प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, कैसे पता चले कि मन को क्या अशांत कर रहा है?
आचार्य प्रशांत: देख लो कि तुम्हारे विचारों के केंद्र में कौन बैठा है। जो कुछ भी तुम्हें बेचैन कर रहा है, वो सत्य तो है नहीं; सत्य होता तो शाश्वत होता। चूँकि वो शाश्वत नहीं है, इसीलिए पकड़ा जाएगा। समझना, सत्य के अलावा नित्यता किसी में नहीं होती, सत्य के अलावा निरंतरता किसी में नहीं होती। तो जो कुछ भी तुम्हें बेचैन कर रहा है, उसकी मजबूरी ये है कि वो तुम्हें निरंतर बेचैन नहीं कर सकता। वो कभी बेचैन करेगा और फिर भूल जाएगा। जब भूल जाएगा तो तुम्हारी बेचैनी ज़रा कम हो जाएगी। और फिर जब याद आएगा तो बेचैनी अचानक बढ़ जाएगी। तो बस वहीं पकड़ लो कि तू याद आया और बेचैनी बढ़ी, तू ही है, तेरे ही याद आने से बेचैनी बढ़ती है। बस यहीं पकड़ लो।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या मन के साक्षी हो जाने पर मन के भावों या विचारों का प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता? अहम् पर नहीं पड़ता?
आचार्य प्रशांत: मन और शरीर एक होते हैं, अध्यात्म की दृष्टि में इन दोनों में कोई मौलिक भेद नहीं है। कबीर साहब कहेंगे, “मन मोटा, मन पातरा।” मोटे मन को कहते हैं शरीर, पतले मन को कहते हैं मन। स्थूल हो गया तो कह दिया शरीर, सूक्ष्म हो गया तो कह दिया मन। विस्तार ले लिया तो कह दिया संसार, संकुचित हो गया तो कह दिया जीव; है सब मन।
पढ़ा है न तुमने कि और कुछ नहीं है जगत में, मात्र चेतना ही व्याप्त है। पढ़ते हो न? वो यही बात है। जब उसको व्यापक रूप में देखो तो कह देते हो संसार, और जब उसको सीमित, संकुचित रूप में देखो तो कह देते हो जीव। विस्तृत है तो विश्व है, और बीज है तो वृत्ति है। विस्तृत है तो वृक्ष है, और बीज है तो वृत्ति कहलाए। है एक ही, इनमें अंतर नहीं करते।
अब पूछ रहे हो कि क्या साक्षी होने पर मन के विचारों, भावनाओं इत्यादि का प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता? पड़ता हो तो पड़ता रहे, तुम तो साक्षी हो। या ये कह रहे हो कि मैं वो शरीर हूँ जो मन का साक्षी है, तो घटनाएँ मन में चलती रहें पर शरीर पर असर नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि मैं तो शरीर हूँ। शरीर पर असर पड़ा तो मुझ पर असर पड़ जाएगा।
साक्षी होने का अर्थ ही यही है कि जहाँ जो चल रहा है चलता रहे, हम अप्रभावित हैं। जिसको प्रभावित होना हो होता रहे, हम अप्रभावित हैं। हमारी पूरी हस्ती पर असर पड़ रहा है, पर हम पर असर नहीं पड़ रहा। हमारे मन पर असर पड़ रहा है, चेहरे पर पड़ रहा है, आँखों पर पड़ रहा है, देह पर पड़ रहा है, देह कँप रही है, आँखें रो रही हैं, हम पर असर नहीं पड़ रहा है। साक्षी हो जाने का अर्थ पत्थर हो जाना नहीं होता। साक्षी न तो यंत्र होता है, न पाषाण होता है।
साक्षित्व को लेकर बड़े मज़ेदार तुक्के सुनने को मिलते हैं कि साहब, जो साक्षी हो गया वो अब हँसेगा थोड़े ही, वो तो अब बस निहारता है। पागल! साक्षी नहीं हँसेगा, जिसे हँसना है वो तो हँसेगा। या उसकी भी हँसी रोक दोगे? अगर उसकी हँसी तुम रोकने में संलग्न हो तो तुम साक्षी कहाँ हुए? साक्षी प्रतिभागी तो होता नहीं, और तुम तो कुछ करने में लगे ही हो। तुम तो अभी कर्ता हो, तुम क्या कर रहे हो? तुम तो हँसी रोकने में लगे हो, तो तुम साक्षी कहाँ हुए?
इसीलिए साक्षित्व सूक्ष्म से सूक्ष्मतर बात है, बात ही नहीं है। कोई सिद्धांत होता, कोई बात होती तो तुम पकड़ भी लेते। जो पकड़ में न आए, सो साक्षी। साक्षी वो जो सबको पकड़ता है, पर जिसे कोई पकड़ नहीं सकता। और चूँकि वो पकड़ में नहीं आता मन की, तो मन की बड़ी आतुरता रहती है उसे पकड़ने की। जैसे कोई छोटा बच्चा हो, उसको कह दिया गया हो कि फ़लानी तितली पकड़ में नहीं आएगी, तो वो और उसके पीछे भाग रहा है कि इसको तो पकड़ना ही है। तितली तो फिर भी दिखाई देती है, बस पकड़ में नहीं आती। साक्षी तो वो है जो दिखाई भी नहीं देगा, सुनाई भी नहीं देगा, पकड़ने की बात तो दूर रही।
मन और साक्षी का रिश्ता समझना, साक्षी मन का द्रष्टा, निरपेक्ष द्रष्टा, इसीलिए साक्षी। द्रष्टा भी दो तरह के होते हैं — एक तो होता है लिप्त, सापेक्ष द्रष्टा। वो साक्षी नहीं हुआ, वो विषयी हो गया। वो विषय से लिप्त हो गया, तो उसे आप साक्षी नहीं बोलोगे। उसे कहोगे, वो विषयी मन है, वो सब्जेक्ट (विषय) है, विटनेस (साक्षी) नहीं है। और दूसरा होता है निरपेक्ष द्रष्टा। उसको तुम बोलोगे, ‘ये साक्षी है।’
अब दिक्कत ये आ जाती है कि जो निरपेक्ष है उसका तुम्हें कुछ पता ही नहीं लगेगा। साक्षी को छोड़ दो कि वो तुम्हारा पता लगाए। तुम्हारे पास साक्षी के प्रति जिज्ञासा नहीं, समर्पण होना चाहिए — ये बात बहुत गौर से समझ लेना। और इतने प्रश्न आते हैं साक्षित्व को लेकर के कि पूछो मत। जिज्ञासा नहीं, समर्पण होना चाहिए।
साक्षित्व ही अंतिम सत्य है। सत्य के प्रति क्या जिज्ञासा कर रहे हो, तुम्हारी पकड़ में आएगा क्या? समर्पण रखते हैं। साक्षी-को-साक्षी का काम करने दो। वो अपना काम करता ही है, हाँ, तुम उछल-कूद मचाते रहते हो। इससे तुम ये भी समझ गए होगे कि फिर साक्षी की साधना किसको बोलते हैं। साक्षी की साधना ये नहीं है कि तुम साक्षी बन जाओ, साक्षी की साधना ये है कि तुम अपनी उछल-कूद की व्यर्थता देख लो। साक्षी तो है ही, वही एकमात्र सत्य है, वही अंतिम बात है। उसके अलावा बाकी सब तो यूँही, नौटंकी, नज़ारे। अभी हैं, थोड़ी देर में नहीं। बात समझ रहे हो?
जब तुम उछल-कूद के प्रति आकर्षित होना ज़रा कम कर देते हो, तो जो शेष रहता है वो साक्षी मात्र है। अब उछल-कूद मात्र उतनी ही बचती है जितनी सम्यक् है, जितनी जैविक है, उसके अतिरिक्त नहीं। जो जी रहा है साक्षित्व में, उसका व्यवहार निश्चित रूप से बदलता है। पर ये उम्मीद मत करने लग जाना कि उसका व्यवहार लुप्त हो जाएगा, व्यवहार अभी भी रहेगा।
व्यवहार का क्या अर्थ है? जीव और संसार के मध्य के संबंध को व्यवहार कहते हैं। जीव है और संसार है, इनका जो संबंध है उसको बोलते हैं व्यवहार। तो जीव तो अभी है न? साक्षी परम सत्य है, आसमान में है, ज़मीन पर क्या है? देह है। देह तो अपने क्रिया-कलाप करेगी। हाँ, अब मन पागल नहीं रह जाएगा, मन की व्यर्थ चीख-पुकार, उठा-पटक थम जाएगी। मन ने समर्पण कर दिया, मन ने अपनी चीख-पुकार को ही समर्पित कर दिया। और उसके पास है क्या, जो था वो समर्पित कर दिया।
साक्षी भाव इत्यादि का अनुभव करने की होड़ बिलकुल त्याग दो, साक्षी भाव का कोई अनुभव नहीं होता है। साक्षित्व सर्वप्रथम कोई भाव होता ही नहीं है, ये जुमला ही भ्रामक है — साक्षी भाव। और उससे ज़्यादा घातक है ये आकर्षण, ये लोभ कि मैं साक्षित्व का अनुभव कर लूँगा। साक्षित्व का कोई अनुभव नहीं होता। बेवकूफ़ियों के अनुभव में हम जीते हैं और अपनी बेवकूफ़ियों को हम ही ताकत देते हैं। वो ताकत देना बंद करो, साक्षित्व तो है ही।