पत्नी और बेटी पर अत्याचार || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

Acharya Prashant

17 min
96 reads
पत्नी और बेटी पर अत्याचार || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरा सवाल बड़ा व्यक्तिगत भी है और सामाजिक भी है। यह घरेलू हिंसा को लेकर है। मेरी माँ की १६ साल की उम्र में मेरे पिता से शादी करवा दी गई। वह गहरी शराब की लत में पड़ गए और उनकी वजह से परिवार की आर्थिक और मानसिक स्थिति खराब ही होती गई।

वह सुबह छः बजे से शराब पीना शुरू करते हैं और रात के दो बजे तक पीते ही रहते हैं। पुलिस में रिपोर्ट लिखाई, नशामुक्ति केंद्र में भी भर्ती करवाया, पर उनमें कोई सुधार नहीं आया। वह माँ, मेरी छोटी बहन और मेरे, सबके साथ बहुत ही अपमानजनक व्यवहार करते हैं। मेरी छोटी बहन को कहते हैं उसका डी.एन.ए टेस्ट कराने को, कहते हैं, ‘तू मेरी औलाद ही नहीं है!’ जब माँ तो देखता हूँ तो लगता है कि उनकी ज़िन्दगी के ४५-५० साल बीत गए और उन्होंने कुछ नहीं देखा, सिर्फ़ मार खायी है, और बिना कारण मार खायी है।

आचार्य प्रशांत: क्यों झेल रहे हो अभी तक इतना? क्या ज़रूरत है? कहाँ से कमाते हैं, कहाँ से लाते हैं? सुबह छः बजे पीने लगते हैं, रात को दो बजे तक पीते हैं, पैसे कहाँ से लाते हैं?

प्र: आचार्य जी, वह ख़ुद भी अध्यापक रहे हैं एक ज़माने में। आर.एस.एस के स्कूल में वह शिक्षक थे। उनकी संगति कैसे ख़राब हुई, पता नहीं।

आचार्य: आज कहाँ से लाते हैं पैसा?

प्र: घर से चोरी करते हैं।

आचार्य: क्यों करने देते हो?

प्र: आचार्य जी, जब इधर-उधर होते हैं तो कोई भी छोटा सामान हो, जैसे तांबे का लोटा हुआ, वह बेच दिया, १५० रुपए आए…

आचार्य: इतना मुश्किल है चोरी रोकना?

प्र: नहीं आचार्य जी।

आचार्य: तो रोक दो चोरी। जिसको पिता कहते हो, वह तो कब का विदा हो गया। अपनी ही बेटी को बोल रहा है डीएनए टेस्ट, वगैरह – वह पिता है कहाँ फिर? जब औलाद को त्याग ही दिया है, तो पिता कहाँ है? पत्नी से अगर यही रिश्ता है कि बस मारना है, इसी का रिश्ता है, तो पति कहाँ है? तुम तो झूठे ही अतीत की कोई छवि लेकर के बैठे हो कि बाप अभी ज़िंदा है, पति अभी ज़िंदा है। कहाँ है? वह तो चला गया। वह चला गया है, एक शराबी बचा हुआ है, उस शराबी को क्यों पाल रहे हो?

प्र: आचार्य जी, हम उनको घर से बाहर निकाल देते हैं तो वह तोड़-फोड़ करते हैं।

आचार्य: तोड़-फोड़ किसकी करते हैं?

प्र: चीज़ों की…

आचार्य: किसकी चीज़ों की?

प्र: जो भी माँ ने संजोई हैं एक-एक करके, बचा-बचा कर।

आचार्य: घर से बाहर निकाल दिया तो तोड़-फोड़ कैसे करेंगे, चीज़ें तो घर के अंदर हैं?

