तुलसीदास की कहानी, और उनकी पत्नी का प्रेम || आचार्य प्रशांत, संत तुलसीदास पर (2017)

Acharya Prashant

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तुलसीदास की कहानी, और उनकी पत्नी का प्रेम || आचार्य प्रशांत, संत तुलसीदास पर (2017)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, तुलसीदास जी के जीवन में ऐसा क्या घटित हुआ था कि अपनी पत्नी के लिए काव्य लिखते-लिखते उनका सच्चा स्वरुप उनके सामने आ गया?

आचार्य प्रशांत: आ नहीं गया, मार-मारकर सामने लाया गया। पत्नी नहीं थी वो, गुरु थी। और ऐसे नहीं पत्नी ने कहा था कि आप इतना मेरे लिए कर रहे हैं, ईश्वर के लिए करिए — ऐसे नहीं हुआ था। घटना ऐसी थी कि मार्मिक है। पत्नी गयी हुई थी मायके और तुलसीदास पर चढ़ा काम का ज्वर, और आषाढ़ (जून का महीना), मूसलाधार बारिश और ये भागे गये पत्नी के पीछे। वासना खींच ले गयी।

पत्नी ऊपर के तल्ले पर; कैसे पहुँचें ऊपर? समाज का भी डर कि दरवाज़ा खटखटाएँगे तो और लोग जान जाएँगे — कितना कामातुर है कि चला आया है। नीचे से आवाज़ दी; बादल कड़क रहे हैं, बारिश हो रही है, काहे को उसको आवाज़ सुनायी दे, पत्नी सो रही है ऊपर।

तो देखा ऊपर से कुछ लटक रहा है। अब घने बादलों से घिरा आसमान, चाँद तो छोड़ दो तारों की भी रोशनी नहीं है, कुछ दिखायी ही नहीं पड़ रहा है ये लटक क्या रहा है? वो जो भी लटक रहा है उसको पकड़कर चढ़ गये ऊपर। चढ़ गये, गये पत्नी के सिरहाने खड़े हो गये। वो खड़ी हुई, चौंकी, घबरायी। बोली, ‘कर क्या रहे हो? पगला गये हो!’ फिर पूछा, ‘आ कैसे गये?’ तो बोले, ‘वो तूने रस्सी लटकायी थी मेरे ही लिए। मुझे मालूम था, आग जितनी इधर है, उतनी उधर भी है; कुछ तो करेगी तू।’

बोली, ‘मैंने तो नहीं लटकायी। लटका क्या था देखने दो!’ देखती है तो मोटा साँप लटका हुआ था। उसने सिर पीट लिया। सिर भी पीटा होगा और तुलसीदास को भी पीटा होगा। पीटपाट के बोली कि जितना समर्पण, जितनी भावना यहाँ दिखा रहे हो, इसका अंश भी अगर राम के लिए दिखाया होता तो तर गये होते, इतनी मूर्खता नहीं कर रहे होते।

समझ रहे हो बात को?

अब लोहा गरम था तब चोट पड़ी है। खड़ी सीढ़ी गिरी हो, तब लगती है ज़ोर की। साँप जब बिल से बाहर आया हो तब चोट करो, तब तो लगेगी उसपर। तुलसीदास का साँप बिलकुल फनफना के खड़ा हुआ था। उस वक़्त बीवी ने चोट करी खड़े फन पर, तब लगती है। ऐसा गुरु चाहिए जो तुम्हें पहले तुम्हारे बिल से बाहर निकाले और जब फन खड़ा करके खड़े हो जाओ तो मारे फटाक! अकस्मात् नहीं हो जाता, कोई चाहिए फिर। और ये सब चीज़ें संयोग से होती नहीं। संयोग का इंतज़ार करो तो सदियाँ बीत जाती हैं।

