प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैंने अपने जीवन में गरीब और गरीबी, दोनों को काफ़ी करीब से देखा है। और फिर एक ऐसा भी समय आया कि काफ़ी पैसे भी देखे। लेकिन जब भी कुछ खर्च करने जाता हूँ, तो लगता है इतने में तो काफ़ी गरीबों के लिए एक महीने का राशन भी हो जाएगा। कोरोना टाइम में भी ये देखा कि हज़ार रुपए में एक-एक जो मेड या जो भी थे, वो लोग एक हज़ार रुपए में ही उनके महीने का पूरा राशन चल जाता।
तो हमेशा ये लगता है कि ये जो मैं खर्च कर रहा हूँ, इसमें से काफ़ी लोगों का भला हो सकता है। और वो खर्च करने में हमेशा एक अंदर से ये बार-बार क्वेश्चन आता है कि ये इतने का है, तो इस चीज़ से कैसे ओवरकम किया जाए? अब खर्च किस जगह कर रहे हैं, कहाँ कर रहे हैं; जब उच्च, जब एक मिशन के लिए खर्च करते हैं, तो वहाँ कभी सोचने में भी नहीं आता है। लेकिन जब अपने ऊपर भी कुछ खर्च करते हैं, तो उसमें बार-बार ये सवाल आने लगता है।
आचार्य प्रशांत: अपने ऊपर माने क्या?
प्रश्नकर्ता: अपने ऊपर जैसे किसी रेस्तराँ में खाना खाने गए।
आचार्य प्रशांत: तो क्यों खा रहे हो वहाँ?
प्रश्नकर्ता: ऐसे ही किसी दिन मन कर गया।
आचार्य प्रशांत: तुम जाकर कहीं, किसी ढाबे में क्यों नहीं खा लेते?
प्रश्नकर्ता: क्योंकि वो क्वालिटी नहीं है।
आचार्य प्रशांत: वो क्वालिटी नहीं है, तो क्या नुकसान हो जाएगा?
प्रश्नकर्ता: सेहत खराब हो जाएगी।
आचार्य प्रशांत: उससे क्या हो जाएगा?
प्रश्नकर्ता: फिर जिस मिशन में हूँ, उसमें दिक्कत होगी।
आचार्य प्रशांत: एक रुपया अपने ऊपर मत खर्च करो अगर तुम्हारी ज़िंदगी किसी बुलबुले की तरह है। पर ज़िंदगी को ही अगर मिशन बना सकते हो, तो तुमने अपने ऊपर नहीं, मिशन के ऊपर खर्च करा है। वही कन्वर्जेंस (संमिलन), तुम्हारी ज़िंदगी ऐसी हो जाए अगर कि तुम्हारे लिए है ही नहीं, तो फिर कर सकते हो अपने ऊपर खर्च।
तुम्हारी ज़िंदगी अगर इसीलिए है कि तुम्हें व्यक्तिगत तौर पर रसास्वादन करना है, चाट-पकौड़े झाड़ने हैं, तो फिर लानत है कि तुम यहाँ बैठकर चाट उड़ा रहे हो और बगल में कोई भूखा मर रहा है। अपने ऊपर खर्च एक बहुत धुँधला सा मुहावरा हो गया ना। अपने ऊपर खर्च माने क्या होता है?
उसके कई अर्थ हो सकते हैं। ज़्यादातर अर्थ बहुत गड़बड़ वाले अर्थ हैं। मैं अपने ऊपर खर्च कर रहा हूँ, मैंने क्या किया? कुछ नहीं। ज़्यादातर, वो बस वही होता है जिसको हम बोलते हैं, ‘कंस्पिक्वस कंज़म्शन (प्रत्यक्ष उपभोग)।‘ जहाँ तुम्हें पता भी नहीं होता कि तुमने जो खर्चा कर लिया, इससे तुम्हें भी कुछ नहीं मिला। तुम्हें पता भी नहीं होता तुमने जहाँ खर्चा कर दिया, वहाँ जिसको तुमने पैसा दिया, उसको भी कुछ नहीं मिला। अपने ऊपर खर्च करने के ऐसे गिरे हुए मतलब हैं, तो एक रुपया मत खर्च करो अपने ऊपर।
अपने ऊपर खर्च करने का अगर ये मतलब है कि ढाबे में खाओगे तो बीमार पड़ जाओगे और बीमार पड़ जाओगे तो अगले दिन यहाँ पर आकर के काम कौन करेगा? और काम नहीं करोगे, तो पता नहीं कितने लाख लोगों का नुकसान कर दोगे। तो वहाँ अपने ऊपर खर्च कर सकते हो। बिना बात का अपने ऊपर नैतिक बोझ मत ले लिया करो। मैं तो दुराचारी हो गया, मैं तो पापी हो गया। दुनिया में इतने लोग भूखे मर रहे हैं, मैंने अपने लिए ये शर्ट खरीद ली।
जहाँ दिखाई देता हो कि पैसा सचमुच फ़िजूल गया है, वहाँ कुछ मत लगाओ न। पढ़े-लिखे हो, खर्चा करने जा रहे हो। अभी उस दिन बोला था न मैंने *पर्सीवड वैल्यू और इंट्रिसिक वैव्यू*। अगर सिर्फ़ पर्सीवड वैल्यू है किसी चीज़ की; और पर्सीवड वैल्यू भी वैल्यू लगती है क्योंकि उससे अहंकार को मज़ा आता है।
देखा होगा बहुत सारे ब्रांड होते हैं, उनकी टीशर्ट खरीदो, तो वो यहाँ (टीशर्ट के बीच में) ब्रांड का ही नाम लिख देते हैं। वो यहाँ पर न कोई स्लोगन लिखते, न कोई चित्र बनाते। हमें तो ये पता था कि टीशर्ट पर या तो कुछ लिखा नहीं होता, कुछ लिखा होता है तो आमतौर पर क्या लिखा होता है? कोई ऐसी चीज़ कि पढ़कर थोड़ा मज़ा आ जाए या कुछ विटी (परिहास युक्त) सा कोई मुहावरा लिख देते हैं या कोई उस पर स्केच बना देते हैं। टीशर्ट पर ये होता है।
तुम देखना, जो महँगे ब्रांड होते हैं, वो अपने कपड़ों पर और कुछ नहीं लिखते, वो बड़ा-बड़ा अपना नाम लिख देते हैं। ये वैनिटी परचेज़िज़ हैं। तुम वो टीशर्ट खरीदकर दुनिया को दिखाना ही यही चाह रहे हो कि देखो, मैंने इस ब्रांड की पहन रखी है। ये सिर्फ़ पर्सीवड वैल्यू है। इसमें कोई इंट्रिसिक वैल्यू नहीं है। कोई इंट्रिसिक वैल्यू नहीं है। तुम लुट गए। तुम बिना बात के पाँच हज़ार रुपए दे आए उस टीशर्ट के या शायद पंद्रह हज़ार।
मैं बाहर निकलता हूँ, तो आजकल मैंने नया तरीका निकाला है। मैं एकदम खतरनाक ऐसे क्राइम मास्टर गोगो जैसे काले चश्मे पहनता हूँ, ये बड़े-बड़े और लगाता हूँ टोपी। ठीक है। टोपी में भी मैंने ऐसे करा है कि जो हैट होता है, कुछ पता नहीं चलना चाहिए। ओए! ये सब डिलीट कर देना। ये नहीं छाप देना कहीं। यही तो छुपाना है। यही छाप देंगे।
तो अब जाता हूँ मैं कि चश्मा, हैट मिले ज़रा। मिलना मुश्किल हो जाता है जिस पर यहाँ पर (सामने) ही बड़ा-बड़ा उसका उन्होंने नाम न लिख रखा हो। या तो मिलेगा, तो कोई बहुत ही घटिया क्वालिटी का कि पहनो और रख दो किसी चीज़ के नीचे आ गया, तो मुड़-तुड़ जाएगा, फिर दोबारा… ऐसा मिलेगा! और जो भी अच्छी क्वालिटी के मिलते हैं, उनमें यहाँ पर बड़ा-बड़ा वो अपना ब्रांड ही लिख देते हैं। मैं काहे को उनके ब्रांड का प्रचार करूँ! खोजना मुश्किल हो जाता है।
पर यही है वैल्यू और एटलीस्ट पार्ट ऑफ़ द वैल्यू। कि आप यहाँ पर हैट या टोपा लगाकर घूम रहे हो और उसमें आप पर बड़ा-बड़ा ब्रांड का नाम लिखा हुआ है। सबको पता चल रहा है देखो, कितना लड़का अमीर है। माथे पर ब्रांड खुदवाने पर एक पैसा खर्च मत कर देना। हाँ, टोपे पर पैसा खर्च; ये दो बहुत अलग-अलग बातें हैं। टोपी पर पैसा खर्च किया, वो एक बात है और टोपी में यहाँ बड़ा सा ब्रांड लिखा था, उस पर तुमने उसके एक्स्ट्रा दो हज़ार का प्रीमियम दिया वो बिलकुल अलग बात है।
यही बात चश्मों पर लागू होती है। जो भी चश्मा थोड़ा भी किसी स्तर का होता है, उस पर या तो यहाँ पर (चश्में के सामने) वो खुदवा देते हैं नाम या यहाँ पर(चश्में की डंडी पर) बड़ा-बड़ा लिखते हैं। और कई तो ऐसे होते हैं जिसमें चश्मा छोटा होता है, ब्रांड का इतना बड़ा-बड़ा लिखा होता है। वो ब्रांड ही आँख पर लगा घूम रहा है। और जहाँ पर ब्रांड का नाम बड़ा-बड़ा लिखा हो, समझ लेना वो तीस हज़ार से नीचे का नहीं होगा वो चश्मा, एक चश्मा।
उसको चश्मे से कुछ देखना नहीं है, उसको दुनिया को अपना चश्मा दिखाना है। अरे, मेरा चश्मा देखो। इन चीज़ों पर नहीं खर्च किया जाता। पर चश्मे पर खर्च करा; उस पर भी निर्भर करता है कि तुम्हें ज़रूरत है या क्या करने वाले हो चश्मे का? मैंने तो एक चश्मा ऐसा भी देखा जिसमें यहाँ कोई लेंस ही नहीं था। उसको भी बेच रहे हैं, वो बिक भी रहा है।
समझ में आ रही है बात?
मोरेलिटी की नहीं बात है, वैल्यू असेसमेंट की बात है। पहली बात, उसकी तुम्हारे लिए क्या वैल्यू है, दूसरी बात तुम्हारी अपनी ज़िंदगी की क्या वैल्यू है? जो चीज़ ले रहे हो, गौर से पूछो अपनेआप से, इसकी मेरे लिए क्या वैल्यू है? और अपनी ज़िंदगी से पूछो कि क्या मेरी ज़िंदगी की किसी मिशन के लिए कोई वैल्यू है? और ये दोनों वैल्यूज़ में अगर टिक लगा सकते हो ग्रीन, तो कर लो खर्च।
ठीक वैसे जैसे ये जानना ज़रूरी होता है कि फ़िजूलखर्ची कहाँ हो रही है, वैसे भी, वैसे ही इस बात के विरुद्ध भी सावधान रहो कि कहीं ऐसी जगह पैसा खर्च करने से रुक मत जाना जहाँ खर्च करना ज़रूरी है। और हिंदुस्तान में अभी वो उस तरह के नैतिक संस्कार बहुत प्रबल हैं जो कहते हैं कि जो कहीं पैसा खर्च कर रहा है, वो पापी है, दुराचारी है। उसमें सब इसी तरह के लोग फँसते हैं जिन्होंने बचपन में गरीबी देखी होती है जैसा कि ज़्यादातर भारतीयों के साथ है।
आप पिछली पीढ़ी को लो और वर्तमान पीढ़ी को लो, तो चालीस साल में आर्थिक स्थितियाँ बहुत बदल गई हैं। पहले घरों में स्कूटर भी मुश्किल से होता था, अब हर दरवाज़े पर एक गाड़ी खड़ी रहती है। तो अब बहुतों को भीतर से ये एक नैतिक ग्लानि उठती है। वो कहते हैं, ‘हमने अपने बचपन में देखा, पिताजी साइकिल चलाकर के जाया करते थे और पिताजी ने कितना पसीना बहाया साइकिल चलाकर। और मुझे अब जाना है यहाँ से बेंगलोर, मैं फ्लाइट में कैसे चला जाऊँ?’ तो फिर वो ट्रेन का टिकट कटाते हैं जबकि वो फ्लाइट से जा सकते हैं। पेरिस भी जाओगे ट्रेन से! होता है कि नहीं होता है?
और अगर वो दिख जाए कि फ्लाइट में जा रहे हैं, तो आस-पास वालों से उलाहना भी मिलती है कि पैसे का इनको बड़ा गुरूर हो गया है। नया-नया रुपया इनके सिर पर चढ़कर नाच रहा है। एक तरफ़ जहाँ फ़िजूलखर्ची नहीं करनी है, दूसरी तरफ़ जहाँ जायज़ खर्च है, उसको बेकार की नैतिकता के मारे रोक भी नहीं देना है।
अध्यात्म दोनों काम करता है। गलत कामना को कुचल देता है और जो कामना जायज़ है, कहता है, ‘बेधड़क इसको पूरा करो। यहाँ रुकने की कोई ज़रूरत ही नहीं।‘ पिताजी साइकिल पर चलते थे तो सबकुछ साइकिल पर ही चलना चाहिए। कल को तुम्हें दिल का दौरा पड़ेगा, तो एंबुलेंस वाले भी साइकिल पर ही आएँ फिर! भाई, जहाँ जो चीज़ जायज़ है, वो चलेगी न। अब तो एयर एंबुलेंस भी चलती है वो हवाई जहाज़ से आते हैं तुम्हें बचाने। एयर एंबुलेंस वालों से भी यही बोलना कि पिताजी तो साइकिल पर चलते थे, तुम भी साइकिल पर आओ।
हम आपको मोरल साइंस नहीं पढ़ा रहे हैं, हम आपको आज़ाद ज़िंदगी जीना बता रहे हैं। वेदांत का काम है जितनी सीमाएँ खींची गई हैं आपके चारों ओर, सबको साफ़ कर देना। अगर केंद्र ठीक है, तो सब अनुमत है। *एवरीथिंग इज़ परमिसिबल*। कुछ नहीं रोका गया है। आकाश में कौनसी रेखाएँ खींचकर बाँट सकते हो, बताओ? आकाश को बाँट सकते हो? वैसे ही। जिसका जीवन आकाश हो गया, उसके ऊपर कोई सीमाएँ, रेखाएँ नहीं खींची जाती। वो स्वयं जानता है कि क्या करना है, क्या नहीं। और आमतौर पर दुनिया जिन चीज़ों में फँसती है, उसमें वो फँसता ही नहीं। तुम क्या उसको पाठ पढ़ाओगे कि फ़लाना काम मत करो। तुम पाठ सीखते हो, तब बचते हो। उसके भीतर व्यर्थ की चीज़ों की कामना उठती ही नहीं है, उसको किसी पाठ की ज़रूरत ही नहीं है।
जो एक पाठ पढ़ना चाहिए, वो उसने पढ़ लिया। उस पाठ का नाम है, आत्मा। उसके बाद उसे किसी पाठ की ज़रूरत नहीं। उसे कोई ज्ञान मत दो, वो सब देख लेगा। उसको मत बताओ कि फ़लानी जगह खाओ, कि फ़लानी जगह नहीं खाओ। कि फ़लाना काम करो, कि नहीं करो। फ़लाने शर्ट खरीदो, कि नहीं खरीदो। उसको ये सब मत बताओ, वो देख लेगा। और उसको तुम बताओगे भी, तो वो तुम्हारी सुनेगा नहीं।
यही वजह हुई कि जो असली आध्यात्मिक लोग थे, समाज उनसे डरा भी बहुत है और उनको अनैतिक बोला है, कि अरे नहीं, ये तो कोई नियम-कायदों पर चलते ही नहीं। तो उनको बोलते हैं, ‘अनैतिक हैं, अनैतिक हैं।‘ और यही वजह थी कि जिनको सच्चाई की ज़िंदगी जीनी थी, उन्होंने कई बार कहा कि तुम अपना समाज अपने पास रखो। तुम्हारी ये तुम ही संभालो ये दुनिया। उन्होंने अपने अलग क्षेत्र बसाए। उन्होने कहा, ‘हम तुम्हारी वर्जना के बीच नहीं जी सकते। तुम, तुम्हारा समाज, तुम्हारे नियम-कायदे, तुम ही रखो। हम अपना मस्त जिएँगे। तुम्हारे बीच हमारा दम घुटता है।‘
फिर ऐसे ही लोगों से उपनिषद आए। ऐसे ही लोगों से वो सारा साहित्य आया है जो आज मानवता का प्रकाश है। हाँ, ये अलग बात है कि उन लोगों को समाज के लोगों ने चरित्रहीन वगैरह बोला। चरित्रहीन है, मर्यादाहीन है, वगैरह-वगैरह, वो सब। अगर वो चरित्रहीन हैं, तो उनकी चरित्रहीनता से ही आज इस पृथ्वी पर रोशनी है।
एक बहुत सुंदर कविता है, “इस सदन में मैं अकेला ही दीया हूँ।“
इस सदन में मैं अकेला ही दीया हूँ। मत बुझाओ! जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी।
इसमें जो अभी मुझे याद आया, वो आगे आएगा। तब तक वहाँ तक पहुँचते हैं।
इस सदन में मैं अकेला ही दीया हूँ; मत बुझाओ! जब मिलेगी रोशनी, मुझसे मिलेगी पाँव तो मेरे थकन ने छील डाले अब विचारों के सहारे चल रहा हूँ आँसुओं से जन्म दे-देकर हँसी को एक मंदिर के दीए सा जल रहा हूँ मैं जहाँ धर दूँ कदम, वह राजपथ है मत मिटाओ पाँव मेरे देखकर दुनिया चलेगी बेबसी, मेरे अधर इतने न खोलो जो कि अपना मोल बतलाता फिरूँ मैं, इस कदर नफ़रत ना बरसाओ नयन से प्यार को हर गाँव दफ़ना फिरूँ मैं; एक अंगारा गर्म, मैं ही बचा हूँ मत बुझाओ! जब जलेगी आरती, मुझसे जलेगी।
ये है, जिसकी अभी बात करी थी न कि वो जिनको आपने चरित्रहीन, मर्यादाहीन, उच्श्रृंखल, भ्रष्ट, अनैतिक वगैरह बोलकर के अपने पास से हटा दिया, दुनिया के बहुत बड़े-बड़े काम उनसे ही हुए हैं।
जी रहे हो जिस कला का नाम लेकर कुछ पता भी है कि वो कैसे बची है? सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो, वह हमीं बदनाम लोगों ने रची है; मैं बहारों का अकेला वंशधर हूँ मत सुखाओ! मैं खिलूँगा तब नई बगिया खिलेगी।
आगे भी वही भाव है-
शाम ने सबके मुखो पर आग मल दी मैं जला हूँ तो सुबह लाकर बुझूँगा ज़िदगी सारी गुनाहों में बिताकर जब मरूँगा, देवता बनकर पुजूँगा आँसुओं को देखकर मेरी हँसी तुम मत उड़ाओ! मैं ना रोऊँ तो शिला कैसे गलेगी?
रामअवतार त्यागी जी की है, “जब मिलेगी रोशनी मुझसे मिलेगी।“