प्र: शीशे तोड़ दिए घर के।

आचार्य: पुलिस बुलाओ।

प्र: पुलिस एक रात रखकर सेल्फ-बेल पर छोड़ देती है उनको।

आचार्य: एक रात नहीं रखेगी न, ज़्यादा तोड़-फोड़ करेंगे तो ज़्यादा भी होगा फिर।

प्र: वह छोड़ देती है उनको।

आचार्य: दोबारा दे दो, तिबारा दे दो। सिक्योरिटी रख लो, जितना खर्चा इन सब चीज़ों में करते हो, सिक्योरिटी रख लो, कम में हो जाएगी। देखो, नालायकियाँ किसी-न-किसी के समर्थन पर पनपती हैं। व्यक्ति को यदि कर्मफल भलीभाँति पता हो और मिलता रहे, तो उस पर अंकुश रहता है। दुष्ट इंसान को उसके कर्मफल से बचाकर तुम उसकी दुष्टता को प्रोत्साहन देते हो। यह सदा का खेल है। महाभारत ऐसे ही नहीं हो गई थी न?

महाभारत का युद्ध क्या दुर्योधन की और कौरवों की पहली दुष्टता थी? वह ४० साल से यही कर रहे थे। जब महाभारत की लड़ाई हुई है तो यह सारे भाई ५० पार कर चुके थे, अर्जुन, दुर्योधन, सब लोग। और पाँच-सात साल की उम्र से दुर्योधन ने नालायकियाँ शुरू कर दी थीं, पिता की शह पर और करता चला गया। वहाँ पिता की शह थी, यहाँ पुत्र की और पत्नी की शह है। और बात तब यही थी कि ‘अरे! कोई बात नहीं, बच्चा है’, या कि ‘ये तो परिस्थितियों का मारा हुआ है। इसको लगता है पिता के साथ अन्याय हुआ है। कोई बात है, कोई बात है।‘ तुम सहानुभूति दिखाए जाओ और दुष्टता को प्रोत्साहित किए जाओ। और तुम यह जो प्रोत्साहन दे रहे हो, मुझे बताओ, चलेगा कितने दिन?

छः से लेकर के दो तक – माने दिन के २० घंटे जो शराब पी रहा है व्यक्ति, उसका लीवर अभी तक सलामत है, मेरे लिए तो यही ताज्जुब है। बचे कैसे हैं वह अभी तक? और कोई अब जवानी भी नहीं है, ५० पार कर चुके होंगे। ५० पार करने के बाद उनका लीवर अभी तक बचा कैसे? और जो वह लीवर के सड़ने से मरेंगे, कौन आएगा उनको दूसरा लीवर देने? और इस तरह का हेपेटाइटिस तो इररिवर्सिबल (लाइलाज) होता है, शराब वाला। उसका ज़िम्मेदार कौन होगा?

वो जो उनकी मौत होगी – क्योंकि उनको पैसे मिलते रहे तो वह शराब पीते रहे – उस मौत का भी ज़िम्मेदार कौन होगा? उनको झेल करके, उनके प्रति सहिष्णुता दिखा करके, तुम उनके लिए भी बहुत बुरा कर रहे हो न? या उनके लिए अच्छा कर रहे हो? और यह मैं सबसे कह रहा हूँ। जब भी कोई व्यक्ति किसी घर का बर्बाद होता है, उसकी बर्बादी में नंबर एक योगदान घरवालों का ही होता है – मोह के मारे, अज्ञान के मारे।

कौन कह रहा है कि कुरुक्षेत्र में सैनिकों ने एक-दूसरे को मारा, या योद्धाओं ने एक-दूसरे को मारा? कुरुक्षेत्र में जितने मरे, उन सबको धृतराष्ट्र ने मारा। यह जो अंधा बाप होता है न, पुत्र-मोह में पागल, यह लाखों का खून बहवाता है। इसको कुछ समझ में नहीं आ रहा होता। वह कहता है, ‘मेरा बच्चा है, जो चाहता है इसको दे दो। संपत्ति चाहिए, इसको दे दो। छूट चाहिए, दे दो। व्यभिचार करना चाहता है, करने दो।‘ और वही बात पुत्र भी कर देता है, कभी पत्नी भी कर देती है। आमतौर पर पिता करते हैं। पर दूसरी तरफ़ से भी हो जाता है, पुत्र भी कर सकता है।

अध्यात्म सहनशीलता यूँही नहीं सिखाता कि कुछ भी हो रहा है उसको सहे जाओ – यह बड़ी व्यर्थ की छवि पकड़ी है भारत ने, और उसके कारण भारत का नुकसान भी बहुत हुआ है कि आध्यात्मिक आदमी तो ऐसा होता है कि एक गाल पर थप्पड़ मारो, दूसरा गाल दिखा देगा। किसने कह दिया? कृष्ण अर्जुन से यह करवा रहे थे? बोलो! कि ‘दुर्योधन तुमको एक तीर मारे, तुम दो और खा लेना’?

