हम अपने ही ऊपर किया गया मज़ाक हैं || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

Acharya Prashant

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हम अपने ही ऊपर किया गया मज़ाक हैं || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी! डू वी नीड टू क्रिएट गॉड्स ऑर वी हैव ऑलरेडी (क्या हमें भगवान बनाने होंगे या वो पहले से हमारे पास हैं)? जैसे हम कुछ अच्छी क्वालिटीज़ हम जो पढ़ते हैं शास्त्रों में, कई बार हमारे पास नहीं होती है, या वो हमारे पास है, हम अनदेखा करते हैं या हमको उनसे सीखना चाहिए और उस गॉड को अपने अन्दर बनाने के लिए संघर्ष करना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: बनाने के लिए नहीं, जगाने के लिए। तुम बना कुछ नहीं सकते, तुम जगा सकते हो। बनाने की कुछ ज़रूरत भी नहीं है वो सब देवता तुम्हारे ही भीतर हैं, प्रसुप्त हैं। जैसे हनुमान नहीं सोये पड़े थे? फिर जामवन्त ने जगाया जाकर। क्या बोला? ‘अरे वत्स! सब भूल गये तुम?’ और वो जो उछलकर के गये थे और सूर्य को निगलने के लिए, वो ये भी भूल गये थे कि छोटी भी छलाँग कैसी मारी जाती है। फिर उनको जगाया गया।

इसी तरह ताकतें सारी हैं हमारे भीतर और सब देवता हमारी ही ताकतों के प्रतिनिधि हैं, प्रतीक हैं, लेकिन वो ताकतें हमारी सब सोयी पड़ी रहती हैं। और किसी में कोई ताकत ज़्यादा सोयी पड़ी हुई है, किसी में कोई ताकत थोड़ी जगी हुई है। पचासों तरह की ताकतें हो सकती हैं। और पचासों अलग-अलग तरीके के लोग होते हैं। इनके भीतर (एक श्रोता की ओर संकेत) एक गुण हो सकता है, इनके भीतर (दूसरे श्रोता की ओर संकेत) दूसरा गुण हो सकता है, लेकिन सब उत्कृष्ट गुणों की सम्भावना सबमें है।

जब हमने गुण शब्द का प्रयोग कर ही लिया है तो हम आ गये प्रकृति पर, क्योंकि सारे गुण किसके हैं? प्रकृति के हैं। प्राकृतिक रूप से सब अलग-अलग हैं न? अलग-अलग भले ही हैं, पर गुण तो तीन ही हैं। तो सबमें सबकुछ है, किसी में कुछ कम, किसी में कुछ ज़्यादा है। जिसमें एक चीज़ कम है उसमें दूसरी चीज़ ज़्यादा होगी-ही-होगी।

जिसमें एक गुण कम है उसमें दूसरा गुण ज़्यादा होगा-ही-होगा। ठीक है? तो उन्हीं गुणों से सम्बन्धित हैं सब देवता भी और सब दानव भी। मौजूद सब हैं आपके भीतर, कुछ जगा हुआ है, कुछ सोया हुआ है। अब आपको तय करना है कि इसमें से किसको सुलाये रखना है और किसको जगा देना है, और कौन ऐसा है जो जगा है उसको नींद की गोली देनी है। ये सब आपको तय करना है।

अविश्वसनीय लग रहा है। है न? ‘मेरे भीतर ही है सबकुछ?’ सब ताकतें आपके भीतर हैं। अच्छा मेरे भीतर होंगी, पर जगाने वाला तो बाहर से आएगा न? वो भी आपको ही तय करना है। बाहर भी हर तरह की माल-सामग्री मौजूद है, आपको जगाने वाली भी, आपको सुलाने वाली भी।

उदाहरण के लिए आप ये भी अगर बोल दें कि इस समय मैं सद्गुणों को जगाने में आपकी मदद कर रहा हूँ तो वो बात भी पूरी नहीं है। सर्वप्रथम आपने अपनी मदद करी है मेरे सामने आकर के।

मैं आपकी कोई मदद कैसे कर लेता, अगर मुझसे पहले आपने अपनी मदद नहीं करी होती? आप यहाँ अगर नहीं आये होते स्वेच्छा से, तो मैं तो मजबूर हूँ, क्या करता? तो ज़्यादा बड़ी मदद आपकी अभी भी कौन कर रहा है मैं या आप? आप कर रहे हैं न। आपकी पहली मदद कौन कर रहा है? मैं या आप? आप चाहें तो अभी उठकर बाहर जा सकते हैं, मैं क्या कर लूँगा?

