बिरहिन ओदी लाकड़ी , सकुचे और धुन्धाये ।छुटी पड़ी यह बिरह से, जो सगरी जली जाये ।।
~ संत कबीर
वक्ता : नियति तो उसकी जलना ही है। और नहीं जलेगी तो इतना ही करेगी कि, खूब धुआं देगी। कोई रोशनी नहीं, कोई ऊष्मा नहीं, सिर्फ़ धुआं। गंदगी फैलाएगी। जलेगी, जलेगी तब भी। पर तिल-तिल कर जलेगी। कोई तरीका नहीं है जलने से बचने का पर घुट-घुट कर जलेगी। प्रतिरोध दे-दे कर जलेगी। कष्ट का जो समय है, विरह का जो समय है, उसे और लम्बा कर-कर के जलेगी। जो प्रक्रिया आनंद के साथ, उल्लास के साथ, प्रकाश के साथ, थोड़े ही समय में पूरी हो जाती, उसको वो खूब खींच देगी। बच नहीं जाएगी खींचकर के। उसकी नियति है जल जाना। पर एक गन्दा सा दृश्य रहेगा कि अपनेआप को बचाने की पूरी कोशिश भी कर रहे हो, बच भी नहीं पा रहे हो; दुःख में भी हो, काला गंदा धुँआ फैल रहा है, कोई ज्योती नहीं निकल रही है। और ऐसा सा जीवन है।
कबीर कह रहे हैं, थोड़ा तो ध्यान दो। थोड़ा तो गौर करो, कि तुम्हारी नियति क्या है। वही हो, वहीं से आए हो, वहीं को वापस जाना है। तो क्यों अपने ही रास्ते की बाधा बनते हो, क्यों जलने से इनकार करते हो? जिधर जाना है अंततः, उधर चले ही जाओ। जो तुम हो, उसी में वापस समा जाओ। नहीं। लेकिन, रूप ले लेने का, आकार ले लेने का, माया का खेल ही यही है कि एक बार रूप ले लिया, तो उसके बाद अरूप हो जाने में भय लगता है। भले ही सारे रूप अरूप से ही जनमते हो लेकिन रूप को दुबारा अरूप हो जाने में बड़ा भय लगता है।
दूसरी जगह पर कबीर ही कहते हैं कि :
वहाँ से आया पता लिखाया , तृष्णा तूने बुझानी।
अमृत छोड़-छोड़ विषय को धावे , उलटी आस फसानी।।
आये वहीं से हो, पर अब वहीं वापस जाने से इनकार करते हो।
प्रतिरोध अच्छा लगता है अहंकार को। कबीर आपसे कह रहे हैं “*रेसिस्टेंस इज़ फ्युटाइल*”। जानते तो हो तुम भी।
श्रोता : क्या हम मूल को पा ही लेंगे?
वक्ता : तुम उसे नहीं पा लोगे, वो तुम्हें खींच ही लेगा।
श्रोता : अच्छा।
वक्ता: तुम्हारे बस की है पाना? पर भाषा देखो अपनी। ‘’मैं पा लूंगा।‘’ वही मेंढक, आज उसकी कहानी बदल गई है। आज वो अपनी चड्डी को खुद लेके घूम रहा है, कह रहा है, ‘मैं इसमें हाथी को घुसेड़ ही दूंगा।‘ आज ज़बरदस्त कर्ताभाव जागा है उसमें। कह रहा है, ‘हाथी माने ना माने, आज अपनी चड्डी में हाथी को घुसेड़ कर ही मानूंगा’। वैसे ही ये, ‘मैं मूल को पा ही लूंगा’। तुम नहीं पा लोगे बेटा उसको। वो तुम्हें पा लेगा।
और जब, जानने ही लग जाते हो, जब हल्की आहटें मिलनी शुरू हो जाए, जब दूर से रोशनी दिखनी शुरू हो जाए, तो फिर बेवकूफ़ी नहीं करनी चाहिए। उसकी ओर कदम बढ़ रहे हैं तो बढ़ने दो, बाधा मत बनो। प्रतिरोध मत करो, रेज़िस्ट मत करो। जब पुकार सी आने ही लग जाए, जब झलक मिलने ही लग जाए, तो फिर अड़ना नहीं चाहिए। अड़ना व्यर्थ है। फिर तो कदम जिधर को ले जा रहे हों, उन्हें चलने दो। तर्क मत करो। तर्क करोगे, तो तर्क हज़ार मिल जाएँगे। कारण खोजोगे, कारण हज़ार मिल जाएँगे। ब्रह्मसूत्र है, ‘तर्क प्रतिष्ठानात’। कहते हैं, कोई इज्ज़त ही नहीं दी जा सकती तर्कों को क्योंकि वो तो वृत्ति के गुलाम हैं। जो तुम्हारी वृत्ति का आदेश है, उसके अनुरूप तुम एक तर्क खोज निकालोगे।