धर्म और अधर्म, इन शब्दों का कुछ अर्थ होता है या नहीं? या मोह के आगे धर्म-अधर्म, सारी बातें फीकी पड़ जाती हैं? बस मोह-मोह और खून का रिश्ता? कि ‘मेरा तो खून का रिश्ता है, मैं कैसे कुछ कह दूँ? मेरे पिता हैं, मेरे पति हैं।‘ पति हैं, भले ही पति ने पीठ तोड़ दी है मार-मार कर! और ज़रूरी नहीं है कि पति शारीरिक रूप से ही मारे। मानसिक रूप से, भावनात्मक तल पर खूब चोटें पहुँचाईं जा सकतीं हैं, गहरे घाव दिए जा सकते हैं।

क्यों सहते हो? किसने सिखा दिया इतना झेलना?

इस बात को अपने अनुशासन में डाल लीजिए – कोई भी रिश्ता सच्चाई से बड़ा नहीं होता। तो जब रिश्ते के मुद्दे आएँ, सच्चाई से आँखें मत मूँद लिया करिए।

मुझे नहीं मालूम कि यह जो अभी हमें विवरण दे रहे हैं, इसमें कितनी तथ्यात्मकता है, मैं कुछ नहीं जानता इनके घर के बारे में। मैं मानकर चल रहा हूँ कि यह जो बता रहे हैं, बात कुछ-कुछ ऐसी ही होगी, या कम-से-कम पचास प्रतिशत ऐसी होगी। पर अगर पचास प्रतिशत भी ऐसी है बात, तो बहुत ग़लत है बात। ग़लत मात्र उस व्यक्ति का व्यवहार नहीं है, ग़लत मुझे यह लग रहा है कि इन्होंने इतने दिनों तक बर्दाश्त कैसे किया! ना कमाते, ना धमाते, घर से चुराते। अभी घर की आय का क्या स्रोत है?

प्र: आचार्य जी, मैं ख़ुद स्किल इंडिया के अंदर कम्प्यूटर पढ़ाता था, और लॉकडाउन के बाद वह जॉब छूट गई मेरी। अब मैं थिएटर (नाटकशाला) में काम करता हूँ। मैं लिखता हूँ तो उसके मुझे पैसे मिलते हैं, और माँ भी राजस्थान में बंधेज का कपड़ा बाँधती है तो उससे हम घर की आय चलाते हैं। और छोटी बहन को हम बाहर पढ़ा रहे हैं, तो धीरे-धीरे हम तीनों अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं।

पर आचार्य जी, इसमें एक चीज़ और है कि जब यह चीज़ें बढ़ रही थीं तो माँ का पूरा ध्यान अंधविश्वास की तरफ़ बढ़ने लगा; उनको रोक पाना मुश्किल हो गया। मैं छोटा था तो मुझे पैनिक अटैक (घबराहट) आते थे यह सब देख कर तो माँ को लगा कि मेरे अंदर कुछ घुस गया है, कोई पुराना मरा हुआ व्यक्ति। तो उन्होंने मेरे शरीर पर किसी बाबाजी का धागा बाँधे रखा। मैं अंधविश्वास में नहीं पड़ा पर माँ दिन-पर-दिन इनकी तरफ़ ही बढ़ती जा रहीं हैं। बहन की तबियत ख़राब हुई तो कोई मौलवी साहब से लिखवा लिया कि कुछ दूध में घोल कर पी जाओ तो बहन ठीक हो जाएगी। इन चीज़ों में उनका ध्यान ज़्यादा बढ़ता जा रहा है। तो इन चीज़ों को कैसे मैं हैंडल करूँ?

