प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर, लोग आज-कल बिग बॉस के पीछे इतना पागल क्यों हो गए हैं और आज-कल हर एक स्टेट (राज्य) के हर एक भाषा में लगभग बिग बॉस आ रहा है, तो इसका कारण क्या है?
आचार्य प्रशांत: सबकुछ तो हमारा दूसरों से ही आता है न? दूसरों की फिर ज़िंदगी में झाँकने का भी बहुत मन करता है। मान लीजिए आपकी हालत ऐसी है कि आपके घर में सारा दाना-पानी दूसरों के घरों से आता हो और आपके घर पर जो हमले होते हैं वो भी दूसरों के यहाँ से ही होते हों। तो आपको फिर अपने घर में ज़्यादा रुचि रहेगी या दूसरे के घर में? क्योंकि दूसरों के घरों में जो हो रहा है वही सीधे-सीधे आपकी तकदीर बनने जा रहा है।
आपका अपना तो कुछ है ही नहीं। आपके साथ अगर कुछ अच्छा हो रहा है तो वो भी दूसरों की कृपा से, आपके साथ कुछ बुरा हो रहा है तो वो भी दूसरों की वजह से। आपको खुशी भी आ रही है तो दूसरों की वजह से, आपको दुख भी आ रहा है तो दूसरों के यहाँ से। क्योंकि हमारे पास कुछ अपना नहीं है, मौलिक। तो इसलिए हमें दूसरों की ज़िंदगी में बहुत रुचि रहती है। ये बिग बॉस की बात हो रही है। समझ में आ रही है न बात?
झाँकना, वोयरिज़्म, वहाँ क्या चल रहा है, भले ही हमें पता है कि वहाँ जो चल रहा है वो सबकुछ हमें मनोरंजन देने के लिए और हमें बेवकूफ़ बनाने के लिए पहले से ही तयशुदा है। भले ही हमें सब पता है कि सब स्क्रिप्टेड (लिखित) है, तो भी अच्छा लगता है कि जैसे हमने किसी की ज़िंदगी में जाकर झाँक लिया। लगभग वैसे जैसे कि कोई साधारण सा भी वीडियो है लेकिन उसके ऊपर ये लिख दिया गया हो कि ये स्टिंग ऑपरेशन (गुप्त जाँच) है। अब एमएमएस (मल्टीमीडिया संदेश सेवा) वैसे तो एक टेक्निकल (तकनीकी) शब्द होता है, पर वो एक्सपोज़र (खुलासा) का समानार्थी बन गया है। कि कहीं कुछ हो रहा था और जाकर हमने खुफ़िया रिकॉर्डिंग कर ली है। तो बड़ा मज़ा आता है न देखने में, ‘चल क्या रहा है वहाँ, चल क्या रहा है।’
सोचने की बात है कि हमें क्यों इतनी रुचि है कि कहाँ चल क्या रहा है, क्योंकि वहाँ जो चल रहा है वो हम पर बहुत असर डालता है। हमारी ऐसी बेचारगी की हालत है कि हमारे पास हमारा अपना कुछ है ही नहीं तो दूसरों की ज़िंदगी में ताका-झाँकी करने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं है। जिसके पास अपना कुछ हो वो अपने में मगन रहे, वो दूसरों की अगर देखे भी तो करुणा की दृष्टि से, दूसरों को मदद देने की दृष्टि से देखे। हमारे पास अपना कुछ भी नहीं है। हम पूरी तरह दूसरों पर आश्रित हैं, हैं न?
बादल तो इतना ऊपर है, हमें क्यों बादलों का, मौसमों का हाल बताया जाता है कि इतनी ह्यूमिडिटी (नमी) रहेगी, इतना प्रेसिपिटेशन (वर्षण) रहेगा, इतना तापमान रहे, क्यों बताया जाता है? क्योंकि हमारे ऊपर उसका असर पड़ता है। ठीक इसी तरह हमारे ऊपर हर उस चीज़ का असर पड़ने लगा है दुर्भाग्यवश जो कहीं और हो रही है। ये बहुत लाचारगी का विषय है।
आ रही बात समझ में?
आप प्रेम कैसे करते हो ये भी तो दूसरे तय करते हैं, आप नफ़रत कैसे करते हो ये तक दूसरे तय करते हैं।
अभी दिल्ली के एक स्कूल में दो लड़कों को बर्खास्त किया गया क्योंकि वो अपनी ज़िप खोलकर के अपना गुप्तांग घुमाकर, खोलकर घूम रहे थे। घूम नहीं रहे थे लड़ रहे थे आपस में, लड़ते समय उन्होंने ये कर दिया था। वैसे तो लड़ रहे थे लड़ते-लड़ते दोनों ने अपनी ज़िप खोल दी।
हमारी नफ़रत भी दूसरों से आती है। नफ़रत कैसे करनी है ये भी हम दूसरों से सीखते हैं। कुछ लोगों को समझ में आ गया। वो एक फ़िल्म आई थी एनिमल उसमें एक किरदार लड़ते-लड़ते अपनी ज़िप खोल देता है अंत में। लड़कों ने देखा उन्होंने भी सीख लिया कि जब आपस में लड़ाई करो तो अपनी ज़िप खोल दो। वो एक कदम और आगे निकल गए। उन्होंने ज़िप खोलकर के (अपना गुप्तांग घुमा दिया), दोनों कुछ दिन के लिए बर्खास्त हुए स्कूल से।
हम नफ़रत करना भी दूसरों से सीखते हैं। हमें ये तक नहीं पता कि नफ़रत क्या चीज़ होती है। हमारी नफ़रत भी दिली, मौलिक, हार्दिक नहीं है। हमारा प्यार भी। प्यार कैसे करना (है) दूसरे ही तो सिखाते हैं।
ऋषिकेश वगैरह चले जाओ वहाँ पर ये चल रहा होता है प्रीमेरिटल, क्या बोलते उसको प्रीवेडिंग, प्रीवेडिंग फ़ोटोशूट जिसमें प्रीमेरिटल सेक्स (संभोग) होता है, ये ठीक है। देखो, मेरा दिमाग तो है वैसे ही, तुम्हें प्रीवेडिंग याद आता है मुझे प्रीमेरिटल। उसमें एक-एक जो अदा होती है और परिधान होता है, आप बता सकते हो कहाँ से आ रहा है, किस फ़िल्म का कौनसा दृश्य यहाँ पर अभिनीत किया जा रहा है आप बता सकते हो। हमारा प्यार भी दूसरों से आता है।
आप अगर, आप में से जो लोग मेरी पीढ़ी के हों और अपने पिता, चाचा, मामा वगैरह की उनकी जवानी की तस्वीरें देखेंगे तो आप पाएँगे बेल-बॉटम्स (पतलून की एक शैली जिसके पैर घुटनों से नीचे चौड़े होते जाते हैं), आप पाएँगे ये लंबे साइडबर्न्स (गलमुच्छे), आप पाएँगे चिपकी हुई शर्टें जिनके ऊपर की तीन बटन खोलकर रखी जाती थी। उनको ही नहीं आप अगर पुराने खिलाड़ियों को भी देखेंगे; मान लीजिए क्रिकेटर्स को, आप देखिए कि इमरान खान बॉलिंग करने चले आ रहे हैं और इमरान खान की शर्ट चिपकी हुई है और बाल ऐसे हवा में उड़ रहे हैं, भीतर बनियान जैसा कुछ भी नहीं है। खैर क्रिकेटर के होता भी नहीं पर आम आदमी भी नहीं करता था, क्योंकि कैसे जीना है? (दूसरों के जैसे)। आकर्षक भी होने का अर्थ क्या है, आज़ादी का क्या मतलब है ये तक हम दूसरों से उठा लेते हैं।
हमारा अपना कुछ नहीं है, हम एक मशीन की तरह हैं। हम एक जानवर हैं जिसको बस ट्रेनिंग दी जाती है, जिसको वास्तव में ज्ञान नहीं दिया जा सकता। तो इसलिए हमको बहुत ज़्यादा मज़ा आता है दूसरों के घर में — की-होल-वोयरिज़्म* (छिपकर देखने की प्रवृत्ति) — क्या चल रहा है, क्या चल रहा है। फिर उसका धंधा बन जाता है, उससे टीआरपी आने लग जाती है।