तो ये भी मत सोचिए कि कोई बाहर वाला आपकी मदद कर लेगा। बाहर आपकी मदद करने वाली ताकतें भी मौजूद हैं और बाहर आपको गिराने वाली ताकतें भी मौजूद हैं। ये फ़ैसला भी तो आप ही कर रहे हैं न कि आप किस ताकत के निकट जाएँगे। तो ले-देकर के सारा खेल किसके हाथ में है? आप ही के हाथ में है। नहीं है? सबसे ज़्यादा मज़ा हमें खुद को ही बुद्धू बनाने में आता है। सोते वक्त अपनी ही गुदगुदी करते हैं और जोर से हँसते हैं, कहते हैं, ‘आज फिर खुद को बुद्धू बनाया।’

‘मैं तो कमज़ोर हूँ, छोटू हूँ, नन्हा हूँ, मुझसे क्या हो सकता है?’ हम कौन हैं? हम अपने ही ऊपर किया गया मज़ाक हैं। हम कौन हैं? हम खुद पर ही दागा गया चुटकुला हैं। हम फन लविंग (मजाक पसन्द करने वाले) हैं।

ऋषि बेचारे आपको बताना चाह रहे हैं कि आप अमृत के बेटे हो, आप अनादि, अनन्त, आत्मा मात्र हो।

“नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।”

“आग में जल नहीं सकते तुम, कोई शस्त्र छेद नहीं सकता तुमको।”

हम अपनी कमज़ोरियों का रोना रोते हैं, हमें उससे ही फ़ुर्सत नहीं। कमज़ोरियों का रोना रोकर के हम भीतर के दानवों की पूजा कर रहे हैं, क्योंकि दानव कौन है? आपके भीतर का वो जो आपको कमज़ोर ही रखना चाहता है। और अगर आपके भीतर दानव आप पर हावी होगा, तो आप अपनी ज़िन्दगी में भी ऐसे ही लोग इकट्ठा कर लेंगे जो आपको कमज़ोर ही रखना चाहते हैं।

आपको क्या लगता है दानवों के सींगे होती हैं, लम्बे-लम्बे दाँत होते हैं, पूछें होती हैं? नहीं। दानव बहुत चिकने-चिकने भी हो सकते हैं। गोरे- गोरे सूट-पैंट, टाई पहनकर घूम रहे हैं। फर्राटेदार और एक्सेंटयुक्त अंग्रेज़ी बोल रहे हैं, बड़े प्यार से बात कर रहे हैं। दानव को उसके चेहरे से नहीं पहचाना जाता, दानव को उसके प्रभाव से पहचाना जाता है।

जो आपकी कमज़ोरियों को सुरक्षित और प्रोत्साहित करे, वो दानव और जो आपको ताकत की तरफ़ धकेले, वो देवता। मैंने क्यों बोला ताकत की तरफ़ धकेले? क्योंकि हमें नहीं जाना, हमें ताकत की तरफ़ जाने में रुचि आमतौर पर होती नहीं है। मरीज को जब बिस्तर पर ही खाना मिल रहा हो तो वो ताकत क्यों माँगेगा? उसे धकेलना पड़ता है नीचे उतरो तुम मरीज-वरीज कुछ नहीं हो, नौटंकी बन्द।

ऐसा देवता हम सबको चाहिए, जो हमारी कमज़ोरियों और मजबूरियों को खारिज कर दे बिलकुल। जिस पर हमारा कोई बहाना न चले। जो अपना मुँह नुचवाने को तैयार हो हमसे। क्योंकि मुँह तो उसका हम नोच ही लेंगे और उसको बड़ी सुन्दर उपाधियों से विभूषित करेंगे पत्थरदिल, हृदयहीन। बाकी उपमाओं की आप कल्पना खुद कर लें। देवता कौन? जो हमसे गाली खा-खाकर भी हमारा भला करता चले। दानव कौन? जिसको हम बार-बार धन्यवाद देते हैं हमें बर्बाद करने के लिए। दानवों के प्रति हम बड़े एहसानमन्द रहते हैं, बड़ी कृतज्ञता रहती है हमें। देवताओं से बड़ी शिकायत रहती है।

प्र २: प्रणाम आचार्य जी। जैसे राइट एक्शन, राइट क्वेश्चन करने के लिए सहजता कैसे आये?

