आचार्य प्रशांत: वह प्रजापतियों की सृष्टि करके सब पर अपना आधिपत्य रखता है। जैसे सूरज अकेले ही सबको प्रकाशित करते हैं। प्रकाश के स्रोत दो नहीं, प्रकाश के दो नहीं स्रोत हैं, एक है। वैसे ही वह प्रकाश स्वरुप है और वर्णीय है। वर्णीय माने उसी को चुनना, उसी का वरण करना, वही वर है मात्र। वही वर है मात्र। विवाह में दूल्हे को वर कहते हैं। ये बड़ी महत्वपूर्ण बात है। किसको वर लिया आपने?
ऋषि बताते-बताते थक गए। उसके अलावा किसी को वर मत लेना। उसके अलावा किसी को वर मत लेना। द्रौपदी के चीर हरण का दृश्य था। उस पर चर्चा हो रही थी महाभारत पर जब अपनी श्रृंखला चली थी एक या दो साल पहले। तो इसमें किसी ने पूछा कि आध्यात्मिक अर्थ में यहाँ क्या हो रहा है? द्रौपदी है, कौरवों की पूरी सभा है, पति हैं उसके वो भी एक नहीं पाँच, सब सामर्थ्यशाली और वो बैठे हुए हैं बेबस। फिर कृष्ण आते हैं वो ही मदद करते हैं।
मैंने कहा बात बहुत सीधी है। तुम एक नहीं पाँच वर कर लो। कोई तुम्हें बचा नहीं सकता। वरणीय मात्र कृष्ण ही हैं। तुम्हारा एक सांसारिक पति तुम्हे क्या बचायेगा, द्रौपदी के पाँच नहीं बचा पाए उसको। और पति से अर्थ यही नहीं कि वो जो देखिए, पति हसबैंड नहीं होता, पति माने स्वामी, जिस किसी को तुम अपना स्वामी मान रहे हो, जिस किसी को भी तुमने ये आस्था रख दी है कि ये मुझे बचाएगा। तो उस अर्थ में स्वामी पिता भी हो सकता है, दोस्त भी हो सकता है, पत्नी भी हो सकती है, पत्नी भी पति हो सकती है। अगर आपकी आस्था ये है की मेरी पत्नी मुझे बचाएगी वह मेरे स्वामिनी है। अगर पत्नी स्वामिनी है तो पत्नी, पति हो गयी उस अर्थ में। तो पति का सम्बन्ध किसी लिंग से मत मान लीजिएगा। जिस किसी पर भी आपने ये भरोसा टिका दिया कि ये मुझे बचा लेगा। इसके भरोसे मेरी नैया पार हो जाएगी। वही कौन हो गया? पति।
तो चीर हरण का दृश्य यही था कि द्रौपदी सही को वरना सीख। क्या इन पाँच के भरोसे बैठी हो? होंगे अर्जुन, भीम, ये, वो अभी क्या हो रहा है, क्या हो रहा है? कोई काम आ रहा है? अर्जुन, भीम काम नहीं आये तो लल्लू- चप्पू क्या काम आएँगे जो हम पकड़कर रख लेते हैं। और इनके चक्कर मे हम दूर किससे हो जाते हैं? कृष्ण से। अन्त में द्रौपदी को ज़रा सुध आयी। उसने कहा कि ये कहाँ पाँच नमूने पकड़ रखे हैं मैंने। सीधे नम्बर मिलाया असली को। तो फिर वो आये और उन्होंने कहा चलो मामला निपटाते हैं।
समझ में आ रही है बात?
परमात्मा मात्र वरणीय है। उसके अलावा किसी का वरण मत कर लेना। वर माने श्रेष्ठ। वर का क्या मतलब होता है? श्रेष्ठ। और वर का मतलब वो भी होता है जिसका आपने चयन किया है। तो माने मात्र श्रेष्ठ का ही चयन करना। बहुत सीधी सी बात है ये तो। किसी घटिया को कौन चुनना चाहता है? पर हम तो चुनते हैं।
तो अध्यात्म हमें वही बता रहा है जो हमें यूँही समझ में आ जाना चाहिए। पर हम बड़े अजूबे लोग हैं। जो बात सीधे समझ में आ जाने वाली है। हमें वो भी नहीं समझ में आती। और हम उसके बिलकुल विपरीत जीवन जीते रहते हैं। फिर ऋषियों को ज़ोर लगाना पड़ता है। वो बताते हैं कि सत्य मात्र वर्णीय हैं। किसी और पर भरोसा करोगे तो पिटोगे, जीवन पीटेगा। और अगर तुम पिट रहे हो जीवन में तो उसका एकमात्र कारण भी यही है कि तुमने सच के अलावा किसी और का वरण कर लिया।
अब सच कहीं उपलब्ध नहीं है वरण करने के लिए। कैसे सुनना है इस बात को? झूठ का वरण नहीं करना। सच नहीं उपलब्ध है वरने को, तो आप कहें, अरे! मिला नहीं न सच इसलिए झूठ को चुना है। सच मिलेगा भी नहीं। सच कोई इंसान थोड़े ही है। सच कोई कुर्सी थोड़े ही है। सच कोई कागज़ थोड़े ही है। सच कँहा से मिल जाएगा आपको वरन के लिए? तो सच नहीं मिलने वाला। आपके हाथ में बस इतना है कि आप झूठ को मत वरिए। अब यहाँ पर आकर के हम कुलबुलाने लगते हैं। हम कहते हैं देखो सच मिलता नहीं। और झूठ को वरना नहीं, बड़ा सूना-सूना हो जाएगा खेल। तो हम झूठ को छोड़ सकते हैं, बस शर्त हमारी ये है कि सच आ जाए हमारे सामने, हमारे जैसा बनकर। यही माँग भारी पड़ जाती है हम पर।
ऐसा नहीं कि झूठ से हमें कोई विशेष प्रेम, आशक्ति है। झूठ को हम इसलिए पकड़े रहते हैं क्योंकि सच हमें उस रूप में नहीं मिलता जिस रूप की हमारी हठ है। हम कहते हैं, हमारे ही तल पर आ जाए सच, हमारे ही जैसा बनकर। तो फिर हम झूठ को बिलकुल नहीं वरेंगे। हम सच को ही स्वीकार कर लेंगे। पर सच अगर सच है तो वो आपके तल पर आप जैसा बनकर नहीं आ सकता।
सच अगर सच है, तो आपकी ज़िम्मेदारी है कि आप उठकर के उसके तल पर जाएँ। ये हठ न करें कि वो गिरकर आपके तल पर आये। पर हमारा हट यही रहता है। हम कहते हैं, वो मेरे जैसा हो जाए। वो आपके जैसा नहीं होगा। क्योंकि आपके जैसा अगर वो हो भी गया। तो फिर आपके किसी काम का नहीं रह जाएगा। क्योंकि आपके ही जैसा हो गया आपके क्या काम आएगा? आपको उसके जैसा होना है, ये ज़िम्मेदारी हम उठाना नहीं चाहते। और हम ये नहीं कहते कि मैं उसके जैसा होना नहीं चाहता। हम कहते हैं मैं बेबस हूँ मैं उसके जैसा हो नहीं सकता। इसीलिए मैं बार-बार कहता हूँ, आप बेबस नहीं हैं। आप हो सकते हैं। बस मन से ये धारणा उखाड़ के फेंक दीजिए कि आप विवश हैं, नहीं हैं।
समझ में आ रही है बात?
