हृदय भर कब पाया लेने से, पाया कितना यह साबित होता देने से? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

11 min
80 reads
हृदय भर कब पाया लेने से, पाया कितना यह साबित होता देने से? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

शीलवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय।

लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय।।

संत कबीर

वक्ता: उदारता का विपरीत क्या होता है?

श्रोता १: संकीर्णता।

वक्ता: संकीर्णता या कृपणता, ठीक है?

श्रोता २: मायज़र।

वक्ता: हाँ, मायज़र। कब आती है कृपणता? कृपणता का मतलब होता है?

श्रोता ३: पकड़ कर रखना।

वक्ता: ये कब आती है? चित्त ऐसा कब होता है?

श्रोता १: जब तक मुझे लगता है कि मैं पूर्ण नहीं हूँ, कुछ अधूरा है, तब तक मैं पकडूँगा।

वक्ता: मैं कब कुछ भी पकड़ के रखूँगा कि छूट ना जाए?

श्रोता ३: जब मैं अलग हूँ, और वो अलग है।

वक्ता: और?

श्रोता ३: और डर है मुझे उसके छूटने का।

वक्ता: डर है, ज़बरदस्त डर है कि छूटेगा। तो मैं क्या करूँगा?

श्रोता २: और पकडूँगा।

वक्ता: और मैं जितना पकडूँगा, वो उतना ज़्यादा?

श्रोता ३: छूट जाएगी।

वक्ता: अब जिसे मैंने पकड़ रखा है, अगर वो कोई एक जीता-जागता आदमी है, तो क्या होगा? मैंने पकड़ क्यों रखा है? कि छूट ना जाए। पर पकड़ने से ही क्या होगा?

श्रोता १: छूट जाएगा।

वक्ता: पकड़ने से ही क्या होगा?

श्रोता ३: छूटेगा।

वक्ता: ये मेरा बच्चा है, ये मेरा पति है। मैंने इसे यूँ पकड़ रखा है, किस डर से?

श्रोता ३: छूटने के डर से।

वक्ता: और पकड़ने से ही क्या हो रहा है?

श्रोता ३: छूट रहा है।

वक्ता: ‘गया’! पकड़ा नहीं कि गया। सत्य में जो सिद्धांत चलते हैं, वो संसार के सिद्धांतो के बड़े उल्टे हैं। यहाँ लुटाओ तो कम होता है, और वहाँ लुटाओ तो?

श्रोतागण: बढ़ता है।

वक्ता: यहाँ पकड़ो, तो पकड़ में आता है, और वहाँ पकड़ो तो?

श्रोता ४: छूट जाता है।

वक्ता: भाग जाता है।

“कुल जारे, कुल उबरे”

यहाँ पर कुल को रखना पड़ता है, और सत्य कहता है कि जिसने कुल रखा, “कुल राखे, कुल जाए”। जिसने कुल को रखा, उसका कुल तबाह होकर रहेगा। और जिसने कुल को जला दिया, उसका कुल उबर जाएगा, “कुल जारे, कुल ऊबरे”।

गीता का जो पन्द्रहवा अध्याय है, उसमें कृष्ण कहते हैं कि “अर्जुन, ये जो जगत है, ये एक ऐसे पीपल के वृक्ष की तरह है जिसकी जड़ें आसमान में हैं, और सारी शाखाएं और पत्ते नीचे हैं।” कुछ-कुछ यही छवि कठोपनिषद् में भी है। याद है, यमराज और नचिकेता वाला? यही समझना अभी काफ़ी है कि यहाँ पर जो पेड़ होता है, वो नीचे से ऊपर को उठता है। लेकिन जब एक तत्वज्ञानी दुनिया को देखता है, तो उसे समझ में आता है कि “न, न, न, मामला उल्टा है। ये नीचे से ऊपर को नहीं जा रहा है, ये ऊपर से नीचे को आ रहा है।” जिसने ये बात समझ ली कि ये दुनिया ऐसे नहीं है, ऐसे है, वो सब जान जाता है।

उदारता इसलिए नहीं है कि लुटा देना है, उदारता इसलिए है कि मैं इतना चालाक हूँ, इतना चालाक हूँ कि मैं समझ गया हूँ कि लुट?

श्रोता १: सकता ही नहीं।

वक्ता: मैं उससे भी ज़्यादा चालाक हूँ। मैं जान गया हूँ कि मैं जितना लुटाऊंगा, उससे देहुड़ा पाऊंगा।

“गहरी प्रीत सुजान की, बढ़त-बढ़त बढ़ी जाए”

वो दिन रात बढ़ती ही रहती है। मैं गा रहा हूँ इस ख़ातिर नहीं कि तुम्हें बड़ा आनंद आए। असल में मैं चालाक बहुत हूँ, मुझे पता है कि जो गाता है, वही पाता है। और जितना गाऊंगा, जितना लुटाऊंगा, उससे कहीं ज़्यादा पाता जाऊंगा।

ऐसे समझिए जैसे एक सुरंग हो, या एक नहर हो। उस नहर में पानी बहता है, नहर है, तालाब नहीं है। वो पानी दूसरों के ख़ातिर है, उस नहर को पानी उपलब्ध ही तब होगा जब बह रहा हो। ज्यों ही बहना रुकेगा, क्या होगा?

