्खता) का ही एक एंडलेस नैरेटिव (अंतहीन कहानी) हैं। ये एब्सर्डिटी दिखाओ न लोगों को, खूब हँसेंगे। ऐसा एंटरटेनमेंट किसी काम का नहीं जो सिर्फ़ एक एस्केप (पलायन) मात्र है। लोग कहते हैं, बहुत शान से कहते हैं कि पीपल वाच माय मूवीज़ ऑर वाच माय शोज़ एंड दिस वे दे गेट टू एस्केप अवे फ़्रॉम द हार्श रियलिटीज़ ऑफ़ देयर लाइफ़ एटलीस्ट फ़ॉर थ्री आवर्स (लोग मेरी फ़िल्म या शो देखते हैं और वे अपनी ज़िंदगी की कड़वी सच्चाई से दूर हो जाते हैं कम-से-कम तीन घंटे के लिए)।
दिस इज़ बुलशिट; दे डोंट नीड एन एस्केप, दे नीड हीलिंग; गिव अस आर्ट दैट हील्स, नॉट आर्ट दैट पुशेज़ अस डीपर इनटू इलूज़ंस (ये बकवास है; उन्हें दूर हटने की ज़रूरत नहीं, उन्हें उपचार चाहिए; हमें उपचार की कला दो, न कि वो कला जो हमें भ्रांतियों की और गहराई में ले जाए)। समझ में आ रही है बात?
द बेस्ट आर्टिस्ट्स आर मैसेंज़र्स ऑफ़ ट्रुथ, दे हील (सबसे अच्छे कलाकार वो हैं जो सच्चाई के वाहक हैं, वो उपचार करते हैं)। और जितना ज़िंदगी में गहरे जाते जाओगे एब्सर्डिटीज़ (मूर्खता) देख-देखकर हँसते-हँसते लोटपोट हो जाओगे। इतना हँसोगे, इतना हँसोगे कि साहब मर जाओगे।
प्रश्नकर्ता: गिर पड़ोगे।
आचार्य प्रशांत: न, मर जाओगे। ये जो मर जाना है न, इंटरनल रिलीफ़ फ़्रॉम वनसेल्फ़ (स्वयं से आंतरिक राहत)। यही एब्सोल्यूट फ़्रीडम (पूर्ण आज़ादी) होती है, भीतर से खाली हो जाना। क्योंकि भीतर जो था वो कचरा था। इसी को क्लासिकल सेंस (शास्त्रीय ) में कह देते हैं, ‘एन इंटरनल डिपार्चर, एन इंटरनल रिलीफ़ फ़्रॉम वनसेल्फ़।’ और कॉमेडी ये काम बखूबी कर सकती है।
लोगों को अगर डाँटकर के उनकी हकीकत बताओगे तो विरोध करेंगे। लोगों को हँसा-हँसाकर उनकी हकीकत बताओ, वो विरोध नहीं करेंगे। वास्तव में सत्य को लोगों तक ले जाने का सबसे अच्छा ज़रिया तो हास्य ही है। सत्य को गंभीरता के साथ जब भी पेश किया जाता है, लोग उसका विरोध करते हैं। क्योंकि सत्य तो चुभता है न। तो चुभती हुई चीज़ ज़रा चाशनी में डुबोकर के परोसी जाए तो फिर भी चलेगा।
तो हास्य की चाशनी में सीधा सच लोगों तक लेकर जाइए। आप फिर सिर्फ़ एक आर्टिस्ट (कलाकार) ही नहीं होंगे, आप एक सच्चे आर्टिस्ट होंगे। यू विल बी अ सोल्ज़र ऑफ़ ट्रुथ (आप सत्य के सैनिक होंगे)। और ऐसा आर्टिस्ट जिसकी कला में सच नहीं है, बिकाऊ है? वो क्या कर रहा है? बस, ऐसे ही हँसा रहा है लोगों को। क्या कर रहा है? सस्ते चुटकुले, ‘संता ने बंता से कहा।’ इसमें क्या रखा है? लोग हँस भी दिए तो क्या हो गया? ये ऐसी सी बात है कि आप लोगों को एनाल्ज़ेसिक (दर्दनिवारक) पर रख रहे हो।
किसी को कैंसर है, उसका उपचार करने की जगह आप उसको पैन किलर (दर्द निवाक) दे रहे हो। कोई आ रहा है कि मैं डिप्रेशन में हूँ, उसको लाफ़िंग गैस (हँसाने वाली गैस) सुँघा दी, तो हँसने तो लग गया पर क्या उसका डिप्रेशन दूर हो गया? तो कॉमेडियन होने का मतलब या कॉमिक होने का मतलब लाफ़िंग गैस मर्चेंट (व्यापारी) मत बन जाइएगा। कि मैं जाता हूँ और अपनी ऑडिएंसेस (श्रोता) पर लाफ़िंग गैस छोड़ देता हूँ, खूब हँसते हैं।
हँसने से क्या हो गया? उनकी ज़िंदगी तो नहीं बदली, उनका दुख तो नहीं गया, उनकी बॉन्डेजेज़ तो वैसी-की-वैसी हैं। एंड इफ़ यू से दैट यू कैन नॉट चैलेंज़ देयर बॉन्डेजेज़, देन यू आर नॉट अ कॉमिक, यू आर अ सिनिक (और अगर आप कहते हैं कि आप उनके बंधनों को चुनौती नहीं दे सकते, तो आप हास्यकारक नहीं हैं, आप मानवद्वेषी हैं)। ये तो डीप पेसिमिज़्म (गहरा निराशावाद) हो गया न, कि मैं अपनी ऑडियंस की बॉन्डेज़ तो चैलेंज़ (चुनौती) कर ही नहीं सकता तो मैं चलो बस उनको हँसा देता हूँ।
ये तो बहुत सस्ता तरीका हो गया।
आ रही है बात समझ में?
