प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मैं आपको पिछले दो साल से सुन रही हूँ। मेरा पढ़ाई के प्रति बचपन से कभी रुझान नहीं रहा है। मेरे लिए पढ़ाई एक बोझ की तरह रही है। जब अठारह-उन्नीस साल हुए तो लगा कि जीवन यापन के लिए थोड़ा कमाना भी ज़रूरी होता है। तो मैंने जितना ज़रूरी था उतना पढ़कर किसी तरह एक परीक्षा पास कर लिया सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए। अब स्थिति ये आ गयी है कि पूरा जीवन आगे पड़ा हुआ है और मुझे कुछ भी नहीं आता है। मतलब विषय का ज्ञान है। पर वो नॉलेज उतनी गहरी नहीं है कि एक रुचि उसमें विकसित हो जैसे लोगों का होता है।
तो मेरा यही प्रश्न है कि पढ़ना क्यों ज़रूरी है किसी भी इंसान के लिए। जो एक पढ़ाई एक ढाँचा तैयार किया जाता है कि आपको पढ़ना ही होता है। ये विषय का ज्ञान क्यों ज़रूरी है? मुझे तो बोझ लगता है।
आचार्य प्रशांत: हम इसको मूलभूत तरीके से लेते हैं। दो होते हैं न हम। एक तो देह, एक चेतना। देह को खाना चाहिए, कपड़ा चाहिए, कुछ सुविधाएँ चाहिए, सिर पर छत चाहिए। वो क्यों मिले आपको? कहाँ से आ जाएँगी? कोई क्यों दे-दे आपको? या तो आप कह दीजिए कि वो सब नहीं चाहिए या फिर ये कह दीजिए कि वो सब मैं स्वयं ही जंगल से जुगाड़ लूँगी। पर अगर आपको, अब ये है, ये कुर्ता आपको चाहिए तो किसी ने बनाया होगा न वो आपको ये क्यों दे दे? ये माइक आपको चाहिए किसी ने बनाया होगा न वो आपको क्यों दे दे? उसने श्रम लगाया इसमें अपना जीवन लगाया है वो आपको ये क्यों दे दे?
तो या तो हम ऐसे हो जाएँ कि हम स्वयं ये माइक बना लेंगे। या हम ऐसे हो जाएँ कि हमें दिखाई दे कि हमें माइक की ज़रूरत नहीं तो हम किसी से माँगने ही नहीं जाएँगे, खरीदने ही नहीं जाएँगे। पर अगर हमें ज़रूरत है और हम खुद उसको बना नहीं सकते तो हमें किसी के पास जाना पड़ेगा। जहाँ हम जाते हैं उसको बाज़ार कहते हैं।
बाज़ार में जो कुछ भी है उसको किसी ने अपनी मेहनत से बनाया है। आप बाज़ार में अनाप शनाप चीज़ें न भी खरीदें तो कुछ तो खरीदेंगे। आप अपना अन्न खुद तो उगाते नहीं हैं अब, है न। कपड़े भी खुद नहीं बुनते। कपास आपने नहीं उगाया, लूम आपने नहीं चलाया कि फिर जितनी भी डाइंग (कपड़ों की रंगाई) से लेकर आगे की प्रक्रिया होती है आपने नहीं करी। लेकिन कपड़े तो आपको पहनने हैं। वो कपड़ा कोई क्यों देगा? तो वो तब देगा जब आप भी उसे बराबर का कुछ दे सकें। बार्टर (वस्तु विनिमय), है न। आप उसे बराबर की कोई चीज़ कैसे दे पाएँगी अगर आपके पास संसार का कुछ ज्ञान ही नहीं है। मैं अभी फॉर्मल एजुकेशन की बात कर रहा हूँ, आध्यात्मिक शिक्षा की नहीं।
अगर आपने जो संसार की फॉर्मल एजुकेशन है, औपचारिक शिक्षा है, वो ली ही नहीं है। और आप किसी के पास गयी हैं कि मुझे एक स्वेटर दे दो। तो कहेगा, ‘मैं दे दूँगा देवी जी। लेकिन आप भी तो मेरी कुछ सहायता करिए।’ और ये बात तो न्यायसंगत है, इसमें तो कुछ गलत नहीं है। इसमें कहीं कुछ हिंसा या क्रूरता नहीं है। वो कहेगा, ‘देखिए, बिलकुल ठीक बात है कि मैं आपको ये स्वेटर दे दूँ। लेकिन मेरी भी कुछ जायज़ ज़रूरतें हैं। आप भी मुझे कुछ दीजिए न।’ आप उसे कैसे देंगी अगर आपके पास संसार का कुछ ज्ञान ही नहीं है तो?