सारा अध्यात्म इस एक सूत्र में आ गया। परमात्मा ही वरणीय है और मत चुनो किसी को। पल-पल, कदम-कदम चुनाव करते हो, यही पूछ लो किसको चुन रहे हैं? नकार ही विधि है। जो कुछ झूठ है उसको नकारते चलो। चुने किसको? किसी को नहीं चुनना है। जो बचेगा उसको चुन लिया।
तुम्हारे सामने सड़ा हुआ खाना परोस दिया गया है, पूरा भर दिया गया है यहाँ पर। अब क्या विधि होगी? किस विधि से आगे बढ़ोगे? बताओ। क्या करोगे? यहाँ एक रखा है कटोरा, यहाँ एक डोंगा रखा है, यहाँ कुछ रखा है, यहाँ थाली रखी है, कटोरी राखी है, यहाँ ग्लास रखा हुआ है। किस विधि से आगे बढ़ोगे? बताओ। पहले एक उठाओगे, क्या देखोगे? सड़ा हुआ है। इसको अलग करोगे। अगला उठाओगे, क्या देखोगे? सड़ा है। उसको अलग कर दोगे या ये फ़िक्र करते रहोगे कि सब कुछ अलग कर दिया तो मेरी मेज़ सूनी हो जाएगी।
मेज़ सुनी हो कि सेज़ सुनी। अरे! सड़ा हुआ माल थोड़ी अन्दर ले लोगे। कुछ नहीं बचेगा तो देखेंगे, कहीं और खोज लेंगे, कुछ और कर लेंगे। जब ये शरीर मिला है तो निश्चित रूप से कहीं पर इस शरीर का पोषण करने के लिए शुद्ध भोजन भी होगा वरना ये शरीर ही नहीं मिल सकता था। ऐसी कौन सी मजबूरी है कि सड़ी हुई चीज़ भीतर लेते रहें। तो एक-एक करके चीज़ों को हटाते चलना है। उस वक्त ये नहीं गिनना है कि सब कुछ हट गया तो मेरा क्या होगा? अकेलापन आ जाएगा, सूनापन आ जाएगा, कुछ बचेगा भी कि नहीं बचेगा। कोई गिनती नहीं करो। आगे के लिए कोई अनुमान नहीं करो। भविष्य की, अंजाम की, परिणाम की परवाह मत करो। जो गलत है बस उसको अस्वीकार करो। देखेंगे। ये रवैया ये एटीट्यूड ( मनोभाव ) बहुत ज़रूरी है। क्या?
श्रोता: देख लेंगे।
आचार्य: क्योंकि वो यही बोलकर डराती है, तेरा क्या होगा? कभी सोचा है तेरा क्या होगा? वो जितनी बार बोले, तेरा क्या होगा? तुम्हें क्या बोलना है?
श्रोता: देखा जाएगा।
आचार्य: एक बार ये बोलना सीख लिया न, 'देखा जाएगा’। फिर देख भी लेते हो। क्योंकि ताकत बहुत है हममें। हम सबकुछ देख सकते हैं। मज़े में हँसते-हँसते, खेलते-खेलते देखेंगे। बस ये धारणा छोड़ दो कि कमज़ोर हो। कि कुछ ऐसा हो जाएगा जो तुम देख नहीं पाओगे, टूट जाओगे। कुछ नहीं है ऐसा।
परेशानी की, चिन्ता की एक सीमा होनी चाहिए। वो भीतर पता होना चाहिए कि किसी भी मुद्दे की इससे ज़्यादा परवाह करनी नहीं है। तनाव एक सीमा से आगे जाने लगे तो उसे झटककर फेंक दो। बोलो, इतनी भी कौन सी कीमती चीज़ है कि सिर ही दर्द हो गया। देखो, छोटे-मोटे तनाव तो ज़िन्दगी की रोज़मर्रा की भाग-दौड़ में सबको हो ही जाते हैं। उससे बचाव ज़रा मुश्किल है। लेकिन जब अस्तित्वगत तनाव होने लग जाए न, कि हाय मेरा होगा क्या? तो उसको उठाकर के, देखा जाएगा, क्या होगा देखेंगे।
मेरे खयाल से तुलसीदास हैं जिन्होंने बड़े मस्त तरीके से कहा है,
अमरबेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि। ‘रहिमन’ ऐसे प्रभुहि तजि ,खोजत फिरी काहि ।।
अमर बेल होती है एक, अब वो वास्तव में होती है या मिथिकल है मुझे नहीं मालूम। पर वो जो अमर बेल होती है और पेड़ों पर ऐसे-ऐसे लिपटकर आगे बढ़ती है। उसकी जड़ नहीं होती उसकी जड़ नहीं होती। वो फिर भी ज़िन्दा रहती है यही है न। कि बिना मूल की, जड़ की अमर बेल का भी जो प्रतिपालन कर देता है, माने जिसे पाल लेता है। तो मुझे नहीं पाल लेगा वो। मैं इतना क्या डरता हूँ कि मेरा क्या होगा? मैं इतना क्या डरता हूँ कि मेरा क्या होगा?
वैसे ही शायद फिर से तुलसीदास का ही है। वो कहते हैं,
तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए। अनहोनी होनी नहीं, होनी होए सो होए।।
मस्त बिलकुल। क्या? “अनहोनी होनी नहीं, होनी होए सो होए। तुलसी भरोसे राम के निर्भय हो के सोए।” खर्राटे सब गधे-घोड़े बेचकर मस्त सो जाओ। बिन्दास। जो होगा देखा जाएगा। देखें तो कि बुरे-से-बुरा ऐसा क्या है जिसको लेकर हम खौफ़ में रहते हैं। एक बार देख ही लें उस खौफ़ को। या तो खत्म ही हो जाएँगे और अगर बच गए तो फिर आगे खौफ़ में तो नहीं रहेंगे।
“अमरबेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि। ‘रहिमन’ ऐसे प्रभुहि तजि खोजत फिरी काहि।।” कहाँ खोजते फीर रहे हो, वो कहीं दूर थोड़े ही है। बिना मूल की अमर बेल का भी वो प्रतिपालन कर रहा है। ठीक है?
तो “सिरमन ऑन द माउंट” में है जीजस का है। जहाँ पर वो जा रहे हैं अपने, अपने दल के साथ, अपने शिष्यों के साथ जो भी बोल रही है अपनी टोली के साथ, अपने गैंग के साथ। मुझे गैंग बोलना अच्छा लगता है। तो वहाँ पर वो शायद लिली के फूल हैं। तो उनको कहते हैं कि जानते हो ये लिली के फूल इतने सुन्दर क्यों हैं? किंग सोलोमन के खजानों से उनकी तुलना करते हैं। कहते हैं इतने सुन्दर क्यों है? क्योंकि ये परवाह नहीं करते। इसलिए इतने सुन्दर हैं। कल की परवाह नहीं करते इसलिए इतने सुन्दर हैं ये।
वैसे ही और भी हैं। एक जगह पर वो कहते हैं कि आसमान में जो पक्षी उड़ रहा है उसके पास भी घर है, छोटे- मोटे कीड़ों के पास भी घर है, जानवरों के पास भी है। आदमी अकेला है जो बेघर है। मतलब समझिएगा। क्योंकि आदमी अकेला है जिसे घर बनाना होता है। जो घर के लिए परेशान रहता है। बाकियों का घर बन जाता है। मैं बिलकुल ठीक-ठीक उद्धृत नहीं कर रहा हूँ। आप स्वयं ही पढ लीजिएगा। लेकिन जो आशय है वो ऐसा ही है।
वैसे गुरुनानक एक जगह पर ‘जपजी साहिब’ में है शायद, प्रयोग करते हैं शब्द ‘बेपरवाह’ उसके लिए। कौन है वो? बेपरवाह। वो बेपरवाही का दूसरा नाम है। बेपरवाही का, केयर फ्री (चिन्ता मुक्त)। हम उस तरीके से जीना जानते नहीं हैं। हम विचार करने लग जाते हैं अरे! बोल तो दिया गया कि सत्य चिन्तन से नहीं मिलता। तो इन मुद्दों पर विचार मत करो चिन्तन से कुछ नहीं मिलेगा। वो अचिन्त्य है। और अभी मैं जो कुछ बोल रहा हूँ आप उस चीज़ को भी लेकर चिन्तन कर रहे होंगे। और चिन्तन में क्या होता है हमेशा? हिसाब-किताब।
अच्छा ठीक है अगर मैं बेपरवाह हो गया तो कितने दिन तक मामला चलेगा। मेरी सेविंग (बचत) कितनी है? मैं बेपरवाह तो हो जाता हूँ। पर ज़रा देखूँ अभी हर महीने का खर्चा इतना है। तो आगे कब तक चलेगा। अरे! ऐसे नहीं होता। तुम्हारी ज़िन्दगी में क्या है जो तुम्हारी गणना से हुआ है आज तक। तो आगे के लिए तुम क्यों सोच रहे हो कि तुम्हारे हिसाब-किताब से चलेगा। छोटी-मोटी चीज़ों में हिसाब चल जाता है। तुम सोचो ज़िन्दगी में ही चल जाएगा तो नहीं चलता भाई।
तुम अपनी ज़िन्दगी के सब बड़े मुद्दे देखो, तुम्हारे हिसाब से चल रहे हैं। तो इतना खोपड़ा क्यों चला रहे हो? ढाई इंच के कटोरे में सागर भरना है। फेथ (आस्था) इसी का नाम है। और वो आपको इस युग की जो सबसे बड़ी महामारी है उससे बचाती है। क्या? तनाव, अवसाद। वो इसीलिए है क्योंकि ये युग श्रद्धाहीनता का, फेथलेसनेस (अश्रद्धा) का युग है। और जहाँ श्रद्धाहीनता आयी वहाँ ज़बरदस्त तनाव आया। क्योंकि अब आप ये कह ही नहीं पाओगे की “तुलसी भरोसे राम के निर्भय हो के सोए।” कौनसा राम, जब राम है ही नहीं है तो राम का भरोसा कैसा? कोई भरोसा नहीं। जब किसी का भरोसा नहीं कर सकते तो फिर किसका भरोसा करना पड़ता है?
