अहं अगनि हिरदै जरै || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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अहं अगनि हिरदै जरै || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

अहं अगनि हिरदै *जरै*, गुरू सों चाहै मान |

*तिनकाजम न्यौतादिया ,* हो हमरे मिहमान ||

~ संत कबीर

वक्ता :गुरु और शिष्य की कहानी है| उनके संबंधों के विषय में है| अहं की आग सीने में धकधक जल रही है| अहं कहता है, “मुझे मान्यता मिले, स्वीकृति मिले, प्रशंसा मिले”| और अहं की दृष्टि में जो छोटे हैं उनसे तारीफ़ लेने में मज़ा क्या है| वह कुछ ख़ास नहीं | जो ऊँचे से ऊँचा हो, उससे तारीफ़ मिलनी चाहिये | तो अहंकार सबको निशाना बनाता है| अहंकार इससे तारीफ़ माँगता है, अहंकार उससे तारीफ़ माँगता है| जिससे ना मिले, उसी को अपना दुश्मन बना लेता है| और अंततः अहंकार गुरु से भी मान्यता चाहता ही चाहता है, गुरु से भी प्रशंसा चाहता ही चाहता है| ये जो अहं की आग है, इसमें गुरु को भी वो जला ही डालता है|

“अहं अगनि हिरदै जरै, गुरु सो चाहै मान”

वो गुरु को भी नहीं बख्शेगा | गुरु ने भी अगर कह दिया कि तुझमें कुछ कमी थी, तो वो गुरु को भी जला देगा | ठीक वैसे ही जैसे वो सारे संसार को जलाने के लिए तत्पर है, वैसे ही वो गुरु को भी जला देगा | गुरु भी तभी तक स्वीकार्य है, जब तक वो तुम्हें अनुमोदन देता रहे कि बहुत अच्छे थे, बहुत बढ़िया | जिस क्षण गुरु भी तथ्य रख दे सामने कि आँखें बंद हैं तुम्हारी और पागल हो, नींद में चल रहे हो, बेहोशी में नाच रहे हो, तुम गुरु को भी नहीं बख्शोगे | क्योंकि गुरु कितना भी बड़ा हो, तुम्हारे अहंकार से छोटा ही है| गुरु कितना भी बड़ा हो, वो सिर्फ एक साधन की तरह है, तुम्हारी अहंता को बढ़ाने के लिये | मैं कौन? जिसकी ‘अ’ ने तारीफ़ की, ‘ब’ ने तारीफ़ की, ‘स’ ने तारीफ़ की और जिसकी गुरु ने भी तारीफ़ की | अब ये तुम्हारे ऊपर बड़ा धब्बा है कि ‘अ’ ने तारीफ़ की, ‘ब’ ने तारीफ़ की, ‘स’ ने तारीफ़ की लेकिन गुरु ने नहीं की | ऐसे गुरु को तो तुम जला ही दोगे अपने अहंकार की आग में | और कोई और न तुम्हारी प्रशंसा कर रहा हो, तब गुरु भी ना करे, तो चल जायेगा | पर उसी गुरु ने तुम्हारी ऊँगली पकड़ कर तुम्हें ऐसा बना दिया है कि दो-चार लोग तुम्हारी वाह-वाही करने लगे हैं| गुरु स्वयं नहीं कर रहा अभी क्योंकि उसे दिख रहा है कि तुम कहीं के नहीं हो | पर तब गुरु तुम्हें बहुत अखरेगा | आँख में रेत की तरह चुभेगा वो | हत्या भी कर सकते हो क्योंकि वो आखिरी है जो तुमको अहंकार के शीर्ष पर जाने से रोके हुए है|

