खाना कौन बनाए: महिला या पुरुष?

Acharya Prashant

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खाना कौन बनाए: महिला या पुरुष?
खाना कौन बनाए, यह बाद की बात है। असली मुद्दा यह है कि भोजन ज़िंदगी में इतना महत्वपूर्ण कैसे हो गया? जब जीवन में कोई ऊँचा लक्ष्य नहीं होता, जिसे खुलकर और डूबकर जिया जा सके, तो उसकी भरपाई हम जबान के स्वाद से करने लगते हैं। जिसके जीवन में ऊँचा उद्देश्य होता है, वे मसालों और घंटों लंबी रेसिपीज़ में समय नहीं गंवाते, बल्कि वे अपने जीवन को विज्ञान, कला, साहित्य, राजनीति और खेल से भरकर जीवन को स्वादिष्ट बनाते हैं। इसलिए ज़िंदगी को एक अच्छा, ऊँचा उद्देश्य दो और अपने हर पल का हिसाब रखो! यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। आचार्य जी, मेरा प्रश्न गृहिणियों के बारे में है। आम घर में कहा जाता है कि गृहिणी अगर खाना बनाए तो वो अच्छा होता है। तमाम कारण हैं। मुख्यतः ऐसे बोलते हैं कि वह बनाती है तो प्रेम से बनाती है, और प्रेम से बना खाना उसमें मेमोरी एंड वो खाएँगें तो सेहत अच्छी रहती है, परवरिश अच्छी होती है।

आचार्य प्रशांत: क्या मेमोरी...

प्रश्नकर्ता: खाने में मेमोरी होती है, प्रेम की एंड ल दैट...

दूसरा, गृहिणी के हाथ से खाना बनेगा तो उसमें प्राण ऊर्जा होती है, तो खाना पौष्टिक रहता है। तो तमाम तर्क दिए जाते हैं कि खाना घर की गृहिणी ही बनाए।

आचार्य प्रशांत: खाना कौन बनाए, यह बात की बात है। पहला मुद्दा तो यह है कि खाना ज़िन्दगी में इतनी बड़ी चीज़ होनी क्यों चाहिए? चाहे महिला बनाए, चाहे पुरुष बनाए, यह इतनी बड़ी चीज़ कैसे हो गई? उसमें जो लिंग आधारित भेदभाव वगैरह का मुद्दा है, वह बाद में आता है। सबसे पहले यह कि कोई भी व्यक्ति खाने को इतना क्यों महत्व दे रहा है कि उसके लिए रसोई में इतने सारे घंटे अनिवार्य हो जाते हैं?

यह तो आप बहुत अच्छे से जानते हैं कि जो सबसे ज़्यादा पौष्टिक खाना होता है, वह वह होता है, जिसको बनाने में सबसे कम समय लगता है। सबसे पौष्टिक खाना वह होता है, जो सबसे कम समय में बनाया गया होता है। मैं मैगी की बात नहीं कर रहा हूँ। यह पता है ना?

नहीं, मैं यह भी नहीं कह रहा हूँ कि सिर्फ़ फल काट के खा लो। साधारण खाना बहुत समय नहीं लेता है। आपने कई तरह की सब्ज़ियाँ ले ली हैं, उसमें आपको कई तरह के मिनरल्स मिल जाएँगे जितने भी आपके वाइटल इंग्रेडिएंट्स होते हैं, सब उसमें मौजूद होंगे। उनको आप ले रहे हैं, उनको सॉटे कर लिया, उनको आप खा रहे हैं, इसमें तो बहुत समय नहीं लगता है।

तो पहली बात तो यह है कि ज़िन्दगी में खाना नहीं है समस्या, समस्या है लज़ीज़ खाना। खाना नहीं समस्या है, और बहुत ज़्यादा चटपटे खाने की, ज़ायकेदार खाने की, स्वादिष्ट खाने की माँग। आप पाएँगे... थोड़ा आप परख के देखिएगा अपने अनुभव से। मेरी बात पर यकीन करने की ज़रूरत नहीं है, आप पाएँगे कि उन लोगों में ही होती है, जिनके पास जीवन में कोई और आनंद होता नहीं।

जब जीवन में कोई आप अच्छा लक्ष्य नहीं बनाएँगे, आपके पास कुछ ऐसा होगा नहीं, जिसके लिए खुलकर जिया जा सके, जिसके लिए डूबकर जिया जा सके, जिसकी खातिर आप सब कुछ भुला दें, तो जीवन में फिर कोई जॉय भी नहीं होता, कोई आनंद भी नहीं होता।