श्रोता: अहम् का।
आचार्य: अहम् जब अहम् का भरोसा करेगा। तो अच्छे से जानता है कि अहम है तो खोखला, दो कौड़ी का। तो उसे पता ही है की गलत चीज़ का भरोसा कर रहे हैं। तो फिर तनाव रहता है, ज़बरदस्त तनाव रहता है। आप दूसरों को भले बता दो कि आप बहुत बड़े तोप हो, कहीं-न-कहीं आपको तो पता ही है कि क्या हो। तो जब कहते हो न मैं अपने भरोसे कर लूँगा, तो भीतर-ही-भीतर भी दहले हुए भी रहते हो कि अपनी हकीकत हमें तो पता ही है कि हम कैसे हैं? तो दुनिया कहती, देखो बहुत बढ़िया सेल्फ मेड मैन (स्वयं निर्मित पुरुष) है, अपनी मेहनत पर आगे बढ़ता है किसी की सुनता नहीं है। और आप अन्दर-ही-अन्दर बिलकुल पतलून भी काँप रही है, हालत खराब है।
हालत भी खराब हो अब इसमें भी तो पेंच पर पेंच है न। ज़रूरी नहीं है कि हमें पता हो कि हमारी हालत खराब है। हो सकता है हमने अपनेआप को आश्वस्त कर लिया हो कि हम बिलकुल ठीक हैं। और ऊपर-ऊपर हम ऐसे आत्मविश्वास से भरपूर घूम रहे हैं। हालत भी अन्दरूनी तौर पर खराब रहती है। और हम स्वयं से इतने नावाकिफ़ हैं कि हमें पता भी नहीं होता कि हमारी हालत खराब है।
कितने ही ऐसे अभिनेता हुए हैं जो मरने से दो महीने चार महीने पहले तक भी अभिनय कर रहे थे। या गायक हुए हैं जो मरने से कुछ दिन पहले भी स्टेज परफॉर्मेंस (रंममंच कार्य-सम्पादन) दे रहे थे। उनको कैंसिर था या कुछ और था। और सामने जो पूरा श्रोता वर्ग होता था ऑडियंस। उन्हें पता भी नहीं चलता था कि ये इतना बीमार है। क्यों? अभिनय है भाई। वैसे ही हम अपने साथ कर ले जाते हैं। हम चलते रहते हैं, चलते रहते हैं। भीतर से खोखले हुए जा रहे हैं। चेतना में कैंसर लगा हुआ है। लेकिन अभिनय पूरा चल रहा है बाहर-बाहर जैसे हम स्वस्थ हैं। और सब कुछ क्यों? क्योंकि राम को नहीं मानना है। राम को नहीं मानना है। अहंकार बहुत डरता है उससे।
जिनको तुम अपना राजा भी समझते हो। जो इस दुनिया में सबसे आगे-आगे चल रहे हैं। उन पर भी आधिपत्य उसी का है। तुमने राजा की परिभाषा ही गलत कर रखी है। तुम गलत लोगों के आगे झुके हुए हो। तुम गलत ताकतों से दबे हुए हो। तुम्हें ये पता ही नहीं कि तुम जिनके आगे सिर झुका रहे हो उनकी डोर भी किसके हाथ में है। तुम्हें अगर ये पता ही हो तो तुम सीधे असली मालिक के पास जाते न या बीच में जो दलाल बैठा है उसके सामने नाक रगड़ते।