पूरी दुनिया ने तो मान ही लिया है कि तुम महान हो और अब गुरु खड़ा हो गया तुम्हारे रास्ते में | तुम उसको बर्दाश्त नहीं करोगे | तुम कहोगे कि जब तक कोई मुझे कुछ नहीं मानता था, मैं दो कौड़ी का था, तब तुमने मुझे धक्का दिया, सहारा दिया | और अब जब पूरी दुनिया मेरी स्तुति करने को तैयार है, तुम मेरी राह का काँटा बन गए | उखाड़ फेंको इस काँटे को | मैं दोहरा रहा हूँ, गुरु कितना भी बड़ा हो, तुम्हारे अहंकार के सामने बहुत छोटा है| कोई हैसियत नहीं है उसकी |

“अहं अगनि हिरदै जरै”

दिल में लपटें ही लपटें हैं अहंकार की | वो गुरु को भी जला डालेंगी | कोई कीमत नहीं छोड़ेंगी उसकी | पुरानी एक कहानी है जो कहती है कि चाँद के सबसे प्यारे दोस्त तारे हैं| और चाँद को जिसकी ओर देखना बिल्कुल नहीं सुहाता, वो सूरज है| इसी कारण चाँद सिर्फ तब आता है, जब सूरज नहीं होता | तारों के साथ खेलता है| पूरी रात तारों के साथ रहता है| सूरज के साथ कभी नहीं रहता | क्यों?

श्रोता १: मिट जायेगा | दिखेगा नहीं |

वक्ता: क्योंकि उसको अच्छे से पता है कि उसकी रोशनी सूरज की दी हुई है| चाँद का बस चले तो सूरज को ख़त्म ही कर दे | जब भी चमकता है उसको ये ही अहसास होता है| जानता है वो कि मेरा इसमें क्या है, मिला तो किसी और से ही है| लेकिन अब दिक्कत है| ये बात वो स्वीकार भी नहीं सकता | क्यों? क्योंकि दुनिया भर के तमाम शायर हैं, जो चाँद की तारीफें करते रहते हैं | उन पगले शायरों ने चाँद को ये अहसास करा दिया है कि वो बड़ा सुन्दर है| चाँद को कभी ये गुमान नहीं था | पर इन शायरों की तालियों ने बड़ी गड़बड़ कर दी है| इन शायरों ने कभी चाँद से ये कहा ही नहीं कि जो तुझे रोशनी देता है, उसके बारे में तो कुछ बता | ये सब ये ही कहते रहते हैं चाँद का हुस्न, चाँद का हुस्न, अब कौन सा हुस्न है चाँद में? तो चाँद के सामने बड़ी झंझट है| करे क्या ? शायरों को बता नहीं सकता कि ये जो मेरी प्यारी चांदनी है, ये मेरी है ही नहीं | न जी पा रहा है, न मर पा रहा है|

तो गुरु बहुत बड़ी झंझट है| बहुत बड़ी झंझट है, तब तक जब तक उससे बिल्कुल मिल ही नहीं गए, वैसे ही नहीं हो गए | गुरु से दूरी तो झंझट है ही, पर वो छोटी झंझट है| ज़्यादा बड़ी झंझट है, गुरु से नज़दीकी | जितना नजदीक आओगे, उतना कष्ट बढ़ेगा | एक ही उपाय है आखिर में, कि वैसे ही हो जाओ | सूरज समान ही हो जाओ, खुद जल उठो, वरना सिर्फ ईर्ष्या मिलेगी | और बड़ी ईर्ष्या उठती है गुरु से, ज़बरदस्त ईर्ष्या | क्योंकि जितना करीब आते जा रहे हो, गुरु की रोशनी से उतना नहाते जाओगे | शायरों की और समाज की तारीफें मिलनी शुरू हो जायेंगी | लोगों को लगने लगेगा कि तुम आलोकित हो उठे हो | पर तुम तो जान रहे होगे न कि अभी मेरा कुछ नहीं है| और इस कारण बड़ी बेचैनी रहेगी |

अब इस बेचैनी में दो काम कर सकते हो | एक यह कि चाँद तलवार ले कर सूरज पर हमला कर दे | एक विकल्प ये है| दूसरा विकल्प ये है कि चाँद भुला ही दे सूरज को | और तीसरा विकल्प भी है| वो ये है कि सूरज जैसा ही हो जाये | तब उसमें और सूरज में कोई अंतर ही नहीं रहा, मिल गए | कबीर रुके नहीं हैं, आगे भी कह रहे हैं| कह रहे हैं कि ये जो तुम गुरु के साथ खेल खेलने की कोशिश कर रहे हो, उसमें इतना ही होगा की ‘तिनका जम न्यौता दिया, हो हमारे महमान’| जो तुम गुरु रुपी आग से खेलने की कोशिश कर रहे हो, वो वैसा ही है जैसे कोई तिनका यमराज को न्यौता दे कि हमारे महमान हो जाओ | तिनके का क्या होगा? तिनके का क्या होगा? तिनका आग को न्यौता दे रहा है कि मेरे महमान हो जा | तुम किस आग से खेलने की कोशिश कर रहे हो? तो अच्छा ही है वैसे तुम्हारे लिए | तुम गुरु से द्वेष भी रखो, तो वो द्वेष भी शुभ है क्योंकि द्वेष के ही ज़रिये, तुम उसके पास तो आओगे | और जब पास आओगे तो जलोगे | हाँ, कलपते-कलपते जलोगे, सहर्ष नहीं जलोगे | ये तुमने खुद छलाँग नहीं मारी होगी | तुम अपनी ओर से तो लड़ ही रहे होंगे | लड़ते-लड़ते जल जाओगे | कोई बात नहीं | कोई ऐसे जलता है कोई वैसे जलता है| हश्र तो एक ही है तुम्हारा | अपनी मर्ज़ी से मर लो, नहीं तो मार दिए जाओगे |

गुरु से सम्मान की इच्छा रखना वैसा ही है जैसा तिनका यम को न्यौता दे | सबसे सम्मान माँग लेना, गुरु से मत माँगना | दुनिया को तुम चला सकते हो, बेवक़ूफ़ बना लोगे | वो शायर है, अधपगले, पिये हुए | उन्हें नहीं समझ में आता की तुम्हारी रोशनी का सच क्या है| तुम गुरु से कैसे छुपा लोगे? तो जाओ, जहाँ से भी तुम्हें प्रशस्तिपत्र इकट्ठा करने हैं, कर लो | जहाँ से तुम्हें तारीफों के पुलंदे चाहिये, बाँध लो | गुरु के सामने सिर झुका के ही खड़े रहना | चौड़े हो कर मत खड़े हो जाना कि आप भी कुछ कहिये ज़रा दो-चार बातें हमारी तारीफ़ में | वहाँ जूता ही मिलेगा |

एक जेन गुरु था, तो उसके कुछ शिष्य थे | वो उनसे सवाल पूछा करता था | कहते हैं कि उनमें से एक उसका शिष्य था, जब भी गुरु सवाल पूछे, वो तुरंत बड़ी तत्परता से हाथ उठा देता था कि मुझे आता है, मुझे आता है| एक दिन गुरु पास गया, उसकी उंगली काट दी | काट दी चाकू से | अब तुझे याद रहेगा कि तुझे कुछ नहीं आता है| और ये जो शिष्य था ये अंततः जापान के सबसे बड़े जेन साधकों में से एक निकला | उसकी इस कटी हुई उंगली ने उसको कभी भूलने नहीं दिया कि मुझे कुछ नहीं आता है| गुरु को उंगली दिखाओगे, तो कटवाओगे |

आशय बहुत स्पष्ट है, ‘तिनका जम न्यौता दिया, हो हमरे मेहमान’| वो काटना भी शुभ है| ईश्वर करे तुम्हारा जल्दी कटे | वो उंगली नहीं अहंकार कट रहा है| जल्दी से हाथ नहीं खड़ा करना चाहिये कि आता है, आता है| हाथ नहीं, अहंकार खड़ा हो रहा है |

– ‘बोध सत्र’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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