कहीं पर संगत जुटी हो और दो लोगों को आप मुँह-में-मुँह डालकर बात करते देखें तो सिर्फ़ यही गॉसिप (गपशप) चल रही होगी, वो पड़ोस की रीना है न उसका छप्पन दुबे के बिल्लू से चल रहा है। लगी हुईं हैं दो महिलाएँ मुँह-में-मुँह डालकर यही करने में कि किसके घर में क्या चल रहा है। पुरुष भी। उनकी अलग तरह की होती है, उनका भी वोयरिज़्म होता है। और मान लो दफ़्तर में होंगे तो कहेंगे, ‘किस डिपार्टमेंट में क्या चल रहा है, वो बॉस है न उसका अपनी सेक्रेटरी से अफ़ेयर है, वो है न उसको प्रमोशन मिल जाएगा बूट लिकिंग (चापलूसी) बहुत करता है।‘
अपनी बात कौन कर रहा है? कोई कर रहा है अपनी बात? अपना कुछ है ही नहीं बात करने के लिए, ’आइ डोंट एग्ज़िस्ट’ (मैं मौजूद नहीं हूँ), ’आइ एम ज़स्ट कार्डबोर्ड बॉक्स स्टफ़’ (मैं सिर्फ़ कार्डबोर्ड बॉक्स जैसा हूँ)। जिसमें जो है, कहाँ से आया है? मैं आपसे पूछ रहा हूँ, ‘आपके पास वो सबकुछ न हो जो दूसरों से आया है, तो आपके पास क्या है? बोलिए। आप ये जवाब दे पाएँगे तो बिग बॉस भी समझ जाएँगे कि क्यों सफल है।
आपके पास वो सब न हो जो आपको दूसरों से मिला है, तो आपके पास क्या है? अध्यात्म कहता है, गीता कहती है जो पूरे तरह से अपना है, जो कभी आपसे छिन नहीं सकता उसी का नाम सत्य है, उसी को आत्मा कहते हैं। वो हमारे पास है नहीं, हमारा सब उधार का है बल्कि चोरी का है। इसलिए हम गुलाम हैं, झाँकना पड़ता है बहुत ज़्यादा।
भलीभाँति जानते हो वहाँ पर एक गई है एक्ट्रेस (अभिनेत्री), वहाँ पर ऐसे ही है कोई छोटा-मोटा एक्टर (अभिनेता), ये दोनों वहाँ ब्याह कर लेंगे, ब्याह करके दो महीने बाद डाइवोर्स (तलाक) कर लेंगे। आपको पता है ये सब नाटक है, नौटंकी है फिर भी रस आता है।
‘हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल को खुश रखने को गालिब ये खयाल अच्छा है।’
सब पता है नौटंकी है पर हमारी भी तो पूरी ज़िंदगी नौटंकी ही है न, तो उम्मीद भी कैसे करें सच्चाई की? जैसे हम नौटंकी वैसे ही वो नौटंकी। नौटंकी, नौटंकी को देखकर के खुश हो रहा है। हमारे पास असली क्या है? बताओ तो। बिग बॉस अगर ड्रामा है, तो हमारी ज़िंदगी ड्रामे से कुछ अलग है क्या?
किसकी ज़िंदगी में मैं पूछ रहा हूँ दिली कुछ है। जिसको तुम दिल बोलते हो वो दिल भी उधार का है। हम सब हार्ट ट्रांसप्लांट केसिज़ (हृदय प्रत्यारोपण के मामले) हैं। दिल भी बाहर से लगा दिया, दिल धड़कना कब है ये भी हमें दूसरों ने सिखाया। है न?
आप कहीं जाएँ कुछ खरीदने के लिए और वहाँ विंडो में ऐसे जूता रखा हुआ है, जूता ऐसे है आपके सामने। बस जूता दिख रहा है, हो सकता है दिल न धड़के, तभी आप थोड़ा ऐसे घूमकर देखें और जूते के पीछे कोई बड़े से इंटरनेशनल (अंतराष्ट्रीय) ब्रांड का लोगो (प्रतीक चिह्न) लगा हो, दिल ऐसे धड़केगा, ‘धुक-धुक-धुक-धुक।’ तो दिल को धड़कना कब और कैसे है ये भी हमें दूसरों ने सिखाया। जूते ने दिल नहीं धड़काया, ब्रांड ने दिल धड़काया।
बिग बॉस समझ में आ रहा है?
दूसरे, यहाँ क्या चल रहा है, यहाँ क्या चल रहा है, उसका क्या हो रहा है और जैसे वो सब दूसरे हैं; वो बंधक भी हैं और वो गुलाम भी हैं और मजबूर भी हैं और साथ-ही-साथ सेलिब्रिटी (प्रसिद्ध व्यक्ति) भी हैं, वैसे ही एब्सर्डिटी (बेतुकापन) हमारी ज़िंदगी में है। बंद कर दिया गया है एक घर में बाहर नहीं आ सकते। गुलामी है कि नहीं? लेकिन फ़ैंडम (लोकप्रियता) मिल रही है, पैसे भी मिल रहे हैं। लालच है कि नहीं? वही ज़िंदगी हमारी भी है।
जैसे वहाँ कौन अंदर रुकेगा कौन बाहर जाएगा, इसका फैसला वो खुद नहीं करते, दुनिया करती है। वैसे ही हमारी भी किस्मत का फैसला दुनिया करती है। अभी यही होता है न उसमें? अब वोटिंग होती है कि नहीं होती है, पहले होती थी। तो जैसे वहाँ उनके हाथ में कुछ नहीं, दुनिया तय करती है हमें कौन पसंद है हमें कौन नहीं पसंद है, वैसे ही हमारी भी किस्मत का फैसला दुनिया ही करती है।
आप सज-धजकर बाहर निकलते हो कोई आपको तारीफ़ की नज़र से न देखे, कितना बुरा लग जाता है। आपकी सेल्फ़ वर्थ (आत्ममूल्य) क्या है इसका फैसला दुनिया कर देती है। आपने बहुत मेहनत की अपने ऊपर, बहुत पैसे खर्च किए अपने कपड़ों पर; आप बाहर निकले, किसी ने तारीफ़ नहीं की। सारा मूड ऑफ़ हो जाता है कि नहीं? या आप कहते हो कि मैं जो हूँ मुझे नाज़ है उस पर? जैसे आज गा रहे थे, ‘कृतकृत्य हूँ, आनंद हूँ,’ मैं अपने होने से प्रफुल्लित हूँ, ऐसा कभी होता है? नहीं।
हमें खुशी भी तब मिलती है जब कोई दूसरा कहता है, ‘तुम बढ़िया हो।’ वैसे ही वहाँ भी होता है कि लोगों की किस्मतों का फैसला दूसरे कर रहे हैं। तो हमें वहाँ पर एक रेज़ोनेंस (प्रतिध्वनि) मिलती है जैसे हमारी ज़िंदगी गुलामी की है वैसे ही इनकी ज़िंदगी गुलामी की है, विवशता की है। इनकी किस्मत भी इनके हाथ में नहीं है। और क्या होता है वहाँ पर? अरे, बता दो। लड़ाई-झगड़े होते हैं। वही टुच्चे स्तर की गॉसिप।
प्र: एक पॉइंट है जो गूगल इनसाइट कहता है, ऑडियंस इनसाइट, आइएमडीबी (इंटरनेट मूवी डेटाबेस) जो रेटिंग देता है वो कहता है एंड आइ कोट, ’व्यूवर्स फ़ाइंड दिस सो एज़ुकेशनल एंड एंटरटेनिंग एंड इज़ टीचेज़ देम हाउ टू डील विद प्रॉब्लम्स एंड प्रोवाइड कॉमेडिक रिलीफ़’ (दर्शकों को ये बहुत शिक्षाप्रद और मनोरंजक लगता है, ये उन्हें समस्याओं से निपटने के तरीके सिखाता है और हास्य से राहत प्रदान करता है)।
आचार्य: आप जाकर के न बिलकुल गटर में घुस सकते हैं और लिख सकते हैं कि आपने क्या सीखा। वो तो कहीं भी लिखा जा सकता है। आप बिलकुल गटर में कूद जाइए और फिर बाहर निकलिए और कहिए, ’दिस वाज़ अ ग्रेट एक्सपीरियंस ऑफ़ लर्निंग’ (ये एक शानदार सीखने का अनुभव था)। मैंने सीखा कि गू जब हलक (कंठ) तक उतर जाए तो उसके साथ जीना कैसे है। तो ये सब बकवास कहीं भी लिखी जा सकती है कि वहाँ पर एज़ुकेशनल वैल्यू (शैक्षिक मूल्य) है। एज़ुकेशनल वैल्यू तो फिर जीवन के हर क्षण में है। कोई कूद जाए दसवीं मंज़िल से और नीचे गिर रहा हो वो कह सकता है, *’दिस वाज़ फ़ॉर माय एज़ुकेशन*’ (ये मेरी शिक्षा के लिए था)। मैंने सीखा कि क्या नहीं करना चाहिए। ये सबकुछ नहीं है।
अपने टीवी वगैरह के ऊपर न जहाँ आप ये सब कंज़्यूम (उपभोग) करते हो, उसके ऊपर कुछ ऐसा लगा लो जो ये याद दिलाता रहे कि — यहाँ पर ही आकर के नहीं बोला करो, ‘सत्र देखने आए हैं,’ ऐसे (हाथ उठाकर) कर रहे हैं, ‘बड़ी आतुरता है सवाल पूछने की’ — कुछ रिमाइंडर (स्मृति चिह्न) उन जगहों पर लगा लो जिन जगहों पर सबसे ज़्यादा फिसलते हो, सबसे ज़्यादा, टीवी के ऊपर, बेडरूम में, किचन में, माने हर जगह। कहाँ नहीं फिसलते? हर जगह।
गाड़ी लेकर के पता है कि जाते हो उल्टी-पुल्टी जगहों पर, (सभागार के) बाहर की-चेन रखी हैं, रख लो उसको, हो जाएगा काम। टीवी के ऊपर कोई कैलेंडर रख लो, ये खौफ़नाक शक्ल कहीं पर चिपका लो (चेहरे की ओर इशारा करते हुए)। देखो मैंने तो कहा था, ‘यूज़ मी’ (मेरा उपयोग करो)। और उसमें भी ऐसी वाली नहीं जिसमें मैं ऐसे मुस्कुरा रहा हूँ, क्या स्निग्ध मुस्कान है, ऐसी वाली नहीं, ऐसी वाली (गुसैली शक्ल बनाते हुए)। ये बाहर सब अपना वो झोले और कई तरीके की सामग्री है आप लोगों के लिए, वो रखे हैं, मैं कहता हूँ, ‘इस पर ये फ़ोटो ऐसे वाली मत लगाया करो, ये काम की नहीं है। तुम बहुत खूबसूरत सी मेरी लगा देते हो, मेरी लगाया करो रौद्र रूप, ‘यमाचार्य,’ ऐसी एकदम, वही काम की होगी।‘
टीवी खोला है बिग बॉस देखने को, ऊपर से मैं ऐसे देख रहा हूँ हॉ भाई (डरावनी शक्ल बनाते हुए), ठीक रहेगा न? बिस्तर में सिराहने रखा करो। भारत की आबादी रोकने में मेरा (भी योगदान हो जाएगा)। सारा जुनून उतर जाएगा। एक बार ऐसे, ‘हॉ क्या।’ मैं और बेहतर जवाब दे पाता अगर मुझे और पता होता इसके बारे में कि यहाँ क्या-क्या होता है। तो अभी जो स्केची (अधूरी) मेरे पास सूचना (है) उसी के आधार पर मैंने उत्तर दिया है, इसमें कोई और अगर मसालेदार बात हो तो आप मुझे बता दीजिए तो मैं बोल पाऊँगा।
प्र: सर, उसमें सेलिब्रिटी बनने के लिए अभी खुद से बहुत-बहुत पैसा, जो बड़े पैसे वाले लोग हैं।
आचार्य: एक अच्छे से आप बात समझिएगा। एक तो आप लोग भोले बहुत हो। आपको क्या लग रहा है सिर्फ़ बिग बॉस में पैसे देकर जाया जाता है? आपको ऐसा लग रहा है क्या कि सिर्फ़ बिग बॉस में जाते हैं पैसा देकर? जो कुछ भी ऐसा हो रहा है जिसमें आप पब्लिक दृष्टि में आओगे वो काम बिना पैसे के हो नहीं सकता, क्योंकि अहंकार चूँकि अपने भीतर से खोखला होता है इसीलिए दूसरों की दृष्टि में वैलिडेशन (प्रमाणीकरण) चाहता है। उसे फ़ेम (प्रसिद्धि) चाहिए।
आपने गौर किया होगा कि शुरुआती दिनों में मैंने जिन लोगों से बात की; विशेषकर यूट्यूब में, वो बहुत बड़े चैनल्स थे, कई-कई मिलियन वाले और ये आज से दो साल पहले से हो रहा था। उसकी तुलना में अभी पिछले कुछ महीनों से मैं जिनसे बात कर रहा हूँ बहुत छोटे-छोटे चैनल्स हैं। कई वजहें हैं जिसमें से एक वजह ये भी है कि ज़्यादातर जिनको आप बड़े पॉडकास्टर्स वगैरह बोलते हो वो सिर्फ़ पैसा लेकर के काम करते हैं आज। कुछ अपवाद होंगे जो अपवाद है मैं उनकी इज़्ज़त करता हूँ, उनकी बात नहीं कर रहा।
पर ज़्यादातर जो बड़े (चैनल्स हैं), आपको क्या लग रहा है कि वहाँ पर व जो पॉडकास्ट हो रहा है वो उसको इस नाते बुलाया गया है कि वो बहुत अच्छा आदमी है, वो पैसे देकर आया है भाई। बहुत मोटे पैसे लगते हैं, एक-एक पॉडकास्ट के बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस लाख रुपए लिए जाते हैं। इसीलिए आज हर आदमी पॉडकास्टर बनना चाहता है। जैसे ही आपका वो पॉडकास्ट बड़ा हो जाता है आप किसी को बुलाने के बहुत पैसे माँगते हो। बहुत, इतने पैसे दो आकर यहाँ बैठो।
ये बात आप समझते नहीं, आपको लगता है कि ये तो अपनी मेरिट (योग्यता) के दम पर वहाँ पर आया है। मेरिट के दम पर क्या हो रहा है, सबकुछ ऑर्गेनाइज़्ड (आयोजित) होता है, प्री प्लान्ड (पूर्व नियोजित) होता है। ये सारा खेल चल रहा है बाज़ार का ग्राहकों को बेवकूफ़ बनाने के लिए, ग्राहक आप हैं। ठीक वैसे जैसे मैं उस दिन कह रहा था कि बाबा जी के यहाँ आप देख लेते हो कि कोई आ गया है, वो आ थोड़े ही गया है। उसको भेजा गया है, या तो लालच देकर या डर दिखाकर के।
जिस भी चीज़ से जिसको फ़ायदा हो रहा है उससे उसकी कीमत वसूली जा रही है बात खत्म। अगर किसी चीज़ से किसी को फ़ायदा हो सकता है तो उससे उस बात के पैसे लिए जाएँगे। बिग बॉस में आने से अगर किसी को फ़ेम मिल सकती है तो उससे पैसे लिए जाएँगे। इसमें सोचने की क्या बात है? ये तो हो ही रहा है, होगा। तो इसीलिए हम कहते हैं कि हमारे पास भी आते हैं, ‘हम आपसे बात करना चाहते हैं।’ आगे बात होगी पैसे, और छोटा-मोटा पैसा नहीं। ये नहीं है कि एकाध-दो-लाख में बात बन जाती है, बीस लाख, तीस लाख। इसीलिए जिनके पुराने चैनल वगैरह भी चल रहे हों तो उसमें बहुत लोग तो पॉडकास्टर बनना चाहते हैं, क्योंकि उसी में पैसा है।
तो बिग बॉस में क्यों नहीं पैसा होगा भाई? और किसी चीज़ में क्यों नहीं पैसा होगा भाई? ये तो एंटरटेनमेंट (मनोरंजन) के लिए होता ही है बिग बॉस। जिसको आप न्यूज़ बोलते हो टीवी पर, अगर आपको न्यूज़ में भी जाना है — न्यूज़ में भी तो इंटरव्यू हो जाता है न डिबेट (बहस) वगैरह होती हैं — उसमें भी किसी-न-किसी तरीके का स्वार्थ जुड़ा रहता है। या तो पॉलिटिकल एंगल (राजनीतिक कोण) होगा, पॉलिटिकल प्रेशर (राजनीतिक दबाव) होगा नहीं तो पैसा होगा।
आपको क्यों लग रहा है कि यहाँ कुछ भी इसलिए (हो रहा है), ‘अरे देखो, ये इतना बड़ा आदमी।’ अरे, बड़ा-वड़ा कुछ नहीं है पैसा खर्च किया है। सब माया उसी की है। आ रही है बात समझ में?
और कुछ इसी से संबंधित।
प्र२: जी नमस्ते सर, बिग बॉस मैंने तो नहीं देखा है लेकिन इसके प्रभाव के बारे में एक व्यक्ति को मैंने देखा है। क्योंकि दो-तीन साल से उनसे बात होती थी तो बहुत सिंपल लाइफ़ (साधारण जीवन) और सबकुछ, लेकिन क्योंकि उनकी कास्ट (जाति) के एक लोग बिग बॉस में गए और फिर वहाँ से उन्होंने देखना शुरू किया। तो देखना शुरू किया और जब भी बात हो कि हॉ, क्या देख रहे हैं। बिग बॉस देख रहे हैं, ठीक है।
वो बात यहाँ तक आ गई धीरे-धीरे कि वो शायद उसमें ऐसा कुछ है कि लग्ज़री लाइफ़ (विलासितापूर्ण जीवन) और ये सारी चीज़ें, तो अभी क्या हो रहा है कि वो व्यक्ति धीरे-धीरे ट्विटर तक गए, और वहाँ पर भी ये होता है कि आप जितनी ज़्यादा पोस्ट करेंगे, अर्निंग (कमाई) होगी, ये सारी चीज़ें तो बढ़ते-बढ़ते अब अर्निंग करनी है तो हर तरह की पोस्ट करनी है। तो बहुत ज़्यादा अश्लील पोस्ट और इस तरह की पोस्ट वहाँ पर वो करने लगे।
तो मैंने समझाने की कोशिश की, पर वो नहीं समझे। और ये रिलेट भी किया कि ये चीज़ अचानक से कहाँ से होने लगी। सबकुछ समझाने का प्रयास किया, लेकिन वो चीज़ मतलब समझ में नहीं आनी है कि तुम अपना काम करो मैं अपना काम करता हूँ इस तरह की। तो जितना मैं समझ पा रही हूँ कि ये सिर्फ़ बिग बॉस एक सीरियल नहीं है, ये पूरी हमारी मानसिकता को बहुत ज़्यादा प्रभावित कर रहा है और वो आगे जाकर ऐसे ही कचरे में फिर हम गिरते हैं। यही चीज़ कहनी थी।
आचार्य: हम जिस दिशा फिसलना चाहते हैं, पहले से ही फिसलना चाहते हैं, हम खुद चाह रहे हैं फिसल जाएँ, उस दिशा हमें और फिसलाने के लिए कई साधन अपनेआप आ जाते हैं। क्योंकि हमें तो फिसलना ही है न? तो फिर हम फिसलने के पैसे भी दे देंगे। जो फिसलने में हमारी सहायता करेगा, हम उसका एहसान भी मानेंगे।
प्र३: नमस्ते सर, सर ऐसा क्यों होता है कि लोग बिग बॉस जैसे शॉ में राखी सावंत, सिद्धार्थ शुक्ला और हीना खान जैसे कंट्रोवर्शियल कंटेस्टेंट (विवादित प्रतियोगी) को देखकर इतना इंटरटेन क्यों होते हैं? यहाँ एलविस जैसे लोग भी बिग बॉस जीत जाते हैं। इतने बेहूदा गालियाँ देने वाले, लड़ने-झगड़ने और लड़कियाँ-लड़कों से खेलने वाले लोगों को जनता इतना क्यों चाहती है?
आचार्य: मूल सूत्र समझ लो, छाती पीटने से कुछ नहीं होगा। मूल बात ये है कि जब आप भीतर से बिलकुल बेज़ार होते हो, खोखले होते हो, बेचैन होते हो तो आपके लिए भोजन की खुराक से ज़्यादा ज़रूरी हो जाती है मनोरंजन की खुराक। हर चीज़ आपके लिए मनोरंजन बन जाती है, हर चीज़। वो आपकी मजबूरी है हर चीज़ को मनोरंजन बनाना, क्योंकि आप भीतर से बेइंतहा परेशान हो।
मैं अभी मुंबई में था तो वहाँ पर नाटक देखने गया, प्लेज़। होते हैं वहाँ बहुत पृथ्वी थिएटर वगैरह में, अन्य जगहों पर। बहुत गंभीर किस्म की थीम थी और ऑडियंस (दर्शक) ऐसे रिएक्ट (प्रतिक्रिया) कर रही थी जैसे स्टैंड अप कॉमेडी चल रही हो। मंटो (एक उर्दू लेखक) की बात, बहुत संजीदा और लोग उस पर तालियाँ पीट रहे हैं जबकि जो बात कही गई है उसमें ताली पीटने जैसा कुछ नहीं है और कुछ हद तक जो अभिनेता थे वो भी अपने संवादों को ऐसे ही डिलीवर (अभिनीत) कर रहे थे, कुछ हद तक।
मैं ज़्यादा गलती इसमें अभिनेताओं की नहीं देख रहा था, पर कुछ हद तक वो भी ऐसे ही डिलीवर कर रहे थे कि लोगों को हँसी आ ही जाए। जबकि वहाँ जो बात कही जा रही थी जो विषयवस्तु थी वो मर्म भेदी थी बिलकुल, दिल पर चोट दे ऐसी। पर आज ऑडियंस के लिए हर चीज़ बस हँसने का एक बहाना है, क्योंकि हमारा दिल हर समय रो रहा है।
भीतर हमारे आँसू-ही-आँसू हैं इसीलिए बाहर कुछ भी आए हमारे लिए मनोरंजन है। होना पड़ेगा, मजबूरी है, विवशता है। तो किसी की हत्या हो जाए, चाहे किसी हत्यारे की कहानी हो, चाहे बाहर कुछ भी हो रहा हो, हमारे लिए वो बस से एक लाफ़्टर फेस्ट (हँसी का महोत्सव) है। हँसो, ‘हा हा हा,’ हँसो-हँसो।
अपने दिनों में मैंने नाटक खूब खेले हैं। और उसमें मैं कई दृश्यों में ऐसा करवाता था जहाँ मुझे हँसी से शुरुआत करके चीज़ को एक एब्सर्ड (मूर्खतापूर्ण) भयावहता तक ले जाना होता था, वहाँ मैं शुरुआत ऐसे कराता था कि यहाँ मंच पर चार-पाँच खड़े हो गए हैं किरदार और वो एक बिना मतलब की, बिलकुल फिज़ूल बात पर हँसना शुरू करते हैं और फिर वो जो उनका हँसना है वो अट्टहास बनता जाता है और अट्टहास से आगे जाकर के वो आर्तनाद बन जाता है। इसमें मेरा उद्देश्य रहता था ऑडियंस पर एक विशेष प्रकार का प्रभाव डालना और डायरेक्टर होने के नाते मैं पीछे से यही देख रहा होता था कि ऑडियंस पर वो हुआ कि नहीं हुआ।
जब मैं उनको हँसाना शुरू करता था तो वो हँसना शुरू कर देते थे साथ में, उनको लगता था बात कुछ हँसने की है, जबकि हँसने की कोई बात नहीं है, पहले ही स्पष्ट होता था कि ये जो हँसी है ये बिलकुल फिज़ूल है। पर वो हँस रहे हैं तो ऑडियंस भी हँसने लगती थी। क्योंकि हँसना है, हँसी बढ़ती जाती थी तो ऑडियंस की हँसी बढ़ती जाती थी और अंतत: मैं हँसी इतनी बढ़वा देता था कि ऑडियंस सदमा खाकर चुप हो जाती थी। और यहाँ पर ज़बरदस्त अट्टहास चल रहा है और ऑडियंस बिलकुल ऐसे-ऐसे चुप हो गई, सबको समझ में आ गया है कि कुछ बहुत भयानक हो रहा है, ये हँसी साधारण नहीं है।
मेरा कई बार मन करता है कि मैं किसी तरीके से गीता की शिक्षा आपको नाटकों के माध्यम से दे सकूँ, पर जो अभी हो रहा है वही नहीं संभल रहा, नहीं तो मैं ये आपको अभिनीत करके दिखाता। हँसो-हँसो-हँसो, हँस रहे सब हँस रहे हँस रहे हँस रहे फिर जो हँसी है एक क्रिसेंडो (स्वरोत्कर्ष) की तरह एक पीक पर पहुँचती है और फिर लोगों को समझ में आना शुरू होता है — ये हँसी नहीं है ये कुछ और है, ये कुछ और है, ये कुछ और है, कुछ बहुत भयानक घटित हो रहा है और जो भयानक घटित हो रहा है वो हमारी ज़िंदगी है। हमारी ज़िंदगी नहीं एक भयानक मंज़र है।
हँसना हमारे आनंद का प्रतीक नहीं है, हँसना हमारे रोग का लक्षण है। इसलिए हमारी हँसी बहुत दूषित है और बहुत हिंसक है। हम हँस इसलिए रहे हैं क्योंकि भीतर से हम बहुत-बहुत ज़्यादा दुखी हैं, दुखी भी हैं और दुखी रहने का फैसला भी करे हुए हैं, ठान भी रखा है।
शोक भी दोष होता है, कोई हर समय दुखी घूम रहा है ऐसे मुँह लटकाए (शोकग्रस्त का अभिनय करते हुए), तो ये व्यक्ति भी है तो विकारग्रस्त ही, लेकिन इससे ज़्यादा खतरनाक आदमी वो है जिसको आप हर समय व्यर्थ हँसता देखें। बहुत सावधान रहिएगा ऐसे लोगों से। लोक संस्कृति इस चीज़ का सम्मान करती है कि देखो ये तो हर समय हँसता रहता है। नहीं, ये आदमी खतरनाक है, ये खतरनाक है। ये हँसी नहीं है, ये हिंसा है।