जगत को दलाली का अड्डा भी बोल सकते हैं। यहाँ मालिक कोई नहीं है। दलाल भरे हुए हैं बहुत सारे। हमें लगता है दलाल ही मालिक है। हमें क्यों लगता है दलाल ही मालिक है? क्योंकि मालिक से हमारा सीधा सम्बन्ध नहीं है। ये हमारी भूल है।
जब मालिक से सीधा सम्बन्ध नहीं होता तो दलाल ही राज करना शुरू कर देते हैं। जबकि उन दलालों को तो दलाली करने का भी अधिकार दिया नहीं गया है। वो दलाली भी यूँही कर रहे हैं झूठमूठ चोरी से। वो दलाली करके भी आपको कुछ नही दिला सकते। आप किसी सरकारी दफ़्तर में जाते हो। आपको आरटीओ में लाइसेंस कुछ काम कराना है। कुछ और करना है वहाँ भी दलाल होते हैं। लेकिन वो कम-से-कम काम तो करा देते हैं न। होना उनको भी नहीं चाहिए। उनकी मौजूदगी भी वहाँ बिलकुल कोई व्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए या सुचारु करने के लिए नहीं होती है। वो भी व्यवस्था में एक प्रकार की इनएफिसेंसी (अकुशलता) है।
हम जानते हैं द प्रेजेंस ऑफ मिडिल मेन। (बिचौलिए की उपस्थिति) लेकिन वो फिर भी इतना तो करते हैं कि काम करा देते हैं। दुनिया में तो दलाल बैठे हैं ये पहली बात तो अवांछित हैं और दूसरी बात अनधिकृत हैं। अवांछित भी हैं और अनधिकृत भी हैं। दिनभर हम कैसे जीते हैं? ज़िन्दगी में हम कैसे आगे बढ़ते हैं? उसके सन्दर्भ में इस बात का महत्व समझ रहे हैं।
हमें यहाँ कोई ऐसा नहीं बैठा हुआ जिसका सिर नहीं झुका हुआ है। और कोई यहाँ ऐसा नहीं बैठा जिसका सिर गलत जगह नहीं झुका हुआ है। किसी का सिर पैसे के आगे झुका है। किसी का रुतबे के आगे झुका है। किसी का झूठे कर्तव्यों के आगे झुका है। किसी का मोह के आगे झुका है। किसी का लालच के आगे झुका है। किसी का अपने अज्ञान के आगे झुका हुआ है। सबका सिर झुका है और सबका सिर गलत दर पर झुका है।
अध्यात्म ये बताने के लिए नहीं है कि मन्दिर में जाकर सिर झुकाओ। अध्यात्म बताता है गलत जगह सिर मत झुकाओ। ये अन्तर साफ़ समझिए, सौ जगह झुका हुआ सिर अगर जाकर के मन्दिर में भी झुक जाता है तो कोई लाभ नहीं। और अगर सिर कहीं नहीं झुक रहा तो फिर मन्दिर की आपको कोई ज़रूरत नहीं। मूल बात ये है की ये झुकना नहीं चाहिए। और ये झुकता सब गलत जगहों पर ही है।
अभी किसी नेता का काफ़िला यहाँ से निकल जाए तुरन्त सिर झुक जाता है। ऐसे नहीं कि आप ऐसे सिर झुका देंगे। वो भीतर से झुकता है। बात समझ रहे हैं न? तुरन्त झुकता है भीतर कि नहीं झुकता है? नहीं झुकना चाहिए। ये छोटी सी रोज़मर्रा की चीज़ है अध्यात्म।
समझ रहे हो बेटा, बात समझ में आ रही है?
