प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ऐसा क्यों लगता है कि जैसे अभी इस माहौल में हैं या मतलब ऐसी जगह पर हैं, इससे निकलने के बाद जैसे लगता है कि फिर कुछ रह जाता है, मतलब मुझे तो किसी की याद आती है। जैसे कि अब हर एक माहौल में एक इल्यूज़न (भ्रम) सा रहता है, जब वहाँ से मैं बाहर आता हूँ तो फिर वो कहीं अटकता है जाकर, ऐसा क्यों? मतलब जैसे कोई चीज़ फ़ोल्ड है, जब अनफ़ोल्ड होती है तो फिर वो फ़ोल्ड हो जाती है आगे जाकर।
आचार्य प्रशांत: ऐसा लगता है तो भली बात है न, और लगना चाहिए, और जल्दी लगना चाहिए।
प्र: तो डर क्यों लगता है?
आचार्य: डर लगता है तो इसीलिए उसे पूरा नहीं अनुभव करते। जो लगता है वो और शीघ्र लगना चाहिए, और ज़्यादा, और पूर्णता से लगना चाहिए।
प्र: ऐसा भी लगता है जैसे कि वो घूमता रहता है। मतलब मैं कुछ करता नहीं हूँ, वो अपनेआप ही ऐसे लगता है कि अपनेआप होता है, और फिर धीरे-धीरे फिर डायल्यूट होकर थोड़ी देर के बाद, एक-दो दिन के बाद फिर वो चीज़ आती है, फिर वो हटता है।
आचार्य: कुछ है जो आपको बता रहा है कि जिसमें जी रहे हो, वही बस नहीं है, कोई दूसरी चीज़ भी है, कोई वैकल्पिक चीज़ भी है। कोई दूसरी चीज़ न होती तो पहली चीज़ आती-जाती क्यों? तो ये सब इशारे हैं, मन की उथल-पुथल भी इशारा होती है। अब या तो इन इशारों की सुन लो, मन को समझो, हम कौन हैं ये जानो, जन्म क्या है और किसलिए हुआ है ये देखो; या फिर यही देखते रहो कि हाँ कभी चैन है, कभी नहीं है, कभी ये होता है, कभी वो होता है।
प्र: नहीं, वो जैसे कहते हैं, सुई अटक जाती है उसके उपर।
आचार्य: सदा अटकी रहती है?
प्र: नहीं, फिर खुल जाती है।
आचार्य: हाँ तो वही तो बात है न।
प्र: लेकिन फिर वो अटकती है उसी पर जाकर।
आचार्य: सदा के लिए अटकने नहीं दे रहे न, क्योंकि जहाँ को अटक रही है उस जगह से घबराते हो।
प्र: नहीं, फिर ऐसा फ़ील होता है जैसे न कुछ मेरा है, न कुछ तेरा है, जो भी कुछ है सब उसका है। तो फिर अपने हाथ फ़्रीज़ हो जाते हैं।
आचार्य: उस फ़ीलिंग (भावना) में अगर दम होता तो वो थम जाती।
प्र: हाँ, थमती नहीं है वो।
आचार्य: तो दम नहीं है।
प्र: तो फिर भी वो आती रहती है।
आचार्य: हाँ, तो ऐसी है, बिना दम के; आती है, चली जाती है।
प्र: दम कैसे लाएँ फिर?
आचार्य: दम तभी होगा उसमें जब उसकी शुद्धि होगी। अभी जो बात तुम अपनेआप को बता रहे हो, वो बात शुद्ध है ही नहीं, चूँकि वो शुद्ध नहीं है इसीलिए वो टिक नहीं पाती।
प्र: शुद्ध कैसे लाया जाए?