हँसाइए, खूब हँसाइए। सच्चाई और ईमानदारी के क्षेत्र में हँसी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। वजह बताई मैंने कि सच्चाई तो देखो चुभती है और कड़वी लगती है, उसको अगर थोड़ा सा मज़ाक के साथ, थोड़ा हास्य के साथ, थोड़ा हल्केपन के साथ परोसा जाए तो वो ज़्यादा स्वीकार्य हो जाती है, मोर एक्सेप्टेबल हो जाती है।
अब आप एक बहुत ज़बरदस्त संगम पर खड़े हुए हो। आपके एक तरफ़ मासेज़ (लोग) हैं जिन तक आप अपनी कॉमेडी ले आना चाहते हो और दूसरी तरफ़ आपने अब मेरे साथ हाथ थाम लिया है गीता का और लाओत्ज़ू का और उपनिषदों का। आप एक बहुत ज़बरदस्त स्थिति पर हो अभी। आप पुल की तरह काम कर सकते हो। आप गीता को लोगों तक ले जा सकते हो हँसा-हँसाकर, क्योंकि गंभीरता से तो बहुत गुरुओं ने गीता पढ़ाई लोगों को, बहुत काम बना नहीं। ऊँची-से-ऊँची बातें जनता तक ले जाने का आप बहुत बढ़िया काम कर सकते हो, लेकिन वो तभी हो पाएगा जब पहले आप समझो ये सबकुछ। और जितना आप इसको समझते जाओगे, उतना ये आपकी कला में भी फिर अभिव्यक्त होता जाएगा।
कुछ जम रही है बात?
प्रश्नकर्ता: पहले खुद डॉक्टर बनें, उसके बाद दूसरों का उपचार करें।
आचार्य प्रशांत: साथ-साथ करते चलो, क्योंकि ये डॉक्टरी ऐसी है जो कभी पूरी नहीं होती। तो जितना समझो उतना लोगों तक ले जाते जाओ, और भीतर एक ललक रहे कि और समझना है और समझाना है, हँसा-हँसाकर समझाना है। पंछी को हँसा-हँसाकर पिंजड़े से आज़ाद करना है। कैदी को हँसा-हँसाकर उससे जेल तुड़वा देनी है।
आया मज़ा?
प्रश्नकर्ता: बहुत ज़्यादा।
आचार्य प्रशांत: जितने भी आध्यात्मिक लोग होते हैं न, द सेज़िस, द वाइज़ वंस, उनके भीतर हर समय चुटकुले ही फूट रहे होते हैं। बस ये है कि वो ज़रूरी नहीं है कि शक्ल से भी हँसे। उनको मज़ा-ही-मज़ा आ रहा होता है दुनिया को देखकर। खूब हँसते हैं, क्योंकि दुनिया एब्सर्ड है और एब्सर्डिटी देखोगे तो मज़ा आएगा कि नहीं?
एक आदमी गधे को पीठ पर रखकर दौड़ लगा रहा है, हँसी आएगी कि नहीं आएगी? दुनिया ऐसी ही है, हर आदमी ने गधों को पीठ पर डाल रखा है। वाइज वंस आर इन स्टेट ऑफ़ कंटिन्यूअस इनर एम्यूज़मेंट, ब्रिंग दैट टू द ऑडियंसेज़ (आध्यात्मिक लोग लगातार आंतरिक विनोद में रहते हैं, श्रोताओं तक वो पहुँचाइए)।
प्रश्नकर्ता: गुरु जी, आपको तो हँसी आती होगी, लेकिन मैं जब रोडों पर निकलता हूँ या बाहर निकलता हूँ तो लोगों का पागलपन देखकर बहुत ज़्यादा गुस्सा ही आता है। मुझे तो हँसी, हाँ, वो बाद में फिर रिफ़्लेक्ट (विचारना) करो तो आ सकती है, लेकिन उस समय तो गुस्सा ही आता है।
आचार्य प्रशांत: गुस्सा अगर करना है, तो फिर सैनिक बन जाओ।
प्रश्नकर्ता: कोई फ़ुटपाथ में कार चलाते हुए देख लिया।
आचार्य प्रशांत: मैं दूसरे सैनिक की बात कर रहा हूँ।
प्रश्नकर्ता: हाँ।
आचार्य प्रशांत: इस गुस्से को अगर सकारात्मक रूप से इस्तेमाल करना है, तो इसे चैनेलाइज़ (परिवर्तित) करो। इस गुस्से को चुटकुला बना दो। कौन कहता है कि चुटकुलों में तलवार की धार नहीं हो सकती? कौन कहता है कि जोक्स (चुटकुले) बुलेट की तरह वार नहीं कर सकते? तो गुस्से में आकर के चीखोगे, चिल्लाओगे या मुँह बनाओगे, फ़्राउन करोगे, त्योरियाँ चड़ाओगे तो कोई नहीं सुनेगा तुम्हारी। इसी गुस्से को जोक्स बना लो। फ़ायर द जोक्स (चुटकुलों से वार करिए)।
प्रश्नकर्ता: जी, धन्यवाद गुरु जी।