*“प्रभुता को सब कोई भजे , प्रभु को भजे न कोय |***
*कहे कबीर प्रभु को भजे, प्रभुता चेरी होय || ’”***
~ संत कबीर
वक्ता : ये बहुत अच्छे शब्द हैं प्रभु में जाने के लिए, प्रभुता में जाने के लिए और उनका आपसी सम्बन्ध देखने के लिए|
कुछ बातें हैं जो मन में बैठ जाती हैं, उनको हटाना ज़रूरी है | प्रभु अर्थात वो जो ‘है’, वो जो एकमात्र सत्ता है | ये शाब्दिक अर्थ हुआ प्रभु का | जिस एक की सत्ता है, जो एक सत्ता है, सो प्रभु | प्रभु कोई वस्तु नहीं है, कोई व्यक्ति नहीं है | जब मैं कहता हूँ कि प्रभु कोई व्यक्ति नहीं है तो आप कहोगे ये तो सहज-सी बात है, हम सब जानते है कि वो कोई व्यक्ति नहीं है | पर अगर कोई व्यक्ति नहीं है तो क्यों उसको रचनाकार बोल रहे हो? क्योंकि जहाँ भी कोई रचनाकार है, वहाँ उसका कोई पृथक अस्तित्व होगा रचना से | तो तुमने उसको व्यक्ति बना ही दिया | अपने जैसा नहीं अपने से श्रेष्ठ ही सही, पर व्यक्ति तो बना दिया |
कोई रचनाकार नहीं है | कोई माया भी नहीं है | प्रभु को ब्रह्म कहना और प्रभुता को माया कहना, वो भी भूल है | क्योंकि जहाँ पर सिर्फ़ एक सत्ता है, वहाँ दो कहाँ से आ गए? ये भेद कहाँ से पैदा हो गया कि ‘ब्रह्म है और माया है’, कि ‘सत्य है और सत्य की छाया है’? ये भेद कहाँ से आ गया? गलती उसी पल शुरू हो जाती है जब प्रभु को और प्रभुता को अलग-अलग समझा जाता है | आपने कहा कि “हमें पहाड़ दिखाई पड़ता है, हमें बादल दिखाई पड़ते हैं पर हमें उनको बनानेवाला नहीं दिखाई देता”| नहीं, पहाड़ और बादल किसी ने निर्मित नहीं किये हैं | पहाड़ और बादल, प्रभु की प्रभुता नहीं हैं | पहाड़ और बादल ही प्रभु हैं | उनको प्रभुता कहना ही भूल है | मनुष्य से मूल भूल उसी दिन प्रारंभ हो गयी थी, जिस दिन उसने ये द्वैत खड़ा करा था कि “कहीं कोई ईश्वर है और बाकी सब कुछ उस ईश्वर की रचना है” | कोई रचना नहीं है, कोई रचनाकार नहीं है| कोई भेद नहीं है | न माया को ठुकराना है, न ब्रह्म को पाना है | माया और ब्रह्म का कोई पृथक अस्तित्व है ही नहीं | जो माया और ब्रह्म को पृथक देख रहा है, वो ब्रह्म को नहीं जानता | जिसने ब्रह्म को जान लिया, उसके लिए माया बचेगी नहीं | ‘ब्रह्मावि द् ब्रह्मैव भवति ’ | माया कहाँ है अब ? माया है ही तभी तक जब तक उसे ब्रह्म से पृथक जानोगे | याद रखना, यही माया की परिभाषा है | कुछ भी ईश्वर से अलग समझना ही माया है | जहाँ कहीं तुमने उस एक की सत्ता नहीं देखी, वही माया है | माया कहीं है नहीं | तुम्हारा अविश्वास कि “यहाँ भी ईश्वर है, वहाँ भी ईश्वर है”, इसमें तुम्हारा विश्वास न होना ही माया है | अन्यथा माया का कोई अस्तित्व नहीं | इसीलिए माया को जानने वालो ने कहा है कि “वो माया जो न होते हुए भी, होने से भी सत्यतर लगती है | है कहीं नहीं पर लगती है कि ‘है’| याद रखना, माया वो जो है नहीं | वो सिर्फ़ छलती है | वो छलावा है | वो वास्तव में नहीं है |
तो माया क्या है? माया का प्रतीत होना ही माया है | माया मात्र एक छल है, जो आपको छल ही तब तक रहा है जब तक आपको प्रतीत हो रहा है | माया को समझकर माया से मुक्त नहीं होते | माया से मुक्त वो है जिसको अब माया दिखती ही नहीं | भेद समझिएगा, हमें अक्सर ये लगा है कि संसार को समझ लिया तो संसार से मुक्त हो जाओगे | और किसको पा जाओगे ?