श्रोता २: पानी बंद हो जाएगा।

वक्ता: तो नहर को खुद भी पानी तभी मिलेगा, जब वो?

श्रोता ३: छोड़ेगी।

वक्ता: दूसरों को देगी। अगर नहर लुटाए ना तो खुद भी नहीं पाएगी।

श्रोता १: ये हमने अभी लिखा है ‘पाओ और गाओ’, जो जिसे प्राप्त होता है और वो लुटाता नहीं तो?

वक्ता: तो उसे प्राप्त होना बंद हो जाता है।

श्रोता ४: आपने जो सीखा है, उसे बाँटने से आप और सीखोगे।

वक्ता: आप और सीखोगे। लेकिन जैसे ही ये छुटकू की चालाकियाँ बीच में आती हैं, ये क्या बोलता है? “मिल रहा है न, बाँट क्यों रहा है, बाँटने से कम हो जाएगा।”

बाँटने से कभी कम नहीं हुआ।

आपका कोई करीबी है, एक उदाहरण ले रहा हूँ, कोई प्रियजन है आपका, कोई मित्र है, कि रिश्तेदार है, आपको लगता है वो आपसे दूर हुआ जा रहा है। एक ही तरीका है उसको करीब लाने का, उसको बाँट दीजिए, उसको जगत को समर्पित कर दीजिए। आप उसको जितना दे दोगे दुनिया को, वो उतना आपको मिल जाएगा वापिस।

उसको पकड़ कर रखोगे, वो दूर ही दूर होता जाएगा, उसको बाँट दो। मन बहुत काँपेगा, डर जाओगे — “बाँट दूँ? वैसे ही भागा जा रहा है! कह रहे हो कि ‘बाँट दूँ’। भग ही सा गया, बचा ही नहीं है, और ऊपर से कह रहे हो कि बाँट और दूँ, फिर तो एक दम ही नहीं रहेगा।” मैं कह रहा हूँ: “बाँट कर देखो”, बाँटोगे, पूरा मिल जाएगा वापिस। पकड़ कर रखोगे, तो बस अब आख़िरी कील ठोकी जानी बाकी है। ताबूत पूरा तैयार है, आख़िरी कील ठोके जाने की देर है।

बाँट दो।

देखना हो कि किसी ने राम को पाया कि नहीं पाया, तो बस ये देख लो कि उसके चित्त में उदारता आ गयी है या नहीं आ गयी है। अगर आप अभी भी ऐसे हो कि हाथ में रोटी है, पर सामने से कोई जानवर आ गया, गाय आ गयी और आप आधी उसको नहीं दे पा रहे, तो आपने कुछ नहीं जाना।

मैंने देखा है लोग एक एक्सेल शीट लेकर के रखते हैं, और उसमें ये तक हिसाब रखते हैं कि अपने परिवारजनों पर और दोस्त यारों पर सौ-सौ रूपये भी खर्च किये हैं तो वो भी लिख कर रखते हैं। और इसको वो अपनी पर्सनल एकाउंटिंग का हिस्सा मानते हैं, कि भई पता तो होना चाहिए न कि पैसा कहाँ जा रहा है।

सौ रुपया भी अगर, सौ भी ज़्यादा बोल दिया मैंने, दस रुपया भी उन्होंने अगर, कुल्फ़ी खिला दी एक, तो वो लिखा हुआ होगा कि आज के पैसे ये दस रूपये में गए। ये तुम्हारे चित की संकीर्णता का द्योतक है। बहुत छोटा मन है तुम्हारा। लोग रिश्ते-नातों तक में गिनते हैं। तुम अपने प्यारे से प्यारे दोस्त को भी पकड़ कर रखते हो।

ये क्या है?

उदारता रहे, दे कर भूल जाओ।

नेकी कर, दरिया में डाल।

देना सीखो।

सोचो नहीं कि वापिस क्या मिलेगा। अपरिग्रह, उदारता के बिना कैसे आएगा, बताओ न मुझे?

जहाँ उदारता नहीं है, वहाँ परिग्रह शुरू हो जाएगा।

दुनिया भर में संतो की जो कहानियाँ हैं, वो ऐसे ही नहीं हैं। खुद भूखा है, और कोई गुज़रा, उसको सब दे दिया — “ले, खाले।” वो इसलिए नहीं दिया था कि बाद में मेरे नाम से कहानी चल निकलेगी। इससे पता चलता है कि दिल कितना बड़ा है।

कर्ण की सुनी है न कहानी, कि मर रहा है, पड़ा हुआ है, उसके बाद भी परीक्षा लेने के लिए उसके पास पहुँच गए कि, “ज़िन्दगी भर तो ये देता रहा, कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके पास था इसीलिए देता रहा, नाम चमकाने के लिए देता रहा?” अब वो मरने से बस कुछ लम्हा दूर है, पड़ा हुआ है। उसके याचक बन कर पहुँच गए। उससे कह रहे हैं “कुछ दीजिए।” उसने उस हालत में भी याद किया कि क्या दे सकता हूँ, अब तो क्या बचा देने के लिए, साँसें ही थोड़ी सी बची हैं। उसे याद आया कि एक दांत सोने का है। उस मरते हुए आदमी ने उस हालत में अपना दांत उखाड़ा, और दे दिया।

चित ऐसा हो: जब देने की घड़ी आए, तो देने से पीछे ना हटे। हालांकि वहाँ खतरा है, देना अहंकार की पूर्ति का साधन भी बन सकता है, पर अभी मैं उस ओर नहीं देख रहा हूँ।

श्रोता ५: देते वक्त भी ये ध्यान रहे कि “मैं नहीं दे रहा हूँ”। मतलब, मेरे द्वारा दिया जा रहा है।

वक्ता: पर वो बाद की बात है, पहले देना शुरू तो हो। जब देना शुरू हो जाए, उसके बाद ये सवाल उठेगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि अहंकार-वश दे रहे हो? अभी तो देना ही शुरू नहीं हुआ है।

श्रोता ३: तकनीकी रूप से भी थोड़ा ठीक से देखा था मैंने स्कूल में। मैगी ले कर जाता था, और लंच से पहले निपटा देता था। लेक्चर चल रहा है, निपटा दिया। लंच में पूछते थे दोस्त कि “कहाँ है लंच?” मैं कहता “मैं ले कर ही नहीं आया।” तकनीकी रूप से बड़ा सही है। पर दिल कचोटा, बड़ी मुश्किल हुई, लंच तक अपनी मैगी को बचा लूँ। और इतने सारे लोग, आठ लोग बैठे हैं, और फ़िर शेयर करनी है। पर एक चीज़ हुई, जब हम आठ-दस टिफ़िन के बीच में वो मैगी रख दी गई, उसका चीरहरण तो हो गया, पर वो आठ तरीके के खाने मिल गए। वो बहुत सारा मिल गया।

वक्ता: हम जो काम कर रहे है न, वो यही है। हम सेवा में हैं, हम पूर्णतः सेवा का काम कर रहे हैं। वो उदारता ही है। वो बाँटना ही है। वो यही है। और वो हो नहीं सकती, जब तक मन राम मय नहीं हो गया है। आप गुरु बन नहीं सकते, जब तक मन उदार नहीं है। क्योंकि गुरु का तो मतलब ही वही है जो बाँटता फिरे। जो ये न कहे कि, “मेरा काम पूरा हुआ। मेरे दो घंटे पूरे हुए।”

गुरु का मतलब ही वही है: जिसको अपने लिए कुछ नहीं पाना। जिसकी अपनी यात्रा पूरी हो गयी है। वो अब है ही इसलिए कि दूसरों को भी कुछ मिले, अन्यथा वो आज मर जाए, उसे फर्क नहीं पड़ेगा। छोटे मन का आदमी गुरु नहीं हो सकता।

बड़ी मीठी कहानियाँ हैं बाँटने की। दिन भर श्रम करके, राजा है, उसके बुरे दिन आए हैं, भागा हुआ है। दिनभर श्रम कर के एक रोटी बनाता है, और वो रोटी भी किसकी है? घांस की। घांस की रोटी बना रहा है। शाम को अपने घोड़े को खिला देता है। दिनभर लगा है, हारा हुआ है, अपने ही राज्य से निष्काषित है। दिन भर लड़ रहा है, जूझ रहा है, आख़िर में एक बनाता है, और अपने ही घोड़े को खिला देता है।

“खा!”

ऐसी ही एक दूसरी है, उसमें बाँटा नहीं जाता, क्योंकि उसमें बाँटने लायक था भी नहीं, पर वो भी बड़ी मस्त कहानी है। एक राजा है, रेगिस्तान से उसकी सेना गुज़र रही है, कई दिन बीत गये हैं पीने को पानी नहीं मिला है। तो सैनिक तलाश करते हैं, दौड़ करते हैं, और फ़िर किसी तरीके से राजा के लिए एक गिलास पानी ले आते हैं। अब वो खड़ा है अपने सैनिकों के सामने और उसके हाथ में एक गिलास पानी है। और जितने सैनिक हैं, सब प्यासे हैं। गिलास ले रहा है और उनको देख रहा है, उस गिलास को वापिस रेत में गिरा देता है, कहता है: “पियेंगे तो सब साथ पियेंगे। और इतना है नहीं कि सब पी सकें। अकेले तो नहीं पियूँगा।”

‘शब्द-योग सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories