प्रश्नकर्ता: धन्यवाद आचार्य प्रशांत जी! हमारे लिए समय निकालने के लिए। अभी जैसे हम लोग देख रहे हैं कि कोरोना काल चल रहा है और जीवन का भी काफ़ी लॉस (हानि) हुआ है, जीवनी का भी काफ़ी लॉस हुआ है। ये क्या एक कलेक्टिव मॉर्निंग (सामूहिक शोक) जो हो रही है, ये लोग है, ये एक बड़े परिवर्तन की तरफ़ भी इशारा कर रहा है?
आचार्य प्रशांत: देखिए! वो बड़ा परिवर्तन तो तभी आएगा जब हमें ये समझ में आये कि ये आपदा अकस्मात बिलकुल नहीं थी। लेकिन अभी जिस तरह की चर्चा चल रही है, वो जो पूरा वार्तालाप है, कोरोना के इर्द-गिर्द; वो मुझे तो बहुत उम्मीद नहीं देता कि हम थोड़ा भी सचेत हो रहे हैं।
'राजनैतिक दृष्टि से कौन उत्तरदायित्व है इसकी बात हो रही है, कौन से देश ने क्या किया इसकी बात हो रही है? क्या ये चीन की साजिश थी? वहाँ पर फॉसी का इसमें क्या रोल था? क्या ट्रंप ने जो कहा था, वो बात बिलकुल सही थी? किस प्रदेश में टीकाकरण किस गति से चल रहा है? क्या टीकाकरण के आँकड़ों से छेड़छाड़ की गयी है? क्या मौत के आँकड़े जितने प्रकाशित हुए उससे चार गुना ज़्यादा थे?' इन सब विषयों में हमारी ज़्यादा रुचि है। जो मूलभूत कारण रहा है इस त्रासदी का उसकी बात करता मुझे कोई दिखाई नहीं देता। और त्रासदी का जो मूलभूत कारण है वो निकट भविष्य में ही ऐसी कई अन्य त्रासदियाँ खड़ी करने वाला है।
हम अपने दुख से भी कुछ सीखने को जैसे राज़ी ही नहीं हो रहे। आपने कहा कि एक, एक संयुक्त विषाद है, दुख है, पीड़ा है। नहीं, पीड़ा तो है लेकिन क्या हम उस पीड़ा के मर्म तक जा रहे हैं, क्या हम ये समझना चाहा भी रहे हैं कि वो पीड़ा आयी ही क्यों?
उदाहरण के लिए कोई कह रहा है कि अगर ऑक्सीजन सिलेंडर चार घंटे पहले मिल जाता तो मेरे भाई बच जाते। तो एक तल पर ये बात सही भी है कि अगर ऑक्सीजन सिलेंडर थोड़ा जल्दी मिल जाता तो शायद वो बच जाते।
लेकिन उन्होंने अपने भाई की मृत्यु का बड़ा ही एक छोटा, संकीर्ण, नैरो कारण पकड़ लिया है, कह रहे हैं, 'ऑक्सीजन सिलेंडर नहीं मिला इसलिए मृत्यु हुई।' भई! पूरी बात क्या है, ये आप जानना नहीं चाहते, मृत्यु के इस क्षण में तो कम-से-कम सच्चाई के प्रति थोड़े उपलब्ध और ईमानदार हो जाओ। पूरी बात जो है वो हम नहीं समझना चाहते। पूरी बात ये है कि हम जैसे जी रहे हैं, जो हमारी पूरी विचारधारा है व्यक्तिगत और वैश्विक दोनों; एक सी हैं लगभग। उसका परिणाम थी ये महामारी है।
है ये महामारी, अभी हमें नहीं पता कि कितनी और लहरें आना बाकी है, हमें नहीं पता अभी कितने म्यूटेशन (आनुवांशिक परिवर्तन), कितने वैरीएंट्स (प्रकार) , हम कुछ नहीं जानते। और ये सब यूँही नहीं हुआ है, अभी आप जंगलों में और घुसोगे क्योंकि जंगलों में घुसना आपकी अनिवार्यता बन गयी है। आपको पैसे कमाने हैं, पैसे कहाँ से आएँगे? जब तक आप प्रकृति का दोहन नहीं करोगे। आप कह रहे हो कि मैं अब उदाहरण के लिए एमबीए करके बाहर निकला हूँ तो अब मुझे भी गुड लाइफ़ जीनी है, उस गुड लाइफ़ का मतलब क्या ह?
उस गुड लाइफ़ का मतलब ये है कि मुझे भी कार्बन का उत्सर्जन करना है, मुझे भी पृथ्वी पर दो-तीन लोगों की तादाद और बढ़ानी है, मुझे भी एक घर खड़ा करना है जिसमें कि इतने एयर कंडीशनर चलेंगे, मेरे पास भी एक बहुत बड़ी गाड़ी होनी चाहिए जो इतने संसाधन खाएगी; मैं भी बार-बार विदेश यात्राएँ करुँगा और मैं भी अब और बेहतर खाना खाऊँगा जिसका असली, जिसका अक्सर ये मतलब होता है कि अगर मैं शाकाहारी था तो माँस खाऊँगा और अगर मैं पहले से माँस खाता था तो अब मैं तरह-तरह के एग्ज़ॉटिक मीट्स (विदेशी माँस) खाऊँगा।
जब तक गुड लाइफ़, जब तक विकास की हमारी अवधारणा ऐसी है, जब तक हमारे लिए डेवलपमेंट का मतलब ही यही है कि अब कौन कितना भोग रहा है, कितना कंज़्यूम (भोग) किए जा रहा है, तब तक ऐसी महामारियाँ एक के बाद एक आती रहेंगी।
ये जो हुआ है वो ऐसे नहीं हुआ है कि अरे! धोखे से वायरस लीक हो गया तो बेचारा दुनिया में लग गया। पिछले बीस सालों में ही देखिए न, इबोला (संक्रामक विषाणु) है, सार्स (सिवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम वायरस) है। और आपको इन सारे मामलों में कुछ साझा नज़र आएगा, और उनमें साझा ये है कि उत्तरदायी हम ही हैं। हमारी ही कोई करतूत है जो हम पर टूट के गिरती है।
प्रकृति अब सिर्फ़ चेतावनी नहीं दे रही है; वो सजा दे रही है। और हम प्रकृति से बड़े नहीं हैं, देखिए! इतनी सारी प्रजातियाँ हैं जीवो की इस पृथ्वी पर, करोड़ो-अरबो। प्रकृति के लिए आप कुछ खास हो नहीं। आप तो एक नयी, ताज़ी छोटी सी प्रजाति हो आप मिट भी जाओगे प्रकृति को कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा; वो अपना खेल आगे बढ़ाती रहेगी।
कुछ करोड़ साल बाद फिर हो सकता है इंसान जैसा या इंसान से बेहतर कोई और जीव पैदा हो जाए। हम ही अपनेआप को बहुत बड़ा माने बैठे हैं। तो जब तक हममें वो ईमानदारी नहीं आती और नज़र की वो सफाई नहीं आती, कि हम साफ़-साफ़ देख सके कि हमने किया क्या। तब तक समझिए कि ये जो हमने पीड़ा सही है अभी; लाखों लोगों की मौत हुई है, वो पीड़ा भी व्यर्थ गयी है हम पर। कि जैसे हमें समझ में ही नहीं आया कि ये सज़ा हमें दी क्यों गयी।
स्कूल में कुछ ऐसे होते थे ना बच्चे, उनको टीचर क्लास के बाहर खड़ा कर देती थी, कभी मुर्गा बनाकर , कभी हाथ ऊपर करके वो फिर वापस आते थे फिर उपद्रव में जुट जाते थे, बल्कि और ढीठ हो जाते थे। तो हम वैसे ही हैं, जितनी सज़ा मिलती है हम उतने ढीठ होते जा रहे हैं। और फिर माफ़ी तो यहाँ किसी के लिए नहीं है न, जो जैसा होता है वो वैसा पाता है।
मुझे बहुत अच्छा लगेगा अगर इतनी सज़ा पाकर भी हम कुछ सीख ले, हम सुधर जाएँ। पर फ़िलहाल मुझे वैसी सीख कहीं उठती हुई दिखाई नहीं दे रही है। कारण यही है जो पूरा कन्वर्सेशन (चर्चा) है कोरोना के इर्द-गिर्द, उसमें कहीं भी मूल कारणों की चर्चा नहीं हो रही है।