सीधी सपाट बात है, कि हाँ, समझ में तो आया। अब जब समझ में आ गया तो बईमानी मत करो।
जाता हूँ, बोलता हूँ, संवाद वगैरह में, वहाँ पर अड़चन ये नहीं है कि जो बोला जा रहा है वो समझ में नहीं आ रहा। खूब समझ में आ रहा है। साफ़ से साफ़ तरीके से बोला गया है, और जिन्होंने सुना है वो भी, इतने मूर्ख नहीं है कि उनके पल्ले कुछ ना पड़े, समझ में खूब आ रहा है। पर प्रतिरोध है। बईमानी है। समझ में आ भी गया है तो क्या कहेंगे?
श्रोता : सर 9० प्रतिशत लड़के यही बोलते हैं कि लागु करना असल ज़िंदगी में मुश्किल है।
वक्ता : इस मुश्किल का अर्थ समझते हो क्या है? कीमत देने को तैयार नहीं है। बात तो ठीक है लेकिन, कीमत देने को हम तैयार नहीं है। किसी दूसरे संदर्भ में कहा गया था, पर एक शायर ने कहा है ना कि होश में आये भी तो कह देंगे होश नहीं। बिल्कुल यही होता है। होश में तो आ जाते हैं, पर कह देते हैं, ‘‘नहीं-नहीं हम नहीं आए होश में।‘’ अब बड़ा मुश्किल है। कोई बेहोश हो, तो उसे होश में लाया जा सकता है। पर जो आ गया होश में पर फिर भी इनकार कर रहा है, कि होश में आए भी तो कह देंगे कि होश नहीं। पूरा है कि,
हम तेरी मस्त निगाही का भरम रख लेंगे, होश में आए भी तो कह देंगे की होश नहीं।
माया के लिए ही कहा गया *है। हम तेरी मस्त निगाही का भरम रख लेंगे, होश में आए भी तो कह देंगे कि होश नहीं*। ठीक यही काम हम करते हैं, यही काम वो बिरहिन लकड़ी कर रही है।
समझ में आ भी गया तो कह देंगे, हमें कहाँ आया समझ में! क्योंकि यदि ये स्वीकारा कि बात आ गई समझ में, तो उस राह चलना भी पड़ेगा। चलना शुरू में तो कष्ट देता ही है। पहले कुछ कदमो में तो पीड़ा होती ही है। तुम वो कीमत देने को तैयार नहीं हो। सब खूब समझते हो, कुछ नहीं। ये ओदी लकड़ी खूब समझती है कि इसे जलना तो पड़ेगा ही, ऐसा नहीं है कि ये सोचती है कि लड़ सकती है अपनी तक़दीर से, नहीं। इसे पता खूब है। पर मूर्खता इसी का तो नाम है ना कि जो तय है, जो आखिरी है, जो सत्य है, जो अचल सत्य है, हिल ही नहीं सकता, तुम उसके विरुद्ध भी खड़े हो। तुम किसका विरोध कर रहे हो, उसका, जिसका कोई विरोध हो ही नहीं सकता! तुम किससे लड़ रहे हो? वो जो तुम्हारे भीतर भी है, तुम्हारे बाहर भी है? मूर्खता और किसको कहते हैं?
श्रोता: यहाँ पर चलने का क्या मतलब है?
वक्ता: चलने माने?
श्रोता : जैसे पहले बोल रहे थे कि चलना तो हमेशा दूर ही ले जाता है।
वक्ता: तुम किससे दूर होने की कोशिश कर रहे हो?
श्रोता: नहीं, आपने कहा ना कि चल पड़े हैं इस राह पर, शुरू के कदम तो…
वक्ता: हाँ, वो घरवापसी के कदम हैं। वो इमारत में वापस अंदर आने के कदम हैं। पर जब आँखे खूब अनुरक्त हो गई हों कि बाहर बड़ा अच्छा-अच्छा दिखाई दे रहा है, उधर को चलेंगे। तो वापस घर की ओर देखना थोड़ा बुरा सा लगता है।
हम टालते हैं – ‘नहीं, आगे कर लेंगे’। और किसको टालते हैं? जो अटल है। जो टल नहीं सकता, हम उसके साथ टाल-मटोल कर रहे हैं। सारा खेल टाल-मटोल का है। अस्वीकार कोई नहीं कर रहा है। अस्वीकार कोई नहीं कर रहा। सबका दावा बस ये है कि अभी हमारा वक्त नहीं आया, अभी नहीं। अभी नहीं। थोड़ा सा और आगे स्थगित कर दीजिये।
श्रोता : सर, अगर ये रोलर-कोस्टर राइड चलती ही रहे तो प्रॉब्लम क्या है?
वक्ता: प्रॉब्लम ये है कि जो बैठे ही रहते हैं रोलर-कोस्टर में, वो रोलर-कोस्टर में ही फिर टट्टी करेंगे, उल्टी करेंगे, सब वहीं पर; पूरा कैसा माहौल इकट्ठा कर लेंगे, सोचो। चलती ही रहे तो छोड़ दो। तुम्हें दो घंटा भी बैठा दिया जाए रोलर-कोस्टर में तो किस दशा में उतरोगे? अब चीख रहे हैं, चिल्ला रहे हैं कि रोको-रोको-रोको। पर उतरने को तैयार नहीं हैं। और दुर्गन्ध उठ रही है, जहाँ बैठे हुए हो उस एरिया से।
श्रोता : सर, उतर ही नहीं रहे, तो इसका मतलब मज़ा आ ही रहा है।
वक्ता : मज़ा नहीं आ रहा है। बुद्धि ख़राब है। कष्ट की आदत लग गई है। माया इसी को कहते हैं कि वो तुम्हें आदतो में डालती है और आदत ये भी हो सकती है कि कष्ट झेलना ही झेलना है। तब सुख बड़ा धोखा लगता है। बड़ा धोखा लगता है। ये बर्दाश्त नहीं होगा। जिसको आदत लग गई हो, उसको बड़ा धोखा लगता है। जिसको एक बार आदत लग गई गंदा खाने की, उसके सामने तुम सात्विक खाना रख दो, उससे खाया नहीं जाएगा।
मछुवारे वाली तो कहानी सबने सुनी ही है। कि एक मछुवारा था, तो एक बार वो, परफ्यूम मार्किट , इत्र के बाज़ार पहुंच गया। वहाँ उसको दौरा आ गया, वो गिर पड़ा, छटपटा रहा है। लोगों ने कहा क्या हो गया? तो जो दुकानदार लोग थे उनमें से, कुछ लोगों के पास मेडिसिनल परफ्यूम्स भी थी। वो कह रहे है ये सुंघाओ, वो सुंघाओ, ये ठीक हो जाएगा। और जितना उसको सुंघा रहे हैं, वो उतना और बुरी तरह छटपटा रहा है। फिर तभी वहाँ दूसरा आया मछुवारा, उसने कहा, ‘अरे ये क्या कर रहे हो? जान लेके मानोगे क्या उसकी?’ वो एक सड़ी मरी हुई मछली लाया, उसकी नाक में घुसेड़ दी, वो बिलकुल चंगा होकर बैठ गया।
तुम्हारे लिए इससे बड़ा कष्ट हो नहीं सकता कि तुम्हें कह दिया जाए कि दो घंटे शांति से बैठो। सोचियेगा ज़रा इस बात को। आप कहोगे मुझे सौ जूते मार लो, पर ये मत करना। ध्यान से, मौन में, स्थिर होकर शांत बैठ जाना, इससे बड़ा कष्ट नहीं हो सकता।
श्रोता : सर! वो मैंने कर के देखा था तो सर झंनाने लगा था। यानि, दो-तीन घंटे हो गए थे, और उसके बाद…
वक्ता : दो-तीन घंटे तुमने झेला कैसे, पता नहीं।
श्रोता : सर वो बहुत अजीब सा..अच्छा नहीं लगता, यानि के..ब्लिस्फुल सी फीलिंग नहीं होती, वो..
वक्ता : बिल्कुल नहीं होगी क्योंकि रोलर-कोस्टर की आदत लग गई है। जिसको एक बार उसकी आदत लगी, कभी ड्रग एडिक्ट को देखा है? तुम उसे ना दो, दो दिन, फिर उसकी हालत देखो। लोग परम को पाने के लिए क्या तड़पते हैं। मीरा उतना नहीं तड़पी होंगी कृष्ण के लिये, जितना वो तड़पता है एल.एस.डी. के लिए। आदत।
श्रोता : सर, जो रोज़ ज़्यादा देर तक शांत बैठे, तो कुछ फर्क पड़ेगा?
वक्ता: रोज दो घंटे शांत बैठने की आदत लग जाएगी (सभी हँसते है)।
रोज़ दो घंटे शांत बैठा नहीं जाता। मन ऐसा हो जाता है कि चाहे आधा घंटा, चाहे पाँच घंटे, उसको शांत बैठने में कुछ आपत्ति नहीं है। उसने इस बात को अपनी दिनचर्या का हिस्सा नहीं बना लिया है कि मुझे इतने बजे से इतने बजे तक शांत बैठना है। अब उसे कोई आपत्ति नहीं है। शांत हो जाना उसके लिए बड़ी सहज बात हो गई है। वो बस में बैठा है, वो शांत रहेगा। वो यहाँ बैठा है, वो शांत रहेगा। ये उसके लिए अब कोई कर्म नहीं है।
श्रोता: सर समझ नहीं आया।
वक्ता : बहुत लोग हैं जो इस बात को भी साध लेते हैं कि दो घंटे शांत बैठना है, बहुत लोग हैं। और उससे उनके जीवन में कोई बदलाव नहीं आता। क्योंकि वो शांत बैठने से पहले और शांति से उठने के बाद, दोबारा ठीक वैसे ही हो जाते हैं, जैसे वो थे। उन्होंने उस शांत बैठने के दरमियान को भी, अपनी दिनचर्या का हिस्सा भर बना लिया है।
श्रोता : वो मौजूद है, चेंज नहीं हुए।
वक्ता: बहुत लोग हैं तुम देखना। सुबह सात से आठ बजे तक योगाभ्यास करते हैं। जीवन, वैसे का वैसा ही है। शाम को सात से आठ, पूजा, प्रार्थना, आरती करते हैं। जीवन वैसा का वैसा ही है। और इस बात की खूब सलाहें दी जातीं हैं। और आपको बहुत अच्छा लगेगा, जब आपसे कोई कहेगा देखिये आप दिन भर जो कर रहे हैं, सो करिये। दिन भर आप दुकान पर बैठकर मिलावट करते हैं, करिये। शाम को एक घंटा बैठ कर, ज़रा ध्यान किया करिये। और आप कहेंगे, वाह! ये हुई ना बात। दिन भर गला काटो, और शाम को आधे घंटे ध्यान करिये,फिर देखिये कि आपको कितना अच्छा लगेगा। और अच्छा लगता भी है। बहुत बढ़िया! गुरूजी महान हैं।
और अब यही गुरूजी बता दें कि बेटा जब तक तुम दिन भर दुकान में ये काटा-पीटी कर रहे हो, तब तक तुम्हारे जीवन में शांति कहाँ से आ जाएगी? तब आप गुरूजी की ही बात नहीं सुनोगे। तो इसीलिए ये खूब चलता है। टेलीविज़न पर आएगा, आप देखोगे कि सुबह पंद्रह मिनट, मात्र पंद्रह मिनट के लिए आप प्राणायाम कर लीजिये, देखिये दिन कितना अच्छा बीतता है। पंद्रह मिनट के प्राणायम से क्या हो जाएगा, अगर तुम्हारा दिन पूरे तरीके से भ्रष्ट है? तुम दोबारा उसी दफ्तर में जा रहे हो और तुम्हें दोबारा वही सारे अपने काम करने हैं, तो तुम प्राणायाम करो, चाहे कोई आयाम कर लो, क्या हो जाना है? एक नई आदत बन जाएगी बस।
शारीरिक आदतें कई तरीके की होती हैं। जो बाकी आदतें होती हैं उनको तो आप कह देते हो ये गंदी आदतें हैं, इनसे पीछा छुड़ाओ। ये भी एक प्रकार की आदत ही है। कोई सर नीचा करके शीर्षासन कर रहे हैं; ये गंदी आदत है और कुछ नहीं है। उसको मारो बोलो तुझे गंदी आदत लग गई है। छोटे बच्चे होते हैं, वो नाक में ऊँगली डाल के बैठे रहते है, तो उनको क्या करते हो? कहते हो ना आदत छुड़ाओ। एक शारीरिक मुद्रा पकड़ लेने की आदत लग गई है इसको। ठीक उसी तरीके से ये सब भी आदते हैं, अगर तुम पकड़लो इनको। एक से एक देखोगे, चले जाओ, हरिद्वार, ऋषिकेश, आश्रमों में। एक से एक कुत्सित और काले मन वाले लोग घुसे मिलेंगे। हाँ, आसन बहुत अच्छा मारते हैं वो।
श्रोता : सर, तो एक्सरसाइज़ करना तो, यानी आदमी के मेंटल स्टेट को बढ़िया ही करेगा?