श्रोता: प्रभु को |
वक्ता: अपार ने (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए) कुछ ऐसी ही बात करी थी कि “फ़िर ये सब व्यर्थ लगने लगता है और मात्र प्रभु ही आकर्षक लगता है” | और बहुत समय से सन्यासियों ने और योगियों ने कुछ ऐसी-ही बात की है कि “संसार को समझो, संसार की निःसारता को जानो ताकि संसार को त्याग सको और उस एक परम की शरण में जा सको” | गलती है यहाँ पर, चूक हो रही है | जिसको अभी संसार दिखाई दे रहा है, वो संसार को त्याग नहीं सकता | ध्यान दीजियेगा, जिसको अभी संसार दिखाई दे रहा है, वो संसार को त्याग नहीं सकता | वो तो सिर्फ़ भेद करेगा कि “यहाँ तक संसार है और उसके बाद सृष्टा है | यहाँ तक सृष्टि है और उसके बाद सृष्टा है” | वो निरंतर भेद की भाषा में, द्वैत की भाषा में बात करेगा | वो फँसेगा | वो अंतर कर रहा है | भेद ही तो संसार है | समझना इस बात को, भेद करना ही तो संसार है | और संसार, माया की गहरी से गहरी चाल ये है कि तुम माया और ब्रह्म में भेद कर दो | जब भेदपूर्ण दृष्टि ही सांसारिक दृष्टि है, तो संसार में और सत्य में भेद करना क्या हुआ ? ये सत्य की दृष्टि हुई या सांसारिक दृष्टि हुई ? जो दृष्टि संसार में और सत्य में भेद करती हो, वो सत्य की दृष्टि है या संसार की दृष्टि है ?
श्रोतागण (एक स्वर में): संसार की |
वक्ता : तुम तब तक फँसे रहोगे जब तक इस भाषा में बात करोगे कि सत्य और संसार अलग-अलग हैं, रचना और रचयिता अलग-अलग हैं, माया और ब्रह्म अलग-अलग हैं | जब तक इस भाषा में बात करोगे, फँसे रहोगे | क्योंकि ये भेद करना ही मूल गलती है | समझ में आ रही है बात ?
श्रोतागण : जी |
वक्ता : ‘प्रभुता को सब कोई भजे, प्रभुको भजे न कोय|’ नहीं, कबीर ये नहीं कह रहे है कि प्रभुता को त्यागो और प्रभु को भजो | प्रभुता ही प्रभु है | प्रभुता के अलावा तुम प्रभु को कहाँ देखोगे ? किस आसमान पर चढ़कर उसको पाओगे ? कौन-से पातालों में और आकाशों में उसकी खोज करोगे ? किस गुफ़ा में छुपा बैठा है प्रभु ? कहाँ मिलेगा ? प्रभुता के अलावा वो मिलेगा कहाँ ? प्रभुता के अलावा वो और है क्या ?
यही वो है | आँख साफ़ की जाए तो इसी में साफ़-साफ़ वो है | सिर्फ़ दो तरह की दृष्टियाँ होती हैं, एक वो जो वस्तु और व्यक्ति देखती है, दूसरी वो जो उसी वस्तु और उसी व्यक्ति में विराट को देखती है | एक वो जो संसार-मात्र देखती है, दूसरी वो जो उसी संसार में सत्य को देखती है | संसार और सत्य अलग नहीं किये जा सकते | जिस क्षण आपने दोनों को अलग कर दिया, न संसार बचा, न सत्य बचा | वो सत्य कैसा जो संसार से विलग है ? ये कौन-सा सत्य होता है ? ये वैसी ही बात हुई कि आप कहें कि कपास से उसका सफ़ेद रंग अलग कर देंगे | कैसे कर दोगे ? वो एक हैं | ये वैसी ही बात हुई कि आप कहो कि पानी से उसकी प्रकृति अलग कर देंगे | क्या वो शीतल नहीं करेगा ? कैसे कर दोगे ? सत्य और संसार अलग-अलग नहीं हैं और ये सिर्फ़ चूक नहीं होती, ये हमारी बड़ी बेईमानी है कि हम इनको अलग-अलग देखते है | हम उस बेईमानी से अपने स्वार्थों की ख़ूब पूर्ति करते हैं | जब सत्य और संसार अलग-अलग हो जाते हैं, तब घर में पूजा का एक अलग कमरा बन जाता है | अब बाकी घर में कुछ और भी कर सकते हैं, क्योंकि वो संसार का हिस्सा है | और पूजा घर में आप सत्य को कैद कर देते हैं, “तू यहाँ रह” | जब सत्य और संसार अलग-अलग हो जाते हैं, तब दफ़्तर और मंदिर अलग-अलग हो जाते हैं | अब आप, कुछ भी और कर सकते हो, आपको बस इतना करना है कि शाम को मंदिर में जा करके सर नवाँ देना है क्योंकि “सत्य और संसार तो अलग-अलग हैं ” | ये हमारी बड़ी गहरी चाल है, “इनको अलग-अलग कर दो” | और अगर वो एक हो गए तो हमारे लिए बड़ी असुविधा भी हो जायेगी | कैसे ? अब तुम कैसे खाओगे किसी जानवर को जब उसकी आँख में तुम्हे प्रभु ही नज़र आयें | बड़ी असुविधा हो जानी है तुमको| तुम काम की दृष्टि से कैसे देखोगे, जब हर तरफ़ तुम्हें राम ही नज़र आयेंगे | बड़ी असुविधा हो जायेगी, भोगोगे कैसे ?
तो एक भटके हुए चित्त के लिए ये विभाजन बड़ा आवश्यक रहता है | यही मूल विभाजन हैं, यही मूल फ्रैगमेंटेशन है | यहाँ से बाकी सारे और भेद निकलते हैं, पहला भेद यही होता है | धार्मिक आदमी वो नहीं है जो मंदिर जाता हो, धार्मिक आदमी वो है जिसे मंदिर जाने की आवश्यकता न पड़ती हो | अंतर समझिएगा| धार्मिक आदमी वो नहीं है जो मंदिर जाता है, धार्मिक आदमी वो है जिसे मंदिर जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती क्योंकि उसके लिए हर दिशा मंदिर है | वो जिस जगह खड़ा है वो जगह मंदिर है | वो मंदिर को अपने साथ लेकर चलता है | वो है, धार्मिक आदमी | वो विभाजन कर ही नहीं सकता | वो रेत पर खड़ा है तो रेत मंदिर है, पत्थर पर खड़ा है तो पत्थर मंदिर है, इमारत पर खड़ा है तो इमारत मंदिर है | उसको किसी मूर्ति की आवश्यकता नहीं है, उसको किसी विशेष कक्ष की आवश्यकता नहीं है कि “यहाँ पर ही मेरी पूजा होगी” | जितनी भी मूर्तियाँ हैं, जो भी कुछ मूर्त रूप में है, वही पूजनीय है | अमूर्त को तुम पूज कैसे सकते हो ? तुमने तो अमूर्त को ही पूजने के लिए मूर्त बनाया | तो यदि मूर्त को ही पूजना है तो जो कुछ भी मूर्त है, पूजो ना उसको | मूर्त यानी जिसका आकार है, जिसका रूप है, पूजो उसको | वो धार्मिक आदमी है जिसके लिए सब कुछ पूजनीय है | और जब सब कुछ पूजनीय होता है तब पूजा कोई विशेष कर्म नहीं रह जाती | जब चौबीस घंटे आराधना ही कर रहे हो तो क्या हाथ जोड़कर खड़े रहोगे ? न सर नवाँओगे, ना हाथ जोड़ोगे | “चौबीस घंटे हम और कुछ करते ही नहीं हैं पूजा के अलावा” | तो हमारी पूजा किसी को दिखाई नहीं देगी | जो पल दो पल को पूजा करते हों वो बड़े पुजारी लगेंगे | उन्हें बड़ा कर्म-कांड करना पड़ेगा | “भाई हफ़्ते में एक बार आये हैं पूजा करने | तो ज़ोर-शोर से उनकी पूजा होगी, घोषणाओं के साथ और जो चौबीस घंटे पूजता हो उसकी पूजा तो नज़र भी नहीं आएगी, वो पूजा के अलावा कुछ और करता ही नहीं | वो प्रभु में ही रमता है | कबीर कहते हैं “उठूँ, बैठूँ, करूँ परिक्रमा” | कबीर की परिक्रमा किसको नज़र आनी है ? हाँ, आपकी परिक्रमा नज़र आती है, आप जाते हो तो ज़ोर-शोर से परिक्रमा करते हो और फ़ोटो भी खिंचवाओगे | कल को कोई कह ना दे कि नहीं करते, तो फ़ोटो प्रमाण है | कबीर तो ऐसा नहीं करते ? वो तो कहते हैं कि-
“माला फेरूँ न जप करूँ, मुँह से कहूँ न राम |
सुमिरन मेरा हरी करे, मैं पाऊँ विश्राम ||’
न माला फ़ेरते हैं, न जप करते हैं | इसका ये अर्थ नहीं है कि जो कोई माला नहीं फ़ेरता और जो कोई जप नहीं करता, वो कबीर हो गया | उल्टा तर्क मत पकड़ लीजियेगा | इसका ये अर्थ नहीं है कि जो कोई परिक्रमा नहीं करता, वो कबीर हो गया | इसका अर्थ इतना ही है कि जब तक जीवन में ये दो हिस्से बने रहेंगे, तब तक आप बड़ा नकली जीवन जी रहे हैं | तब तक आप किसी नकली प्रभु के सामने हाथ जोड़ रहे हैं | वो प्रभु, प्रभु नहीं है | वो आपके अहँकार की निर्मित्ति है | आपने खड़ा करा है उस प्रभु को ताकि आपका संसार कायम रह सके | मंदिरों का, संसार को ‘संसार’ बनाये रखने में बड़ा योगदान है |
अक्सर हमारे घर बहुत साफ़ रहते हैं, इसीलिए क्योंकि हमारे घर के बगलवाला जो प्लाट होता है, वो बड़ा गन्दा रहता है | घर का सारा कूड़ा इकट्ठा करके घर के बाहर डाल दिया जाता है | उस गंदगी का बड़ा योगदान है हमारे घर की सफ़ाई में | और ये सफ़ाई नकली है, झूठी है | समाज-शास्त्रियों ने कहा है कि “वेश्यालयों का बड़ा योगदान है, गृहस्थियों के चलते रहने में” | सुहागिनें सुहागन बनी रहें, इसमें वेश्यायों का बड़ा योगदान है | जितनी गंदगी है, जितनी अपूर्णतायें हैं, जितनी अप्राप्तियाँ हैं, वो तुम जा कर आसानी से वेश्यालय में पूरी कर सकते हो और वापस आकर तुम्हारी गृहस्थी सुचारू