आचार्य: और पढो, और जानो। कल दो बातें बोली थीं — वो सुनो जो बड़े लोग बता गए हैं, और वो देखो जो तुम्हारा जीवन है। इतनी चीज़ें पढ़ते हो, इतनी चीज़ें देखते हो, दो-चार ढंग की किताबें भी पढ़ लो, साथ-साथ अपनी ज़िंदगी और मन पर कड़ी नज़र रखो कि चल क्या रहा है।
आध्यात्मिक साहित्य के पाठ का कोई विकल्प नहीं है। चुपचाप अकेले में बैठकर के जब आप अष्टावक्र को पढ़ते हैं, या किसी ज़ेन कोआन के सामने भौंचक्के रह जाते हैं, या किसी सूफ़ी कहानी के सामने, या उपनिषद् पर मनन करते हैं, या गीत ही सुन लेते हैं बुल्लेशाह का — चुप बैठे हैं और संगीत से कमरा भरा हुआ है — तो उस वक्त जो आपका आंतरिक विकास होता है उसकी कोई मिसाल नहीं है दूसरी।
अपने ऊपर काम तो करना पड़ेगा न भाई। घर बनवाने के लिए काम करने को राज़ी हो, किसी और का धंधा चलता रहे उसके लिए काम करने को राज़ी हो, अपनी जो गहरी-से-गहरी समस्याएँ हैं, उलझने हैं, उनको हटाने के लिए अपने ऊपर काम करने को क्यों नहीं राज़ी हो? काम, मैं बिलकुल सीधे कह रहा हूँ, काम। काम तो करो!
या ऐसा समझते हो, कि नहीं, काम तो तभी चाहिए जब बाज़ार से भाजी खरीदनी है। भाजी खरीदने के लिए काम कर सकते हो, अपनी मुक्ति के लिए काम नहीं करोगे? तो थोड़ी मेहनत करो न, अपने ऊपर प्रयोग करो, अपनेआप को चुनौतियाँ दो, और पढ़ो।
कैसे बात बनेगी, बताओ। तुमने कबीरों के साथ कभी गाया नहीं, तुमने सूत्रों पर कभी चिंतन नहीं किया। बचपन से तुम घर में पूजा-पाठ होता था तो श्लोक सुन लेते थे, तुमने उसको यूँही उड़ा दिया, कि ये तो संस्कृत है, इसका मतलब क्या जानना। हर पूजास्थल से श्लोक बरसते रहते हैं, पर न तो तुमने जानना चाहा कि गीता के श्लोकों का क्या अर्थ है, न तुम्हें यही पता कि मस्ज़िद से जो आयतें आ रही हैं वो क्या कह रही हैं। क्यों नहीं पता? क्योंकि जानने में मेहनत लगती है।
तुम्हारे अनुसार मेहनत जायज़ है अगर नया सोफ़ा खरीदना हो घर में, तब तो कर ले जाओगे मेहनत। पर मेहनत बड़ी नाजायज़ है अगर कहीं दूर जाकर के किसी से मिलना हो और पूछना हो कि ये बात है, सामने ये श्लोक रखा है, नहीं समझ में आ रहा, बताइए। तो तुम कहोगे, 'कौन समय लगाए, छुट्टी ले, पैसा खर्चे?' तो मैं तो वही सवाल पूछ रहा हूँ जो शिक्षक छात्रों से हमेशा पूछते हैं — मेहनत करी है? और मेहनत नहीं करी तो फल काहे का माँग रहे हो? मेहनत करी है? सीधी-सीधी मेहनत की बात कर रहा हूँ।
कल हमने कहा था दो चीज़ें देखना — अपना धन कहाँ खर्चते हो, और अपना समय कहाँ खर्चते हो। वही फिर आज, वहीं पर आ गए, कि मेहनत करी है, धन खर्चा है, समय खर्चा है, दौड़ लगाई है, बोझ उठाया है? कोई अगर पाने लायक चीज़ होती है तो आदमी उसके दाम चुकाता है या नहीं चुकाता है, उसको समय देता है कि नहीं?
और ये तो बताना मत कि तुम्हारे पास समय नहीं है। गाड़ियाँ घर-घर हैं, गाड़ियों में चलते हो, वहाँ एफ़. एम. से गंदगी बरसती रहती है और तुम नहाते हो उसमें। एक ढंग की सी.डी. ही लगा लो गाड़ी के प्लेयर में।
‘नहीं, छह एफ़. एम. आते हैं, काहे को कुछ और सुनें!’
देने वाले ने इतने विकल्प दिए हैं। व्हाट्सएप से कचरा बरसता रहता है और तुम उसको समेटते रहते हो, और समेटकर बिलकुल अपने घर ही ले जाते हो। उसी इंटरनेट पर न जाने कितना बोध साहित्य पड़ा है, तुमने पढ़ा क्या? बोलो! अगर तुम्हारे फोन पर व्हाट्सएप चलता है, तो इंटरनेट तो चल रहा है, चल रहा है कि नहीं? और दुनिया का कोई ग्रंथ नहीं है आज जो डिजिटली उपलब्ध न हो। यूट्यूब अपनेआप में कितना बड़ा संसाधन है, तुमने उपयोग किया उसका? और उसमें तो पैसा भी कुछ ज़्यादा नहीं लगता।
मेहनत चाहिए भाई, हम मेहनत ही नहीं कर रहे, और मेहनत इसलिए नहीं कर रहे क्योंकि वो दिशा ही हमको बहुत कीमती नहीं लगती। हमें लगता है सारी कीमत तो इस दुनिया में ही है, उस तरफ़ को मेहनत ही नहीं कर रहे।
तुम ताज्जुब मत मानना, एक पारसी महिला अभी बीते महीनों में मिलने आई, पारसी। मैंने कहा कि आप 'अवेस्ता' का पाठ करिए। उन्हें जीवन में कुछ दिक्कतें आ रही थीं, पति से मनमुटाव था, और भी कुछ बातें थीं। मैंने कहा, ‘आप अवेस्ता का पाठ करिए।‘ पारसियों का ग्रंथ है। तो बोलीं, ‘क्या?’ मैंने कहा, 'ज़ेंद अवेस्ता', पूरा नाम लिया। वो कुछ देर तक तो मेरा मुँह ताकती रहीं, फिर बोलीं, ‘इज़ इट रिलेटेड टू ज़ेन?’ (क्या ये ज़ेन से संबंधित है?) ये एक पारसी महिला का वक्तव्य है, उन्हें अपने ही धर्म का ग्रंथ नहीं पता।
ये क्या ज़माना है! ये क्या है! और फिर तुम चाहते हो कि ज़िंदगी में सुकून बना रहे। कैसे बना रहेगा भाई! यहाँ बड़ी-बड़ी कंपनियों में चालीस-चालीस, पचास-पचास साल के लोग होंगे, बड़े ओहदों पर बैठे होंगे। आप उनसे कहिए, 'अष्टावक्र', तो कहेंगे, 'विच (कौन) वकर?' 'अद्वैत' तो बोल दिया तो गुनाह हो गया — 'ऐडवेट?'। इन अनपढ़ों ने 'अद्वैत' शब्द ही नहीं सुना है, इन्हें मुक्ति मिलेगी?
अभी हुआ है बीते दिनों, कुछ लिबरल (उदारवादी) किस्म के लोग थे, तो वो बोले, ‘आजकल इस्लामोफ़ोबिया बहुत फैल गया है, लोगों को पता ही नहीं है।‘ तो उन्होंने कहा, ‘हम जाएँगे।‘ एक वाहियात कैंपेन (मुहिम) चलाया गया था कि 'मीट अ मुस्लिम ' वगैरह, जो कि काफी अपमानजनक है मुस्लिमों के प्रति, मुझे लगता है। तो मुहर्रम बीता अभी, तो वो जाकर बता रहे थे, ‘मुहर्रम मुबारक! मुहर्रम मुबारक!’ और ये इस्लामोफ़ोबिया के विरुद्ध उनका अभियान था — ‘मुहर्रम मुबारक!‘
तुम्हें कुछ पता है? बस तुम जब सुन लोगे किसी पॉप गीत में 'दमदम अली-अली, दमदम अली-अली', तो तुम्हें लगेगा, ‘दमदम अली-अली।‘ अली कौन? बताओ, अली कौन? हसन कौन? हुसैन कौन?
‘हैं! ये भी? कौन हसन? किन हुसन? पाकिस्तानी टीम में एक अली हसन खेलता है, क्रिकेटर, उसकी बात कर रहे हैं आप? कौन?’
जब न तुम अली को जानते, न हसन को, न हुसैन को, तो बोलोगे ही, 'मुहर्रम मुबारक।‘ ये घोर इललिटरेसी (अशिक्षा) है, ऐसे नहीं काम चलता। मेहनत करनी पड़ेगी भाई, और उसके लिए तुम्हारे पास समय भी है, संसाधन भी हैं। इंटरनेट का ही वाजिब इस्तेमाल करो, बहुत लाभ हो जाएगा, इतनी वहाँ पर आध्यात्मिक सामग्री उपलब्ध है कि तर जाओगे। पर ज़बान का थोड़ा खयाल करना पड़ेगा, ज़ायका बदलना पड़ेगा।
अगर तुम्हें मसाले की और तेल की ही आदत लग गई है, उत्तेजक चीज़ों की ही आदत लग गई है, तो तुमको कबीर साहब, नानक शाह, फ़रीद, बुल्लेशाह, रूमी, ये लोग भाएँगे नहीं। अधिक-से-अधिक रूमी थोड़े पसंद आ जाएँगे, क्योंकि वहाँ पर थोड़ी उत्तेजना तुमको उपलब्ध हो जाती है। पर कबीर साहब की बात तुम्हें बहुत अखरेगी, क्योंकि वो बार-बार मौत की याद दिलाएँगे और बार-बार तुम पर चोट करेंगे। तुम कहोगे, 'भक्क! इससे अच्छा तो आतिफ़ असलम। लगाओ रे, लेटेस्ट (नवीनतम) सूफ़ियाना क्या चल रहा है?’
लेटेस्ट सूफ़ियाना से बचकर रहना! सूफ़ी गीत अगर चाहिए हों तो असली सूफ़ियों की सुनो। इसी तरह से उन भजनों से बचो जो आजकल जगरातों पर बजते रहते हैं। संतवर हैं तुलसी, उनके पास जाओ, मीरा की सुनो। पहले कम-से-कम इतना होता था कि रामचरितमानस को लोग परंपरा के मारे ही सुन लेते थे, अब तो वो भी प्रचलन से बाहर हो चुकी है। ‘बहुत बोरिंग (उबाऊ) है। वही राम-रावण-सीता, कौन सुने!’
उधर जाकर तो देखो! मज़े के ही पुजारी हो न? उधर भी मज़ा है और बहुत ऊँचा मज़ा है। ज़िंदगी बदल जाएगी, नए-नए द्वार खुल जाएँगे, ऐसी बातें समझ में आने लगेंगी जिनका अभी कुछ तुम्हें होश ही नहीं है। दिल में जो आग जलती रहती है न — कभी डर, कभी संताप, क्रोध, ईर्ष्या — ये सब बुझेगी। मन का मौसम बड़ा शांत हो जाएगा, तुम्हारे निर्णयों में धार आ जाएगी। दिन भर पाँच-दस निर्णय तो हम सभी करते हैं, छोटे-बड़े। तुम्हारे निर्णय सटीक होने लगेंगे, जिस दिशा को चुनोगे वो दिशा सही निकलने लगेगी।
तो मेहनत करिए, काम करिए, किताबें ऑर्डर करिए, ऑनलाइन सब्सक्राइब करिए। जिधर लगे कि मुक्ति है, ज्ञान है, बोध है, उधर एक बार नहीं, बार-बार जाइए।
साल में पिक्चरें कितनी देख लेते हो, थियेटर और घर मिलाकर के? बोलो! अब तो नेटफ़्लिक्स भी है। जल्दी बताओ!
नहीं, अब सब अच्छे बच्चे बन रहे हैं — ‘नहीं, हम तो नहीं बताएँगे हमने कितनी देखी हैं।‘
श्रोता१: दो-तीन पिक्चर देखी हैं।
आचार्य: हाँ।
श्रोता२: पंद्रह से बीस।
आचार्य: पंद्रह से बीस, उनमें सीरियल (धारावाहिक) भी जोड़ो। और ऐसे किसी सत्र में कितनी बार बैठते हो? वो तो हर हफ़्ते करने वाली चीज़ होती है। हर शुक्रवार को नई रिलीज़ आ जाती है। ये (सत्र) थोड़े ही हर शुक्रवार को करेंगे, उसमें ज़रा चस्का है।
अब मेरी ज़िंदगी देखो। मैं रोज़ क्या करता हूँ? बोलो? मैं रोज़ क्या करता हूँ? मैं यही करता हूँ। बस यही अंतर है, और कुछ नहीं, मैंने मेहनत की है। मैं ये भी नहीं कहूँगा कि ऊपर वाले ने कुछ मुझे बक्शा जो तुम्हें नहीं; वो तो ऐसा कोई भेदभाव करता ही नहीं है, सबकुछ उसने सबको दिया। जैसे जब पढ़ाई का साल शुरू होता है तो किताबें सारे छात्रों को मिल जाती हैं। सबको मिल जाती हैं न? सबके बस्ते में वही-वही किताबें होती हैं। अब कुछ छात्र उन किताबों को पढ़ते हैं, और कुछ कहते हैं, ‘चलो, दूसरी चीज़ें हैं।‘
मैं बिलकुल तुम्हारे ही जैसा हूँ, बस सही दिशा में मेहनत कर लेता हूँ। कोई फ़र्क नहीं है, ये इतना जो ‘आचार्य जी प्रणाम’ वगैरह लिखते हो वो भी गैर ज़रूरी है, कोई मूल अंतर है नहीं हम में-तुम में।
मैं अभी पाँच घंटे यहाँ आपसे बात करूँगा, उसके बाद कल वापस गया, चार बजे सोया हूँ, और चार बजे तक भी इन दोनों से जो मैं बात कर रहा था वो किसी भी तुक से व्यक्तिगत नहीं थी, निजी नहीं थी, काम की ही बात हो रही थी। बस यहीं पर फ़र्क आ जाता है। मैं काम करता हूँ, और मैं काम न करूँ तो कुछ अलग नहीं, वैसा ही उलझाव मुझे भी होने लगेगा जैसा आप बता रहे हैं — कि कुछ आएगा, कुछ जाएगा, कुछ पकड़ेगा, कुछ छोड़ेगा — दस चीज़ें होने लगेंगी।
साधना चाहिए न, कि नहीं चाहिए? अरे, एक किलो वज़न घटाने के लिए भी बड़ी मेहनत करनी पड़ती है, और यहाँ तो अपनी पूरी हस्ती को घटाना है, तो बताओ कितनी मेहनत चाहिए? कुछ हो रही है मेहनत? क्यों, बबिता?
