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हे प्रभु! रक्षा करना || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

Acharya Prashant

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हे प्रभु! रक्षा करना || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

प्रश्नकर्ता: उच्चतम स्थान किसका है? क्या सत्य और ईश्वर एक हैं? जो उच्चतम है, उसके प्रति प्रार्थना का क्या अर्थ है? और दूसरा मुद्दा, दूसरा प्रश्न — रक्षा माने क्या?

आचार्य प्रशांत: हम जैसे होते हैं, रक्षा शब्द का तात्पर्य हमारे लिए वैसा ही होता है। और हम जैसे होते हैं, उच्चतम भी हमारे स्थान का ही एक विस्तार होता है, या एक प्रतिबिम्ब होता है।

अहंकार चाहता है कि वो जैसा है वैसा ही बना रहे। और उसके ऐसा चाहने के पीछे बड़ा कारण है। वो जैसा है, वैसा वो बना रह नहीं सकता। इसीलिए उसकी विवशता है ये चाहना कि काश! मैं जैसा हूँ वैसा बना रह पाता। जिसके अस्तित्व में सत्यता है, उसे अपने अस्तित्व की रक्षा की परवाह तो करनी पड़ेगी नहीं। और अहंकार हमेशा यही माँगता रहता है, 'हे प्रभु! रक्षा करो।' इससे अहंकार की स्थिति के बारे में, और अहंकार की अपनी स्थिति के प्रति रवैये के बारे में, क्या पता चलता है? पता ये चलता है, पहली बात, अहंकार की स्थिति नाज़ुक है, डाँवाडोल है। और दूसरी बात, वो ये जानता है कि उसकी स्थिति नाज़ुक है, डाँवाडोल है। तो कोई ये न कहे कि वो पूर्णतया अज्ञानी है, या अपनी निस्सारता को, अपने अज्ञान को, अन्धकार को जानता नहीं था। हमें ये जो भीतर डर लगता है, भविष्य की और सुरक्षा की कुलबुलाहट रहती है; यही इस बात का प्रमाण है कि हम जानते हैं कि हम झूठ हैं।

सच मिट सकता नहीं, सच टल सकता नहीं, सच कट सकता नहीं तो सच अपनी रक्षा के लिए कोई प्रार्थना या प्रयत्न करेगा क्यों? हम तो प्रार्थना भी करते हैं, प्रयत्न भी करते हैं। माने हम जानते हैं कि हम सच तो हैं नहीं। और हम प्रार्थना करते हैं इसी भाव, इसी माँग के साथ कि हम बचे रहें। तो हम फिर बचे-बचे जैसे रह सकते हैं — जैसे हम फिलहाल हैं — हम उसी के अनुरूप एक ईश्वर बनाकर के, उससे फिर प्रार्थना करते हैं।

माने हमारी प्रार्थना एक झूठ से आ रही है, और हमारी प्रार्थना हमारे ही झूठ से उठती हुई एक छवि की ओर जा रही है। हमारी प्रार्थना एक झूठ से आ रही है, हमारी प्रार्थना हमारे झूठ से उठती हुई एक छवि की ओर जा रही है। और झूठ का ही जो पूरा कारोबार है, इसी को बचाये रखने के लिए प्रार्थना की जा रही है। ये बात समझ में आ रही है?

हम रक्षा शब्द पर, हम सत्य पर, ईश्वर पर, और प्रार्थना पर चर्चा कर रहे हैं। हमारी प्रार्थना कहाँ से उठ रही है? उससे जो झूठा है। क्योंकि वो झूठा न होता, तो अपनी रक्षा की प्रार्थना करता क्यों? और चूँकि उसे स्वयं को बनाये ही रखना है, इसीलिए वो जिससे प्रार्थना कर रहा है, वो भी सत्य नहीं हो सकता।

देखो, असत्य और सत्य के बीच में कोई संवाद नहीं हो सकता। असत्य का संवाद तो असत्य से ही होगा। असत्य और सत्य सामने जब पड़ते हैं, तो असत्य बात नहीं करता, मिट जाता है, मौन हो जाता है। तो झूठ से उठती है, प्रार्थना और सुरक्षा की ललक; और झूठ द्वारा ही निर्मित एक छवि की ओर जाती है। और उस छवि से प्रार्थना भी यही की जाती है कि हे छवि! ये जो हमारी पूरी व्यवस्था है झूठी, इस पर आँच न आने पाये। ये होती है प्रार्थना।