आपके पास भी तो कुछ भौतिक होना चाहिए न अगर आपको कुछ भौतिक चाहिए किसी से। या फिर आपके पास कुछ बहुत ही अद्भुत और पराभौतिक, अलौकिक हो जो आप उसको दें और वो कहे, ‘ठीक है, आपने जो मुझे चीज़ दी वो मैं खा-पहन नहीं सकता लेकिन फिर भी वो इतनी ऊँची चीज़ है कि उसके बदले में मैं आपको स्वेटर दिये देता हूँ।’ तो इसलिए सांसारिक ज्ञान चाहिए होता है।
उपनिषद् कहते हैं, ‘अविद्या भी आवश्यक है।’ बल्कि वो कहते हैं कि जिनके पास विद्या नहीं होती वो जाकर के अन्धे कुएँ में गिरते हैं। और फिर जैसे मुस्कुराकर के अगले ही श्लोक में कहते हैं, ‘जिनके पास अविद्या नहीं होती वो और ज़्यादा गन्दे और गहरे कुएँ में गिरते हैं।’ जिनके पास आध्यात्मिक ज्ञान नहीं होता वो गहरे कुएँ में गिरते हैं। लेकिन जिनके पास सांसारिक ज्ञान नहीं होता वो और ज़्यादा गहरे कुएँ में गिरते हैं।
वजह यही है। अगर आपके पास अपनी मूलभूत शारीरिक ज़रूरतों को भी पूरा करने के लिए भी ज्ञान नहीं होगा तो आप अध्यात्म को ध्यान और समय कैसे दे पाएँगे? अब ये थोड़ी सी तलवार की धार पर चलने वाली बात है। एक ओर तो आपको सांसारिक ज्ञान इतना होना चाहिए कि आपकी मूलभूत, शारीरिक और सामाजिक आवश्यकताएँ पूरी होती रहें ताकि आप ज़िन्दगी में, सार्थक, ऊँचे उद्देश्य पर अपना समय ध्यान लगा सकें। दूसरी ओर ये भी देखना होता है कि शरीर की ही माँगें पूरी करने में कहीं हम खप ही न जाएँ कि यही करते रह गये, पैसा ही कमाते रह गये।
जो लोग पैसा ही कमाते रह जाते हैं मैं उनसे कहता हूँ, ‘जीवन बर्बाद कर रहे हो। जीवन पैसा कमाने के लिए नहीं है। कुछ ऊँचा और सार्थक होना चाहिए जीवन में।’ और जो लोग पैसा एकदम नहीं कमा रहे होते मैं उनसे कहता हूँ, ‘अगर तुम इतना भी नहीं कमा रहे हो कि स्वावलम्बी होकर अपने खर्चे खुद चला सको तो तुम आध्यात्मिक भी नहीं हो पाओगे।’ जो आर्थिक रूप से गुलाम है वो आन्तरिक रूप से मुक्त नहीं हो सकता।
तो ये दोनों चीज़ों को ध्यान में रखते हुए एक विवेकपूर्ण संतुलन बनाना पड़ता है। माँगें कम रखो, खर्चे कम रखो लेकिन जितने अपने खर्चे हों उनको चलाने के लिए कमाओ ज़रूर। और अगर कमाना है तो सांसारिक ज्ञान चाहिए। उसी के लिए हमारी पूरी ये औपचारिक शिक्षा, फॉर्मल एजुकेशन होती है जो आप बचपन से लेकर कॉलेज तक पढ़ते हैं। उसका लाभ यही है वो सब पढ़ोगे तो अपना खर्चा-पानी निकाल पाओगे। बस इतना ही है। उसको लेकिन अगर आपने कुछ और बना लिया तो वो उस शिक्षा का दुरुपयोग है। आप सोचने लगे कि आप बीकॉम , बीएससी , बीटेक वगैरह कुछ करें या पीएचडी कर लें तो उससे आप आन्तरिक रूप से भी बहुत ऊँचे आदमी बन जाएँगे। तो ऐसा नहीं होने का।
विद्या-अविद्या दोनों चाहिए। अविद्या विद्या की जगह नहीं ले सकती। अविद्या माने क्या? यही सांसारिक भौतिक शिक्षा, फॉर्मल एजुकेशन, एजुकेशन ऑफ़ द मटीरियल, एजुकेशन ऑफ़ द वर्ल्ड। दोनों चाहिए होते हैं। उपनिषद् विज्ञान का स्थान नहीं ले सकते। और विज्ञान आप कितना भी पढ़ लो अगर उपनिषद् नहीं पढ़े हैं तो जीवन व्यर्थ जाएगा। दोनों एक साथ चाहिए होते है।
तो उपनिषद् स्वयं कहते हैं कि जिसके पास विद्या और अविद्या दोनों हैं, वो मृत्यु को पार करके अमर हो जाता है। लेकिन जो कोई ऐसा फँसा कि उसके पास सिर्फ़ विद्या है या सिर्फ़ अविद्या है वो गहरे कुएँ में जाकर गिरता है।
दोनों होने चाहिए।
भारत के साथ ये थोड़ी सी विडंबना रही है कि यहाँ अध्यात्म का मतलब ही बन गया सांसारिक अकर्मण्यता। लोगों के मन में न जाने कैसे छवि बन गयी है कि आध्यात्मिक आदमी तो सांसारिक रूप से निठल्ला हो जाता है! ‘वो दुनिया के अब किसी काम का नहीं रह जाता।’ ये बिलकुल बेहूदा और गलत बात है।
दुनिया में कुछ भी अच्छा अगर आपको करना है तो आपको आध्यात्मिक होना पड़ेगा। किसी भी क्षेत्र में आप कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो आपको आध्यात्मिक होना पड़ेगा। चाहे वो विज्ञान का क्षेत्र हो, चिकित्सा का क्षेत्र हो, शिक्षा का क्षेत्र हो। कुछ भी अगर आपको करना है राजनीति का क्षेत्र हो, न्यायपालिका, वकालत का क्षेत्र हो। जितने भी क्षेत्रों में मनुष्य की गतिविधि है उसमें अगर आपको कुछ अच्छा करना है तो आपको आध्यात्मिक होना ही पड़ेगा। आप एक अच्छे चिकित्सक नहीं हो सकते आध्यात्मिक हुए बिना। आप एक अच्छे न्यायाधीश नहीं हो सकते आध्यात्मिक हुए बिना। आप एक अच्छे राजनेता नहीं हो सकते आध्यात्मिक हुए बिना। आप एक अच्छे इंसान ही नहीं हो सकते आध्यात्मिक हुए बिना। तो इसलिए दोनों चाहिए होते है। लेकिन वही पढ़ाई करो और उतनी ही पढ़ाई करो जितनी अपने जीवन-यापन के लिए चाहिए हो। व्यर्थ का सांसारिक ज्ञान दिमाग में भरने से कोई लाभ नहीं होगा।
जिस क्षेत्र में जीवन-यापन करना हो उस क्षेत्र का पूरा ज्ञान लो। उसको डूबकर पढ़ो और एक के बाद एक डिग्रियाँ सिर्फ़ इसलिए नहीं बटोरते रहो कि ये सम्मान की बात है या इससे करियर बन जाएगा। पढ़ो ज़रूर, जितना पढ़ो अच्छे से डूबकर पढ़ो। और ये याद रखो कि औपचारिक शिक्षा, आध्यात्मिक शिक्षा का विकल्प नहीं हो सकती। कुछ स्पष्ट हुई है बात या कुछ और पूछना है?
प्रश्नकर्ता: हाँ, सर। जैसे पढ़ाई का आपने बताया कि करना चाहिए तो मैं कोशिश करती हूँ पढ़ने की। वो एक हफ़्ते तक रहता है ट्यूनिंग उसके साथ, फिर मेरा मन हट जाता है। फिर मतलब पता नहीं क्या होता है कि क्वेश्चन सॉल्व हो रहे हैं, समझ में आ रहा है, नम्बर आ रहे हैं पर मन नहीं करता है।
आचार्य प्रशांत: वो जो आप क्वेश्चन सॉल्व कर रही हैं, उसमें स्वेटर लिखा है कहीं?
प्रश्नकर्ता: नहीं।
आचार्य प्रशांत: इसलिए तो वो सवाल पूरा नहीं है न। उस पूरे सवाल में अन्त में ये भी लिखा होना चाहिए इसी सवाल से स्वेटर मिलेगा। वरना बताओ न अगर तुमको वो ज्ञान नहीं है तो तुम्हें कोई स्वेटर क्यों दे?
प्रश्नकर्ता: पर स्वेटर तो सर अभी भी हम पहने ही हुए हैं न। (श्रोतागण हँसते हैं)
आचार्य प्रशांत: कैसे आया?
प्रश्नकर्ता: सर, वही मैं कह रही हूँ, उतना तो मैंने किसी तरह कर ही लिया है।
आचार्य प्रशांत: तो अगर उतने में संतोष हो गया है तो आगे मत पढ़ो।
प्रश्नकर्ता: सब वही कह रहे हैं कि आगे के जीवन का क्या ही करेंगे? कुछ समझ में नहीं आता है।
आचार्य प्रशांत: स्वेटर चाहिए या नहीं चाहिए?
प्रश्नकर्ता: वही तो कह रहे हैं, स्वेटर तो है। रोटी, कपड़ा, मकान जो बोलते हैं वो है मेरे पास।
आचार्य प्रशांत: अगर ईमानदारी से ये लग रहा है कि रोटी, कपड़ा, मकान और अपनी आवश्यकताओं, बाकी ज़रूरतों के लिए कमा-खा लोगे जितनी शिक्षा है उतने में ही तो मत पढ़ो आगे।
प्रश्नकर्ता: पर जो एक टैबू बना दिया गया है कि अरे तुमको तो ये भी नहीं आता, साइंस भी नहीं आती है, ये भी नहीं आता।
आचार्य प्रशांत: तो सबकुछ किसी को भी नहीं आता है।
प्रश्नकर्ता: पर सब किसी को आता है तो उसका उदाहरण लेकर बताया जाता है।
आचार्य प्रशांत: नहीं, किसी को भी नहीं आता। किसका (उदाहरण) लेकर बताएँगे?
प्रश्नकर्ता: सर, आपको तो सब आता है।
आचार्य प्रशांत: नहीं, मुझे नहीं आता। एकदम नहीं आता है।
प्रश्नकर्ता: आपने इतने बड़े-बड़े एग्ज़ाम निकाले हैं।
आचार्य प्रशांत: नहीं, मेरी किसी भी एग्ज़ाम में कोई ऑल इंडिया वन रैंक तो आयी नहीं थी। तो कुछ गलतियाँ करी होंगी तभी नम्बर कटे होंगे। तो सबकुछ तो नहीं आता।
प्रश्नकर्ता: तो वही है एक को लगता है कि पढ़ना चाहिए, एक को लगता है कि नहीं पढ़ना चाहिए।
आचार्य प्रशांत: स्वेटर। (श्रोतागण हँसते हैं)
प्रश्नकर्ता: स्वेटर तो सर, पहने हुए हैं। (श्रोतागण हँसते हैं)
आचार्य प्रशांत: कब तक चलेगा? अगला कहाँ से आएगा? अब आप समझ रहे हैं न मेरे लिए कितनी मुश्किल है। जो मिंक कोट पहनकर घूम रहे हों उनसे मैं बोलता हूँ, ‘ये तुम क्या ज़िन्दगी बर्बाद कर रहे हो? फर का कोट ही खरीदते रह जाओगे।’ और दूसरी ओर मुझे ये याद दिलाना पड़ता है कि स्वेटर चाहिए है न।
दोनों बातें बोलनी पड़ती हैं इसीलिए कल उन्होंने (एक श्रोता की ओर संकेत करते हुए) पूछा था कि आपकी बातें विरोधाभासी हो जाती हैं, कभी बोलते हो। (श्रोता को सम्बोधित करते हुए) अब समझ रहे हो क्यों हो जाती हैं? गुलामी करनी पड़ेगी अगर खुद नहीं कमाओगे। और खुद नहीं कमा सकते बिना ज्ञान के, बिना शिक्षा के।
प्रश्नकर्ता: सर, गुलामी तो नौकरी करके भी है।