मनहूस सी ज़िन्दगी है, एकदम रूटीन आप कोई जॉब कर रहे हैं और पिछले बीस साल से आप वही काम कर रहे हैं, वही आपकी प्रोफाइल है, कलम घिस रहे हैं, थोड़ी बहुत घूस खा रहे हैं, एक ही जगह पर आप बैठा करते हैं। तो जीवन में कोई स्वाद है नहीं आपके। जब जीवन में स्वाद नहीं होता ना, तो उसकी भरपाई हम जबान के स्वाद से करना चाहते हैं। यही वह लोग होंगे जो और ज़्यादा चटपटा माँगेंगे।

"चटपटा कुछ लाओ ना, ताकि कुछ तो उत्तेजना, कुछ थ्रिल, कुछ आए ज़िन्दगी में।" जीवन में कोई रोमांच नहीं, कोई संघर्ष नहीं, कोई खतरा तो उठा नहीं रहे। जब जीवन में कोई रोमांच होता है ना, तो रोमांच ही करा देता, "बाप रे बाप!" अब वो तो है नहीं, तो फिर कह रहे, "मसाला और मिर्च डालो ना, ताकि कुछ तो लगे भीतर कि आग है!"

जिनके ज़िन्दगी में असली आग होती है, वो मिर्च वाली आग नहीं माँगते फिर। कि "मिर्च वाली आग दे दो, फिर फ्लश से उसको बुझाएगें।" हमारी ज़िन्दगी में आग है क्या? नहीं है। हमारी ज़िन्दगी में स्वाद है क्या? नहीं है। फिर सौ तरह के मसाले और यह लंबी-लंबी रेसिपीज़, छह-छह घंटे चल रही हैं। कई तो ऐसी हैं, दो-दो दिन चलती हैं। "फलानी चीज़ भिगो करके दो दिन तक रख दीजिए।" उसे मैं खा रहा हूँ या वह मुझे खा रहा है?

जिनके पास जीवन में, फिर पूछ रहा हूँ, कोई सही पर्पस, कोई समुचित उद्देश्य होगा वह यह कारनामा अंजाम दे कैसे पाएँगे कि "फलानी चीज़ भिगो करके दो दिन तक रख दीजिए, उसके बाद जब वह गोल्डन ब्राउन होने लगे और उसमें से छोटे-छोटे अंकुर फूटने लगे, साढ़े तीन (३.५) मिलीमीटर के, अब तब उसको लेकर के..."

मेरे लिए यह बड़े हैरत की बात रहती है, रेसिपी पढ़ना। यह लंबी... और उसमें, अभी विधि की बात नहीं कर रहा मैं, मैं इंग्रेडिएंट्स की बात कर रहा हूँ। वह ऐसी-ऐसी चीज़ें वहाँ लिखी होती हैं आमतौर पर मुझे भरोसा रहता है अपने शब्दकोश पर, हिंदी में, अंग्रेजी की वोकैबुलरी पर। वहाँ जो जो लिखा रहता है, मैं कहता हूँ, यह देखो, यह प्रमाण है कि एलियंस हैं, क्योंकि इस तरह की चीज़ें मेरी पृथ्वी पर तो मुझे लगता नहीं कि होती हैं। ये कौन लोग हैं? बिल्कुल ही ज़मीन की भाषा में जिनको बोले—नल्ले। जिनके पास इतना समय है कि ये बना रहे हैं!

मैंने देखा, वह करेला लेकर के पहले करेले का पेट फाड़ा, फिर उसमें न जाने क्या भरा, और जो भरा, वह बनाने में भी चार घंटा लगाया था। उसके बाद वहाँ पर सिलने का कार्यक्रम शुरू हुआ। ये इन दो विभागों का अद्भुत संगम मैंने पहली बार देखा — दर्जीगिरी और बावर्चीगिरी एक साथ! वह सुई-धागा लेकर के सब्जी सिल रही थी। क्यों? तुम्हारे पास कुछ नहीं है ज़िन्दगी में करने को? विज्ञान, कला, साहित्य, राजनीति, खेल—कुछ नहीं है? दर्शन, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान — कुछ भी नहीं है तुम्हारे पास? तुम ये करोगे? करेला सिलने के लिए पैदा हुए हो? करेला भी रो रहा होगा अपनी मौत को, जैसे पोस्टमार्टम के बाद सिला जाता है!

क्यों? क्यों करना है ये? इतनी लंबी-चौड़ी, इतनी टाइम-इंटेंसिव रेसिपीज़ चाहिए क्यों? अरे, "बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद!" हमसे पूछो खाने में लज़्ज़त, साहब! "बावर्ची के हाथ का हुनर! भाई हम नहीं जानते यह हुनर, न हमें जानना है, और ये काम करने के लिए अगर किसी इंसान की ज़िन्दगी लग रही है, तब तो हमें बिल्कुल नहीं जानना है! क्योंकि हम नहीं समझते कि इंसान इसलिए पैदा हुआ है कि वह करेला सिले! चार तरह की दालें मिलाओ, और उनके ऊपर चावल की एक तह बिछाओ, उसके ऊपर आधे भुने हुए आलू रखो, एक तह, और उसके ऊपर दो दिन भिगोया हुआ राजमा बिछाओ, उसके ऊपर कुछ और... और इसको छह घंटे तक पकाओ!

अरे, मेरी ज़िन्दगी के छह घंटों की कोई कीमत है कि नहीं? मैं स्त्री हूँ, पुरुष हूँ, वह बाद में बात आती है। मैं इंसान हूँ! मेरी ज़िन्दगी के छह घंटे यह करने के लिए? और अभी मैंने यह तो इसमें कहा ही नहीं कि ज़्यादातर जो ये लंबी-लंबी रेसिपीज़ होती हैं, इनमें जानवरों का मांस शामिल होता है। हमने इन्हीं रेसिपीज़ की खातिर, पिछले पचास साल में ही दुनिया की पचहत्तर प्रतिशत (७५%) वाइल्डलाइफ साफ कर दी! आप जितना अनुमान भी नहीं लगा सकते, उतने जानवर रोज़ काटे जाते हैं। उनकी संख्या अरब में है करोड़ों में नहीं, अरब में है! जितने जानवर रोज़ मारे जाते हैं, इन्हीं रेसिपीज़ की खातिर, अरबों में हैं! "तू चिकन नहीं खाता, तुझे नहीं लगता कुछ मिस कर रहा लाइफ़ में?"

लाइफ़ इज़ ए वेरी वास्ट स्पेक्ट्रम, माय फ्रेंड! चिकन से लाइफ़ नहीं बनती है! तुझे लाइफ़ पता ही नहीं है, इसीलिए तू लाइफ़ में चिकन घुसेड़ रहा है! ज़िन्दगी क्या होती है और ज़िन्दगी कैसे जी जाती है, और ज़िन्दगी के खतरे किस दिलेरी से उठाए जाते हैं, एक बार तू यह सीख ले, तो यह चिकनबाज़ी छोड़ देगा!

यहाँ पर बहुत शोर-शराबा हो जाता है, डिस्टर्बेंस हो जाता है, तो किताब पूरी करने के लिए, अब तो हो गई पूरी! मैं वहाँ जाकर कैफ़े में बैठ जाता हूँ। उन लोगों को पता है, बिल्कुल चार कॉर्नर्स हैं वहाँ पर, कोई एक जो कॉर्नर सीट होती है, वो मुझे तुरंत दे देते हैं। उसके बाद वो मुझे इतना भी छेड़ने नहीं आते कि पूछें, मेरे सामने वो मेन्यू भी लाके नहीं रखते। उनको मेरी दो चीज़ें पता हैं। वो चुपचाप अपने आप ही ला के रख देते हैं।

मैं क्यों समय लगाऊँ मेन्यू देखने में भी? मैं उतने समय में अपनी किताब पूरी करूँगा ना? क्यों समय लगाऊँ? मुझे नहीं उसमें एक्सपेरिमेंटेशन करना! और बोलूंगा, "हा! यू नो? थोड़ी सी हींग!" हींगबाज़ी करने को पैदा हुए थे? हींग! और स्वाद समय का गुलाम नहीं होता कि आप बहुत समय लगाओगे तभी स्वाद आएगा। मैंने खुद भी बनाया है, और मैं बहुतों को जानता हूँ। बहुत अच्छा पोषक, न्यूट्रीशियस और साथ ही साथ स्वादिष्ट खाना बहुत जल्दी भी बन जाता है, बस उसमे आप अपनी हवस मत घुसेड़ीए कि पचास तरह का दिखना चाहिए, छप्पन भोग की थाली होनी चाहिए, कम से कम तीन त्तरह की सब्ज़ी तो होनी चाहिए ना? क्यों होना चाहिए? और क्या बोल रही थीं आप? "क्या आ जाता है उसमें? प्यार आ जाता है? प्राण आ जाता है?"