अब समझो कि रक्षा क्या चीज़ है। तुम अगर ईश्वर से बार-बार लगातार भी कह लो कि हे ईश्वर! रक्षा करना, तो भी क्या मृत्यु नहीं आएगी तुमको? कहो। और ये भी तुमसे ही सुना है हमने, कि तुम कहते हो कि ज़िन्दगी और मौत दोनों ईश्वर के हाथ हैं। माने मृत्यु भी कौन देता है? ईश्वर देता है। ये तो बड़ी अजीब बात है, जिससे तुम रक्षा की प्रार्थना कर रहे हो, तुम कह रहे हो, मृत्यु भी वही देता है। मृत्यु तुमसे पूछकर तो नहीं देता होगा। तुम तो निरन्तर यही प्रार्थना कर रहे थे न कि रक्षा करना। तुम प्रार्थना करे ही जा रहे थे, रक्षा करना, रक्षा करना, रक्षा करना। अब बीच में उसने तुम्हें दे दी। या आज तक किसी ने मृत्यु माँगी है?

उनकी नहीं बात कर रहा जो बहुत चिंतित हैं, दुःखी हैं, या विक्षिप्त हैं, या अवसाद में हैं; वो बीच में बोल देते हैं कि मर जाएँ तो भला। लेकिन सामान्यतया हमारी प्रार्थना क्या होती है? और तुम लगातार हाथ जोड़कर के माँगे ही जा रहे हो, रक्षा करो, रक्षा करो, रक्षा करो। और दुनिया में कोई ऐसा नहीं है जिसको मौत न मिल जानी हो। तुम तो रक्षा माँग रहे थे, मौत कैसे मिल गयी? और होओगे तुम बहुत बड़े भक्त, तुम्हारी निष्ठा, हो सकता है कि तुम्हारी ईश्वर में बहुत गहरी हो; मिल क्या गयी तुमको, मृत्यु मिल गयी।

तो रक्षा का मतलब समझो। अगर अपनेआप को देह मानोगे, अगर अपनेआप को देह मानोगे, तो तुम कहते हो, ईश्वर मेरा जन्मदाता है। ठीक है? खुद को देह माना तो एक ईश्वर को माना और माना कि ईश्वर मेरा जन्मदाता है। जिसको जन्मदाता माना, वही मृत्युदाता हो गया। ये है रक्षा का यथार्थ।

चूँकि एक झूठी, एक छद्म मान्यता से शुरुआत करी; तो निकले थे रक्षा की चाह में, और जिससे रक्षा चाह रहे थे, ठीक उसी से मृत्यु मिल गयी। ऐसी भी नहीं कि अकस्मात् मिल गयी कि देने वाला तो जीवन दे रहा था, इधर-उधर से कोने-कतरे छुपकर मौत ने वार कर दिया, कुछ ऐसा नहीं। ठीक उससे जिससे माँग रहे थे जीवन, रक्षा — रक्षा माने जीवन की ही तो रक्षा माँगते हो, अपने अस्तित्व का सातत्य माँगते हो, 'चलता रहे जैसा भी हूँ, मेरा काम चलता रहे’ — ठीक उससे जिससे जीवन माँग रहे थे, रक्षा माँग रहे थे, उसने मृत्यु दे दी। तो जो लोग किसी सक्रिय ईश्वर में विश्वास करेंगे, उनको ये प्रसन्नता तो रहेगी कि ईश्वर हमारा जन्मदाता है, ईश्वर हमारा सुरक्षादाता है। लेकिन ले-देकर के अन्ततः उन्हें पता चलेगा कि ईश्वर उनका मृत्युदाता भी है। तो या तो रक्षा का मतलब मानो शरीर की रक्षा, अहंकार की रक्षा; और रक्षा माँगने चलो और मौत पाओ। ये आम आदमी की कहानी है।

हम रक्षा का मतलब मानते हैं कि हम जैसे हैं वैसे बने रहें। यही हमारा रक्षा शब्द से अभिप्राय होता है न? सब लोग समझें इसको अच्छे से। रक्षा शब्द का अध्यात्म में अर्थ क्या है? अगर रक्षा शब्द का अर्थ है कि तुम जैसे हो वैसे बने रहो, तो ऐसी कोई माँग पूरी नहीं होने वाली। ठीक उससे जिससे माँगने जाओगे रक्षा, पाओगे मृत्यु। बड़ा कष्ट होगा, बड़ी चोट लगेगी। सीखोगे लेकिन कुछ नहीं, चोट खूब पड़ जाएगी, सिर्फ़ इसलिए कि यही चक्र चलता रहे। तो जो सांसारिक अर्थ है रक्षा का, उससे कुछ हटकर होना चाहिए आध्यात्मिक अर्थ रक्षा का।

अब रक्षा के आध्यात्मिक अर्थ पर आते हैं। अध्यात्म में रक्षा का मतलब होता है — वहाँ पहुँच जाना, वो हो जाना, जिसको अब रक्षा की ज़रूरत न पड़े। ‘रक्ष’ से ही आया है भाषा का शब्द ‘रख’। ‘क्ष’ क्या बन गया? ‘ख’। तो ‘रक्ष’ से ही आया है ‘रख’, और फिर वहीं से आया है कि ईश्वर हमारा रखवाला है या रक्षक है। अध्यात्म में रक्षा का मतलब होता है, वो हो जाना जिसे अब किसी रखवाले की, रक्षक की, सुरक्षा की ज़रूरत ही नहीं।

तो स्वयं को शरीर मानोगे, और मानोगे कि कोई ईश्वर है जिसने तुमको जन्म दिया, तो रक्षा के नाम पर मौत मिलेगी। और अगर स्वयं को जानोगे, तो रक्षा चाहने पर मुक्ति मिलेगी। अब तुम देख लो कि तुम्हारे लिए रक्षा का अर्थ क्या है, मृत्यु या मुक्ति?

हम मुक्ति से डरते हैं। हम कहते हैं, ‘मुक्ति का तो मतलब होगा हम बचेंगे नहीं न।’ मुक्ति बहुत डरावनी चीज़ लगती है हमें। पर बात ये है कि सिर्फ़ मुक्ति में ही तुम बच सकते हो। तुम जैसे हो, तुम अस्थायी हो। तुममें एक मूल अस्थिरता है, तुम शाश्वत नहीं हो सकते, तुम अनस्टेबल (अस्थिर) हो, तुम बच ही नहीं सकते। तुम कुछ ऐसा बचाने की कोशिश कर रहे हो, जिसका न बचना बदा हुआ है। नियम है, सिद्धान्त है कि हम जैसे हैं हम बचे नहीं रह सकते। न बाहरी रूप से, न आन्तरिक रूप से, न स्थूल, न सूक्ष्म रूप से, न शरीर रूप से, न मानसिक रूप से, हम बचे नहीं रह सकते। और हमारी सारी माँग है इसी को बचाये रखने की। मेरा शरीर बचा रहे, मेरी जवानी बची रहे, मेरा पैसा बचा रहे, परिवार बचा रहे, समृद्धि बची रहे, जीवन बचा रहे, घर बचा रहे, स्मृतियाँ बची रहें, जैसा मैंने दुनिया को जाना है, वैसा सबकुछ बचा रहे। वो बचता नहीं है। वो बच नहीं सकता।

बचने का एक ही उपाय है, वो हो जाओ जो मिट नहीं सकता। तुम अगर वही रहे आओगे, मिटना जिसकी नियति है तो तुम लाख प्रार्थनाएँ करो किसी ईश्वर से, कोई ईश्वर तुम्हें बचाने वाला नहीं। वो ईश्वर भी तुम्हारा फिर तुम्हारे ही जैसा है न। तुम्ही ने तो रचा है। कहाँ से तुमको बचा लेगा? वो ईश्वर स्वयं नहीं बचना। सत्य बचता है। क्या बचता है? सत्य बचता है। सत्य बचता है, और सत्य बचाता है। किसको बचाता है? सत्य को ही बचाता है।

झूठ को बचाने के इरादे छोड़ो। जो चीज़ सच्ची है, जो अमर रहनी-ही-रहनी है, जिसको मिटाने का कोई तरीका नहीं, वहाँ तक पहुँच जाओ। तुम्हारी चेतना के भीतर जो कुछ है, वो मिटना है। अपनी चेतना के भीतर की एक वस्तु, चीज़, इकाई, व्यक्ति बने रहने की कोशिश मत करो। और बदलाव के नाम पर, एक चीज़ से दूसरी चीज़ मत हो जाया करो। उससे तुम्हारी रक्षा नहीं हो जाएगी। जैसे कि जलते कमरे में, एक आदमी एक जगह से दूसरी जगह छलाँगें मार रहा हो। बच जाएगा?