ऐसी बीवी तो बड़ी अनुकम्पा से ही मिलेगी। और कोई होती बीवी, तो वो पहले कहती, ‘अरे! प्राणनाथ, नागनाथ ने डस तो नहीं लिया तुम्हें? और इतना कुछ करके आये हो तुम हमारे लिए, लो बिछ गये हम। हमारा सौभाग्य जो इतना प्रेमी पति मिला है।’ ये पत्नी भी ज़रा ख़ास रही होगी। ऐसी पत्नियाँ कहाँ होती हैं! पत्नियों को तो यही बहुत जचता है कि हमारे लिए इतना किया।

प्र: सर, अगर वासना ही थी तो उसकी जगह कोई दूसरी ले आते, जैसे कि आज होता है कि ब्रेकअप (सम्बन्ध-विच्छेद) हुआ तो दूसरी मिल गयी, अगर वो वासना ही थी तो।

आचार्य: क्या कहना क्या चाह रहे हो?

प्र: मतलब अपनी पत्नी को छोड़कर वो किसी और के पास भी तो जा सकते थे?

आचार्य: हाँ, जा सकते थे।

प्र: अगर सिर्फ़ वासना ही थी तो?

आचार्य: हाँ, जा सकते थे। नहीं गये।

प्र: मेबि (संभवतः) प्यार हो। प्यार, लव , कोई कनेक्शन (सम्बन्ध) हो?

आचार्य: अरे क्या कनेक्शन हो! समझ में नहीं आ रहा है काम का कितना घोर आवेग है, समझ रहे हो? इतना तुम्हें हुआ है कभी कि दनदनाती रात में, मूसलाधार बारिश, हाथ न मशाल, न शाल, भागे चले गये हो और साँप पकड़कर चढ़ गये हो?

बात समझ रहे हो?

वही कह रहा हूँ कि जब अहंता, वासना, इतने चरम पर होती है और तब उसपर ठोकर पड़ती है, तब वो टूटती है। आसानी से टूटने वाली नहीं है। साँप को पूरा बिल से बाहर निकालना होता है। और साँप, ये कभी पूरा बाहर आता नहीं, बड़ा होशियार है, कुछ न कुछ बचाकर रखता है। जब पूरा नंगा हो जाए तब उसे आईना दिखाना होता है। पूरा नंगा वो होना ही नहीं चाहता। और जिन क्षणों में वो पूरा नंगा होता है, उन क्षणों में कोई मिलता नहीं उसे आईना दिखाने वाला।

सौभाग्य होगा तुम्हारा अगर ये दोनों घटनाएँ एकसाथ घट सकें। पहला ये कि तुम पूरे नंगे हो सको, तुम अनुभव कर सको अपने नंगे यथार्थ को, तुम देख पाओ कि तुम काम के कितने गुलाम हो और ठीक उस क्षण जब काम अपने नग्न रूप में, अपनी पूरी कुरूपता और वीभत्सता के साथ ज़ाहिर हो रहा है तब कोई खट् से लाकर आईना दिखा दे। ये दोनों घटनाएँ एकसाथ घटनी चाहिए। ये बड़ा विरल संयोग होता है।

आमतौर पर तो तुम सभ्यता का मुखौटा ओढ़े रहते हो न। आमतौर पर तो तुम शालीन बने रहते हो, नंगे होते ही नहीं, कुछ-कुछ करके अपनेआप को ढके रहते हो। ऐसा संयोग चाहिए जब सब उभर गया हो, सब दिख गया हो, छुपने का कोई बहाना न चले और तभी कोई आये, अकस्मात् वरदान की तरह और तुमको आईना दिखा जाए। बुरा लगेगा, बहुत बुरा लगेगा।

पता नहीं कैसा लगा होगा तुलसीदास को पर जैसा भी लगा था, उससे रामचरितमानस पैदा हो गयी। काम से सीधे राम तक पहुँचे। प्रेमी उसी को जानना जो आईना दिखा सके। तुलसी को प्रेम था कि नहीं हम नहीं जानते, ये पक्का है कि पत्नी ज़रूर प्रेम जानती थी।

प्रेमी वही है जो तुम्हें सच्चाई तक ले जाए और आमतौर पर जो प्रेमी होते हैं, उनका एक ही मिशन होता है — सच्चाई से हटाओ, ख़ुद तक लाओ। उसे सच्चाई से हटाओ, अपने पास ले आओ, अपने पल्लू से बांध लो। वास्तविक प्रेमी उसको जानना जो सत्य से परिचय कराये तुम्हारा, जो आईना रख दे तुम्हारे सामने। दिक्क़त ये है कि ऐसा प्रेमी भाएगा नहीं। ऐसों को तुम प्रेमी मानोगे ही नहीं। तुम कहोगे, ‘ये तो परेशान करता है।’

प्र: आचार्य जी, ऐसे प्रेम की पहचान कैसे करें?

