दम कैसे लाएँ?

Acharya Prashant

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दम कैसे लाएँ?
अपने ऊपर काम करना पड़ेगा ना। घर बनवाने के लिए काम करने को राज़ी हो, किसी और का धंधा चलता रहे उसके लिए काम करने को राज़ी हो, अपनी जो गहरी-से-गहरी समस्याएँ हैं, उलझने हैं, उनको हटाने के लिए अपने ऊपर काम करने को क्यों नहीं राज़ी हो? काम, मैं बिल्कुल सीधे कह रहा हूँ — काम। काम तो करो? या ऐसा समझते हो कि नहीं, काम तो तभी चाहिए जब बाज़ार से भाजी खरीदनी है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ये पूछना चाह रहे थे जैसे ऐसा क्यों लगता है कि जैसे अभी इस मतलब माहौल में हैं या ऐसी जगह पर हैं, इससे निकलने के बाद फिर वो जैसे लगता है कि कुछ रह जाता है। मतलब मुझे तो किसी की याद आती है तो वो ऐसा क्यों लगता है जैसे कि अब हर एक माहौल में एक इल्यूजन (भ्रम) सा रहता है, जब वहाँ से मैं बाहर आता हूँ तो फिर वो कहीं अटकता है जाकर। ऐसा क्यों? मतलब या कोई चीज़ फोल्ड है, जब अनफोल्ड होती है तो फिर वो फोल्ड हो जाती है आगे जाकर।

आचार्य प्रशांत: ऐसा लगता है तो भली बात है ना, और लगना चाहिए, और जल्दी लगना चाहिए।

प्रश्नकर्ता: तो डर क्यों लगता है।

आचार्य प्रशांत: डर लगता है तो इसीलिए उसे पूरा नहीं अनुभव करते। जो लगता है वो और शीघ्र लगना चाहिए, और ज़्यादा, और पूर्णता से लगना चाहिए।

प्रश्नकर्ता: ऐसा भी लगता है जैसे कि वो घूमता रहता है। मतलब मैं कुछ करता नहीं हूँ, वो अपने आप ही ऐसे लगता है कि अपने आप होता है। और फिर धीरे-धीरे फिर डायल्यूट होकर फिर वो थोड़ी देर के बाद, एक-दो दिन के बाद फिर वो चीज़ आती है, फिर वो हटता है।

आचार्य प्रशांत: कुछ है जो आपको बता रहा है कि जिसमें जी रहे हो, वही बस नहीं है, कोई दूसरी चीज़ भी है, कोई वैकल्पिक चीज़ भी है। कोई दूसरी चीज़ ना होती तो पहली चीज़ आती-जाती क्यों? तो ये सब इशारे हैं, मन की उथल-पुथल भी इशारा होती है। अब या तो इन इशारों की सुन लो, मन को समझो, हम कौन हैं ये जानो, जन्म क्या है और किसलिए हुआ है ये देखो, या फिर यही देखते रहो कि हाँ, कभी चैन है, कभी नहीं है, कभी ये होता है, कभी वो होता है।

प्रश्नकर्ता: नहीं वो जिसे कहते है — सुई अटक जाती है उसके उपर।

आचार्य प्रशांत: सदा अटकी रहती है? सदा अटकी रहती है?

प्रश्नकर्ता: नहीं, फिर खुल जाती है। लेकिन फिर वो अटकती है उसी पर जाकर।

आचार्य प्रशांत: सदा के लिए अटकने नहीं दे रहे न? क्योंकि जहाँ को अटक रही है उस जगह से घबराते हो।

प्रश्नकर्ता: नहीं, फिर ऐसा फ़ील होता है जैसे, ना कुछ मेरा है ना कुछ तेरा है, जो भी कुछ है सब उसका है। तो फिर अपने हाथ फ्रिज़ (जम) हो जाते हैं।

आचार्य प्रशांत: उस फ़ीलिंग (भावना) में अगर दम होता तो वो थम जाती।

प्रश्नकर्ता: हाँ, थमती नहीं है वो।

आचार्य प्रशांत: तो दम नहीं है।

प्रश्नकर्ता: तो फिर भी वो आती रहती है।

आचार्य प्रशांत: हाँ तो ऐसी है बिना दम के।

प्रश्नकर्ता: दम कैसे लाएँ फिर? (सभी हँसते हुए)

आचार्य प्रशांत: आती है, चली जाती है। (आचार्य जी हँसते हुए)

प्रश्नकर्ता: दम कैसे लाया जाए?