वो सब नहीं करना है कि इतने विशेष मन्दिर हैं, इतनी विशेष जगहें हैं, फ़लाने विशेष गुरु हैं, फ़लानी विशेष पीठ है, फ़लाना ऐसा, फ़लाना वैसा, यहाँ जाओ और नमन करो। वो कोई बुरी बात नहीं है। पर आमतौर पर वो एक अनुपयोगी बात है। क्यों अनुपयोगी है? क्योंकि ये सिर हमारा सौ जगह तो झुका हुआ है। अब तुम जाकर के कहीं और भी झुका आए तो उसका कोई अर्थ हुआ नहीं। कि हुआ? तो पहला काम क्या करना है? ये रीढ़ सीधी रखनी आनी चाहिए।
ये समझ में आ रही है बात?
ये इसलिए नहीं मिली है कि झुक जाए। इसको बीमारी बोलते हैं। गुरु नहीं चिकित्सक भी ये बता देगा, रीढ़ अगर ऐसी हो गयी तो ये क्या हो गयी है, ये बीमारी हो गयी है। फिर प्रशिक्षक आता है उसका काम क्या होता है? रीढ़ को सीधा करना। वो आपको अभ्यास करता है बार-बार कि रीढ़ सीधी कैसे हो।
एक बड़ा विशेष श्लोक है श्रीमद्भगवद् गीता में, उसमें और जो बातें हैं वो तो हैं, एक बात ये खास आती है। और मैं समझता हूँ इसका जो सम्बन्ध है वो सीधे-सीधे इसी बात से है। इसमें कृष्ण रहे हैं सीधे उसमें बात तीन की करते हैं- नासिका, ग्रीवा और रीढ़। नाक गर्दन और रीढ़। आमतौर पर उसको ऐसा समझा जाता है जैसे योग की किसी मुद्रा या किसी आसन की बात हो रही है। मैं समझता हूँ वो न झुकने की बात हो रही है। कृष्ण कह रहे हैं ये तना हुआ होना चाहिए, ये गर्दन सीधी होनी चाहिए और नाक ऐसी होनी चाहिए। इसका सम्बन्ध आसन से नहीं, जीवन से है।
बात समझ रहे हैं?
इसको (मेज़ पर रखी वस्तु की ओर इशारा करते हुए) सीधा रखने का मतलब समझिएगा। जैसे ये है हम इसको अगर मुझे सीधा खड़ा करना है ऐसे, ये तो खैर होगा नहीं क्योंकि इसका आधार ही टेढ़ा है। लेकिन फिर भी समझ जाएँगे आप। अब इसको मुझे सीधा खड़ा करना है तो ये असम्भव है। अगर ये ज़रा सा भी ऐसे है, ज़रा सा भी ऐसे है और ज़मीन इसको खींच रही है।
ज़मीन का मतलब प्रकृति, मिटटी, भूत सारे, भूत माने भूत प्रेत नहीं। भूत माने मेटेरिअल (पदार्थ) वो सब इसको नीचे खींच रहे हैं। वही तो खींच रहे हैं नीचे। तो गुरुत्वाकर्षण और क्या होता है? सब नीचे खींच रहे है। अब एक काम तो ये कर सकता है कि ये चित् पड़ गया। पड़ गया चित्, खत्म और जब कुछ चित् पड़ जाता है माने उसकी हार हो गयी न। और एक बार कुछ ऐसे पड़ गया तो ऊपर को भी नहीं आ सकता। इसे ऊपर को आना है तो इसे कैसा होना होगा? और ये तन के सिर्फ़ एक स्थिति में रह सकता है कि ये टेढ़ा न हो। ये टेढ़ा हुआ नहीं कि ये गिरेगा।
इस अर्थ में कृष्ण कह रहे हैं कि ऐसे रहो। ऐसे रहो माने प्रकृति से, पृथ्वी से, गुणों से, भूतों से अप्रभावित रहो। तो मेरुदंड का जो सीधा रहना है वो वास्तव में एक आंतरिक प्रतीक है। जहाँ आपको कहा जा रहा है कि अप्रभावित रहना सीखो, झुक मत जाओ उसकी और। किसी चीज़ की ओर झुकने का क्या मतलब होता है? वो चीज़ आपको आकर्षित कर ले गयी। तो आप उसकी ओर झुक गए न। नहीं, ऐसे नहीं, न इधर न उधर। समस्थिति।
समझ में आ रही है बात?