“हद चले सो मानवा , बेहद चले सो साध । हद बेहद दोनों तजे, ताका मता अगाध”।। ~ संत कबीर
वक्ता: आदमी का जीवन लगातार सीमाओं में बीतता है, वर्जनाओं में बीतता है, नियम-कानून से बंधे-बंधे बीतता है। कम ही लोग होते हैं जो यह हिम्मत जुटा पाएं कि इन वर्जनाओं को तोड़ देंगे। कम ही लोग होते हैं जिनमें साहस हो कि नियमों से बंधे हुए नहीं रहेंगे। कोई ही होता है जो कहता है कि तुम्हारी रूढ़ियाँ, तुम्हारे ढर्रे, तुम्हारे कायदे मेरे लिए नहीं हैं।
आम आदमी का जीवन तो वही है जो कबीर कह रहे हैं ‘हद चले सो मानवा’ – हदों में बंधा हुआ, घेरों में कैद एक काराग्रेह है आम आदमी का जीवन। चारों तरफ मात्र मानसिक घेरे ही घेरे हैं। इंट-पत्थर की दीवार होती है उसे तोड़ना आसान होता है पर मानसिक घेरों के पार जाना बड़ा मुश्किल है, बहुत-बहुत मुश्किल है, और हम सब अपनी-अपनी मानसिक जेलों में कैद हैं।
पशुओं के साथ प्रयोग हुए हैं: जहाँ पर बारूद की एक रेखा खींच दी गई और जानवर जैसे ही उसे पार करने लगा उस रेखा में आग लगा दी गई। जानवर तिलमिला के पीछे हट गया उस रेखा से। थोड़ी देर बाद जानवर फिर उस रेखा को पार करने लगा, फिर उसमें आग लगा दी गई और जानवर फिर पीछे हटा। कुछ समय बाद स्तिथि यह आ जाती है कि आप वहां बारूद रखो न रखो जानवर कभी उस रेखा को पार करता ही नहीं है। अब वो एक मानसिक रेखा है और उसमें बड़ी ताकत है। वो कभी पार की ही नहीं जाएगी। ऐसे ही कैद हैं हम सब। मन से बड़ा काराग्रह हो नहीं सकता।
फिर कोई होता है हजारों में एक जो उकता करके इन हदों से विद्रोह कर देता है बल्कि तोड़ ही डालता है हदों को, धज्जियाँ उड़ा देता है सारे नियम-कानूनों की। वो कहता है कि, ‘मैं तुम्हारे ढर्रों का मोहताज नहीं; वो साधू है। उसका अपना एक कायदा है, उसके अपने तरीके हैं जो समाज के तरीकों से बिलकुल विपरीत हैं। लेकिन एक बड़ी मजेदार चीज़ देखने में आती है कि समाज साधू का दुश्मन नहीं होता हालांकि साधू ने समाज के ढर्रे तोड़े हैं। समाज साधू को अपने-आप में शामिल कर लेता है।
इस बेहद चलने वाले को, हद तोड़ के चलने वाले को हद के भीतर चलने वाले सम्मान देना शुरू कर देते हैं। ये उनकी दुनिया का हिस्सा बन जाता है। आपको आश्चर्य होगा कि यह कैसे हो गया। इसने नियम तोड़े हैं और इसके बाद भी इसे सम्मान मिल रहा है। इसका कारण है —
नियमों को तोड़ना, हदों को तोड़ना और हदों के पार निकल जाना दोनों बहुत अलग-अलग बातें हैं।
हद को तोड़ना सिर्फ एक प्रक्रिया है – तुमने इतना बाँध के रखा मुझे कि मैंने सारी रस्सियाँ तोड़ दीं। तुम जिन ढर्रों पे चल रहे थे मैं उनपर अब नहीं चलता बल्कि मैं उनसे विपरीत चलने लग गया हूँ। पर चल मैं अभी भी ढर्रों पर ही रहा हूँ। समाज ढर्रों को पूजता है, वो तुम्हें भी पुजेगा। समाज इसी कारण साधुओं को बड़ा सम्मान देता है क्योंकि उसके पास भी ढर्रे हैं। समाज जैसे नहीं हैं, समाज से उलटे हैं पर ढर्रे उसके भी हैं। इस कारण समाज उसकी पूजा करता है।
द्वैत का सिरा है, एक वो जिसपर ग्रहस्त बैठा हुआ है और दूसरा वो जिसपर साधू बैठा हुआ है। एक मन में चल रहा है और एक वन में चल रहा है पर हैं दोनों अभी एक से ही। दोनों के पास तरीके कायम हैं, कायदे कायम है। आकाश में दोनों ही नहीं उड़ रहे। साधुओं के अपने बड़े नियम-कायदे होते हैं। आश्रमों की अपनी मर्यादाएं होती हैं।
*हद चले जो मानवा, बेहद चले सो साथ ।*हद बेहद दोनों तजे, ताका मता अगाध।।
फिर कोई एक और होता है जो नियमों को तोड़ता नहीं है, वो नियमों के पार निकल जाता है।
आपका समाज उसे कोई सम्मान नहीं देगा; साधू को देगा सम्मान पर उसको कोई सम्मान नहीं देगा। आपका समाज उसे पहचान ही नहीं पाएगा क्योंकि ढर्रे पर चलने वाली आँख केवल मात्र ढर्रों को पहचान सकती है; क्योंकि सीमित मात्र सीमित को ही देख सकता है; क्योंकि द्वैत मात्र द्वैत को ही देख सकता है; क्योंकि आप जैसे हो उससे भिन्न आपको कुछ समझ में आएगा ही नहीं।
इस तीसरे को न समाज समझ पाएगा और न साधू समझ पाएगा। और सच तो यह है कि ग्रहस्त और साधू दोनों इस तीसरे के दुश्मन हो जाएंगे, यदि वो उनकी पकड़ में आ गया तो। इसका सौभाग्य ही यही है कि वो पकड़ में आता ही नहीं है आसानी से। यह दिखाई ही नहीं पड़ता इसलिए बचा रहता है।
हद बेहद दोनों तजे, ताका मता अगाध
न हदों में चलते हैं और न बेहद हो जाने को आतुर हैं। हमें तोड़ने भी नहीं हैं तुम्हारे नियम। इतने क्षुद्र हैं ये, महत्व्हीन हैं ये कि हम इन्हें तोड़ के इनका महत्व नहीं बढ़ाना चाहते। तुम्हें गाली दे करके हम तुम्हारी हैसियत नहीं बढ़ाना चाहते। हमने यदि तुम्हारे नियम तोड़े भी तो उससे ऐसा लगेगा कि जैसे तुम्हारे नियमों में कुछ दम था। कहाँ कोई दम है, तुम तो हमें दिखाई ही नहीं देते। न तोड़ रहें हैं नियमों को और न चल रहें हैं नियमों पर। हम तो उड़ रहे हैं और हमारे उड़ने में तुमको कभी ऐसा लग सकता है कि हम नियमों पर चल रहे हैं पर ऐसा है नहीं।
हद बेहद दोनों तजे, ताका मता अगाध
उसकी था तुम नहीं पाओगे; वो उतना ही गहरा है जितना अस्तित्व। अगाध… तुम्हारे किसी नक़्शे पर उसको अंकित नहीं किया जा सकता। उसकी अपनी कोई पहचान है ही नहीं। उसके बारे में तुम कुछ कह भी नहीं सकते। ग्रहस्त की बड़ी पहचानें हैं, संसारी की बड़ी पहचानें हैं, साधुओं की भी बड़ी पहचानें हैं पर उसकी अपनी कोई पहचान ही नहीं है। आज ऐसा है कल वैसा है। पकड़ोगे कैसे उसको?
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।