पारस में अरु संत में, बड़ो अन्तरो जान। वो लोहा कंचन करे, ये कर दे आप समान।। ~ संत कबीर
वक्ता: “पारस और संत में, एक अन्तरो जान, एक लोहा सोना करे, एक कर दे आप समान।”
प्रश्न: जैसा कि आप कहते हैं, कि जितना जल्दी हो सके अपने को पूरा अर्पण कर दो, या ख़त्म कर दो, पर यदि इसे समझेंगे और करेंगे, तो अपने अपूर्ण स्थिति वाले मन से ही करेंगे, क्योंकि कदम उठाने के बाद भय लगने लगता है, और पुनः वापसी की स्थिति में भाग जाते हैं। समर्पण करते भी हैं तो इसी अपूर्ण मन से, तो भय लगता है, और जो कदम उठाया भी होता है, उसे वापस खींच लेते हैं।
वक्ता: कदम उठाने के बाद तुम वही नहीं रह जाते जो तुम कदम उठाने से पहले थे। अपने बाहरी आकार, रूप, रंग पर ना जाओ। तुम्हारा हर कदम तुम्हें बदल रहा है, वो बदलाव तुम्हें दिखाई नहीं देता आँखों से। पर तुम्हारा हर क़दम तुम्हें बदल रहा है। जितनी बार तुम उचित दिशा में क़दम उठाओगे, उतनी बार आगे की राह और आसान हो जाएगी। तुम्हारा एक-एक क़दम निर्धारित कर रहा है कि अगला क़दम आसान पड़ेगा, या मुश्किल।
केंद्र की ओर जो भी क़दम उठाओगे, वो अगले क़दम का पथ प्रशस्त करेगा। और केंद्र से विपरीत जो भी क़दम उठाओगे, वो केंद्र की ओर लौटना और मुश्किल बनाएगा। अभी मीतू ने कहा ना, “जितनी लम्बी अवधि तक यहाँ से दूर रहती हूँ, यहाँ वापस आना उतना ही मुश्किल जान पड़ता है।” यहाँ से जितना दूर जाओगे वापिस आने में उतनी कठिनाई पाओगे। तो इशारा समझ लो – कभी लम्बी दूरी ना बनाना, लौट नहीं पाओगे। जितना क़रीब आओगे, क़रीब आना उतना आसान पाओगे।
फिर ये सारे सवाल विदा हो जाएंगे कि दिक्कत होती है, डर लगता है। समर्पण बहुत आसान है, किसके लिए? समर्पित के लिए। समर्पण बड़ा मुश्किल है, किसके लिए? असमर्पित के लिए। देखना बहुत आसान है, किसके लिए? जो जगता जा रहा है। देखना बड़ा मुश्किल है, किसके लिए? जो सोता जा रहा है। तुम्हारी दिशा किधर को है? अपनी दिशा का ख़याल करो, अंजाम की परवाह मत करो। अंजाम अपनी परवाह खुद कर लेगा। तुम ये देखो कि – “मैं अभी कहाँ पर हूँ, और यहाँ से मेरी क्या दिशा?”
अगला क़दम ठीक उठाओ, उसका अगला अपनेआप ठीक उठ जाएगा। तुम तो अभी के अपने एक क़दम की फ़िक्र कर लो, अगला क़दम अपनेआप ठीक उठ जाएगा। पर मन, मन ही कहाँ, अगर वो खुराफ़ात ना करे। मन, मन ही कहाँ, अगर वो बैठे-बैठे ये ना विचारे कि पाँच क़दम बाद क्या होगा? एक क़दम तू ले नहीं रहा, पाँच क़दम के बाद की गिनती जोड़ रहा है, और तू ये समझ नहीं रहा कि हर कदम तुझे बदल देता है। तो तू अभी बैठे-बैठे ये प्रक्षेपित भी कैसे कर सकता है कि पाँच क़दम बाद तू कैसा होगा?