पूरा कमरा जल रहा है धूँ-धूँ, और एक हुनरमन्द क्या कर रहा है, एक कोने से दूसरे कोने में छलाँगे मार रहा है। बच जाएगा क्या? एक उससे भी ज़्यादा हुनरमन्द है, वो कपड़े बदल रहा है। वो आग को धोखा देना चाहता है। वो कहता है, 'आग आयी है अभी पीले कपड़े वाले को जलाने के लिए, मैं हरे कपड़े पहन लूँगा।' बच जाएगा? मौत से बचने के लिए इंसान की सारी कोशिशें ऐसी ही हैं।

अरे! तुम जिस चीज़ का इस्तेमाल करके, आग को धोखा देना चाह रहे हो, वो चीज़ खुद जल रही है। जो कपड़ा खुद जल रहा है, वो तुम्हारी देह को जलने से कैसे बचाएगा? बताओ। इस जगत में क्या ऐसा है, जो मिटना नहीं है? तो जगत की कौनसी चीज़ का इस्तेमाल करके तुम खुद मिटने से बच जाओगे? बताओ। दुनिया में कुछ ऐसा होता, जो स्वयं न मिट रहा होता, तो तुम उम्मीद करते कि भई! ये नहीं मिट रहा, इसका इस्तेमाल कर लेंगे, शायद हम भी न मिटे। दुनिया में कोई ऐसी चीज़ बता दो ना, जो खुद न मिट रही हो? जो चीज़ खुद मिटने को तैयार खड़ी है, वो तुम्हें कैसे बचा लेगी? या बचा लेगी? बोलो। लकड़ी जलने को हुई तो बोली, 'क्यों न भूसा पहन लूँ!' और अपने चारों ओर भूसा लपेट लिया। बोली, 'ऐसे जल जाती, अब ये भूसवा बचा देगा मुझको।' हम वैसे ही हैं।

हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी, केस जले ज्यूँ घास। सब जग जलता देखि करि, भए कबीर उदास॥

यहाँ ऐसा ही है। सब जग जलता है, यहाँ कौनसी रक्षा है? पर हमारे जब केस (केश) जलने लगते हैं, तो हम उन पर नया सुगन्धित, ब्रांडेड तेल लगाते हैं। हम कहते हैं, 'क्या पता, इससे जलें नहीं।' समझ में आ रही है बात?

जलने का क्या अर्थ है? जलने का अर्थ है कि ये जगत गतिमान है, यहाँ सब बनता बिगड़ता रहता है। मृत्यु समय का दूसरा नाम है। समय का मतलब ही है परिवर्तन। जगत माने, वो जगह जहाँ समय चलता है। और स्थान और समय; टाइम और स्पेस , हमेशा एकसाथ पाये जाते हैं। तो अगर जगत है, जगत माने जिसको तुम ऐसे विस्तार की तरह देखते हो न, ये पूरा स्पेशियल एक्सटेंशन जो हमारी इन्द्रियों को अनुभव में आता है; अगर ये है, तो साथ में क्या होगा? समय। और अगर समय है तो क्या होगा? परिवर्तन। और परिवर्तन को ही कहते हैं मृत्यु। तो इसीलिए इस लोक को क्या बोला गया है? मृत्युलोक।

ये मनलोक है, ये जीवलोक है, ये इहलोक है, और इसके लिए बहुत अच्छा नाम है, मृत्युलोक। मन ही मृत्यु है। जीव ही मृत्यु है। जो कुछ भी तुम्हारी चेतना में आ गया, वो मृत्यु का विषय है। वो काल का ग्रास है। इसलिए कुछ ऐसा बनने की कोशिश मत करो जिसके बारे में तुम सोच सकते हो।

हम अभी कह रहे थे न, रक्षा अगर चाहते हो, तो वो हो जाओ जिसको रक्षा की ज़रूरत नहीं। वो हो जाओ, जो कभी मिट नहीं सकता। क्या हो जाओ? कुछ ऐसा मत हो जाओ, जिसका तुम पूर्वानुमान लगा सकते हो। कुछ ऐसा मत हो जाओ, जिसके बारे में तुम्हारी चेतना विचार कर सकती है। एक तरह से कहो तो विचार ही मृत्यु है। विचार का हर विषय मरणधर्मा है। तो योजना बनाकर के, तुम कुछ ऐसा नहीं हो सकते, जो मरेगा नहीं। तुम्हारी योजना में जो कुछ आना है, उसे मिट जाना है। तुम्हारी योजना भी तो मिट ही जाती है। किसकी योजना चल रही है आज तक? चल रही है? कभी तुम खुद मिटा देते हो अपनी योजना को, तुम नहीं मिटाते तो काल मिटा देता है।

क्या हो जाना है? बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न नहीं है। क्या नहीं हो जाना है? अपनी ही दृष्टि में, अपनी ही बुद्धि के अनुसार, कुछ ऐसा नहीं हो जाना है, जो हमें लगता हो कि बहुत सुदृढ़ हो, सुरक्षित हो। क्योंकि तुम्हारी बुद्धि में जो चीज़ सुरक्षित है, वो वास्तव में घोर असुरक्षित है। तुम्हारी बुद्धि में जो चीज़ सुदृढ़ है, वो काल का एक थपेड़ा नहीं बर्दाश्त कर पाएगी। तुम्हारी बुद्धि में जो कुछ सम्पूर्ण है, सम्पूर्णता उसको देखकर के हँसती है। समझ में आ रही है बात?

इस जगत का प्रयोग करके रक्षा तक पहुँच जाने जैसी व्यर्थ कामना दूसरी नहीं है। दुनिया में कुछ ऐसा नहीं है जो तुमको बचा ले जाएगा। बस इतना जानना बहुत है।

ये मत पूछो, क्या बचा ले जाएगा? क्योंकि जब तुम पूछते हो क्या बचा ले जाएगा, तब भी तुम्हारी उम्मीद यही रहती है न कि मैं कहूँगा कि वहाँ पर, वो उधर देखो, वो जादुई जड़ी रखी है, वो बचा ले जाएगी। वो जादुई जड़ी कहाँ पर रखी है? इसी दुनिया में रखी है। तो तुम्हारी उम्मीद यही है कि मैं तुम्हें इस दुनिया की ही किसी चीज़ के बारे में बता दूँगा, जो तुम्हें बचा ले जाएगी। तो ये मत पूछो, ‘क्या बचा ले जाएगा?’

इस जगत की सीमाओं से भलीभाँति परिचित होना, उनका पूर्ण स्वीकार करना, बहुत ज़रूरी है। जो तुम्हें दुनिया से नहीं मिल सकता। साफ़-साफ़ जानो कि नहीं मिल सकता। बेकार की उम्मीदें मत पालो। खुद को धोखा मत दो। इस दुनिया से तुमको सुरक्षा नहीं मिल सकती। बात खत्म। ये क्यों पूछ रहे हो कि फिर कहाँ मिल सकती है अच्छा बताइए? कहीं नहीं मिल सकती। इससे तुम्हारा दिल टूटता है, तुम्हें डर उठता है; टूटे, उठे। तुम्हारी जो भी हालत होती है हो। एक बार उसको बर्दाश्त करो। पैदा हुए हो, जीव हो, तुम्हारी जो स्थिति है सो है। ऐसा सीना रखो कि अपनी स्थिति का साफ़ बयान सुन पाओ। तुम यही सुनने में डरे जा रहे हो कि तुम्हारी वास्तविक हालत कैसी है। ये क्या बात है!

तुम्हारी हालत ये है कि तुम एक ऐसी दुनिया में पैदा हुए हो, जहाँ तुम्हें सुरक्षा नहीं मिल सकती। बात खत्म। खत्म। सत्य मिल सकता है, मुक्ति मिल सकती है। मुक्ति किससे मिल सकती है? सुरक्षा की माँग से मिल सकती है, सुरक्षा नहीं मिल सकती। मुक्ति का अर्थ ही ये होता है कि सुरक्षा की माँग से मुक्त हो गये। और बडे़ काव्यात्मक तरीके से कह सकते हो कि सुरक्षा की माँग से मुक्त हो जाना ही सुरक्षा है।

तो मुक्ति तो मिल सकती है, सुरक्षा नहीं मिल सकती। हाँ, तुम मुक्ति को ही सुरक्षा मान लो तो तुम्हारा सौभाग्य है। पर तुम अपनी रातों की नींद खराब करो ये सोच-सोचकर कि कल क्या होगा, क्या नहीं होगा? ‘हाय! बचूँगा, नहीं बचूँगा, मेरा (क्या होगा?)?’ तो कोई लाभ नहीं है। तुम रातों की नींद खराब करते रहो।

