श्रवण, मनन, निदिध्यासन और समाधि || आचार्य प्रशांत, रमण महर्षि पर (2013)

Acharya Prashant

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श्रवण, मनन, निदिध्यासन और समाधि || आचार्य प्रशांत, रमण महर्षि पर (2013)

श्रवणादिभिरुद्दीप्तज्ञानाग्निपरितापितः । जीवः सर्वमलान्मुक्तः स्वर्णवद्द्योतते स्वयम् ॥

हृदाकाशोदितो ह्यात्मा बोधभानुस्तमोऽपहृत् । सर्वव्यापी सर्वधारी भाति भासयतेऽखिलम् ॥

दिग्देशकालाद्यनपेक्ष्य सर्वगं शीतादिहृन्नित्यसुखं निरंजनम् । यः स्वात्मतीर्थं भजते विनिष्क्रियः स सर्ववित्सर्वगतोऽमृतो भवेत् ॥

जब जीव श्रवण आदि द्वारा प्रज्वलित ज्ञानाग्नि में भलीभाँति तप्त होता है, तो वह साड़ी मलिनताओं से मुक्त होकर स्वर्ण की भाँति स्वयं ही चमकने लगता है।

ह्रदय-आकाश में उदित हुए आत्मा-रूपी ज्ञान-सूर्य द्वारा अज्ञान-अन्धकार का नाश हो जाने पर; सर्वव्यापी तथा सबका आधारभूत (ब्रह्म) प्रकाशित हो उठता है और सारे जगत् को प्रकाशित कर्ता है।

जो दिशा-देश-काल आदि से निरपेक्ष, सर्वव्यापी, शीत आदि को हरनेवाला, नित्य आनंद-स्वरूप तथा निर्मल अपने आत्मा-रूपी तीर्थ का सेवन करता है; वह (बाहर से) पुर्णतः निष्क्रिय होकर (अंतर में) सर्वज्ञ, सर्वव्यापी तथा अमृत-स्वरूप हो जाता है।

~ आत्मबोध, श्लोक ६६-६८

प्रश्नकर्ता: सर, मनन श्रवण के बाद ही आता है। मनन मतलब चिंतन के रिफ़्लेक्शन के बारे में ही बात किया गया है, कि चिंतन का कॉज़ क्या होता है, नेचर , इफ़ेक्ट , लिमिट और उसके फ्रूट्स क्या हैं। तो जैसे इसमें डॉक्टर का उदाहरण लें तो जैसे डॉक्टर ने कहा कि तुम्हें ये बीमारी है और मैं उसको सच मान लेता हूँ; जबकि सच यह हो कि मुझे वह बीमारी ही न हो। तो ऐसे स्थिति में मनन और निदिध्यासन का क्या स्थान रहेगा यहाँ पर?

आचार्य प्रशांत: इसी बात को आगे बढ़ाते है, पहले डॉक्टर ने बोला था कि तुम्हें ये-ये सब है, और एक तरह की श्रद्धा रखी, उसकी बात मान ली मैंने – ये श्रवण था। अब मनन में क्या होगा, मैं वापस आऊँगा और मैं ख़ुद दिमाग लगाऊँगा, मैं ख़ुद विचार करूँगा कि मुझे ऐसा है क्या, डॉक्टर ने जो सिम्प्टमस (लक्षण) बताए वो मुझे हैं क्या? उसने जो कारण बताए, क्या मैं उन कारणों से गुज़रा हूँ इसलिए मुझे बीमारी हुई? ये मनन है। अब मैं ख़ुद कन्विंस (राज़ी) होऊँगा कि हाँ मुझे बीमारी है। पहले डॉक्टर ने कहा था तो मैंने मान लिया था, अब मैं अपने विचार के प्रयोग से कन्विंस होऊँगा कि हाँ डॉक्टर ने बात ठीक ही कही थी। पहले भी मैं यही कह रहा था कि डॉक्टर ने बात ठीक ही कही थी, पर मैं किस कारण से कह रहा था?

प्र: क्योंकि वो मेरे से ज़्यादा...

आचार्य: श्रद्धा है। अभी भी मैं यही कह रहा हूँ कि डॉक्टर ठीक कह रहा था, पर अब मैं क्यों कहूँगा? अपने चिंतन…

प्र: (बीच में ही) मैंने जान लिया है…

आचार्य: (प्रश्नकर्ता को रोककर) अभी जाना नहीं है, अभी चिंतन हुआ है, थिंकिंग हुई है; इसी थिंकिंग का नाम है मनन। और वो मेरी थिंकिंग से बात निकली है; याद रखना थॉट (विचार) है अभी, इसीलिए अगली सीढ़ी की ज़रूरत है – निदिध्यासन और समाधी। तो अभी थॉट लेवल (विचार के स्तर) पर मैंने जान लिया कि हाँ बात ठीक ही है, जो आर्ग्यूमेंट्स (दलीलें) हैं उनके थ्रू (ज़रिए) जान लिया कि बात ठीक है; तो यह कहलाता है मनन।

प्र: सर, रिफ़्लेक्शन की लिमिट क्या होगी इसमें?

आचार्य: जहाँ तक थॉट जाता है बस वहीं तक जाएगा वो, तुम्हारे अनुभव से आगे नहीं जा सकता।

कोई भी मनन मन की सीमाओं द्वारा ही बँधा हुआ रहेगा।

प्र: यानी ट्रुथ (सच्चाई) जो है कुछ और ही है लेकिन वो दिखेगा नहीं। मन की जो सीमा है, जो पास से आ रही है उसी में आदमी नाचेगा, वहीं मनन करेगा।

आचार्य: बस बस बस, वो मन की सीमा है, वो मनन की सीमा है।

प्र: भले ही पोज़िशन एकदम ही अलग क्यों न हो, लेकिन आदमी उसको समझेगा नहीं।

आचार्य: तो आपको एक रिफ़्लेक्टेड ट्रुथ (परिलक्षित सत्य) दिखाई देगा, रिफ़्लेक्टेड और लिमिटेड।

प्र: हाँ, तो उसके लिए परेशान होने की ज़रूरत ही नहीं है।

आचार्य: तो ये मनन है, ठीक है। पूरी प्रक्रिया देख रहे हो न साफ़-साफ़? पहले किसी से सुना, फिर उसपर ख़ुद विचार किया; अब नॉर्मल-सी बात है कि अब क्या होगा, निदिध्यासन क्या होगा? (किताब के पन्ने पलटते हुए) अच्छा निदिध्यासन नाम का कोई टफ़ चैप्टर (मुश्किल अध्याय) नहीं है इसमें (सबकी हल्की हँसी), पर उसको डिस्कस (चर्चा) कर लेते हैं।

अब निदिध्यासन होगा, निदिध्यासन क्या कहलाता है?

प्र: वापस जाना।

आचार्य: नहीं, वापस जाना नहीं; निदिध्यासन ये होता है कि विचार तो एक कॉन्शियस प्रोसेस (सचेत प्रक्रिया) है, आप हर समय तो नहीं विचार करते रहोगे डॉक्टर ने क्या कहा है। निदिध्यासन का मतलब है विचार ने मुझे जो दिया, अब वो मेरे सब्कॉन्शियस माइंड (अवचेतन मन) में बैठ गया। थिंकिंग माइंड कौनसा होता है? ऊपर वाला। निदिध्यासन का मतलब है कि मैंने सोच लिया और वो अब मेरे जीवन में उतर गया; निदिध्यासन का मतलब है अब वो बात मेरे जीवन में उतर गयी।

अब मैं उसमें सोच नहीं रहा हूँ, पर वो मेरे बैकग्राउंड में मौजूद है। हाँ मन में ही मौजूद है; निदिध्यासन भी याद रखो मन में ही है, पर कौन से मन में है? थिंकिंग माइंड में नहीं, उससे नीचे वाले में, इनट्युटिव माइंड (अंतर्मन) में, ठीक है? तो ये निदिध्यासन है। अब सोचने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि सोचा जितना जा सकता था मैंने सोच लिया, सोच का जो नतीजा निकला है अब वो गहराई से एकदम मन के भीतर घुस गया है, इसका नाम है निदिध्यासन; मैंने उसको जीना शुरू कर दिया है।

प्र: हम बोलते भी हैं, अब ध्यान रखूँगा।

आचार्य: अब ध्यान रखूँगा। ध्यान रखने का मतलब ये नहीं होता सोचता रहूँगा।

प्र: रहेगा ध्यान।

आचार्य: हाँ, अब रहेगा ध्यान। ये बिलकुल वही बात है जो आप कहते हो, ‘ठीक है, अबसे मैं ध्यान रखूँगा’, तो आप ये थोड़े ही करते हो कि जिस चीज़ का ध्यान रखना है उस बात के बारे में प्रतिपल सोच रहे हो, वो पीछे कहीं मौजूद रहता है न? वो जो पीछे कहीं बैठा रहता है उसी का नाम इनट्युटिव माइंड है, वही वहाँ भी रहता है।

फिर एक समय ऐसा आता है जब मनोनाश हो जाता है, किसी मन में रखने की ज़रूरत नहीं है बात को, वो समाधि है; समाधि समाधान ही हो गया। मन में है जब तक, मतलब सोचा जा रहा है, समस्या है; समाधि मतलब मन में ही नहीं है, समाधान हो गया, सॉल्व्ड! क्लियर (स्पष्ट) हो गया, कम्पलीट क्लैरिटी (पूर्ण स्पष्टता) आ गयी, उसी का नाम है समाधि।

तो ये चार स्टेप्स (कदम) होती हैं – श्रवण, मनन, निदिध्यासन…

प्र: और समाधि।

आचार्य: वापस भी ऐसे ही लौटा जाता है। अभी जो तुमने दूसरे का सुना था और स्वयं जाना, जो तुमने जाना है अब तुम उसको बाँटोगे। तो पहला हिस्सा सीढ़ी चढ़ी, सीढ़ी चढ़ी तो पहले कदम का क्या नाम था? श्रवण, फिर था?

प्र: मनन।

आचार्य: फिर था?

प्र: निदिध्यासन।

आचार्य: फिर था समाधि। अब लौटते समय भी ऐसे ही होता है; लौटते समय समाधि में जो जाना, समाधि का जो अनुभव है, सबसे पहले सब्कॉन्शियस माइंड (अचेतन मन) उसे भाव रूप में जानता है, उसको बोलते हैं प्रबोधन। उसके बाद वो कॉन्शियस माइंड (चेतन मन) में आता है, उसको बोलते हैं चिंतन, उसके बाद वो गुरु के मुँह से बाहर आता है, उसको बोलते हैं प्रवचन। तो अंदर जाने की चार स्टेप्स होती हैं – श्रवण, मनन, निदिध्यासन, समाधि। और वापस आने की चार स्टेप्स होती हैं – समाधि, प्रबोधन, चिंतन, प्रवचन। तो प्रवचन वही अच्छा जो कहाँ से निकले? समाधि से। जिसका समाधि से नहीं निकला है उसका प्रवचन हो नहीं सकता। तो प्रवचन देने का हक़ उसी को है जो बिलकुल मौन से, समाधि से बोल सके; जिसके शब्द चुप्पी से आते हों। समाधि, प्रबोधन, चिंतन, प्रवचन। अगला क्या है?

प्र: वासनाक्षय।

आचार्य: वासनाक्षय; वासना माने?

प्र: इच्छाएँ, डिज़ायर्स।

आचार्य: हर आवरण वासना है। तो वासना वो जो सेल्फ़ (स्वयं) के रियल नेचर के ऊपर कपड़ा डाल दे, ढँक दे। मन में हमने कहा था दो हिस्से हैं, कौन-कौन से दो हिस्से हैं?

प्र: इनट्युटिव और सब्कॉन्शियस।

आचार्य: वृत्ति नाश हो सके उससे पहले वासना नाश ज़रूरी है। आख़िरी बात है मनोनाश, पर मनोनाश से पहले मन पूरी तरह से गायब हो जाए; उससे पहले विचार का गायब होना, वासना का गायब होना और फिर आख़िरकार वृत्ति का गायब होना ज़रूरी है। जब ये तीन-चार स्टेप हो जाते हैं तब मन पूरी तरह गायब हो जाता है, ठीक है? वासनाक्षय कौन कर रहा है?

अच्छा एक बात बताओ, प्रश्न तुमसे है: 'मैं' पहले आता है कि 'मेरा' पहले आता है?

प्र: मेरा।

आचार्य: बढ़िया! यही है वासना। 'मैं' को अगर मारना है तो 'मेरे' को मारना पड़ेगा, 'मैं' का निर्माण 'मेरे' से होता है, वासनाक्षय बिलकुल यही है; 'मेरे' को मार दो 'मैं' कुछ दिनों में अपनेआप मर जाएगा। 'मैं' को मारने का कोई डायरेक्ट (प्रत्यक्ष) तरीका नहीं है। 'मैं' का निर्माण करता है 'मेरा', और 'मेरा' का ही अर्थ है वासना, पाना, 'मेरा' होना; नहीं समझीं?

प्र२: सर ‘मैं’ पहले आएगा या ‘मेरा’?

आचार्य: नहीं, ‘मैं’ कुछ होता ही नहीं, ‘मेरा-मेरा’ करके ‘मैं’ बनता है। सारा ‘मेरा’ हटा दो, सारी वासनाएँ हटा दो तुम – आज हमने क्या बोला? हेलीकॉप्टर न हो तो? तुम भी नहीं होगे। अपनी ज़िन्दगी से सारी आइडेंटिटीज़ (पहचान) हटा दो, तुम्हें पता चलेगा तुम हो ही नहीं। ‘मेरा’ पहले आता है, ‘मैं’ बाद में आता है; वासनाक्षय की वही तकनीक है।

प्र: सर आइडेंटिटीज़ हटाने से मैं वो नहीं रहूँगा जो दुनिया ने मुझे दिखाया है।

आचार्य: फिर क्या रहूँगा?

प्र: फिर भी रहूँगा।

आचार्य: क्या रहूँगा?

प्र: उसको नाम नहीं दे सकते, लेकिन मैं तो फिर भी रहूँगा न।

आचार्य: कैसे पता? क्या जानते हो? जिस ‘मैं’ को तुम जानते हो वो पूरी तरह से ‘मैं’ से, ‘मेरा’ से संबद्ध है। जिस ‘मैं’ को तुम जानते हो वो पूरी तरीके से ‘मेरे’ का आउटपुट (उत्पादन) है, ‘मेरा’ हटा, ‘मैं’ ‘हट जाएगा।

प्र२: सर, मतलब जिस 'मैं' को मैं जानती हूँ वो वही है, ठीक है। ये बात ठीक है कि वो वही है जो आइडेंटिटीज़ से बना है, तो अगर आइडेंटिटीज़ सारी चली जाएँगी तो वो मैं चला जाएगा, ठीक है, लेकिन फिर भी मैं तो (हूँ), मतलब मैं ये नहीं कह सकती कि मैं ये हूँ लेकिन मैं तो फिर भी हूँ ही न।

आचार्य: जो तुम हो ही तो उसको मारने की कोई बात भी नहीं हो रही है, हम जिस ‘मैं’ और ‘मेरा’ की बात कर रहे हैं वो वो है जो मरने के लिए तैयार है, जिसे मारा जा सकता है। तुम जिस ‘मैं’ की बात कर रही हो, सिर्फ़ बात ही कर रही हो जानती तो हो नहीं, उसको मारा जा भी नहीं सकता, उसकी बात हो भी नहीं रही है।

पूरे वासनाक्षय में ये सातवाँ और आठवाँ सवाल जो है वो सबसे महत्वपूर्ण है, उसको समझ लीजिए सब समझ में आ जाएगा। सातवें में बात की गयी है ‘मेरे’ ज्ञान की और आठवें में बात की गयी है ‘मेरी’ आइडेंटिटीज़ की; उनको हटा दिया तो वासनाक्षय हो गया। ज्ञान से मुक्ति, पहचान से मुक्ति, यही है वासनाक्षय; ज्ञान से मुक्ति, पहचान से मुक्ति। मेरा ज्ञान, मेरी पहचान, उन दोनों से मुक्ति – यही है वासनाक्षय। साक्षात्कार?

प्र: साक्षात्कार मतलब एकदम सीधा, प्रत्यक्ष जान लेना और उसमें फिर कोई सोच विचार या ध्यान की कोई आवश्यकता नहीं रहती।

आचार्य: ज़ेन में एक शब्द होता है 'सटोरी', सटोरी और समाधि में इतना ही अंतर है कि सटोरी बिजली की चमक की तरह है और समाधि दिन के सूरज की तरह है, हैं एक ही। इन अ मोमेंट बोथ आर एक्सपीरियंस ऑफ़ लाइट (एक क्षण में दोनों ही प्रकाश के अनुभव हैं), इन अ पर्टिकुलर मोमेंट बोथ आर एक्सपीरियंस ऑफ़ एन इंटेंस लाइट (किसी विशेष क्षण में दोनों तीव्र प्रकाश के अनुभव हैं), लेकिन सटोरी अगले ही क्षण ख़त्म हो जानी है, झलक दिखलाकर लौट जानी है, समाधि का अर्थ है कि मन ऐसा हो गया है कि रहेगा, व्यवस्था टिकेगी। साक्षात्कार सटोरी है, साक्षात्कार समाधि नहीं है, साक्षात्कार सटोरी है। इसी साक्षात्कार के लिए (आचार्य) शंकर ने शब्द इस्तेमाल किया था, ‘अपरोक्ष-अनुभूति’। हमें जितनी अनुभूतियाँ होती हैं वो परोक्ष होती हैं, परोक्ष माने इंडायरेक्ट (अप्रत्यक्ष) और साक्षात्कार माने साक्षात्, सामने है। तो नॉन इंडायरेक्ट, डायरेक्ट नहीं, नॉन इंडायरेक्ट। साक्षात्कार माने नॉन इंडायरेक्ट एक्सपीरियंस , नॉन इंडायरेक्ट मॉमेंट्री एक्सपीरियंस (गैर अप्रत्यक्ष क्षणिक अनुभव)।

प्र: जैसे?

आचार्य: जैसे कभी-कभी सेशंस (सत्रों) में होता है, जैसे कभी-कभी चुपचाप…

प्र: (बीच में ही) नॉन इंडायरेक्ट?

आचार्य: नॉन इंडायरेक्ट को डायरेक्ट ही समझ लो, नॉन इंडायरेक्ट माने डायरेक्ट ही; है नहीं डायरेक्ट पर ठीक है, काम चलाऊ तरीके से डायरेक्ट ही मान लो उसे; जिसको कृष्णमूर्ती बोलते हैं ‘डायरेक्ट नोइंग’ (प्रत्यक्ष जानना), उसी को नॉन-इंडायरेक्ट कहते हैं (आचार्य) शंकर।

प्र२: सटोरी मॉमेंट्री है?

आचार्य: हम्म!

प्र२: झलक।

आचार्य: जैसे साक्षात्कार भी बिलकुल वही है। साफ़-साफ़ दिख गया, बात बिलकुल स्पष्ट हो गयी, उस मोमेंट पर पूरी स्पष्ट हो गयी, पर वृत्तियों का नाश नहीं हुआ है अभी। याद रखना, साक्षात्कार के बाद आता है?

प्र: मनोनाश।

आचार्य: पर अभी मन का नाश नहीं हुआ है, तो एक झलक तो मिलेगी, लेकिन मन के बीज अभी बचे हुए हैं, मन अभी नाशित हुआ नहीं है।

प्र: कम्प्लीटली (पूरी तरीके से) जब जाना तब तो मन ड्रॉप हो गया।

आचार्य: उस क्षण में।

प्र: हाँ, तो फिर वापस कैसे आया?

आचार्य: वृत्तियाँ बची हुईं हैं, बीज, उन्हीं को तो वृत्तियाँ कहते हैं, वो बीज रूप में बची रह गयीं हैं अभी, उनका अभी नाश पूरा नहीं हुआ है। जैसे हम सब भी जानते ही हैं, दिन में कुछ-कुछ सेकंड तो हम सब बुद्ध होते हैं, पर इतना सारा वृत्तियों का बोझ है पीछे, अतीत का बोझ है जो भुलाया नहीं जा रहा। तो बस दो-चार ही सेकंड बुद्ध हो पाते हैं, फिर वृत्तियाँ हावी हो जाती हैं, क्योंकि मनोनाश नहीं हुआ है न। साक्षात्कार प्लस मनोनाश इस इक्वल टू (साक्षात्कार और मनोनाश बराबर)?

प्र: समाधि।

आचार्य: बहुत बढ़िया! साक्षात्कार प्लस मनोनाश इस इक्वल टू 'समाधि'। तो शुरू में तो साक्षात्कार ही होगा, बिजली ही चमकेगी थोड़ी-सी, दिन में एकाध बार, फिर धीरे-धीरे जब जड़-मूल से वृत्तियाँ साफ़ होने लगेंगी – देखो दो तरीके होते हैं एक ऐसे मैदान को साफ़ करने के लिए जिसमें घास-पात उगा हो: अगर तुम आलसी आदमी हो तो ऊपर-ऊपर से उसे काट-कूट दोगे और कहोगे, ‘हो गया साफ़’। पर अगर तुम सिन्सियर (ईमानदार) हो तो तुम क्या करोगे? जो ऊपर दिखता है, वो है थिंकिंग माइंड और जो ज़मीन के नीचे भी है वो कौनसा माइंड है? वो है तुम्हारा अवचेतन मन जिसमें सारी वृत्तियाँ बैठी हैं; चूँकि उन वृत्तियों का नाश नहीं होने पाता इसीलिए सारी सफ़ाई करने के बाद भी चार महीने बाद पता चलता है कि वही 'ढाक के तीन पात'। पूरी सिन्सियेरिटी कहती है, ‘रुक मत जाना! जब लगे कि सब साफ़ हो गया है तब भी रुक मत जाना। अभी है, बस दिख नहीं रहा है, सतह के नीचे बैठा हुआ है।‘

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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