ये जो मूल सिद्धांत है मन का, इसे बार-बार भूल क्यों जाते हो? अगले क़दम पर तुम, ‘तुम’ नहीं रहोगे।
अक्सर ये सब बच्चे पूछने आते थे, अब इनकी दृष्टि में बड़ा महत्त्वपूर्ण सवाल होता था कि, “सर, अगर सब बुद्ध हो गए, तो संसार कैसे चलेगा?” मैंने कई तरीके से जवाब देकर देखा, कुछ बात बने ना। तो अभी ताज़ा-ताज़ा जब सामने आया, तो मैंने कहा, “ये जब बुद्ध हो जाना, तब पूछना। अभी क्यों फ़िक्र कर रहे हो? अभी तो नहीं हो ना? ये फ़िक्र बुद्धों को करने दो कि संसार कैसे चलेगा? और बुद्ध होकर ये सवाल पूछो। और अगर लगे कि संसार नहीं चल रहा, तो वापि लौट आना। जैसे हो, वैसे ही हो जाना।
रास्ता बंद तो नहीं हो गया लौटने का। ‘बुद्ध होने’ का मतलब है जगना, तो जग जाओ। और जगने के बाद देखो कि ये प्रश्न शेष बचता है या नहीं बचता, कि “संसार कैसे चलेगा?” अगर तब भी ये सवाल बचा हो, तो वापस, जैसे हो, वैसे ही हो जाना।
थोड़ा-सा वो झिझका। बोला, “अच्छा, तो इसका मतलब, बुद्ध इस बारे में सोचते ही नहीं कि संसार कैसे चलेगा?” मैंने कहा, “तुम सोचते हो ना। बुद्धों को क्या करना ये सोच कर? तुम हो तो फ़िक्र करने के लिये। जब तुमने अपने कंधे पर इतना बोझ ले रखा है, तो बुद्ध बेचारे क्या करेंगे? दुनिया चलाने के लिए तुम पैदा तो हुए हो, बुद्ध की क्या ज़रूरत है? तुमसे संसार है, तुम्हीं पर सारा भार है।
अपनी वर्तमान स्थिति में बैठ कर, तुम हिसाब लगा रहे हो कि – बुद्ध कैसा होता है? (गुडगाँव शहर के एक विश्वविद्यालय में वहाँ के छात्रों के साथ हुए ‘संवाद’ का ज़िक्र करते हुए) अभी गुड़गाँव गया था, वहाँ कोई पूछ रहा था, “बुद्ध को कैसे आत्म-ज्ञान प्राप्त हुआ?” अब जो पूछ रहा है, मैं उसको भी देख रहा हूँ, उसकी शक्ल भी देख रहा हूँ, और ये भी देख रहा हूँ कि इसको क्या समझ में आ सकता है। तो मैंने कहा, “वैसे ही हुआ, जैसे मुल्ला नसरुद्दीन को मलेरिया प्राप्त हुआ। जब प्राप्त होता है, तो कुछ भी प्राप्त हो सकता है| ज्ञान भी बाहर से आ रहा है, मलेरिया भी बाहर से आ रहा है; मिल गया।”
बोला, “ऐसे थोड़ी।” मैने कहा, “ऐसे ही।” प्राप्त ही तो होना है, आत्म-ज्ञान – हो गया प्राप्त। अपनी मानसिक स्थिति में, तुम कैसे जानोगे कि ‘बुद्ध’ माने क्या? पर सवाल तुम्हारे बुद्ध से नीचे के होते नहीं। ज़मीन पर बैठे-बैठे तुम आकाश नाप लेना चाहते हो। एक क़दम लेते नहीं और शिखर पर क्या है, इसका क़यास लगाते रहते हो। ‘बुद्ध’, ‘ब्रह्म’, इससे नीचे की तो तुम बात ही नहीं करते। और निजी ज़िंदगी में क्या चल रहा है, रोज़मर्रा? क्षुद्रता। किसी के दो रूपये चुरा रखे हैं, कहीं छुप के बैठे हुए हो, नज़र मिला नहीं पाते।
अरे ज़रा अपनी हक़ीकत पर ध्यान दो ना। क्यों ऊँची-ऊँची बातें करते हो? मगर बात वहाँ की करेंगे, सातवें आसमान की। बात कर रहे हैं ‘ब्रह्म’ की, और ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’, और नज़र है कि पड़ोसी के दस रूपये मार लें किसी तरीके से।
जहाँ हो, उसके बारे में ईमानदार रहो, और वहीं से एक क़दम उठाओ, बस इतना। आगे-पीछे की बहुत मत सोचो।
~ ‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।