आचार्य: समर्थन देने वाला एक पूरा महौल चाहिए न नालायकी को? तो पूरा माहौल ही ऐसा है कि मूर्खता को, बेढंगी को प्रोत्साहन दे रहा है। तुम किसका भला कर रहे हो? उस व्यक्ति का भला कर रहे हो, अपना भला कर रहे हो, अपनी माँ का या बहन का भला कर रहे हो, या समाज या राष्ट्र का भला कर रहे हो, उनकी शराब स्पॉन्सर (खर्चा देना) करके? (पिता) ख़ुद तो कुछ कमाते नहीं। और यह ना कमाना ही उनको और छूट दे रहा है कि करो जो करना है।

हर कुकृत्य को जायज़ ठहराया जा सकता है। दूसरे मौकों पर मैंने कई बार कहा है कि शराबी शराब पीता है, उसके पीछे कोई कारण होता है। लेकिन यदि कारण का हवाला देकर के हम किसी भी काम को जायज़ ठहराने लगें, तो फिर तो सब कुछ चलेगा न? कोई हत्या करे, चोरी करे, बलात्कार करे, झूठ, बेईमानी, सबकुछ ठीक है, क्योंकि 'साहब, कोई कारण होगा'। कारण तो होता ही है, यह बात तो ठीक है। सब बच्चे पैदा होते हैं, और बच्चे को कोई-न-कोई कारण आगे चलकर के चोर-डाकू-हत्यारा बना देता है। तो हम कारण की कितनी बात कर सकते हैं?

और सबसे बड़ी बात होती है कि हमारे पास चुनाव का अधिकार तो होता ही है न? परिस्थितिगत कारण कुछ भी हों, आपने दुष्टता चुनी क्यों? परिस्थितियाँ आपको ढकेल रही होंगी नशे की ओर, आपने नशा चुना क्यों? आपके पास नशे को ठुकराने का विकल्प तो हमेशा था न? आपने क्यों नहीं ठुकराया? और नहीं ठुकराया तो उसकी सज़ा मिलनी चाहिए। ठीक है, हम घर के लोग हैं, हमारा खून का रिश्ता है आपसे, हम आपको बहुत कड़ी सज़ा नहीं दे सकते, लेकिन इतना तो हम ज़रूर करेंगे कि इस चीज़ के लिए आपको पैसा ना मिले, यह हम व्यवस्था करेंगे। और अगर आप घर के किसी निर्दोष पर हाथ उठाएँगे तो उसका दंड आपको मिलेगा, इसकी व्यवस्था भी हम कर देंगे।

बाकी आपकी ज़िंदगी है, आप भी वयस्क हैं, हम सब वयस्क हैं। आपको अगर पीनी ही है तो पीजिए, पर अपनी ज़िम्मेदारी पर पिएँ। आप कमाइए और पीजिए। संविधान सबको आज़ादी देता है अपने अनुसार जीवन जीने की, आपको भी आज़ादी है। पर अपने पैसों से पिएँ और अपनी ही ज़िंदगी अपने अनुसार चलाएँ, दूसरों की ज़िंदगी पर बोझ ना बनें। और मारपीट का अधिकार तो आपको किसी भी हाल में नहीं है शराब के लिए पैसे माँगते हुए या नशे में आ करके।

मोह को ऐसे ही थोड़े ही इतना बड़ा दोष बताया है? बड़े-से-बड़ा दोष है मोह, और बड़े-से-बड़ा दोष है देहभाव।

आप देख रहे हैं देहभाव क्या कहता है? ‘मैं देह हूँ और देह एक दूसरे व्यक्ति से आई है। तो वह दूसरा व्यक्ति मेरा बाप हो गया है।‘ अध्यात्म आपको बार-बार बोलता है – जबतक तुम अपने-आपको देह मानते रहोगे, तुम्हें खून का बंधक बनकर जीना पड़ेगा। जब तुम अपने-आपको पहचान लोगे, तो फिर अपने असली बाप को भी पहचान लोगे। और जब और आगे बढ़ोगे, तो जान जाओगे कि तुम्हारा कोई बाप है ही नहीं, तुम ख़ुद अपने बाप हो। हम सबसे निचले तल पर जीते हैं। हम अपने शारीरिक बाप को ही अपना बाप मानते रहते हैं उम्रभर। और फिर उसका फल भी भुगतते हैं।