प्रश्नकर्ता: प्राण!

आचार्य प्रशांत: प्राण कैसे आ जाता है?

प्रश्नकर्ता: बाबा जी लोग बताते हैं!

आचार्य प्रशांत: प्राण बर्बाद ज़रूर होते हैं वो करने में! इतना ही अगर प्राण उठता है, तो बाबा जी अपना पूरा करियर यही करें! शेफ़ ही बन जाएँ कहीं जाकर के! मास्टर शेफ़! "श्री श्री एक हज़ार आठ-शेफ़ महाराज! सद-शेफ़!" बन जाओ! यही बन जाओ ना! खाने को ही लेकर तुमने इतना बवाल काट रखा है, तो यही बन जाओ!

कहते हैं, "सस्ता पड़ता है घर का खाना!" पढ़े-लिखे हो कि नहीं हो? जो किचन में हो रहा है ना, वो भी एक मैन्युफैक्चरिंग प्रोसेस है! ठीक? रॉ मटेरियल आता है, उसकी प्रोसेसिंग होती है, एक आउटपुट निकलता है! और ये बहुत साधारण सी बात होती है, इकोनॉमिक्स की! कि कोई भी मैन्युफैक्चरिंग सस्ती होती जाती है स्केल के साथ! इकोनॉमिक्स ऑफ स्केल बोलते हैं! तो घर का खाना कभी भी सस्ता नहीं पड़ सकता! सस्ता हमेशा वहाँ पड़ेगा, जहाँ बहुत बड़ी तादाद में बनाया जाएगा!

ये कैसी बात कर रहा है यार? आचार्य कुछ नहीं जानता! "घर का पड़ता है सस्ता!" घर का सस्ता सिर्फ़ इसलिए पड़ता है क्योंकि उसमें तुमने लेबर की कॉस्ट नहीं जोड़ी है! वरना घर का खाना बहुत-बहुत महंगा है! घर का खाना सुपर एक्सपेंसिव है! वह सस्ता तुम्हें सिर्फ़ इसलिए लगता है क्योंकि उसमें एक फ्री लेबर लगा हुआ है! जैसे ही तुम उसमें लेबर की कॉस्ट जोड़ोगे, तुम्हें पता चलेगा वह कितना ज़्यादा महंगा है! और मैं सिर्फ़ लेबर कह रहा हूँ, अभी यह नहीं कह रहा कि प्रॉफिट भी जोड़ो! सब कुछ जोड़ दो, तो पता चलेगा कि यह जो रसोई है, यह बहुत वेस्टफुल जगह है सचमुच!

तुम्हें अगर बहुत लज़्ज़त वाला ही खाना खाना है, तो बाहर खाओ! और घर पर बनाना है, तो सीधा खाना बने! और जिसको खाना है, वह अपने लिए बना ले!

जब यह पता होगा कि अपने लिए बनाना है, तो वैसे ही पंद्रह-बीस मिनट वाली रेसिपी लोगे! बनाओगे, खाओगे, खुश होकर चल दोगे, आगे! या अगर एक आदमी बना रहा है, मान लो तीन-चार लोगों के परिवार के लिए, तो आज एक ने बनाया, कल कोई और बना दे, और यह बहुत बड़ा मुद्दा नहीं होगा, क्योंकि बनाने में समय बहुत कम लगेगा, अगर आप वो लज़ीज़, ज़ायकेदार, लंबी-चौड़ी रेसिपीज़ नहीं बना रहे हो।

मुझे लगता है, पश्चिम तरक्की कर पाया और भारत पीछे रह गया, इसमें कुछ योगदान इस बात का भी है कि जो इंडियन मेन्यू है, वो वेस्टर्न मेन्यू से कहीं ज़्यादा लंबा-चौड़ा है। भारत के लोग पश्चिम जाते हैं और कहते हैं, "यह इतना सादा, फीका खाना खाकर के ये पश्चिम के लोग जी कैसे लेते हैं?" और पश्चिम वाले भारत आते हैं तो देख के हैरान हो जाते हैं। कहते हैं, "यह सब है क्या? पेट में आईसी इंजन चलेगा मेरे?"

जो बाहर से आया भारत और पहली बार यहाँ का खाना खा ले, ख़ासकर स्ट्रीट फूड, उसका बीमार होना तय होता है। और भारत वाले बाहर जाते हैं तो कहते हैं, "आलू माँगा था, तो टिक्की की जगह मैश पोटैटो ले आया! वे आलू के नाम पर मैश पोटैटो ही खाते हैं!" और मैश पोटैटो बिल्कुल भी नुकसान नहीं करता। हाँ, तुम पोटैटो को फ्राई करोगे, और उसमें सौ तरीके का वह लगाओगे, जाल लगाओगे, उसकी सिलाई करोगे, उसमें अठारह तरह के मसाले डालोगे, तो फिर नुकसान करेगा ही!

अभी भी भारत इतना अमीर नहीं हुआ है कि लोग बहुत ज़्यादा बाहर खाते हों। ईटिंग आउट हमारे यहाँ अभी बहुत ज़्यादा नहीं है। उसके बाद भी भारत ज़्यादातर रोगों में दुनिया की राजधानी है। हमारी रेसिपीज़ अच्छी नहीं हैं भाई, मान लो! नहीं तो हार्ट अटैक दुनिया में सबसे ज़्यादा प्रति व्यक्ति भारत में क्यों हो रहे होते? हमारे खाने में कोलेस्ट्रॉल भरा हुआ है! हमारा जो पूरा खाना है, वह कार्ब-सेंट्रिक है। हमारे लिए खाने का मतलब ही होता है रोटी-भात। और रोटी और भात दोनों क्या हैं?

श्रोतागण: कार्ब्स।

आचार्य प्रशांत: मजदूरी के लिए वो ठीक है, पर जो आपको तमाम तरह के न्यूट्रिशन चाहिए, वो आपको उससे नहीं मिल जाएँगे। उसके लिए आपको बहुत सारी तरह की सब्ज़ियाँ लेनी पड़ेंगी, उन्हें चॉप करा, मिक्स करा।डायबिटीज़ दुनिया में सबसे ज़्यादा कहाँ होता है? अरे, "कुछ मीठा हो जाए!" जान ले लो उसकी, मार ही दो ऐसे ही, गोली मार दो क्यों बोल रहे हो, "कुछ मीठा हो जाए?" मैं गया अमैनिका, मैंने कहा, "ब्लैक टी मंगा रहा हूँ, शक्कर अलग से लाना!" बोला, "ठीक है!" वो शक्कर अलग से ‘भी’ ले आया। भाई मेरे! उसको समझ में ही नहीं आया, उसको लगा कि मैं इतनी ज़्यादा लेता हूँ कि मैं कह रहा हूँ, "शक्कर अलग से भी ले आना!" वो ब्लैक टी का बिल्कुल शर्बत बनाकर लाया, और अलग से कटोरी में भी रख के ले आया!

और ये जो लंबी-चौड़ी रेसिपीज़ हैं, ये भी आप इसीलिए अफोर्ड कर पाए हो परंपरागत रूप से, क्योंकि घर में एक फ्री लेबर खड़ी हुई है। नहीं तो आप यह नहीं करते! वही लड़के, जो हॉस्टल में रहते हैं, और मस्त या तो अपनी ही डॉम की पैंट्री में कुछ करके खा लिया, या मेस में जो बना था, उसको खा लिया। जब उनकी शादी-वादी हो जाती है, और अरेंज मैरिज हुई है, और हाउसवाइफ ले आए हैं, तो वही सबसे आगे रहते हैं — "आज क्या बन रहा है?" दुनिया का सबसे बेहूदा सवाल—वल्गर क्वेश्चन! "तो आज क्या बन रहा है?" हाँ, नवाब साहब, बैठिए, बताते हैं, क्या बन रहा है!

(सब हँसते हैं।)

कुछ बन रहा हो, मेरा तो बन रहा है! "मैं बन गई! बना डाला तुमने मुझे!" पहले हम इस बात पर खुश हो लेते थे कि कम से कम चीनी हमसे कम कद के होते हैं। ऊँचाई! लेकिन तीस साल में चीनी भी हमसे लंबे हो गए। और मैं कहीं पढ़ रहा था — जिसे अभी वेरीफाई करना बाकी है कि हिंदुस्तान में पुरुषों की लंबाई कुछ सेंटीमीटर कम हो गई है पिछले तीन दशक में। ये है हमारी लंबी-चौड़ी रेसिपीज़ और वह सब माल जो हम इधर-उधर से, बाहर से मंगाते हैं। ज़ोमैटो ले आए, यह ले आए, वो ले आए! यह सब क्यों? क्योंकि एक सिक्योर जीवन जीना है, जिसमें और कोई थ्रिल, एडवेंचर, प्लेज़र, जॉय है नहीं। तो हम उसकी कंपनसेट करना चाहते हैं इस सेंशुअल प्लेज़र से। और उससे कंपनसेशन नहीं होता — एक्स्ट्रा डैमेज होती है।

तीन तरह की सब्जी क्यों? दो तरह की दाल क्यों? एक दिन में एक चीज़ बना लो, अगले दिन कुछ और बना लो। सलाद रखो, बहुत सारी! खाने में एक-तिहाई तो सलाद होनी चाहिए, और उसमें डाईवर्सिटी रखो बहुत सारी, उसमें समय भी नहीं लगता है! एक दिन एक डिश बनेगी ना — हर दिन पाँच डिश क्यों बन रही हैं? और उसके बाद फिर खीर भी आती है! और खीर है, और उसमें तमाम तरह के मेवे नहीं डले हैं। तो वो क्या? प्राण और प्यार नहीं है उसमें? ऊर्जा नहीं है उसमें? वैसे ये जितने भी इस तरह के "बाबा जी" के उपदेश होते हैं, वे गृहिणियों के लिए ही क्यों होते हैं? हलवाइयों के लिए क्यों नहीं?

मनुष्य के जीवन की एक तो व्यर्थता ऐसे दिखती है — "मैं जी रहा हूँ खाने के लिए।" और उसकी क्रूरता और विभत्सता ऐसे दिखती है — "मैं जी रही हूँ बनाने के लिए।"

पता नहीं, इन दोनों में से ज़्यादा बर्बाद कौन है? एक जो जी रहा है खाने के लिए, या एक जो जी रही है बनाने के लिए? साधारण लेग्यूम्स बनाने में कितना समय लगता है? मटर, चना, स्प्राउट्स बनाने में कितना समय लगता है? और बहुत आसानी से उन्हें ज़ायकेदार भी बनाया जा सकता है! कितना समय लगता है? पर अगर आप यह करने लग जाएँ, तो आपके घर वाले नाराज़ हो जाएँगे! चने कई तरह के आते हैं, मटर भी कई तरह के आते हैं। सेहत भी बहुत अच्छी रहेगी। और फ्रिज कोई शैतान की कब्र नहीं होता! कि "नहीं, हमारे यहाँ तो बिल्कुल ताज़ा बना हुआ ही खाते हैं! फ्रिज का माल नहीं!"

जो चीज़ विज्ञान के दायरे में आती है, उसका जवाब विज्ञान से ही लो, "बाबा जी" से नहीं। कि "प्राण-ऊर्जा कम हो जाएगी," "फलानी चीज़ कम हो जाएगी!" जा के किसी डायटीशियन या न्यूट्रीशनिस्ट से पूछो कि कौन-कौन से फूड आइटम्स हैं, जिनको फ्रिज में रखने से नुकसान होता है, उनकी न्यूट्रिशनल वैल्यू कम हो जाती है। और कौन-से ऐसे आइटम्स हैं, जिनको फ्रिज में रखो तो भी उनकी न्यूट्रिशनल वैल्यू बनी रहती है। और जो चीज़ें फ्रिज में रखने पर खराब नहीं होतीं, उनको ज़्यादा बनाकर फ्रिज में रखो। क्यों नहीं रखोगे? क्यों अपना समय खराब करना है?

यह सवाल बड़ा सवाल है क्योंकि जब हम कहते हैं — "ज़िन्दगी को एक अच्छा, ऊँचा उद्देश्य दो!" "अपने हर पल का हिसाब रखो!" तो विशेषकर महिलाओं के पल का क्या हिसाब है? उनके पल का तो यही हिसाब है — ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर! और यह तो सिर्फ़ तीन समय का है! "फ्रेश फूड! तीन समय का लंबा-चौड़ा मेन्यू!" उसमें भी अगर घर में अलग-अलग तरह के लोग हों, तो उनके लिए भी अलग-अलग रिक्वायरमेंटस के हिसाब से बनता है। कोई बच्चा है, उसके लिए कुछ अलग बनेगा। किसी का स्वाद दूसरी तरह का है, उसके लिए कुछ अलग बनेगा। कोई बूढ़ा है, कोई बीमार है, तो उसके लिए अलग तरह का बनेगा। यह क्या है?

दुनिया की कोई प्रजाति है जो अपने भोजन पर इतना समय लगाती हो? अपने पर भी नहीं — दूसरों पर? आगे से कोई ये सब बताए ना कि, "खाने में तुम अपना प्यार परोसती हो या ये सब!" बोलो, "हमें भी तुम्हारा प्यार चाहिए!" "मैं भी प्रीतम प्यार की प्यासी हूँ!" "और तेरे हाथों में भी बहुत प्राण हैं!" "आज मुझे तेरा प्राण चूसना है!" चल बना! जब इतनी हवस है लज़ीज़ खाना खाने की, लंबी-चौड़ी रेसिपीज़ चबाने की...तो खुद बनाओ ना! नहीं तो सादा, पौष्टिक खाना घर में बना दो। उतना पर्याप्त है! समय बचाओ—अपना, अपना समय ऊँचे कामों में लगाओ।

मुझे लगता है, जीने का बड़ा अच्छा तरीका यही होता है — ऐसे जियो जैसे अभी भी हॉस्टल में हो। या अकेले रह रहे हो अपने एक कमरे में। मैं यह नहीं कह रहा संबंध नहीं होने चाहिए, मैं यह नहीं कह रहा परिवार नहीं होने चाहिए। पर उस जीने में ना एक स्वास्थ्य था, एक भोलापन था, एक इनोसेंस थी। आपके पास बहुत कुछ होता था करने को। आपकी शाम इसलिए नहीं होती थी कि आप खाने बैठ गए हो। आपकी शाम इसलिए होती थी कि खेलने का समय आ गया। आप बाहर जाकर खेल रहे हो, खेल रहे हो, खेल रहे हो। भूख लग जाती थी। ऐसा थोड़ी था कि कोई आपके लिए आपकी मनपसंद रेसिपी तैयार कर रहा है। जो मिल गया, खा लेते थे पता भी नहीं होता था, आज क्या मिलेगा। और कोई हमारे स्वाद अनुसार हो, ऐसा भी नहीं होता था।

पर ज़िन्दगी में करने को इतने अच्छे और ऊँचे काम थे, प्यारे काम थे कि बैठ के शिकायत भी कौन करे कि मेस का खाना अच्छा नहीं है। जो मिला, खा लो और जल्दी से जाकर के अब दूसरा काम करते हैं। फिर रात में चलेंगे साढ़े ग्यारह वाली मूवी देखने। अब साढ़े ग्यारह वाली मूवी देखनी है, वो लगी हुई है किचन में रायता फैला हुआ है साफ करने में, रोमांस भी सारा खराब कर दिया तुमने। उससे दिन-रात खाना ही बनवाओगे, तो रोमांस भी कब होगा? और रायते की तरह गंधा भी रही है। यह तुमने करा है, सोचो दही।

इतना ही अगर शौक है कि लज़ीज़ ही खाना खाना है, तो किसी ऐसी को ब्याहो, जो इन्हीं चीज़ों में डिग्री लेकर आई हो। इसलिए कि अगर तुम उससे सब खाना ही खाना बनवा रहे हो, यही करवा रहे हो, तो बाकी उसकी जो भी एजुकेशनल, प्रोफेशनल क्वालिफिकेशन है, उसको तो तुमने आग लगा दी?

अगर उसकी ज़िन्दगी का उद्देश्य यही था कि वह बैठकर के खाना बनाएगी, दिन भर फुल टाइम यही है, छह घंटे आठ घंटे पूरे दिन खाना ही चलता है, तो यह तो फुल टाइम जॉब ही हो गई ना? तो फिर इसी क्वालिफिकेशन वाली किसी को लेकर आते। अब लेके आए हो, किसी को जिसने इकोनॉमिक्स में मास्टर्स कर रखा है और वो करेला सिल रही है! यह कौन-सा कोर्स था इकोनॉमिक्स में? क्या बोलते हैं उसको? "बिटर गॉर्ड: हाउ टू टच अ थकेला करेला?"

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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