रूप से चलती है | “गंदगी वहाँ छोड़ आओ ताकि यहाँ सफ़ाई का भ्रम बना रहे | खूब साफ़ करो घर को और कचरा घर के सामने डाल दो, बगल में डाल दो, इधर कर दो, उधर कर दो ताकि सफ़ाई का भ्रम बना रहे” | आप देखते होंगे, जब किसी विकसित पश्चिमी देश का विदृश्य दिखाया जाता है, कोई फ़ोटो होती है, तो आप कहते हैं “सड़क पर भी धूल नहीं | कितनी सफाई ! सब कुछ चमक रहा है” | आपको दिखाई नहीं पड़ता कि इस पृथ्वी को सबसे ज़्यादा गन्दा वही लोग कर रहे हैं | इतना गन्दा कर दिया है इस पृथ्वी को कि इस पृथ्वी को ज्वर आ गया है | इस वक़्त भी बाहर तापमान कम-से-कम चालीस डिग्री है | वो इसी कारण है क्योंकि कुछ लोगों को बहुत ठंडा रहना है | आज अगर हमारे समुद्र गंदे हैं, हवा गन्दी है, ग्लेशियर गंदे हैं तो इसका कारण ये है कि कुछ जगहें हैं जो बहुत साफ़ रखी गयी हैं | हमारी आँखों को सफ़ाई दिखाई पड़ती है | वो सफ़ाई किस कीमत पर आ रही है, वो नहीं दिखाई पड़ता |
आदमी का मन इसी तरह से काम करता है, भेद पैदा कर के | “दो हिस्से कर दो- एक साफ़-सुथरा, एक गन्दा-गन्दा | एक ईश्वर की सत्ता बना दो – जहाँ न्याय होता है, जहाँ दया है, जहाँ प्रेम है – और उसके विरुद्ध एक शैतान की सत्ता खड़ी कर दो – जहाँ माया है, जहाँ काम है और क्रोध है और मन है और मत्सर है | और अब ये दोनों सत्ता आपस में लड़ रही हैं | पर ये तुमने जानते हो क्या किया है ? तुमने यही किया है कि दो बिल्लियों को आपस में लड़ा कर के बन्दर बादशाह हो रहा है | भगवान भी तुम्हारा, शैतान भी तुम्हारा, दोनों बिल्लियाँ तुम्हारी, तो असली राजा कौन बना ? असली राजा तुम बने | ये अहंकार का काम है | बन्दर है असली राजा, एक बिल्ली है भगवान और एक बिल्ली है शैतान | और उनमें आपस में लगातार मची हुई है खींचतान |
अन्तर्यामी शब्द बड़ा कीमती है | अन्तर्यामी शब्द का यह अर्थ नहीं होता कि जो सर्वत्र है, अन्तर्यामी शब्द का अर्थ होता है कि जो रेशे-रेशे में समाया हुआ है और आगे कहें तो जो स्वयं रेशा-रेशा है | जो स्वयं रेशा-रेशा है उसको कहते हैं, अन्तर्यामी | हम अक्सर ये कह देते हैं कि अन्तर्यामी का अर्थ होता है – जो सब जानता है | न, सब जानने वाला नहीं अन्तर्यामी | जो स्वयं ही ‘है’, जिसके अलावा और कुछ है ही नहीं, कण-कण जो है, सो अन्तर्यामी | आप कहते हो “कण-कण में है झाँकी भगवान की”, गलत कहते हो, कण-कण में उसकी झांकी नहीं है, वो ही कण-कण है | और कण के अलावा वो कहीं नहीं है | तुम उसे कहीं और नहीं खोज पाओगे | ये भ्रम मन से निकालो | और जो उसको कण-कण में नहीं देख रहा और कहीं और खोजने की उम्मीद रखे हुए हैं, वो बेईमान हैं |
“प्रभुता को सब कोई भजे, प्रभु को भजे न कोय “
प्रभुता को हम भजते ही इसीलिए हैं क्योंकि हमने प्रभु को एक ऊँचे आदरणीय स्थान पर बैठा दिया है | प्रभु अलग, प्रभु की प्रभुता अलग | मैं आपसे कह रहा हूँ प्रभु को उस ऊँचे आदरणीय स्थान से उतारिये | उसको वहाँ बैठा कर आप उसे बस अपनेआप से दूर कर रहे हैं | प्रभु कहाँ बैठता है ? वहाँ, कैलाश मानसरोवर | प्रभु कहाँ बैठता है ? किसी दुर्गम चोटी पर | क्यों ? ताकि आपसे दूर रहे | आप रोज़ तो करोगे नहीं तीर्थाटन| रोज़ तो नहीं करोगे ना ? कौन वहाँ चढ़ने जायेगा ? नहीं, प्रभु उस अगम्य चोटी पर नहीं बैठता है |
कबीर कहते हैं- “पिय का मार्ग सरल है | तेरी अड़ियल चाल”| वो दूर नहीं है, वो सामने है | लगातार वही-वही है, उसको दूर की कौड़ी मत बनाओ | इस तरह की बातें बोलो भी मत | ‘अप्राप्य’, ‘अचिन्त्य’, ये बातें तात्विक रूप से भले ही सही हों, पर अहँकार को बड़ा पोषण देती हैं | “अरे! जो अप्राप्य है, उसको पाने की कोशिश ही क्या करनी ? जो अचिन्त्य है, उसका चिंतन-मनन ही क्यों करना ? जो अगम्य है, उसकी ओर कदम ही क्यों बढ़ाना ?”