आचार्य: चोट लगेगी, मार पड़ेगी, पहचान अपनेआप दिखायी देगी। घाव होंगे, प्यारा नहीं लगेगा ऐसा प्रेमी। उसे छोड़ने का बहुत मन करेगा, छोड़ नहीं पाओगे — यही उसकी पहचान है।

जिसको लगातार छोड़ने के लिए वृत्ति कहे लेकिन फिर भी आत्मा उसे छोड़ने को राज़ी न हो, उसी को सच्चा प्रेमी मानना।

वही काम असली गुरु के साथ भी होता है। तुम्हारे मन की एक-एक लहर विद्रोह करती है। कहती है, ‘छोड़ो इसको, छोड़ो, भागो, परेशान करता है, शोषण, उत्पीड़न करता है। जली-कटी सुनाता है, डंडा मारता है, नंगा कर देता है, कोई आवरण शेष नहीं रहने देता, कोई बहाना नहीं चलने देता।’ मन कहेगा, ‘अब बस हो गया। आख़िरी बार है। भाग जाओगे और फिर पाओगे कि लौटकर आ गये।’

यही होती है प्रेम की निशानी। बार-बार भागना चाहोगे लेकिन भाग नहीं पाओगे। तुम्हारे बस में होता तो भाग गये होते। तुम पाओगे कि कुछ है जो तुम्हें बेबस किये देता है, कुछ है जिसपर मन का, अहंकार का ज़ोर नहीं चलता, उसे आत्मा कहते हैं। वो आत्मा का पक्षधर होता है, आत्मा उसकी पक्षधर होती है। वो तुम्हें आत्मा की याद दिलाता है और आत्मा तुम्हें उसकी ओर धकेलती है। वहाँ साँठ-गाँठ है। तुम्हें पता भी नहीं चलता तुम्हारे पीछे क्या खुराफ़ात चल रही है।

प्रेमी आत्मा से मिला हुआ है, आत्मा प्रेमी से मिली हुई है। इन दोनों का है महागठबंधन।

प्र: सर, एक फ़ैन्सी (आकर्षक) शब्द है जिसे कहते हैं सेल्फ़ रियलाइज़ेशन (आत्मबोध) और तब जाकर रामचरितमानस आयी, तो क्या ये वो था? या कुछ और? जैसे कि मतलब कोई आदमी ग़लत कर रहा है या ग़लत सोर्स (स्रोत) से इंस्पायर (प्रेरित) हुआ है, ज्ञान उसका ग़लत है, तब उसे ऐसा आईना दिखाया जाए या उसे दिखा या क्या वो इतना अलर्ट (सतर्क) था कि वो आईना देख पाया?

आचार्य: देखो भाई! बाहर वाला तो तुम्हें यदा-कदा ही आईना दिखा पाएगा, तुम ख़ुद तो अपनी हकीक़त से परिचित हो न। तो किस भाषा में बात कर रहे हो? कह रहे हो, ‘कब उसे आईना दिखाया जाए?’ किसके उपचार की बात कर रहे हो? किसके चिकित्सक बनना चाहते हो? अपनी बात करो न।

कोई और क्यों आये तुम्हें आईना दिखाने, तुम नहीं जानते तुम कैसे हो? आईने की ज़रूरत क्या है? आईना तो बाहरी होता है, और आईना हमेशा लेकर नहीं घूमोगे। आँखें तो हमेशा हैं, इन आँखों से अपना यथार्थ नहीं दिखता क्या? आईना क्या करोगे?