आचार्य प्रशांत: वो तो फिर भी थोड़ी अधिकार की गुलामी है जिससे त्यागपत्र दे सकते हो। वो एक दूसरी गुलामी होती है। वहाँ से त्यागपत्र भी नहीं दे पाओगे, बंधुआ मज़दूर बन जाओगे। एक तो पढ़ाई की बात आते ही सब रुआँसे हो जाते हैं (श्रोतागण हँसते हैं)। मैं नहीं कह रहा हूँ कि ज़बरदस्ती डिग्रियाँ इकट्ठा करते रहो। नहीं, डरो मत। लेकिन मूलभूत शिक्षा लेनी ज़रूरी होती है। कुछ बातें हैं दुनिया की, जो नहीं पता होंगी तो पूरे इंसान भी नहीं बन पाओगे। वो बातें पता होनी ज़रूरी हैं।
ये भी मैं जानता हूँ कि हमारी जो स्कूल, कॉलेज की जो फॉर्मल एजुकेशन है, वो सारी बातें नहीं बतातीं। तो फिर मैं कहता हूँ, आपके पास ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन सब हो गया है। उसके बाद भी आप स्वाध्याय करते रहिए, सेल्फ़ एजुकेशन। अपनेआप पढ़ते रहा करिए। अब तो इंटरनेट है, ओपेन सोर्स एजुकेशन (शिक्षा के खुले स्रोत) है, पढ़ते रहो। ये सारी गलती स्वेटर की है। ये आपको ज़्यादा आसानी से मिल गया है। इसलिए आपको समझ में नहीं आ रहा कि शिक्षा का महत्व क्या है।
प्रश्नकर्ता: यही बात है।
आचार्य प्रशांत: अगले शिविर में नहीं आने दिये जाओगे। ये लोग डोनेशन माँगते हैं। कमाओगे नहीं तो डोनेशन कहाँ से दोगे? न शिविर में आ पाओगे, न मेरे हाथ मज़बूत कर पाओगे। कमाओगे नहीं तो संस्था को भी कैसे दोगे बताओ?
प्रश्नकर्ता: सर, वहीं नौकरी भी करनी है, गुलामी भी रहती है और पैसे भी चाहिए तो सर।
आचार्य प्रशांत: देखो, गुलामी तब होती है जब अनाप-शनाप और ज़बरदस्ती से कमाने की कोशिश करो। दुनिया इतनी भी बुरी नहीं है कि तुम चाहकर भी कोई अच्छा काम न ढूँढ पाओ। चाहोगी तो मिल जाएगा। गुलामी लालच करवाता है।
प्रश्नकर्ता: सर, मुझे जो समझ में है, वो ये समझ में आ रहा है कि कुछ व्यवस्थाएँ हैं। निर्धारित कर दी गयी हैं। और हम लोगों को कहा जाता है कि आप ट्राई करते रहिए, आप ट्राई करते रहिए और ट्राई करते रहिए और ट्राई करते रहिए। और मुझे पता नहीं इस कॉन्सेप्ट से चिढ़ हो गयी है तो मुझे इसलिए पढ़ाई से चिढ़ हो गयी है।
आचार्य प्रशांत: स्वेटर (हँसते हुए)। मत करो फ़िजूल ट्राई मत करो। पर इतना कर लो कि अपने पाँव पर खड़े हो सको, आर्थिक रूप से मुक्त रहो। बस इतना कर लो। ये नहीं समझ में आ रही बात? इतना तो करोगे न, नहीं तो किससे माँगने जाओगे? और जो देगा वो बड़ी भारी कीमत वसूल करके देगा।
प्रश्नकर्ता: सर, इसीलिए नौकरी करनी है।
आचार्य प्रशांत: हाँ, अब ढूँढते रहो। और बेहतर चीज़ें ढूँढते रहो जीवन में।
प्रश्नकर्ता: ठीक है।
आचार्य प्रशांत: कहीं टिक नहीं जाना और अच्छा ढूँढो। कोशिश करोगे अच्छा मिल जाएगा।
प्रश्नकर्ता: थैंक यू, सर।