न अप्राप्य है, न अचिन्त्य है, न अगम्य है, ये रहा सामने | जो है वही है और मैं दोहरा रहा हूँ कि इसी को कहते हैं – धार्मिक दृष्टि | जो प्रभु के अलावा और कुछ देखती ही नहीं |
“साहब तेरी साहबी, हर घट रही समाय |
*ज्यों मेहंदी के पात्र में, लाली लखी ना जाय* *||” *
हमें तो हर घट में साहब की साहबी ही दिखाई देती है, और कुछ दिखाई ही नहीं देता | वो ये कह ही नहीं रहे कि साहब बसते हैं, किसी दूर के जहान में | ये है धार्मिक चित्त|
दोहे की जो दूसरी पंक्ति है- “कहे कबीर प्रभु को भजे, प्रभुता चेरी होय”, इसका भी हमारा मन बड़ा उल्टा अर्थ करता है | हम ऐसी-ऐसी बात सोचते हैं कि “अगर मालिक को बस में कर लिया जाये तो उस मालिक के कर्मचारी तो फिर बस में आ ही जाते हैं | “कहे कबीर प्रभु को भजे, प्रभुता चेरी होय”, तो मालिक को पटा लो तो उसके जितने अधीनस्थ हैं वो सब तो तुम्हारे दास, चेरी बन ही जायेंगे”| बेकार की बात है ये | हर दास में वही है, हर चेरी वही है | उसके अलावा और कोई नहीं है | यही अद्वैत है | उसके अलावा और कुछ नहीं, कुछ भी और नहीं | ये भी कहना बंद करिए कि सब कुछ ‘उसका’ है, सब कुछ मात्र वही है | सब कुछ उसका नहीं है, सब कुछ मात्र वही है | कुछ और है ही नहीं |
“कहे कबीर प्रभु को भजे, प्रभुता चेरी होय”| जब कबीर कह रहे हैं कि प्रभुता आपकी दासी हो जायेगी, उससे उनका ये अर्थ नहीं है कि आपका और अस्तित्व का ऊँचे और नीचे का सम्बन्ध हो जायेगा | अहँकार इसका यही अर्थ करना चाहेगा | वो कहेगा कि “ये तो कबीर ने भी कह दिया कि प्रभुता अर्थात समस्त अस्तित्व अब मेरा ग़ुलाम है, चेरी है” | नहीं, कबीर सिर्फ़ इतना कह रहे हैं कि अभी जो तुमने व्यवस्था बना रखी है, उसमें तुम ग़ुलाम हो | उसको नकारने के लिए कह रहे हैं कि अब तुम ग़ुलाम नहीं रहोगे | दूसरे अति पर मत चले जाईएगा | अभी जो व्यवस्था चल रही है, उसमें तो हम ग़ुलाम हैं | कैसे ग़ुलाम हैं ? ग़ुलाम वो जो परवश है | परवश तो होओगे ही, जहाँ दूसरा आ जायेगा | परायापन ही तो ग़ुलामी की शुरुआत है | पराया यानी दो और अभी हमने कहा कि दो करने की शुरुआत हम उसी दिन कर देते हैं जिस दिन हम प्रभु को और…?
