सत्य विचार में नहीं समाएगा || आचार्य प्रशांत, अवधूत गीता (2013)
गुणविगुणविभागो वर्तते नैव किञ्चित्
रतिविरतिविहीनं निर्मलं निष्प्रपञ्चम् ।
गुणविगुणविहीनं व्यापकं विश्वरूपं
कथमहमिह वन्दे व्योमरूपं शिवं वै ।।
-अवधूत गीता, तृतीयोऽध्याय, श्लोक १
अनुवाद:
गुण और अवगुण का विभाजन ब्रह्म में पूरी तरह से अनुपस्थित है। ब्रह्म शुद्ध, अव्यक्त और राग और वैराग्य से रहित है। मैं कैसे उस सर्वोच्च परमगति … read_more