आचार्य: सहजता चाहिए ही नहीं, संकल्प चाहिए। सहजता तो बहुत आखिरी बात होती है। सहजता का मतलब होता है कि अब प्रवाह की राह में कोई बाधा ही नहीं रही तो सहज बहा जा रहा है। तो बहुत बाद में होगा जब सारी बाधाएँ हट चुकी होंगी। अभी आपको सहजता नहीं चाहिए। क्या चाहिए? संकल्प।

आप सहजता की प्रतीक्षा करेंगी तो बहुत लम्बा समय लग जाएगा। अभी तो मुट्ठियाँ भींचनी पड़ेंगी और डर की मौजूदगी में भी खड़े होकर के जो कहना है वो कहना पड़ेगा। असहज होकर कहना पड़ेगा, डर के साथ कहना पड़ेगा, सूखते गले के साथ, काँपते लबों के साथ कहना पड़ेगा। ये थोड़े ही है कि मज़े में कह देंगे, सहज होकर के। आप मज़े में बिलकुल कह सकते हैं बहुत सारी बातें पर वो दो कौड़ी की होती हैं। असली बात कहने में तो जान थर्राती है। तो थर्राती हुई जान के साथ कहना पड़ेगा।

भीतर चल रहा है देव-दानव संघर्ष, उसमें सहजता कहाँ माँग ली आपने? आप तो विजय माँगिए। सहजता नहीं, जयता माँगिए। लड़ने के लिए तैयार रहिए। आपके भीतर एक था जो बहुत देर से बोल रहा था, ‘बोलो-बोलो, पूछो-पूछो।’ और एक था जो आपको दबाये बैठा था, ‘खबरदार तुम उठी तो, तुम हो ही कौन। न जाने मंच पर ये व्यक्ति क्या सोचे और यहाँ पचास और बैठे है वो क्या कहेंगे।’ उसका क्या नाम है? दानव। और भीतर ये संघर्ष चल रहा था, चल रहा था, देव-दानव संघर्ष, बिलकुल बराबरी का था।

फिर देवता जीत कैसे गये? अब जाकर के देवता जीत कैसे गये? इन्होंने जाकर के देवताओं का पक्ष ले लिया, तो जीत गये। वो संघर्ष चलता ही रहेगा। आप देवताओं को जिताइए। आपके हाथ में है, किसको जिताना है। जैसे यहाँ पर शान्ति-पाठ में किससे प्रार्थना की गयी थी? देवताओ से। दानवों से नहीं की गयी थी। तो देवताओं से जब प्रार्थना की गयी, माने किसको जिता दिया गया? देवताओं को।

अपने हाथ में होता है न किसको जिताना है। उस निर्णय का, उस विवेक, चुनाव का, इस्तेमाल करना सीखिए। हम तय करेंगे और सही तय करेंगे।

प्र ३: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, जैसे आपने बोला कि देवताओं का पक्ष लेना है और सही युद्ध लड़ना है तो वो उसके लिए सही पता होना चाहिए न, उसके तरीके, खुद को सही-सही नापना, अपनी बेड़ियों को सही-सही पहचानना। तो उसको हम और आसान कैसे कर सकते हैं? और वक्त गुज़ारकर उपनिषदों के साथ...

आचार्य: सवाल पूछकर, प्रयोग करके। जो चीज़ छुपी है उसे सामने कैसे लाते हैं? मेरे भीतर जो छुपा है आप उसे सामने कैसे ला रहे हैं? और किसी स्थिति में जो छुपा है, किसी प्रक्रिया में जो छुपा है, या किसी व्यवस्था में जो छुपा है, उसको सामने कैसे लाओगे? प्रयोग करके। नहीं तो छुपा ही रह जाएगा।

इतनी ज़्यादा हम व्यर्थ बातचीत करते ही रहते हैं न? सटीक, सही और पैने सवाल पूछना सीखिए। सार्थक वार्तालाप एक कला होती है, बहुत महत्वपूर्ण कला। आप आमतौर पर भी जो बातचीत करते हों, जिसे आप कैज़ुअल कनवर्सेशन कहते हैं, वहाँ भी पीछे एक खरापन होना चाहिए ताकि जो हकीकत हैं वो उजागर होती रहे।

शब्दों का प्रयोग दोनों उद्देश्यों के लिए हो सकता है, हकीकत जानने के लिए भी और यथार्थ छिपाने के लिए भी। इतना मुश्किल नहीं है समझना कि कौन लक्ष्य बनने लायक है और कौन नहीं, कि कौनसी राह पकड़ने लायक है, कौन नहीं। नहीं है। राहों से सवाल पूछो, लोगों से जवाब माँगो, पर हम डरते बहुत हैं न।

जो सवाल पूछे ही जाने चाहिए, हम कभी पूछते ही नहीं। बीस-बीस साल के रिश्ते हो जाते हैं पर उन रिश्तों में इन बीस सालों में कभी वो चार सार्थक सवाल पूछे ही नहीं गये जो पहले ही दिन पर पूछ लिए जाने चाहिए थे। और बाकी इधर-उधर की व्यर्थ हज़ार बातें हो गयीं, हज़ार नहीं, करोड़। सब बातें कर ली गयीं जो दो बातें आवश्यक थी करनी, वो नहीं करी गयीं और इसलिए नहीं करी गयीं क्योंकि वो आवश्यक थी।

हम जानते हैं वो दो बातें कौनसी हैं, हम वो करेंगे नहीं। हमें डर लगता है, कि ये बात अगर कर ली तो भूचाल आ जाएगा। ये प्रयोग अगर कर लिया तो जो नतीजा सामने आएगा, झेल नहीं पाएँगे। मैं आपको भरोसा दिला रहा हूँ, आप झेल भी जाएँगे और बेहतर इंसान, ज़्यादा मज़बूत इंसान बनकर सामने आएँगे। आपको आपकी ताकत का पता नहीं है। आप बहुत ताकतवर हैं सब झेल जाएँगे। नाहक डरिए मत।

मेरे इर्द-गिर्द ज़्यादातर जो लोग हैं, उन्होंने दुग्ध पदार्थों का उपयोग छोड़ दिया है। ठीक है? शुरुआत मुझसे हुई थी। तो मेरे पीछे छोड़ा है, कुछ ने तो पूरी तरह छोड़ दिया है, कुछ के मन में अभी कुछ बाकी है। तो मैंने दो-चार दफ़े देखा है, कि कहीं कुछ खाने जाएँगे, वहाँ सामने कुछ रखा हुआ है डिस्प्ले में, फ़लानी चीज़ है, तो आमतौर पर तो जो साथ होते हैं मेरे, वो तुरन्त पूछते हैं कि इसमें कोई मिल्क प्रोडक्ट (दुग्ध उत्पाद) तो नहीं है। तुरन्त। भूलते कब हैं ये पूछना? जब जो सामने रखा हैं, बहुत लुभावना है। तो भूल ही जाते हैं पूछना कि अरे! इसमें कहीं चीज़ (पनीर) तो नहीं है। फिर मुझे पूछना पड़ता है और उसमें होती है। जो सवाल आप नहीं पूछ रहे हैं न उसका जवाब आपको पहले से ही पता है, इसीलिए आप नहीं पूछ रहे हैं। मैं चाहता हूँ आप वो सवाल पूछें।

समझ रहे हैं?

बहुत सात-आठ साल पहले की बात होगी। कॉलेज का था एक लड़का, तो वो मेरे पास आया था और यही कहने आया था कि मैं यूपीएससी की सिविल सर्विसेज़ की तैयारी कर रहा हूँ।

तो बताने आया था कि देश-सेवा का इरादा है, भ्रष्टाचार को जड़ से हटा देना चाहता है। वो अन्ना आन्दोलन का समय था, (श्रोताओं से पूछते हुए) याद है? उस समय का। तो बोल रहा है, करप्शन (भ्रष्टाचार) को हटा देना है, वो सब कर देना है। बढ़िया अपने ठाटबाट। उसकी हाथ की मैंने घड़ी वगैरह देखी। पूछा, ‘क्या करते हैं पिताजी?’ बोला, ‘बिजली विभाग में हैं।’

लगातार मुझसे यही कह रहा था कि भाई भ्रष्टाचार हटाना है बहुत ज़रूरी है। मुझे तो इसलिए आइएएस बनना है। वो थोड़ा मेरी देखी हुई राह है तो परिचित हूँ। तो मैंने कहा, ‘अच्छा।’ मैंने सीधे पूछा, मैंने कहा, ‘पिताजी घूस लेते हैं?’ तो सकपका गया। बोला, ‘पता नहीं।’ मैंने कहा, ‘कभी पूछा नहीं?’ चुप। उसे पता है इसीलिए पूछ नहीं रहा और उसे खुद भी इसीलिए लिखना है यूपीएससी ताकि यही कर सके। वो कभी नहीं पूछेगा क्योंकि पूछ लिया तो सब बिखर जाएगा।

बहुत दूर थोड़े ही जाना है। हम अपने घर में भी कहाँ बहुत सीधा वाला सवाल कर पाते हैं? वो रिपोर्ट पढ़ी है कई बार इस तरह की, अभी गलत हो तो नहीं जानता, वो ये है कि उत्तर भारत में खासकर पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली यहाँ पर सत्तर-अस्सी प्रतिशत परिवारों में जो आखिरी बच्चा होता है वो लड़का होता है।

सत्तर-अस्सी प्रतिशत परिवारों में जो सबसे छोटा बच्चा होगा वो लड़का होगा। ऐसा हो नहीं सकता कुदरती तौर पर। भाई बड़ा बच्चा हो, कि मँझला बच्चा हो, कि छोटा बच्चा हो, लड़का-लड़की होने की सम्भावना तो पचास-पचास प्रतिशत की ही होनी चाहिए। ऐसा कैसे हो रहा है कि आखिरी बच्चा अस्सी प्रतिशत लड़का ही निकल रहा है।

कितने लोग पूछते हैं अपने माँ-बाप से ये सीधा सवाल कि माँ ज़रा बताना कितनी लड़कियों का अबॉर्शन कराया है तुमने। ये तो अपने घर की बात है, कौन पूछता है ये सवाल? और हम क्या सत्य के खोजी बनेंगे जब अपने बाप और अपनी माँ से ही दो सीधे सवाल नहीं पूछ सकते? दो ही बातें हैं या तो बहुत सारी लड़कियों को कोख में मारा गया जब तक कि लड़का नहीं आ गया गर्भ में या फिर बहुत सारी लड़कियाँ पैदा की गयीं जब तक कि लड़का नहीं पैदा हो गया। दो ही चीज़ें हो सकती हैं, और दोनों ही गड़बड़ है। पर कौन पूछता है?

घर में शादी हो रही है कौन पूछता है कि भाई दहेज कितना ले रहे हो? हम तो उसको दहेज का नाम भी नहीं देना चाहते। न जाने क्या बोल देते हैं! कहते हैं, ‘उपहार है। लड़की के पिताजी उपहार दे रहे हैं।’ कौनसी लड़की पूछती है अपने पिताजी से कि मेरे लिए आप सरकारी नौकरी वाला लड़का ही क्यों खोज रहे हो? फिर पता चले न कि ऊपरी कमाई का कितना खेल है और जब ऊपरी कमाई का इतना खेल है तो फिर दहेज तो देना ही पड़ेगा।

ये सब बातें हम कहाँ करते है? अध्यात्म कोई बहुत दूर की बात है? अध्यात्म अपने घर की बात है। हम घर में तो सीधे, खुले सवाल पूछ नहीं पाते। हम सोच रहे हैं कि हम जनक की तरह जाकर के अष्टावक्र से सवाल पूछेंगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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