लगातार जी रहे हो न। लगातार जिये जा रहे हो तो लगातार अपनी हस्ती की हकीक़त से भी तो वाकिफ़ हो। जान तो रहे हो कि अगर आये हो रिक्शा करके तो रिक्शेवाले के प्रति क्या व्यवहार था। जान तो रहे हो कि अगर आये थे तो घड़ी को कितनी बार देखा, समय के साथ क्या रिश्ता था। जान तो रहे हो कि अगर ये उत्तर सुन रहे हो तो इस उत्तर के साथ क्या रिश्ता है। जान तो रहे हो कि अगर बाक़ी लोग बैठे हैं तो उनके साथ क्या रिश्ता है। ये भी जान रहे हो कि अगर बाक़ी लोग न बैठे होते तो अभी तुम्हारे शब्द बदल जाते, प्रश्न इसी तरीक़े से न पूछा होता, प्रतिवाद इन्हीं तरीक़ों से न किया होता, और सुनने में भी ज़रा गहराई और होती।

जान तो रहे हो कि पूरी दुनिया के साथ क्या रिश्ता है, इस महफ़िल के साथ क्या रिश्ता है। अब क्या आईना चाहिए? लगातार अपनी ज़िन्दगी पर निगाह रखो, उसके अलावा जानने को और है क्या!

अभी यहाँ इतने लोग बैठे हैं, सब अगर अकेले-अकेले हों तो वैसे ही रहेंगे जैसे अभी हैं? फिर होगा ये कि कुछ ज़्यादा बोलना शुरू कर देंगे, कुछ का बोलना कम हो जाएगा, लेकिन बदल सब जाने हैं। इसका अर्थ क्या है? इसका ये अर्थ है कि दूसरों की मौजूदगी आपको बदल देती है। ये अहंकार की निशानी है। अहंकार ही प्रभावित होता है। आत्मा तो कम से कम ऐसे मौक़ों पर नितांत अकेली हो जाती है, उसको दूसरा कोई नज़र नहीं आता। आत्मा के लिए तो सत्संग में कैवल्य होता है, अहंकार के लिए सत्संग में भी समाज होता है।

प्र: आचार्य जी, ये कैसे मालूम पड़े कि अब मैं ज्ञानशून्य हो गया हूँ और उस अवस्था में हूँ?

आचार्य: कुछ मालूम नहीं पड़ता। ये प्रश्न भी तब मालूम नहीं पड़ेगा। अभी ये प्रश्न तो मालूम पड़ रहा है न! ये प्रश्न भी प्रश्न नहीं है, ज्ञान है। अभी आपको ये ज्ञान तो है न कि ये प्रश्न महत्वपूर्ण है, तभी पूछ रहे हो, तब ये भी जान जाओगे कि ये भी महत्वपूर्ण नहीं है।

वास्तविक ज्ञान है समस्त ज्ञान की महत्वहीनता से परिचय।

सवाल तभी तो पूछा न जब पूछना ज़रूरी लगा। ये ज्ञान की बात है। ये ज़रूरी है। बोध है ज्ञान की अनिवार्यता से मुक्ति। ज्ञान फिर रहेगा, स्मृति के एक छोटे से कोष्ठ में बैठा रहेगा; अनिवार्य नहीं रहेगा, कूद-फांद नहीं करेगा, अपनेआप को आपके जीवन का केंद्र नहीं बना देगा।

प्र: और अगर वो अवस्था है तो कैसे पहचानूँ कि ये अवस्था आ गयी है?