इतना समझाया समझाने वालों ने कि क्यों अपने बच्चों की ज़िंदगी पर चढ़े बैठे हो? नहीं समझ में आती बात। क्यों मानते हो कि जिनसे तुम्हारा रक्त का संबंध है वह लोग कुछ विशेष हैं? – हमें नहीं समझ में आती यह बात। हम फैमिली-फैमिली (परिवार-परिवार) कर-करके मरे जाते हैं। एकदम समझ में नहीं आती बात। नहीं समझ में आती है, तो पिटो फिर। पिटो न!

तुम्हें दंड पिता के पियक्कड़ होने का नहीं मिल रहा है, तुम्हें दंड आध्यात्मिक समझ ना रखने का मिल रहा है – तुमको भी, और तुम्हारी माताजी को भी। दोनों को जो सज़ा मिल रही है, वह इसलिए मिल रही है क्योंकि तुम्हें ज़िंदगी की समझ नहीं है। तुम एक ऐसे व्यक्ति को पिता या पति मान रहे हो जो ना पिता है, ना पति है, बस दुष्ट है। इतनी बार बोला, कि हमारी मूल पहचान क्या है? क्या है, क्या बोलता हूँ? ‘एक अतृप्त चेतना हो तुम।‘ यह किस तरह की चेतना है जो पत्नी के साथ, बेटी के साथ मारपीट करती है और दुनियाभर के कुकर्म करती है, यह कौनसी चेतना है? इस चेतना को कितना सम्मान दें? जल्दी बोलो!

पर हमें चेतना तो समझ में ही नहीं आती, हमें तो बस हाड़-माँस का पिंड समझ में आता है। ‘मेरे सामने जो खड़ा है, वह मेरा बेटा है या बाप है या पति है, और उसको सम्मान देना है।‘ सौ बार समझाया, सम्मान जिस्म को नहीं दिया जाता, सम्मान उम्र को या रिश्ते को नहीं दिया जाता।

सम्मान किसको दिया जाता है? चेतना के तल को दिया जाता है। सिर्फ़ वही चीज़ होती है जो सम्मान की हकदार होती है। हमें बात समझ ही नहीं आती।

कोई थोड़ा उम्र में बड़ा दिख गया, फट से झुककर उसका पाँव छू लेते हैं। और अगर कोई छोटा सामने आ गया तो उम्मीद करते हैं कि वह हमारा पाँव छुए, और ना छुए तो हमें बड़ी चोट लगती है। ‘अरे! यह तो उम्र में छोटा है। नमस्कार-प्रणाम नहीं करता, पाँव नहीं छूता।‘ तुम अपनी हालत देखो, काहे को कोई तुम्हारा पाँव छूए? उम्र का क्या है, वह तो तुम सोते रहो ५० साल तो भी उम्र बढ़ जाएगी। कुछ मत करो ज़िंदगी में, ५० साल बिस्तर पर पड़े रहो, उम्र तो तब भी बढ़ जाएगी। तो तुम्हारे पाँव छुएँ, कि तुम पड़े थे ५० साल से बिस्तर पर?