मेहनत तो हो रही है, पर दिशा दूसरी है।
एक बात जिस पर मैं हमेशा बहुत ज़ोर देकर बोलता हूँ वो है चौबीस घंटे का ध्यान। चौबीस घंटे के ध्यान का क्या मतलब हुआ? कि मुझे सुन लो, मैं चला जाऊँ उसके बाद भी सुनते रहो, ध्यान बना रहे, काम लगातार चलता रहे।
प्र: तप हो गया ये तो।
आचार्य: तप तो है ही। तप नहीं करोगे तो क्या करोगे? या तो तपस्या कर लो, या तप लो। देखो, तपना तो दोनों ही स्थितियों में है। उचित तप होगा तो तपस्या कहलाती है, उचित तप नहीं है तो कहते हैं, 'लो, ये तप लिए।' लखनऊ में कई बार कहते हैं, ‘नप लिए।‘
ज़िंदगी इसलिए नहीं है कि चाट-चटकारे, कबाब-करारे। वो सब ज़िंदगी में आती-जाती चीज़ें हैं, वो ज़िंदगी का उद्देश्य नहीं हैं भाई। अंतर कुछ है कि नहीं है? तुम गाड़ी लेकर चले जा रहे हो, राह में पेड़ मिल रहे हैं, पत्थर मिल रहे हैं, राहगीर मिल रहे हैं, वो राह में आने-जाने वाली चीज़ें हैं, वो मंज़िल तो नहीं हैं न? तो कबाब-करारे के लिए जी क्यों रहे हो? और बहुत लोग हैं जो इसीलिए जी रहे हैं।
अब खतरनाक बात सुनो — बहुत लोग हैं जो तपस्या भी इसीलिए कर रहे हैं। व्रतधारियों से पूछो, वो बताएँगे। सुबह से बिलकुल व्रत रखा है — ‘रात के बारह बजे आज माल बढ़िया मिलेगा।‘ लखनऊ में हो, जानते ही होगे, सबसे ज़्यादा व्यंजन रमज़ान पर ही बनते हैं। हम तो ऐसे हैं जो तपस्या भी भोग के लिए कर जाते हैं, और पेट का ही भोग हो ये ज़रूरी थोड़े ही है! तपस्या इसलिए चल रही है कि वो (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) उतरें तो उनसे माँगें, और फिर वो कहें, ‘तथास्तु!’
सब भोग आने-जाने वाली चीज़ें हैं, तुम हो किसलिए ये याद रखो। और वो याद रखना मुश्किल नहीं है अगर तुम ये याद रखो कि तुम प्रतिपल तड़प रहे हो, तुम वो हो जो लगातार परेशान है, तुम वो हो जिसके माथे पर सिलवटें हैं। तुम अगर ये लगातार याद रखो, तो फिर तुम्हें ये भी याद रहेगा कि जीवन का उद्देश्य क्या है।
अगर मुझे ये लगातार पता है कि मैं वो हूँ जो परेशान है, तो फिर मुझे ये भी तो पता है न कि मेरे होने का सबब एक ही हो सकता है — परेशानी से मुक्ति। अब तुम कबाब की ओर बहुत आकर्षित नहीं हो सकते, तुम कहोगे, ‘मुक्ति बड़ी है या कबाब!’ मतलब कभी-कभार ठीक है चलो, पर जी इसलिए थोड़े ही रहे हैं कि भोगेंगे, जी इसलिए थोड़े ही रहे हैं कि खाएँगे। जी तो इसलिए रहे हैं न, कि जैसे हैं वैसे न रहें?
इस सारी बात के केंद्र में ये ईमानदार स्वीकृति है कि मैं परेशान हूँ, और जो आदमी ये मानना ही बंद कर दे कि वो परेशान है, उसकी आध्यात्मिक यात्रा कभी शुरू नहीं होती। जिस आदमी ने अपनी आध्यात्मिक यात्रा के शुरू में ही कह दिया कि मैं तो आत्मा-मात्र हूँ, अहम् ब्रह्मास्मि, उसकी यात्रा शुरू होने से पहले ही खत्म हो गई।
मुझे सबसे ज़्यादा अड़चन उन्हीं लोगों से है जो अभी हैं साधक आरंभिक श्रेणी के ही, पर उनको बड़ा लुत्फ़ आता है कहने में कि मैं तो परम सत्य हूँ, मैं ही आत्मा हूँ, मैं ही ब्रह्म हूँ। तो कहते हैं — मंसूर ही क्यों बोले ‘अनलहक’, हम भी बोलेंगे। तुम अपना मुँह देखो और तुम बोल क्या रहे हो ये देखो।
यात्रा की शुरुआत में बोलो, ‘मैं परेशान हूँ। मैं क्या हूँ? मैं बेचैन हूँ।‘ ये मत बोलो कि शिवोऽहम्, मैं तो शिव-मात्र हूँ। ये शोभा नहीं देता तुमको, अभी तो ईमानदारी से स्वीकार करो कि साहब, गड़बड़ है। जब स्वीकार करोगे कि गड़बड़ है, तभी तो आगे बढ़ोगे और कहोगे कि गड़बड़ हटानी है। जहाँ तुमने माना कि गड़बड़ है, तहाँ तुम्हें पता चल गया कि जी क्यों रहे हो। क्यों जी रहे हो? गड़बड़ हटाने के लिए। पर अगर शुरू में ही कह दिया कि शिवोऽहम्, तो फिर तो खेल खत्म।
समझ रहे हो?