आचार्य: आप पहचानते हमेशा ज्ञान का उपयोग ही करके हैं। आप जिसको पहचानना कहते हो, वो पहचान वगैरह कुछ नहीं है, मेल-मिलाप है। आप ऐसे पहचानते हैं, ये तस्वीर रखी है और फिर देखेंगे, कहेंगे (इशारे से मिलाते हुए), ‘तुम ही हो।’ तो पहचान भी ज्ञान है। ये संचित ज्ञान है, यहाँ बैठा हुआ है (सिर की तरफ इशारा करते हुए)। बाहर जो कुछ घट रहा है आप उसका इससे मिलान करते हैं और अगर मिलान दिखता है तो आप उसको वही नाम दे देते हैं जो इसका नाम है। ऐसा हमारा जीवन है।

आप कैसे जानते हो कोई आपसे प्रेम करता है? आपके मन में कुछ लक्षण बैठा दिये गये हैं प्रेम के — मीठा बोलेगा, मुस्कुराएगा, गुलाब का फूल देगा, मिठाई लेकर आएगा, चूमेगा-चाटेगा इत्यादि। अब ये सब यहाँ बैठे हुए हैं (दिमाग की तरफ इशारा करते हुए)। आपने इन सबको क्या नाम दिया है? प्रेम का। और बाहर आपको कोई मिले जो यही सब करना शुरू कर दे — गुलाबी शर्ट पहनकर आये, दूर से ही चुम्बन फेंक-फेंककर मारे, चलता-फिरता पेस्ट्री का विज्ञापन हो, इतना मीठा, तो आप तुरन्त कह दोगे, ‘ये रहा प्रेमी!’

ये आपने प्रेम को पहचाना है? ये पहचाना है आपने प्रेम को? पहचाना नहीं है। आपने क्या करा है — मिलान। आपने मिलान करा है। अच्छा, ये प्रेम होता है, वही तो सबकुछ ये कर रहा है तो ये प्रेम हो गया। अब ये प्रेम है।

हम जिसे पहचान कहते हैं वो ज्ञान होता है, तो इसीलिए पहचानना फिर बंद हो जाएगा। फिर भीतर से जो उठता है वो बहुत मौलिक होता है, वो प्रत्यभिज्ञा नहीं होती। हम जिसको पहचानना कहते हैं वो रिकॉग्निशन होता है। कि कॉग्निशन (संज्ञान) पहले ही था, अब क्या हुआ — *रिकॉग्निशन*। हम इसलिए कहते हैं न, ‘आइ रिकॉग्नाइज़ यू।’ (मैंने तुम्हें पहचान लिया।) आपने कोई उसे मौलिक तौर पर नहीं जाना है। आपने बस उसका मिलान कर दिया है।

फिर आप मौलिक तौर पर जानना शुरू करते हो। फिर आप उसे ऐसे देखते हो जैसे बिलकुल कोई बच्चा देखे किसी चीज़ को। फिर आपको कुछ ऐसा दिखायी देगा जो अन्यथा दिखायी ही नहीं पड़ता। और जब तक आप रिकॉग्नाइज़ कर रहे हो, जब तक प्रत्यभिज्ञा है, तब तक आपको कुछ नहीं दिखता। तब तक बस आप ढर्रे का ढर्रे से मिलान करते हो और ढर्रे को ढर्रे का नाम दे देते हो।

प्र: आचार्य जी, कोई तुलसीदास हैं, उस अवस्था में हैं, ये कैसे पहचानें?

आचार्य: तुलसीदास किसी अवस्था में नहीं होते। अवस्था तो उनकी तब थी जब साँप पकड़कर चढ़ रहे थे। सारी अवस्था पर पानी फिर गया। बीवी ऐसी थी कि उसने अवस्था साफ़ कर दी बिलकुल।

अवस्थाएँ जब साफ़ हो जाती हैं तब जो बचता है उसे आत्मा कहते हैं। सारी अवस्थाओं के साफ़ होने के बाद जो बचता है — निरभ्र, खाली, साफ़ आकाश। रातभर बारिश हो रही थी मूसलाधार, सुबह देखा तो बादल नहीं थे, सब छँट गया था, सिर्फ़ एक शून्यता थी, निरभ्रता थी, उसको कहते हैं आत्मा। उस आत्मा का नाम है तुलसीदास। तुलसीदास कुछ हैं थोड़े ही। तुलसीदास जो कुछ थे, उससे जब खाली हो गये तब जो बचा, उसे कहते हैं तुलसीदास।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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