कितनी बार कहा, ‘हम प्रतिपल मरते हैं’, इसका अर्थ समझो। वह जो था पति कभी, वह कब का मर चुका। लेकिन हमें नहीं समझ आता कि हम प्रतिपल मरते हैं। हमें नहीं समझ आता कि जो कल था, वह आज़ नहीं है। तुम कल की छवि लेकर चल रहे हो, तुम्हें लग रहा है वह कल वाला आज भी है। क्यों? क्योंकि शक्ल से वैसा ही दिखता है न? जिस्म से वैसा ही दिखता है, और हमें जिस्म के आगे कुछ समझ ही नहीं आता। भाई, उसका मुँह वैसा ही है जैसा कल था, उसकी चेतना बदल चुकी है। तुम आज भी क्यों उसको पति मान रही हो? सिर्फ़ इसलिए कि उसकी शक्ल पहले जैसी है? शक्ल वैसी ही है, चेतना वैसी नहीं है।

पर हम क्या करें, हमने तो शादी भी शक्ल से ही करी थी। हम तो शादियाँ भी शरीर से ही करते हैं न? तो शरीर देखकर कहते हैं, ‘यही तो है, इसी से करी थी।‘ ज़रा उसके मन से, ज्ञान से, बुद्धि से शादी किया करो, तो मामला बेहतर चलेगा। अगर उसकी बुद्धि से शादी करोगे, तो समझ जाओगे कि ‘ये बुद्धि वह बुद्धि तो है ही नहीं जिससे मैंने शादी करी थी। तो इसका मतलब मेरा तो सम्बन्ध-विच्छेद हो गया। अब नहीं है मेरा कोई पति।‘ जो पति होता था वह कब का जा चुका है, उसका शरीर बस बचा हुआ है, वह भी थोड़ा-बहुत।

यूँ ही कोई फैशन की बात थोड़े ही है कि सारे ग्रंथ बार-बार बोलते हैं कि देहभाव मूल पाप है, कि सुनने में अच्छा लगता है, बड़ी बात लगती है 'नाहम देहास्मि' (मैं देह नहीं हूँ), तो इसलिए बोलना चाहिए। फैशन की बात नहीं है, अगर नहीं समझोगे उस बात को तो जीवन में पग-पग पर कष्ट पाओगे, जैसे अभी भाई ने बताया। जिन्हें नहीं समझ में आता कि तुम चैतन्य रूप हो, देहरूप नहीं, वह बहुत पिटते हैं जीवन में, और खासकर के महिलाएँ। इन्होंने बताया, इन्होंने (पिता ने) हाथ उठा दिया। पूरे विवरण में यह कहीं नहीं था कि माताजी ने भी खूब ठोक दिया।

अरे, ठोको न! ऐसे हो सकता है मज़बूत हों – जब नशे में हों तब ठोक दो। मैं तो कह रहा हूँ, एक दिन साज़िश करके ठोक दो। और तुम नहीं, माताजी को कहना, ‘उठाओ करछुल और बेलन और कढ़ाई, और दे-दना-दन।‘

प्र: आचार्य जी, माताजी ने भी अभी कुछ महीनों पहले से मारना शुरू किया है।

आचार्य: जे बात!

प्र: मैं जब मारता था, तब मुझ पर इल्ज़ाम लगता था ‘तूने बाप को पीट दिया?’ मैंने कहा, ‘मैं अब मारूँगा नहीं। मैं सिर्फ़ बांधूँगा, माँ आप मारो। इन्होंने आपके कपड़े उतार कर सड़क पर फेंका, मैं इनको बाँधकर सड़क पर फेंकूँगा, वहाँ मारो।‘ अब लोगों में एग्जांपल सेट (उदाहरण स्थापित) होगा कि जो मारेगा वह खाएगा। तो ऐसे करके हमने लड़ना सीखा उनसे।

आचार्य: तुम्हें इतना करने की भी ज़रूरत नहीं है। देखो, तुम बस उनकी शराब के पैसे देना बंद कर दो।

प्र: वह छोटा-मोटा काम करके पैसे ले आते हैं।

आचार्य: तो करने दो। फिर उन्हें अपना जीवन जीने दो। छोटा-मोटा काम करके पैसे कमाएँ, उससे खूब शराब पिएँ। उनकी ज़िंदगी है, जैसे चलानी है वह चलाएँ, पर दूसरों की ज़िंदगी का बोझ ना बनें। उन्हें अधिकार है, उन्हें उसी में आनंद है, शराब पीने में, तो पीने दो न। ‘आप ख़ुद कमाइए, पीजिए और कहीं और रहिए। हमें मत परेशान करिए।‘

ठीक?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories