प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। आचार्य जी, हम तो जो भी काम कर रहे हैं, वो तो हमें पदार्थ से ही जोड़ता है, तो फिर सही काम कैसे चुनें?
आचार्य प्रशांत: तुमने शुरुआत करी न, ये सवाल तो तुम्हारे सामने आया न कि सही काम क्या है। दिन-रात अगर खट रहे हैं, वो भी गलत काम करने में खट रहे हैं, तो वो तो बड़ी बेवकूफ़ी हो गई। तुम्हारे सामने ये सवाल तो आया न, ये विचार तो आया न कि सही काम क्या है। कैसे आया है ये विचार? यहाँ मौजूद हो, तुमने समय दिया। तो ऐसे ही और समय दो इस प्रश्न को कि जीवन किसलिए है।
अगर सारा समय तुम बॉस की सेवा को ही दे दोगे, तो असली प्रश्न पर विचार कब करोगे? तुम्हारे पास ज़रा भी समय है क्या जीवन के वास्तविक प्रश्नों की गहराई में उतरने के लिए? संसार का काम यही है, वो तुमको समय नहीं छोड़ता, लगातार उलझाए रखता है। तुम्हारा एक मिनट भी तुम्हारा नहीं रहने देता। बढ़िया है तुम्हें मौका ही नहीं मिलता कि थमकर देख पाओ कि ये चल क्या रहा है, ये मामला क्या है, मैं फँसा कहाँ हुआ हूँ, ये क्या चक्की चले जा रही है रोज़।
मिनट-मिनट तुम्हारा बंधा हुआ है, अब ये करोगे, अब ये करोगे, अब ये करोगे, अब ये करोगे, अब ये करोगे; अवकाश मिलता ही नहीं। अब ज़रा सा अवकाश मिला, तो देखो तुम्हारे सामने ये सवाल आ गया। ऐसे अवकाश अपने आप को और देना शुरू करो। ये पहली सीढ़ी है, अपने आप को खाली रखना शुरू करो, इन प्रश्नों से उलझना शुरू करो। इनसे उलझोगे तो बेचैनी बढ़ेगी, लेकिन डरना मत, बार-बार इन सवालों को पूछो। फिर दूसरी सीढ़ी स्पष्ट होगी।
जहाँ मोहलत न मिलती हो, वहाँ पर आत्मविचार, धर्म, अध्यात्म के लिए कोई जगह नहीं हो सकती। थोड़ा खाली स्थान चाहिए, जहाँ ऊपर से कुछ उतर सके। एयरपोर्ट का रन वे देखा है न? वहाँ भी ऊपर से कुछ उतर सके इसके लिए उसको खाली रखते हैं। ये थोड़े ही कि जाकर तुमने वहाँ अपनी लूना पार्क कर दी, तो इधर (सिर की ओर इशारा कर के) कुछ खाली होगा तो ऊपर से कुछ उतरेगा फिर!
लोग कई बार पूछते हैं, कहते हैं कि आर्य अगर वास्तव में बाहर से आए थे — कहते हैं मध्य एशिया से। और बहुत प्राचीन समुदाय था आर्यों का, मध्य एशिया से उनकी कई शाखाएँ फूटी थीं। वही यूरोप की तरफ़ गए, वही ईरान की तरफ़ गए, वही तुर्की की तरफ़ गए और वही भारत भी आए — तो पूछने वालों ने दो सवाल पूछे, बोले, ‘अगर आर्य इतने पुराने थे, तो वेद उन्होंने मध्य एशिया में ही क्यों न लिख डाले, भारत आकर ही क्यों लिखे?’ ये पहला प्रश्न।
और दूसरा प्रश्न ये कि आर्यों की ही अन्य शाखाएँ यूरोप भी गयीं, एशिया के अन्य जगहों पर भी गयीं, वहाँ वेद क्यों नहीं उतरे, भारत में ही क्यों उतरे? और विद्वानों ने इसका उत्तर देते हुए कहा है कि कारण ये था कि भारत में खाली समय उपलब्ध था, जो अन्य जगहों पर नहीं था।
मिट्टी उपजाऊ थी, पानी समय पर बरसता था, पता था कि सारी वर्षा साल के चार महीनों में होनी है। उससे पहले भी नहीं होगी, उसके बाद भी मत करो उम्मीद, तो खाली समय है। इसीलिए सिंधु की मिट्टी में, गंगा की मिट्टी में, यमुना की मिट्टी में धर्म उपजा, क्योंकि खाली समय था।
बड़े-बूढ़े हैं वो खाली बैठे हैं, ऋषि-मुनि हैं वो खाली बैठे हैं, उन्हें पेट की फ़िक्र नहीं करनी है। उन्हें पता है कि मिट्टी इतनी प्यारी है कि कंद हैं, मूल हैं, फल हैं, फूल हैं, और अगर कृषि करनी हो, तो मॉनसून आएगा-ही-आएगा और पानी बरसेगा-ही-बरसेगा। तो बैठकर चुपचाप ध्यान चल रहा है और फिर उस ध्यान से कुछ फिर उतरता है; खाली समय चाहिए।
तुम हफ़्ते में अस्सी घंटे अपने बॉस की सेवा करोगे तो तुम्हें वो खाली समय कब मिलेगा कि तुम पूछ सको कि मैं कौन हूँ, जीवन किसलिए है, स्त्री माने क्या, पुरुष माने क्या, संबंध माने क्या, भय माने क्या, और मुक्ति माने क्या? ये प्रश्न आम आदमी कभी पूछता भी है अपने आप से, बोलो? ये प्रश्न पूछने के लिए क्या चाहिए? खाली समय चाहिए, अवकाश चाहिए। और वो तुम्हें दिया ही नहीं जाता। और मिल भी जाता है खाली समय, तो टीवी किसलिए है! अब तुम्हें समझ में आ रहा है कि तुम्हारे दफ़्तर में और टीवी में क्या संबंध है?
दोनों एक ही काम कर रहे हैं, दोनों तुम्हें खाली नहीं छोड़ रहे हैं। और-तो-और जब गाड़ी भी चला रहे हो, तो लगातार क्या चल रहा है? रेडियो चल रहा है। अब समझ में आ रहा है, ये सब एक सम्मिलित साज़िश का हिस्सा है। और वो साज़िश ये है कि तुम्हारे मन पर आधिपत्य रखा जाए, मन को कभी खाली न छोड़ा जाए।
प्रश्नकर्ता: साज़िश कर कौन रहा है, हम खुद ही या कोई और?
आचार्य प्रशांत: देखो, देवी जी(ऊपर देखकर कहते हैं), आप-ही-आप हो, लेकिन आपको देख कोई नहीं पा रहा है। छाई हुई हो इस कमरे पर, भीतर भी हो बाहर भी हो, लेकिन फिर भी हम कितनी मासूमियत के साथ पूछ रहे हैं कि ये साज़िश कर कौन रहा है। वो यहाँ इतनी उपस्थित हैं कि उनका नाम लेने की भी ज़रूरत नहीं है, वो यहाँ इतनी उपस्थित हैं कि वो आपको दिखाई ही नहीं देंगी; दिखाई भी कोई चीज़ तब देती है जब उसकी कुछ कमी हो। समझना बात को, कोई भी चीज़ तुम्हें तब दिखाई देती है, जब कहीं उसका अंत हो, सीमाएँ हो।
वो देवी जी चहुँओर ऐसी व्याप्त हैं कि उनकी कहीं सीमा नहीं, उनका कहीं अंत नहीं। भीतर भी वही हैं, बाहर भी वही हैं, इधर भी वही हैं, उधर भी वही हैं, तो वो दिखाई ही नहीं देतीं। तो इसीलिए फिर हम बच्चों जैसी मासूमियत से, बड़ी नादानी से पूछते हैं, ‘हमारे खिलाफ़ ये साज़िश रच कौन रहा है?’
प्रश्नकर्ता: मुझे लगता है कि मैं तेरह साल से काम कर रहा हूँ, अब मुझे फील (महसूस) होता है कि मैं विक्टिम (शिकार) हूँ।
आचार्य प्रशांत: किसके?
प्रश्नकर्ता: शायद अपनेआप का। मैं नहीं चाहता कि मैं ये काम करता, मैं शायद कुछ और करता, बस पैसे के लिए ही कर रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: यही पता करिए — शोषित तो आप हैं, तो शोषक कोन हुआ?
प्रश्नकर्ता: मैं, समाज।
आचार्य प्रशांत: समाज में जो शोषक हो, उसे तो फिर शोषित नहीं होना चाहिए न? तो कोई ऐसा खोजकर दिखाइए मुझे, जो कहे कि वो शोषित नहीं है। अगर आप भी शोषित हैं और आपका शोषक भी शोषित ही है, तो फिर असली शोषक कौन है?
श्रोतागण: माया।
आचार्य प्रशांत: अरे! नाम मत लीजिए, नाम लेने से तो सीमित हो जाता है! जिस भी चीज़ का नाम ले लिया वो चीज़ सीमित है; देवी असीम हैं, उनका नाम नहीं लेते! श्रीमान कह रहे हैं, ’बात ही इल्लोजिकल (अतार्किक) है, ऐसे थोड़ी।’
प्रश्नकर्ता: सर, अच्छा फिर खाली समय कहाँ, उसमें तो फ़िलॉसफ़ी चलती है माइंड (मन) में?
आचार्य प्रशांत: खाली माने फ़िलॉसफ़ी से भी खाली। और तुम उस कचरे को फ़िलॉसफ़ी कह रहे हो जो तुम्हारे दिमाग में चलता है! फ़िलॉसफ़ी माने समझते हो क्या होता है? फ़िलो माने क्या होता है? प्रेम, आकर्षण। और सॉफ़ी का इशारा किस ओर है? सत्य। ‘सत्य से प्रेम’ को कहते हैं फ़िलॉसफ़ी। तुम्हारे दिमाग में जो चलता है, वो इसलिए चलता है कि तुम्हें सत्य से प्रेम है? उसको फ़िलॉसफ़ी बता रहे हो!
प्रश्नकर्ता: जो भी चलता है।
आचार्य प्रशांत: जो भी नहीं; तुम्हारे पास खाली समय रहता ही नहीं, क्योंकि तुम्हारे दिमाग में वो सब चलता रहता है। और वो सब चलता इसलिए रहता है क्योंकि तुम पचास चीज़ों के गुलाम हो, वो तुम्हें खाली छोड़ती ही नहीं। जब तुम्हें लगता है कि तुम उनसे खाली हो गए, तो तुम उनकी कल्पनाओं से भर जाते हो। ये चलता है दिमाग में।
अगर पैसे से मुझे बहुत आसक्ति हो, तो जब मैं नोट गिन रहा हूँ तब तो नोट गिन ही रहा हूँ, और जब नोट सामने नहीं है तो भी दिमाग में क्या चलेगा? नोट। अगर मुझे स्त्री से बहुत आसक्ति हो, तो जब तक स्त्री सामने है तब तक तो मैं उससे लिपटा ही हुआ हूँ, और जब वो सामने नहीं है तब भी दिमाग में क्या चलेगा? उसकी कल्पना। ये फ़िलॉसफ़ी नहीं कहलाती कि तुम बैठे-बैठे कुछ सोच रहे हो, ये आसक्ति कहलाती है। ‘फ़िलॉसफ़ी चलती है!’ सत्य से इतना प्रेम है!
प्रश्नकर्ता: जो आपने अभी कहा कि ये सब पूछो कि जीवन क्या है, मैं क्या हूँ, ये सब फ़िलॉसफ़ी तो है, तो इनका कोई एंड (अंत) थोड़ी न है?
आचार्य प्रशांत: वैसे नहीं पूछा जाता है जैसे तुम पूछते हो, ये बताने के लिए बता दिया कि पूछो जीवन क्या है। उसको (आचार्य जी आँखें बंद करके) ऐसे थोड़ी करोगे कि जीवन क्या है! ‘जीवन क्या है’ और ‘तेरा नाम क्या है’, इसमें कुछ अंतर होता है कि नहीं होता है? ‘मैं कौन हूँ’ और ‘जलेबी क्या भाव दी’, सारे सवाल एक बराबर हैं?
ये प्रश्न मौन में पूछे जाते हैं, ये प्रश्न तब पूछे जाते हैं जब अवाक् हो जाते हो, भौंचक्के। अंदर-बाहर का सारा संवाद बंद हो जाता है, तब ये सवाल पूछे जाते हैं। किसी भाषा में नहीं पूछे जाते ये प्रश्न। भाषा में पूछोगे अगर, ‘मैं कौन हूँ’, तो जवाब आ जाएगा, ‘तुम वही हो जो कल थे, और उम्मीद भी मत करना कि बदल जाओगे, जैन साहब। कल भी वही थे, परसों भी वही थे और कल भी वही रहोगे, क्या बार-बार पूछते हो, ‘मैं कौन हूँ?’ आइडेंटिटी कार्ड (पहचान पत्र) निकालो, देख लो!’
भाषा में अगर ये सवाल पूछ दिया तुमने, ‘कोऽहम?’ तो ऐसा ही फ़ालतू जवाब मिलेगा। क्योंकि जिस प्रश्न का उत्तर मौन हो, वो प्रश्न भाषा में नहीं पूछा जा सकता। ‘मैं कौन हूँ’ अगर हिंदी भाषा का प्रश्न है, तो उसका एक ही जवाब आएगा, क्या? हिमांश जैन, या कुछ और? तुम्हारी तबियत पर है, ‘मैं बाहुबली हूँ, प्ले बॉय हूँ, कैसाब्लांका हूँ’, कुछ भी हो सकते हो। लॉजिकल (तार्किक) बातें हैं वो सब तो। जो तुम अपने आप को समझते हो, वो सब तो लॉजिकल ही होगा।
‘मैं कौन हूँ’ अगर वास्तव में पूछना है, तो चुप हो जाओ। तभी मैंने कहा कि वो सवाल सिर्फ़ खाली दिमाग में आ सकता है। जब दिमाग खाली हो, तो इसका मतलब ये थोड़ी है कि तुम उसे प्रश्न से भर लोगे। खाली दिमाग को भी अगर तुमने प्रश्न से भर लिया, तो दिमाग अब खाली बचा क्या? और अगर दिमाग पूरी तरह खाली है, तो उसमें प्रश्न भी तो खाली ही होगा न, प्रश्न भाषाई थोड़ी हो पाएगा फिर।
प्रश्नकर्ता: चुप रहने के लिए समय निकालें?
आचार्य प्रशांत: हाँ, बिल्कुल। समय भी निकालें, स्थान भी निकालें। आप ये समय निकाल लें आज रात आठ-से-दस बजे का, लेकिन उस समय आप जाकर के बैठ जाएँ बस अड्डे पर, तो दिमाग खाली थोड़ी रह पाएगा। आज रात आठ-से-दस बजे का आपने समय भी निकाला और स्थान भी निकाला। समय भी निकालिए और सही स्थान भी निकालिए, तब मौन उपलब्ध होगा। सही जगह और सही स्थान की खोज करिए। अगर स्थान सही है, तो वहाँ टिकिए और समय को बढ़ाइए।