वक्ता : जिम जाओ और वहाँ देखो कि ज़्यादातर कौन लोग हैं जो एक्सरसाइज़ करके शरीर फुला रहे हैं? कभी जिम जाके देखो कि वहाँ 8० प्रतिशत कौन लोग आते हैं? 8० प्रतिशत लोग कौन हैं जो जिमिंग कर रहे हैं? वो वो हैं जिन्हें…
श्रोता ४ : जिन्हें शरीर से बहुत प्यार है।
वक्ता : शरीर से प्यार नहीं है उन्हें, शरीर को तो वो बुरी तरह नष्ट करते हैं। शरीर को तो.. । जहाँ मैं जाता हूँ, वहाँ पर चेंज रूम में बैठके, लगातार, उन्हें अच्छे से पता है ये चीज़ उनके शरीर को नष्ट करेगी। फिर भी कर रहे हैं, उन्हें शरीर से प्यार नहीं है। उनमें से ज़्यादातर का तो ये है कि किसी की शादी होने वाली है। किसी को लड़कियों को आकर्षित करना है। तुमसे किसने कह दिया कि शरीर को कुछ कर लेने से, जिम की आदत पाल लेने से, तुम्हारे जीवन में, तुम्हारे मन में कोई अंतर आ जाना है?
श्रोता : सर, अगर हम एक्सरसाइज़ करते हैं…
वक्ता: अगर-बगर मत करो, जिम चलना और वहाँ देखना, वहाँ जो लोग मौजूद हैं, ये क्यों कर रहें हैं?
श्रोता: सर जिम के बाहर भी तो एक्सरसाइज़ होती है, ज़रूरी थोड़ी ना है..
वक्ता : कहीं भी जो लोग कर रहें हैं, उनको देखना कि इनके कारण क्या हैं? कारण क्या हैं? मन वैसे का वैसा ही है तो तुम कितनी कूद-फांद कर लो, उससे क्या हो जाएगा बेटा? बल्कि, वो मन ही है, जो तुमसे कूद-फांद करा रहा है। लड़कियों की शादी होने वाली होती है, उससे पहले वो ज़बरदस्त रूप से जिम्मिंग करती हैं । क्यों करती हैं? ताकि ‘उस खास रात, मैं बिलकुल मायावी दिखूं’। कोई तुम वज़न कम कर लेने से मोक्ष पा लोगे?
श्रोता : लेकिन एक तंदरुस्त मेंटल स्टेट में होना, एक कदम पास तो मेरे को ले ही आएगा? सही तरीके के…
वक्ता : बेटा सब कुछ हो सकता है, अगर उसके पीछे का मन ठीक है। सब हो सकता है अगर उसके पीछे जो मन है, जो करवा रहा है वो ठीक है। जब उसके पीछे की मूलभूत प्रेरणा ही गंदी है, तो फिर क्या होना है? कुछ नहीं। जब उसके पीछे की प्रेरणा ही गंदी है, तो फिर क्या होगा? होने को तो सब हो सकता है।