श्रोतागण (सभी एक साथ) : प्रभुता को अलग-अलग कर के देखते हैं |
वक्ता : मूल भेदवृति वहीं से प्रारंभ होती है | कर दिया न पराया | प्रभु कौन ? हमने तो प्रभु को भी पराया कर रखा है | प्रभु कौन ? वो जो कहीं बाहर है, वो जो कहीं और बैठता है, वो जिसकी कोई और इच्छा है | जिस क्षण आपने प्रभु को पराया करा, उसी क्षण आपकी ग़ुलामी की शुरुआत हो जाती है |
कबीर उसी स्थिति को बस उलट रहे हैं ताकि आप दूसरे छोर पर जाकर मत बैठ जाइये | अभी आप दास हैं और वो वाले दास नहीं कि जैसे कबीर कहते हैं कि “मैं दासों का दास”| कबीर की दासता समर्पण है | हमारी दासता बेगारी है | तो अभी हम दास हैं और कबीर कह रहे हैं कि तुम अपनी दासता से मुक्त हो जाओगे | अभी तुम हज़ारों के दास हो फ़िर तुम दास रहोगे भी तो एक के | अभी तो तुम्हारे हज़ार मालिक हैं | जिस-जिसको तुमने पराया करा है, वो-वो तुम्हारा मालिक बन बैठा है | फ़िर तुम बस एक के दास रहोगे | और वो एक भी, यदि उसके क़रीब जाओ, तो वो एक भी तुमसे अलग नहीं रह जायेगा और तुम्हारी दासता पूरी तरह से तिरोहित हो जायेगी | जब उस एक से मिल ही गए, तो अब दास किसके रहे ? जब मालिक से पूर्ण मिलन हो गया तो हम किसके दास हैं ? ठीक ! तो कबीर जब कह रहे हैं कि “प्रभुता चेरी होय” तो आपके भीतर बस एक रोशनी जगा रहे हैं | अभी जो दरिद्रता की हालत है, जो दीनता है, जो परवशता है, उससे मुक्त हो सकते हो | निश्चित रूप से मुक्त हो सकते हो |
इस दृष्टि को साधिये | किसी विशेष की अपेक्षा मत करिये | हमारा पूरा जीवन विशेष की उम्मीद में बीतता है | और विशेषों में विशेष जिसे कहते हैं, वो हमारा भगवान है | ठीक है ना ? ये विशेष, वो विशेष और आख़िरकार जो सबसे विशेष, वो प्रभु | हमें लगातार क्या चाहिए ? कुछ विशेष | हमारी इस आदत की शुरुआत उसी दिन हो गयी थी, जिस दिन हमने प्रभु को विशेष बनाया था | मैं आपसे कह रहा हूँ, इस बात पर थोड़ा गौर करिये कि हम सबको जीवन में विशेष क्यों चाहिए ? आपको एक विशेष घर चाहिए, विशेष सम्बन्ध चाहिए, विशेष व्यक्ति चाहिए, आप विशेष होना चाहते हैं | प्रथम विशेष कौन था – प्रभु | चूँकि तुमने उसको विशेष बना दिया इसलिए अब तुम्हें हर पल विशेष की तलाश है |मैं कह रहा हूँ, ‘निर्विशेष हो जाओ’ | और यही बात उपनिषद् कहते हैं कि “प्रभु विशेष नहीं है, वो निर्विशेष है” |
पर हमारी कहानी ने उसको विशेष बना रखा है | ख़ास, वो ख़ास है ही नहीं | वो बिल्कुल ख़ास नहीं है | ये बात पहले भी बहुत बार कह चुका हूँ, फिर दोहरा रहा हूँ | पर हमने उसे ख़ास बनाया है, हमने जब उसकी मूर्ति बनायी है तो ख़ास सुन्दर मूर्ति बनायी है | हमने जब उसके अवतार गढ़े हैं तो विशेषकर गुणी अवतार गढ़े हैं | प्रभु का अवतार है, ख़ास होना चाहिए | जब प्रभु का अवतार ख़ास होना चाहिए तो तुमको कुत्ते में और खरगोश में प्रभु कैसे दिखेंगे ? और यहीं पर मानवता से चूक हुई है, यही हमारी गलती है | तुमने उसे विशेष बना दिया | जब उसे विशेष बना दिया तो प्रतिपल विशेष की ही आशा में मरे जा रहे हो, तो ताज्जुब क्या है ? वो विशेष नहीं है | तुम्हारे सामने प्लेट रखी है, इतना साधारण है वो | वो दैवीय आभा से युक्त कोई शक्तिशाली बलवान अवतार ही नहीं है, जो सबसे दीन-हीन, मरण-शैय्या पर पड़ा हुआ रोगी है, वो भी वही है | उसमें भी उसको देखो | कृष्ण के सुदर्शन में और राम के धनुष में ही वो नहीं है, एक सड़ती-गलती लाश में भी वही है | वो भी अवतार है | अवतारों के अलावा यहाँ कुछ होता ही नहीं | ये चादर अवतार है, ये पंखा अवतार है, ये हवा अवतार है, कीचड़ अवतार है |
लेकिन हमसे भूल हो गयी | हमने अवतारों को बड़ा विशिष्ट बनाया, बड़ा ख़ास बनाया | आप पूजने जाते हो तो आप पूजनीयों की पूजा करते हो | साफ़-सुथरे, बलवान, ओजस, आभायुक्त | असली बात वो ही समझा जिसने दुर्गन्ध में, दुर्गुण में और दीनता में भी उसी को देखा | नहीं तो फिर भेदयुक्त दृष्टि है, फिर तो बड़ी भेदयुक्त दृष्टि है | आप काली की प्रतिमा बनाते हैं, और काली खड़ी हुई हैं, एक राक्षस के ऊपर दमन करती हुई | असली धार्मिक आदमी वो होगा, जो जाकर के उस राक्षस के पाँव पड़ जाए | उसको दिखाई पड़ा | काली के पाँव पड़ना तो बड़े अहँकार की बात है | जो जीत रहा है, उसके पाँव पड़ रहे हो और जीतने वाले की ओर तो हर कोई पहुँच जाता है | जो ऊपर है, जो ताकतवर है, जो श्रेष्ठतर है, तुमने उसका पक्ष ले रखा है और उसका पक्ष तो हर कोई लेता है | यह तो अहँकार की दृष्टि है | तुम्हारी दृष्टि निर्मल तब हुई, निर्विशेष तब हुई, धार्मिक तब हुई, जब उस मृतप्राय दुष्ट राक्षस में भी तुमको वही परम सत्ता दिखाई दे, क्योंकि ‘वो’ है वहाँ पर, उसके अलावा और कुछ होता नहीं है |
एक पूर्णतया धार्मिक जगत में मंदिरों के लिए कोई स्थान नहीं होगा | वहाँ अवतार भी नहीं होंगे, न पैगम्बर होंगे | क्योंकि जब हर कोई पैगम्बर है, और पत्ता-पत्ता अवतार है तो फिर कोई अवतार नहीं बचा | अब किसको अवतार बोलोगे ? वहाँ कोई विशेष नहीं होगा, हमने विशेष खोजे हैं | हमने प्रभुता को और प्रभु को अलग करा है | समझ में आ रही है बात ?
श्रोतागण (एक स्वर में) : जी |
वक्ता : तो दृष्टि वो साधो जो निर्विशेष में विशेष को देखे | फ़िर निर्विशेष और विशेष एक हो जाते हैं | फ़िर तुम जीते हो, फ़िर डरे-डरे नहीं रहते | फ़िर ये नहीं कहते कि “कुछ त्यागना है और कुछ पाना है” | फ़िर ये नहीं कहते कि “कुछ गलत है और कुछ सही है”, “कहीं कोई पाप है और कहीं कोई पुण्य है” | तब तुम समस्त द्वैत के पार हो जाते हो | उस दृष्टि को साधो |
“लाली लखी न जाय”| कहाँ, कहाँ खोजें ? है ही नहीं | लाओत्ज़ु ने भी ठीक यही बात कही है – “प्रेम दिखाई देना तब ही शुरू होगा, जब कम होने लगेगा” |
(कुछ श्रोता हामी में सर हिलाते हैं)
वक्ता : जो होता है और पूरी तरह होता है, उसकी तुम्हें कोई अनुभूति नहीं हो सकती क्योंकि जो सतत् है और सर्वत्र है | उससे अनुभूति संभव नहीं है |
सत्य का प्रदर्शन या सम्मान का प्रदर्शन इसी बात का संकेत है कि वो हैं ही नहीं | जो वास्तव में होगा, उसका तो तुम नाम लेना भी भूल जाओगे | बस वो साँस-साँस में समाया रहेगा | नाम कैसा ? नाम लेकर के तो विशेष बना दिया जाता है | कोई धार्मिक विश्वयोगी होगा, जहाँ उसका कोई नामलेवा ही नहीं होगा | कौन नाम ले ? किसका नाम लें ? कोई हो तो ना नाम लें ? एक ही है | वो नाम भी ले तो किसका ले ? अपना ही नाम दोहराए बार-बार ? वो तो अक्सर यही कह सकता है कि “*अहम् ब्रह्मास्मि*” | और क्या बोलेगा ? पर ब्रह्म में भी विशेष क्या ? हम ही जब ब्रह्म हैं तो क्या बार-बार बोलें -“*अहम् ब्रह्मास्मि*” | ये वैसा ही है जैसे कि तुम्हारे एक घर का नाम और एक बाहर का नाम | बाहर का नाम तुम्हारा बड़ा वैभवपूर्ण हो सकता है | अखिलेश, सम्पूर्णेश्वर और घर का नाम तुम्हारा हो सकता है ‘अक्खु’ |
(सभी हँसते हैं)
अब ‘अक्खु’ बार-बार यदि बोले कि “अहम् अखिलेश”, तो पागलपन है | बेकार की बात है | क्यों बोल रहे हो ?