ये भी आजकल बड़ा चलन हो रहा है, संतों को, शास्त्रों को उद्धृत करके ये बताना कि मैं तो पहले ही पूर्ण हूँ। ‘सबकुछ पूर्ण है। उपनिषद् कहते हैं कि ये भी पूर्ण है, वो भी पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण का ही जन्म होता है और पूर्ण से पूर्ण को निकाल दो तो भी पूर्ण ही शेष रहता है। तो मैं तो पूर्ण हूँ ही। पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।‘
टी-शर्ट पर लिखा देखा है मैंने, इसलिए बता रहा हूँ, शांति पाठ टी-शर्ट पर लिखा देखा है। पूरा नहीं था, बस यही — “पूर्णमदः पूर्णमिदं।”
तुम पूर्ण नहीं हो, मत बोलो कि तुम पूर्ण हो। वो बात उनको बोलने दो जिन्होंने बहुत साधना की, बहुत मेहनत की और अपनी यात्रा के अंत में उन्होंने कहा कि मैं पूर्ण हूँ। तुम्हारी तो यात्रा अभी शुरू भी नहीं हुई है, तुम में ज़रा विनम्रता होनी चाहिए। पर आजकल ये जो नियो स्पिरिचुअलिटी (नव-अध्यात्म) है, इसमें तो शुरुआत ही यहाँ से होती है — ‘यू आर ऑलरेडी ऑलराइट, जस्ट एक्सेप्ट एवरीथिंग (तुम पहले से ही ठीक हो, बस सबकुछ स्वीकार कर लो)। कुछ गलत है ही नहीं, सब ठीक है, सब बढ़िया है, यू आर ऑलरेडी ऑलराइट।‘
ये नशा है, ये अफ़ीम है, इससे बचकर रहना! जब भी तुम्हें कोई बोले, ‘यू आर ऑलरेडी ऑलराइट,’ तुरंत बच जाना! कहना, ‘गलत! तेरे ये कह देने से अगर मैं शांत हो जाता, तो तूने सही कहा, पर हकीकत ये है कि ऊपर-ऊपर मैं कितना भी कहता रहूँ कि मैं तो ठीक हूँ, दिल तो मेरा तड़प ही रहा है न? और जब दिल तड़प रहा है तो ऊपर से क्यों बोलूँ कि मैं ठीक हूँ?’
संतों ने विरह के गीत गाए, वो कह रहे हैं कि अभी उनको मिलन नहीं हुआ। फ़कीर योग के लिए तड़पे हैं, वो कह रहे हैं, ‘कब फ़ना होऊँगा?’ और ये टी-शर्ट पहनकर, गाँजा फूँककर कहते हैं, ‘आई एम ऑलरेडी ऑलराइट (मैं पहले से ही ठीक हूँ)।‘
सबसे बड़ा अंधा कौन? जिसे अपने दोषों पर कोई नज़र न हो। कल आपसे क्या कह रहा था? दूसरों के साथ नर्म हो लेना, अपने साथ बहुत सख्त रहना। मन उल्टी चाल चलता है, मन दूसरों में दोष देखता है और अपने?
प्र: नहीं।
आचार्य: “दोष पराए देखकर, चले हसंत-हसंत, अपने दोष न देखहीं, जाकी आदि न अंत।”
‘मैं तो ऑलरेडी ऑलराइट हूँ, गलती और कुसूर सब हैं तो उधर।‘