जब तुम परेशान हो रहे हो, कल क्या होगा, तुम तब भी मूरख हो; और जब तुम निश्चित हो गये हो कि तुमने कल को तो बाँध लिया है, कि मौत को तुमने टाल दिया है, कि कल को तुमने सुनिश्चित कर लिया है तुम तब भी मूरख हो। जो आदमी इस चिन्ता में मर रहा है, 'हाय! कल क्या होगा?' और जो आदमी निश्चित करके बैठा है कि मैंने कल का तो पूरा प्रबन्ध कर लिया है। दोनों बराबर के मूरख हैं।

तो मूरख कौन नहीं है? कौन नहीं है? जिसको इतनी गहरी नींद आयी है कि उसे कल की परवाह नहीं है। जिसके पास करने के लिए काम था। कब? आज। आज करने के लिए बहुत काम था। काम करा, काम करते-करते ही सो गये। अब ये ख्वाब या खयाल किसको आये कि कल क्या होना है?

बहुत अच्छा तुमको ख्वाब आया कि कल तुमको दो करोड़ रुपये और एक अप्सरा मिल जाएगी; तो भी तुम मूरख हो। और बहुत बुरा तुमको सपना आया कि कल तुम्हारी हड्डियाँ टूट जाएँगी, और लुट जाओगे; तो भी मूरख हो। क्योंकि दोनों ही तरह के विचार या स्वप्न, बेईमानी के द्योतक हैं। ये सपने तुम्हें आये ही क्यों? नींद गहरी नहीं थी। नींद गहरी क्यों नहीं थी? दिन में कामचोरी बहुत करी है। कमचोरी बहुत करी है। मन काम में है ही नहीं। और काम क्या होता है? काम माने ये नहीं कि काम करके जेब भर रहे हैं। आदमी के लिए काम का मतलब होता है, अपनी मुक्ति का यत्न। वही काम होता है। दिनभर उसमें जान लगायी ही नहीं, तो अब सोते समय भाँति-भाँति के विचार आ रहे हैं। और फिर चिल्ला रहे हैं, 'हे ईश्वर! रक्षा करो।' बात स्पष्ट हो रही है?

रक्षा माने क्या? रक्षा की कामना बुरी कामना नहीं है। पर उस रक्षा शब्द का अर्थ साफ़-साफ़ समझो। रक्षा माने वो सबकुछ जो मूलतः अरक्षित है, कमज़ोर है, दुर्बल; उससे सम्बन्ध न बिठाकर रखना ही सुरक्षा है। जलते हुए कपड़े के बीच तुमने अपनेआप को बाँध रखा है तो तुम कैसे सुरक्षित रह सकते हो? बोलो। कपड़ा जल रहा हो, और तुम उस जलते कपड़े से बाहर ही न निकलना चाहो, तुम सुरक्षित रह सकते हो? ये जगत एक जलता हुआ कपड़ा है हमारे चारों ओर। अब बोलो, सुरक्षित होने का एक ही तरीका, क्या? इससे बाहर आ जाओ। क्योंकि ये तो बचने का नहीं है। यहाँ कुछ भी नहीं है जो बचेगा। और तुम इसके बीचों-बीच बैठे रहोगे तो तुम भी जल मरोगे।

हमने अपने इर्द-गिर्द कपड़े की एक नहीं, कईं तहें लपेट रखी हैं। और वो सब एक के बाद एक क्या होने जा रही हैं? जलने जा रही हैं। हम क्या सोच रहे हैं? कि इतनी सारी तहें हैं। भीतर वाली तहें, बाहर वाली तहों की आग के खिलाफ़ हमें सुरक्षा देती हैं। हमारा विचार समझो। हम कहते हैं, 'देखो, हमने अट्ठारह तहें बाँध रखी हैं। तो बाहर वाले कपड़े जलेंगे तो भीतर वाले हमको बचा लेंगे।' और कुछ हद तक हमारी योजना काम भी कर जाती है। क्योंकि ऐसा होता भी है, बाहर आग लगती है, भीतर हम तक नहीं पहुँचती, अचानक नहीं पहुँचती, तुरन्त नहीं पहुँचती। क्यों नहीं पहुँचती? क्योंकि बाहर वाली आग और हमारे बीच में किस चीज़ का फ़ासला है? कपड़ों की कुछ और तहों का। और कपड़े ही तो हैं। जो चीज़ तुमको बचा रही है, वही चीज़ तुमको जलाएगी। समझो अच्छे से। वही कपड़ा जो तुम्हें आज बचा रहा है, वही कपड़ा खुद जलकर तुम्हें जलाएगा। ये बात हमें समझ में नहीं आती। हमें बस ये दिखाई देता है कि वो कपड़ा हमें आज बचा रहा है। जो बचा रहा है, वो जलने के लिए तैयार खड़ा है। वो स्वयं जलेगा, तुम्हें भी जलाएगा।

मूर्खता मत करो। जिसकी नियति यही है जल जाना, बचे रहने के लिए उसका सहारा मत लो। तुम कूद पड़ो, बाहर आओ, इसी को मुक्ति कहते हैं। समझ में आ रही है बात?

कूद पड़ो, यही रक्षा है। अध्यात्म में रक्षा का मतलब समझें। उसके साथ सम्बन्ध ही मत रखो, उसके साथ तादात्म्य ही मत रखो, आईडेंटिटी ही मत रखो जिसे जल जाना है, मिट जाना है। कमज़ोर का भरोसा लेकर तुम ताकतवर नहीं हो जाओगे। मिटने वाले का सहारा लेकर तुम अमर नहीं हो जाओगे। और इस दुनिया में अच्छे से देख लो कि कुछ है ऐसा, जो अमिट, अमर है? कुछ है? तो माने दुनिया का सहारा मत लो बेटा।

खेल लो, देख लो, कुछ व्यावहारिक तौर पर इस जगत का इस्तेमाल कर लो। लेकिन यहाँ भरोसे का कुछ नहीं है। ये जगह इस लायक नहीं है कि तुम यहाँ घर बना लो। या बना लोगे? जलता हुआ पुल है जगत, दौड़कर पार कर जाओ। तो पुल है, वो भी जलता हुआ। दौड़कर पार करो, प्लॉट मत खरीदो पुल पर। पुल पर प्लॉट नहीं खरीदते। दौड़ लगाओ, पार हो जाओ। नहीं तो नीचे क्या है? डूबने की तैयारी। बह रहा है भवसागर। समझ में आ रही है बात कुछ?

ये तो हम अच्छे से जानते हैं कि जिससे प्रभव है, उसी से प्रलय भी है। तो वो बनाये कहाँ रखता है? बनाये रखता है क्या? कोई भी ऐसी चीज़ है, जो बनाने वाले ने बनायी रखी? आज तक एक ऐसी चीज़ बता दो, जो बनाने वाले ने बनायी और फिर तोड़ नहीं दी। तो वो रक्षा कहाँ करता है? लेकिन हमें ये बात समझ में ही नहीं आती कि वो रक्षा नहीं करता है। कम-से-कम वैसे तो नहीं ही करता है, जैसे हम रक्षा शब्द का अर्थ लेते हैं। हमारे लिए रक्षा शब्द का अर्थ होता है, कोई चीज़ जो चलती ही रहे, समय में शाश्वत रहे। ऐसी उसने कोई चीज़ बनायी नहीं कभी। उसने समय बनाया है, जिसका काम है, पैदा करना और बराबर ही तोड़ देना। तो वो सब ब्रम्हांडों की रक्षा करता है। अर्थ क्या हुआ इसका? वो सबका मुक्तिदाता है, बशर्ते आपको मुक्ति चाहिए। और मुक्ति के अलावा कोई सुरक्षा है नहीं। समझ में आ रही है बात?

आज के समय का बहुत बड़ा रोग है ये शब्द, सिक्योरिटी (सुरक्षा)। सिक्योरिटी की तलाश, और इनसिक्योरिटी (असुरक्षा) का आतंक। जिसको देखो वही क्या अनुभव करता रहता है? 'हाय! मैं इनसिक्योर हूँ। असुरक्षित।'

सबकुछ तो पैदा कर लिया तुमने। जीवन को बचाने की इतनी दवाइयाँ पैदा कर लीं। प्रकृति को काटने की, तोड़ने की, नियन्त्रण में रखने की, सारी विधियाँ ईजाद कर लीं। अभी भी असुरक्षा है। अभी भी डरते हो। क्यों? कब मानोगे कि सुरक्षित हो गये? चाँद पर पहुँच गये। मंगल पर पहुँच गये। बुध और बृहस्पति पर पहुँचने की तैयारी है। पहुँच ही नहीं गये, वहाँ जाकर बैठ आए, कुछ दिन भी गुज़ार आये। अन्तरिक्ष में तुमने स्पेस स्टेशन बना रखे हैं, जहाँ लोग रह रहे हैं। अभी भी डरे हुए हो। क्यों डरे हुए हो? अभी भी तुम्हारा डर नहीं गया, तो कब जाएगा? अपने जेनेटिक (आनुवंशिक) सामग्री की क्लोनिंग (प्रतिरूपण) भी कर ली। कर ली न? तुम खत्म हो जाओ, बिलकुल तुम्हारे ही जैसा दूसरा खड़ा हो जाएगा। बिलकुल तुम्हारे ही जैसा, हूबहू। अभी भी डरे हुए हो।

और आज जितना डरा हुआ इंसान, इतना अतीत में शायद कभी न रहा हो। क्यों? क्यों है असुरक्षा, इनसिक्योरिटी? कहाँ से आ गयी? इंसान के पास आज जितनी दौलत है, इतनी कभी नहीं थी अतीत में। जितने इंसान आज हैं पृथ्वी में, इतने कभी नहीं थे पृथ्वी पर। जितने हथियार आज हैं, इतने कभी नहीं थे। जितना पैसा आज है, इतना कभी नहीं था। जितनी दवाइयाँ आज हैं, उतनी कभी नहीं थीं। सम्पर्क और संवाद कि जितने माध्यम आज हैं, उतने कभी नहीं थे। जितने तरीके के विकल्प और चुनाव उपलब्ध हैं, कभी नहीं थे। हज़ारों, लाखों लोगों से आज तुम मिल सकते हो। पहले कभी मिल सकते थे? कोई तरीका ही नहीं था। दुनिया के जिस कोने में चाहो, उस कोने में कुछ घंटों में तुम पहुँच सकते हो। कभी पहुँच सकते थे? कभी नहीं। और आज तो तुम्हें शारीरिक रूप से पहुँचने की ज़रूरत भी नहीं है। बैठे-बैठे वीडियो दर्शन कर लो, लाइव (सीधा प्रसारण)। ये सबकुछ कर लिया, उसके बाद भी पहले की अपेक्षा इतना ज़्यादा डर!

पहले तो हुए थे लोग, कम-से-कम कुछ लोग थे, जो कह देते थे,

तुलसी भरोसे राम के, निर्भय होके सोये। अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होये।। ~ संत तुलसीदास

आज तो कोई नहीं है जो कह पाता हो। वो तो गाँव में, अपनी कुटिया के बाहर खाट डालकर पड़े हुए हैं। रात में बारिश भी हो सकती है। थोड़ी दूर पर, कोस पर ही, जंगल शुरू होता है। वहाँ से तेंदुआ, चीता कुछ भी निकलकर आ सकता है। ये पक्की सड़कें नहीं हैं। इर्द-गिर्द खेत हैं, उनमें से साँप निकलकर आ सकता है। आग लग सकती है। उस समय दमकल विभाग तो होता नहीं था। क्यों भई? कोई कीड़ा काट सकता है। कोई वायरस (विषाणु) प्रवेश कर सकता है। कुछ भी हो सकता है।

और ये मस्त सो रहे, बेपरवाह। मस्त एकदम। चित्त। छाती आसमान की ओर, बाँहें खुली हुई, कलेजा ढँका हुआ नहीं। एकदम घोर असुरक्षित। क्या गहरी नींद है! बगल के गाँव तक खर्राटे जा रहे हैं। कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता। डर ही नहीं है कल का। और तुम अपने बगल में टैंक खड़ा कर लो। बगल में छोड़ दो, तुम टैंक के अन्दर ही बिस्तर लगा लो। टैंक भी कौनसा है? जिसमें न्यूक्लियर स्ट्राइक (परमाणु हमला) के खिलाफ़ भी आर्मर (कवच) लगा हुआ है। और तुम उसके भीतर भी, आश्वस्ति और सुरक्षा के साथ सोकर के दिखा दो। बोलो। और टैंक के अन्दर इंटरनेट भी है। जो तुम्हें सुख-सुविधाएँ चाहिए, सब उपल्ब्ध हैं, एकदम बड़ा वाला टैंक है। उसके बाद भी, उसके भीतर शान्ति से सोकर दिखा दो।

रक्षा शब्द का मतलब समझो। कोई टैंक तुमको सुरक्षा नहीं दे सकता। दुनिया में कुछ भी नहीं है, जिसके भीतर सुरक्षित अनुभव कर सकते हो। ये माँग ही हटा दो। ये ख्वाब ही बचकाना है। अगर तुम आये हो, तो जैसे आये हो, वैसे ही वापस जाना है। अगर तुम आये हो। और तुम तो आये हो। ’हैप्पी बर्थडे!’ तो ठीक है। डर-डरकर जियो, डर-डरकर मरो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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