(और हँसी)
एक ही तो है, तो क्या बार-बार बोलना ? तो नाम लेने की कोई ज़रूरत नहीं है, एक ही तो है | वो हुआ एक धार्मिक जगत – जहाँ प्रभु और प्रभुता अलग-अलग नहीं रहे | कहने की आवश्यकता नहीं कि वहाँ हिंसा के लिए कोई जगह नहीं बचेगी क्योंकि हिंसा शुरू ही परायेपन से होती है | जहाँ दो हैं ही नहीं, वहाँ हिंसा कैसी ? वहाँ द्वेष और कलह, इसके लिए कोई स्थान हो ही नहीं सकता |
बच्चे जैसा होकर देखिये | एक बार को यह भूल कर देखिये कि परम जैसा कुछ होता है | एक बार ये भूल कर देखिये कि वो शास्त्रों में, ग्रंथों में और मंदिरों में निवास करता है | बिल्कुल साफ़ कर दीजिये मन को, उसके बाद देखिये कि मन उसको बहते पानी में और पेड़ के पत्ते में पाता है कि नहीं पाता है | मैं आपसे कह रहा हूँ, निश्चित रूप से पायेगा |
बस एक बार ये धारणा अपने भीतर से निकाल दीजिये कि वो गीता में और बाइबिल में बैठा हुआ है | ये बात मन से निकाल दीजिये | उसके बाद देखिये कि वो ओस की बूँद में और कीचड़ में और धूल में और गर्त में और चाँद-तारों में नज़र आता है कि नहीं आता | आएगा | उस नाम से नहीं आएगा जिस नाम से अभी पुकारते हो क्योंकि ये नाम भी तुम्हे ग्रंथों ने दिए हैं | जब ग्रन्थ हटेंगे तो ये नाम भी हट जायेंगे | उस नाम से नहीं आएगा पर बात वही रहेगी | मन की अवस्था वही रहेगी | तब कुछ मिला, वास्तव में मिला | अभी नहीं कि हाथ जोड़े खड़े हैं और प्रभु-प्रभु कह रहे हैं और साथ ही साथ पड़ोसी की आलोचना में, निंदा में भी संलग्न हैं | कि व्रत रखते हैं और रोज़े रखते हैं और साथ ही साथ ईर्ष्या और कलह से भरे हुए हैं | और व्रत भी ऐसे तोड़ते हैं कि “शाम को माँस खायेंगे तभी तोड़ेंगे” | दिन भर किसकी अराधना कर रहे थे ? ये कौन सा व्रत, कौन सा रोज़ा रखा, जो शाम को प्राणियों की हत्या करके तोड़ा जाता है ?
तब ऐसे नहीं रह पाओगे | तब ऐसे नहीं रह पाओगे कि जो बार-बार कहते हो कि “इस कमरे में बैठ करके तो एक आदमी रहते हैं और बाहर निकलकर दूसरे आदमी हो जाते हैं”| ये सब भेद हैं और मैं दोहरा हूँ कि भेदों में पहला भेद है, प्रभु को और प्रभुता को अलग-अलग करना | आदमी ने जो हज़ार टुकड़े, हज़ार हिस्से किए, उसमें पहला हिस्सा उसने यही करा था | जिस क्षण तुमने कहा कि ब्रह्मा ने वेदों की रचना की, तुमने भूल कर दी | ब्रह्मा ने वेदों की रचना नहीं की, ब्रह्मा ही वेद हैं | तुम कहोगे, “वेद ना रहे, तो ब्रह्मा नहीं रहेंगे” ? बिल्कुल नहीं | क्योंकि वेद कोई ग्रन्थ नहीं हैं | वेद हैं जानना | ग्रन्थ हट सकता है | वेदों की आज जो विश्व भर में समस्त प्रतियाँ हों, जला दी जाएँ और तुम्हारे मन में वेदों की जितनी ऋचायें अंकित हैं, वो मिटा दी जाएँ तो वेद अब कहीं नहीं रहेंगे | वेद गए | लेकिन ‘वेद’ फ़िर भी रहेंगे, ग्रन्थ भले ही चले गए | वेद चला गया, वेदना बचेगी और वेदना ही वेद है | ब्रह्मा ही वेद है | ब्रह्मा ने रचना नहीं की वेदों की |
नटराज का जो प्रतीक है, जिसमें शिव नाच रहे हैं, वो इसीलिए बड़ा सारगर्भित है | शिव नाच रहे हैं और शिव का जो नाचना है, वही संसार है | याद रखो, शिव संसार बना नहीं रहे कि बैठे हुए हैं और मिट्टी आई और उस मिट्टी से शिव संसार बना रहे हैं | वो जो नृत्य है, वही संसार है और नृत्य शिव से अलग नहीं | शिव ही संसार हैं | जब शिव ही संसार हैं तो मुर्खता है कि तुम लिंग की स्थापना करो और उसकी पूजा करने जाओ कुछ ख़ास दिनों में | लिंग का अर्थ होता है ‘संकेत’| तुम पूरे-पूरे लिंग ही बन जाओ | ‘शिवोह्म’ – मैं पूरा शिव हूँ | मैं शिव की पूजा नहीं करता, मैं शिव ही हूँ | ‘शिवोह्म’, यही कहा था शंकर ने | जब तक तुम पूजा कर रहे हो तब तक तुमने भेददृष्टि बना रखी है और ये अहँकार है क्योंकि जहाँ सीमा, वहीं अहँकार| आ रही बात समझ में ?
श्रोतागण (एक स्वर में) : जी |
~‘बोध सत्र’ पर आधारित | स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त है |