आचार्य प्रशांत: दम तभी होगा उसमें जब उसकी शुद्धि होगी। अभी जो बात तुम अपने आप को बता रहे हो वो बात शुद्ध है ही नहीं, चूँकि वो शुद्ध नहीं है इसीलिए वो टिक नहीं पाती।

प्रश्नकर्ता: शुद्ध कैसे लाया जाए?

आचार्य प्रशांत: और पढो, और जानो। कल दो बातें बोली थीं — वो सुनो, जो बड़े लोग बता गए हैं, और वो देखो जो तुम्हारा जीवन है। इतनी चीज़ें पढ़ते हो, इतनी चीज़ें देखते हो, दो-चार ढंग की किताबें भी पढ़ लो। साथ-साथ अपनी ज़िंदगी और मन पर कड़ी नज़र रखो कि चल क्या रहा है।

आध्यात्मिक साहित्य के पाठ का कोई विकल्प नहीं है। चुपचाप अकेले में बैठकर के जब आप अष्टावक्र को पढ़ते हैं, या किसी ज़ेन कोआन के सामने भौंचक्के रह जाते हैं, या किसी सूफ़ी कहानी के सामने, या उपनिषद पर मनन करते हैं, या गीत ही सुन लेते हैं बुल्लेशाह का। चुप बैठे हैं और संगीत से कमरा भरा हुआ है तो उस वक्त आपका जो आंतरिक विकास होता है उसकी कोई मिसाल नहीं है दूसरी।

अपने ऊपर काम तो करना पड़ेगा ना भाई। घर बनवाने के लिए काम करने को राज़ी हो, किसी और का धंधा चलता रहे उसके लिए काम करने को राज़ी हो, अपनी जो गहरी-से-गहरी समस्याएँ हैं, उलझने हैं, उनको हटाने के लिए अपने ऊपर काम करने को क्यों नहीं राज़ी हो? काम, मैं बिल्कुल सीधे कह रहा हूँ — काम। काम तो करो? या ऐसा समझते हो कि नहीं, काम तो तभी चाहिए जब बाज़ार से भाजी खरीदनी है। भाजी खरीदने के लिए काम कर सकते हो, अपनी मुक्ति के लिए काम नहीं करोगे? तो थोड़ी मेहनत करो ना, अपने ऊपर प्रयोग करो, अपने आप को चुनौतियाँ दो और पढ़ो। कैसे बात बनेगी, बताओ?

तुमने कबीरों के साथ कभी गाया नहीं, तुमने सूत्रों पर कभी चिंतन नहीं किया। बचपन से तुम घर में पूजा-पाठ होता था तो श्लोक सुन लेते थे, तुमने उसको यूँ ही उड़ा दिया कि ये तो संस्कृत है। इसका मतलब क्या जानना (आचार्य जी हँसते हुए)। हर पूजास्थल से श्लोक बरसते रहते हैं। पर ना तो तुमने जानना चाहा कि गीता के श्लोकों का क्या अर्थ है, ना तुम्हें यही पता कि मस्ज़िद से जो आयतें आ रही हैं वो क्या कह रही हैं। क्यों नहीं पता? क्योंकि जानने में मेहनत लगती है। तुम्हारे अनुसार मेहनत जायज़ है अगर नया सोफ़ा खरीदना हो घर में, तब तो कर ले जाओगे मेहनत। पर मेहनत बड़ी नाजायज़ है अगर कहीं दूर जाकर के किसी से मिलना हो और पूछना हो कि ये बात है, सामने ये श्लोक रखा है, नहीं समझ में आ रहा, बताइए। तो तुम कहोगे — 'कौन समय लगाए, छुट्टी ले, पैसा खर्चे।' तो मैं तो वही सवाल पूछ रहा हूँ जो शिक्षक छात्रों से हमेशा पूछते हैं — मेहनत करी है? मेहनत करी है? और मेहनत नहीं करी तो फल काहे का माँग रहे हो? मेहनत करी है? सीधी-सीधी मेहनत की बात कर रहा हूँ।

कल हमने कहा था दो चीज़ें देखना — अपना धन कहाँ खर्चते हो और अपना समय कहाँ खर्चते हो। वही फिर आज, वहीं पर आ गए कि मेहनत करी है? धन खर्चा है? समय खर्चा है? दौड़ लगाई है? बोझ उठाया है? कोई अगर पाने लायक चीज़ होती है तो आदमी उसके दाम चुकाता है या नहीं चुकाता है? उसको समय देता है कि नहीं? और ये तो बताना मत कि तुम्हारे पास समय नहीं है। गाड़ियाँ घर-घर हैं, गाड़ियों में चलते हो। वहाँ एफएम (रेडियो) से गंदगी बरसती रहती है और तुम नहाते हो उसमें। एक ढ़ंग की सीडी ही लगा लो गाड़ी के प्लेयर में। नहीं (आचार्य जी मुस्कुराते हुए) छह एफएम आते हैं। काहे को कुछ और सुनें? (हँसते हुए) देने वाले ने इतने विकल्प दिए हैं।

व्हाट्सएप से कचरा बरसता रहता है और तुम उसको समेटते रहते हो। और समेटकर बिल्कुल अपने घर ही ले जाते हो। उसी इंटरनेट पर न जाने कितना बोध साहित्य पड़ा है, तुमने पढ़ा क्या? बोलो? अगर तुम्हारे फोन पर व्हाट्सएप चलता है, तो इंटरनेट तो चल रहा है। चल रहा है कि नहीं? (आचार्य जी हँसते हुए) और दुनिया का कोई ग्रन्थ नहीं है? आज, जो डिजीटली उपलब्ध न हो। यूट्यूब अपने आप में कितना बड़ा संसाधन है, तुमने उपयोग किया उसका? और उसमें तो पैसा भी कुछ ज़्यादा नहीं लगता। मेहनत चाहिए भाई, हम मेहनत ही नहीं कर रहे, और मेहनत इसलिए नहीं कर रहे क्योंकि वो दिशा ही हमको बहुत कीमती नहीं लगती। हमें लगता है सारी कीमत तो इस दुनिया में ही है, उस तरफ़ तो मेहनत ही नहीं कर रहे।

तुम ताज्जुब मत मानना, एक पारसी महिला अभी बीते महीनों में मिलने आईं। पारसी, मैंने कहा कि आप 'अवेस्ता' का पाठ करिए। उन्हें जीवन में कुछ दिक्कतें आ रही थीं, पति से मन-मुटाव था, और भी कुछ बातें थीं। मैंने कहा आप 'अवेस्ता' का पाठ करिए। फार्सियों का ग्रंथ है। तो बोलीं, क्या? मैंने बोला, 'ज़ेंद अवेस्ता', पूरा नाम लिया। वो कुछ देर तक तो मेरा मुँह ताकती रहीं, फिर बोलीं, इज़ इट रिलेटेड टू ज़ेन? (क्या यह ज़ेन से संबंधित है?) ये एक पारसी महिला का वक्तव्य है। उन्हें अपने ही धर्म का ग्रंथ नहीं पता। ये क्या ज़माना है? ये क्या है? और फिर तुम चाहते हो कि ज़िंदगी में सुकून बना रहे, कैसे बना रहेगा भई?

यहाँ बड़ी-बड़ी कंपनियों में चालीस-चालीस, पचास-पचास साल के लोग होंगे, बड़े ओहदों पर बैठे हुए होंगे। आप उनसे कहिए 'अष्टावक्र', तो कहेंगे, 'विच वकर?' 'अद्वैत' तो बोल दिया तो गुनाह हो गया, 'ऐडवेट'। इन अनपढ़ों ने 'अद्वैत' शब्द ही नहीं सुना है। इन्हें मुक्ति मिलेगी? अभी हुआ है बीते दिनों, कुछ लिबरल (उदारवादी) किस्म के लोग थे। तो बोले आजकल इस्लामोफोबिया बहुत फैल गया है, लोगों को पता ही नहीं है। तो उन्होंने कहा, हम जाएँगे। एक वाहियात कैंपेन चलाया गया था की 'मीट अ मुस्लिम' वगैरह, जो काफी अपमानजनक है मुस्लिमों के प्रति, मुझे लगता है। तो मुहर्रम बीता अभी, तो जाकर बता रहे थे मुहर्रम मुबारक! मुहर्रम मुबारक! और ये इस्लामोफोबिया के विरुद्ध उनका अभियान था, मुहर्रम मुबारक।

तुम्हें कुछ पता है? बस तुम जब सुन लोगे किसी पॉप गीत में, 'दमदम अली-अली, दमदम अली-अली।' तो तुम्हें लगेगा, दमदम अली-अली। अली कौन? बताओ, अली कौन? हसन कौन? हुसैन कौन? हैं! ये भी? कौन हसन? किन हुसन? पाकिस्तानी टीम में एक अली हसन खेलता है क्रिकेटर, उसकी बात कर रहे हैं आप? कौन? जब न तुम अली को जानते, न हसन को, न हुसैन को, तो बोलोगे ही 'मुहर्रम मुबारक'। ये घोर इललिटरेसी (अशिक्षा) है, ऐसे नहीं काम चलता। मेहनत करनी पड़ेगी भाई (आचार्य जी हँसते हुए) और उसके लिए तुम्हारे पास समय भी है, संसाधन भी हैं।

इंटरनेट का ही वाजिब इस्तेमाल करो, बहुत लाभ हो जाएगा। इतनी वहाँ पर आध्यात्मिक सामग्री उपलब्ध है कि तर जाओगे। पर ज़बान का थोड़ा खयाल करना पड़ेगा, ज़ायका बदलना पड़ेगा। अगर तुम्हें मसाले की और तेल की ही आदत लग गई है, उत्तेजक चीज़ों की ही आदत लग गई है तो तुमको कबीर साहब, नानक शाह, फ़रीद, बुल्लेशाह, रूमी; ये लोग भाएँगे नहीं। अधिक-से-अधिक रूमी थोड़े पसंद आ जाएँगे, क्योंकि वहाँ पर थोड़ी उत्तेजना तुमको उपलब्ध हो जाती है। पर कबीर साहब की बात तुम्हें बहुत अखरेगी क्योंकि वो बार-बार मौत की याद दिलाएँगे और बार-बार तुम पर चोट करेंगे, तुम कहोगे, 'भग!' इससे अच्छा तो आतिफ़ असलम। लगाओ रे, लेटेस्ट सूफ़ियाना क्या चल रहा है। लेटेस्ट सूफ़ियाना से बचकर रहना। सूफ़ी गीत अगर चाहिए हों, तो असली सूफ़ियों की सुनो। इसी तरह से उन भजनों से बचो जो आजकल जगरातों पर बजते रहते हैं। संतवर हैं तुलसी, उनके पास जाओ, मीरा की सुनो।

पहले कम-से-कम इतना होता था कि रामचरितमानस को लोग परंपरा के मारे ही सुन लेते थे। अब तो वो भी प्रचलन से बाहर हो चुकी है। ये बहुत बोरिंग है, वही राम, रावण, सीता, कौन सुने। उधर जाकर तो देखो, मज़े के ही पुजारी हो ना; उधर भी मज़ा है और बहुत ऊँचा मज़ा है। ज़िंदगी बदल जाएगी। नए-नए द्वार खुल जाएँगे। ऐसी बातें समझ में आने लगेंगी जिनका तुम्हें अभी कुछ होश ही नहीं है। दिल में जो आग जलती रहती है न, कभी डर, कभी संताप, क्रोध, ईर्ष्या; ये सब बुझेगी। मन का मौसम बड़ा शांत हो जाएगा। तुम्हारे निर्णयों में धार आ जाएगी।

दिन भर पाँच-दस निर्णय तो हम सभी करते हैं, छोटे-बड़े। तुम्हारे निर्णय सटीक होने लगेंगे, जिस दिशा को चुनोगे, वो दिशा सही निकलने लगेगी। तो मेहनत करिए, काम करिए, किताबें ऑर्डर करिए, ऑनलाइन सब्सक्राइब करिए। जिधर लगे कि मुक्ति है, ज्ञान है, बोध है, उधर एक बार नहीं, बार-बार जाइए। साल में पिक्चरें कितनी देख लेते हो, थियेटर और घर मिलाकर, बोलो? अब तो नेटफ्लिक्स (Netflix) भी है। जल्दी बताओ? नहीं, अब सब अच्छे बच्चे बन रहे हैं, हम तो नहीं बताएँगे, हमने कितनी देखी हैं।

श्रोतागण: दो-तीन पिक्चर देखी हैं।

आचार्य प्रशांत: हाँ।

श्रोतागण: पंद्रह से बीस।

आचार्य प्रशांत: पंद्रह से बीस, उनमें सीरियल भी जोड़ो। और ऐसे किसी सत्र में कितनी बार बैठते हो। वो तो हर हफ्ते करने वाली चीज़ होती है। हर शुक्रवार को नई रिलीज़ आ जाती है। ये थोड़े ही हर शुक्रवार को करेंगे, उसमें ज़रा चस्का है। अब मेरी ज़िंदगी देखो। मैं रोज़ क्या करता हूँ? बोलो? मैं रोज़ क्या करता हूँ? मैं यही करता हूँ। यही अंतर है, और कुछ नहीं, मैंने मेहनत की है।

मैं ये भी नहीं कहूँगा कि ऊपरवाले ने कुछ मुझे बक्शा जो तुम्हें नहीं, वो तो ऐसा कोई भेदभाव करता ही नहीं है। सब कुछ उसने सबको दिया। जैसे जब पढ़ाई का साल शुरू होता है तो किताबें सारे छात्रों को मिल जाती हैं। सबको मिल जाती हैं ना? सबके बस्ते में वही-वही किताबें होती हैं। अब कुछ छात्र उन किताबों को पढ़ते हैं और कुछ कहते हैं चलो दूसरी चीज़ें हैं। मैं बिल्कुल तुम्हारे ही जैसा हूँ। बस सही दिशा में मेहनत कर लेता हूँ। कोई फ़र्क नहीं है। इतना जो आचार्य जी प्रणाम वग़ैरह लिखते हो, वो भी गैर ज़रूरी है। कोई मूल अंतर है नहीं तुममें हममें।

मैं अभी पाँच घंटे यहाँ आपसे बात करूँगा, उसके बाद कल वापस गया चार बजे सोया हूँ, और चार बजे तक भी इन दोनों से जो मैं बात कर रहा था, वो किसी भी तुक से व्यक्तिगत नहीं थी, निजी नहीं थी। काम की ही बात हो रही थी। बस यही पर फ़र्क आ जाता है। मैं काम करता हूँ, और मैं काम न करूँ तो कुछ अलग नहीं, वैसा ही उलझाव मुझे भी होने लगेगा जैसा आप बता रहे हैं; कि कुछ आएगा, कुछ जाएगा, कुछ पकड़ेगा, कुछ छोड़ेगा। दस चीज़ें होने लगेंगी। साधना चाहिए न कि नहीं चाहिए? अरे, एक किलो वज़न घटाने के लिए भी बड़ी मेहनत करनी पड़ती है, और यहाँ तो अपनी पूरी हस्ती को घटाना है; तो बताओ कितनी मेहनत चाहिए? कुछ हो रही है मेहनत? क्यों बबिता? मेहनत तो हो रही है, पर दिशा दूसरी है।

एक बात जिस पर मैं हमेशा बहुत ज़ोर देकर बोलता हूँ, वो है — चौबीस घंटे का ध्यान। चौबीस घंटे के ध्यान का क्या मतलब हुआ? कि मुझे सुन लो, मैं चला जाऊँ उसके बाद भी सुनते रहो, ध्यान बना रहे। काम लगातार चलता रहे।

प्रश्नकर्ता : तप हो गया ये तो।

आचार्य प्रशांत: तप तो है ही। तप नहीं करोगे तो क्या करोगे? या तो तपस्या कर लो या तप लो। देखो, तपना तो दोनों ही स्थितियों में है। उचित तप होगा, तो तपस्या कहलाती है; उचित तप नहीं है, तो कहते हैं, 'लो, ये तप लिए।' लखनऊ में कई बार कहते हैं, "नप लिए।"

ज़िंदगी इसलिए नहीं है कि चाट-चटकारे, कबाब-करारे (आचार्य जी हँसते हुए), वो सब ज़िंदगी में आती-जाती चीज़ें हैं; वो ज़िंदगी का उद्देश्य नहीं है, भाई। अंतर कुछ है कि नहीं है? तुम गाड़ी लेकर चले जा रहे हो, राह में पेड़ मिल रहे हैं, पत्थर मिल रहे हैं, राहगीर मिल रहे हैं; वो राह में आने-जाने वाली चीज़ें हैं। वो मंज़िल तो नहीं हैं, न? तो कबाब-करारे के लिए जी क्यों रहे हो? और बहुत लोग हैं जो इसीलिए जी रहे हैं।

अब खतरनाक बात सुनो, बहुत लोग हैं जो तपस्या भी इसीलिए कर रहे हैं। व्रत-धारियों से पूछना, वो बताएँगे। सुबह से बिल्कुल व्रत रखा है, रात के बारह बजे आज माल बढ़िया मिलेगा। लखनऊ में हो, जानते ही होगे। सबसे ज़्यादा व्यंजन रमज़ान पर ही बनते हैं। हम तो ऐसे हैं, जो तपस्या भी भोग के लिए कर जाते हैं। पेट का ही भोग हो, ये ज़रूरी थोड़े ही है। तपस्या इसलिए चल रही है, कि वो उतरें (आचार्य जी ऊपर की ओर इशारा करते हुए) तो उनसे माँगे और फिर वो कहें, तथास्तु! सब भोग आने-जाने वाली चीज़ें हैं। तुम हो किसलिए, ये याद रखो और वो याद रखना मुश्किल नहीं है। अगर तुम ये याद रखो, कि तुम प्रतिपल तड़प रहे हो। तुम वो हो, जो लगातार परेशान है। तुम वो हो, जिसके माथे पर सिलवटें हैं।

तुम अगर ये लगातार याद रखो, तो फिर तुम्हें ये भी याद रहेगा कि जीवन का उद्देश्य क्या है? अगर मुझे ये लगातार पता है कि मैं वो हूँ जो परेशान है, तो फिर मुझे ये भी तो पता है न, कि मेरे होने का सबब एक ही हो सकता है; परेशानी से मुक्ति। अब तुम कबाब की तरफ बहुत आकर्षित नहीं हो सकते। तुम कहोगे- “मुक्ति बड़ी है या कबाब?” मतलब कभी-कभार ठीक है चलो, पर जी इसलिए थोड़े रहे हैं कि भोगेंगे, जी इसलिए थोड़े रहे हैं कि खाएँगे। जी तो इसलिए रहे हैं न, कि जैसे हैं वैसे ना रहें। इस सारी बात के केन्द्र में ये ईमानदार स्वीकृति है कि मैं परेशान हूँ। और जो आदमी ये मानना ही बंद कर दे कि वो परेशान है, उसकी अध्यात्मिक यात्रा कभी शुरू नहीं होती। जिस आदमी ने अपनी अध्यात्मिक यात्रा के शुरू में ही कह दिया कि, "मैं तो आत्मा मात्र हूँ;" "अहम ब्रह्मस्मि" उसकी यात्रा शुरू होने से पहले ही खत्म हो गई।

मुझे सबसे ज़्यादा अड़चन उन्हीं लोगों से है, जो अभी हैं साधक आरंभिक श्रेणी के ही, पर उनको बड़ा लुत्फ़ आता है कहने में कि- "मैं तो परम सत्य हूँ" मैं ही आत्मा हूँ, मैं ही ब्रह्म हूँ।

तो कहते हैं — मंसूर ही क्यों बोले अनलहक़, हम भी बोलेंगे। तुम अपना मुँह देखो और तुम बोल क्या रहे हो, ये देखो। यात्रा की शुरुआत में बोलो मैं परेशान हूँ, मैं क्या हूँ? मैं बेचैन हूँ। ये मत बोलो कि शिवोऽहम्, मैं तो शिव मात्र हूँ। ये शोभा नहीं देता तुमको। अभी तो ईमानदारी से स्वीकार करो कि साहब, गड़बड़ है। जब स्वीकार करोगे कि गड़बड़ है, तभी तो आगे बढ़ोगे और कहोगे कि गड़बड़ हटानी है। जहाँ तुमने माना कि गड़बड़ है, वहाँ तुम्हें पता चल गया कि जी क्यों रहे हो? गड़बड़ हटाने के लिए। पर अगर शुरू में ही कह दिया कि ‘शिवोऽहम्’, तो फिर तो खेल खत्म समझ रहे हो?

ये भी आजकल बड़ा चलन हो रहा है, संतों को, शास्त्रों को उद्धृत करके ये बताना कि मैं तो पहले ही पूर्ण हूँ। सब कुछ पूर्ण है। उपनिषद् कहते हैं, 'ये भी पूर्ण है वो भी पूर्ण है,' पूर्ण से पूर्ण का ही जन्म होता है और पूर्ण से पूर्ण को निकाल दो, तो भी पूर्ण ही शेष रहता है। तो मैं तो पूर्ण हूँ ही।

“पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते” ~ शांति पाठ

टी-शर्ट पर लिखा देखा है मैंने, इसलिए बता रहा हूँ। शांति पाठ टी-शर्ट पर लिखा देखा है, पूरा नहीं था बस यही — “पूर्णमदः पूर्णमिदं।”

तुम पूर्ण नहीं हो। मत बोलो कि तुम पूर्ण हो। वो बात उनको बोलने दो, जिन्होंने बहुत साधना की, बहुत मेहनत की और अपनी यात्रा के अंत में उन्होंने कहा कि मैं पूर्ण हूँ। तुम्हारी तो यात्रा अभी शुरू भी नहीं हुई है। तुममें ज़रा विनम्रता होनी चाहिए। पर आजकल ये जो नियोस्पिरिचुअलिटी है, इसमें तो शुरुआत ही यहाँ से होती है — “यू आर आलरेडी आलराइट।” जस्ट एक्सेप्ट एव्रीथिंग। कुछ गलत है ही नहीं, सब ठीक है। सब बढ़िया है, यू आर आलरेडी आलराइट।

ये नशा है, ये अफ़ीम है, इससे बचकर रहना। जब भी तुम्हें कोई बोले- यू आर आलरेडी आलराइट; तुरंत बच जाना। कहना — गलत। तेरे ये कह देने से अगर मैं शांत हो जाता तो तूने सही कहा; पर हक़ीकत ये है कि ऊपर-ऊपर मैं कितना भी कहता रहूँ कि मैं तो ठीक हूँ, दिल तो मेरा तड़प ही रहा है न? और जब दिल तड़प रहा है तो ऊपर से क्यों बोलूँ कि मैं ठीक हूँ।

संतों ने विरह के गीत गाए। वे कह रहे हैं कि अभी उनको मिलन नहीं हुआ। फ़कीर योग के लिए तड़पे हैं, वे कह रहे हैं — "कब फ़ना होऊँगा?” और ये टी-शर्ट पहनकर, गाँजा फूँक कर कहते हैं — "आई एम ऑलरेडी ऑलराइट।"

सबसे बड़ा अंधा कौन? जिसे अपने दोषों पर कोई नज़र न हो। कल आपसे क्या कह रहा था? दूसरों के साथ नर्म हो लेना, अपने साथ बहुत सख़्त रहना। मन उल्टी चाल चलता है, मन दूसरों में दोष देखता है और अपने?

श्रोतागण: नहीं।

आचार्य प्रशांत: “दोष पराए देखकर चले हसंत-हसंत, अपने दोष न देखहीं जाकी आदि न अंत।”

मैं तो ऑलरेडी ऑलराइट हूँ। गलती और कुसूर सब हैं तो, उधर।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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