न रोने में, न हँसने में || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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न रोने में, न हँसने में || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ |

मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ||

वक्ता: जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ|

‘रोने’ और ‘हंसने’ से अर्थ क्या है? समझेंगे थोड़ा| एक ही बल है; राम का बल, आत्मबल, परम का बल, पूर्ण का बल, स्रोत का बल| मन जब रो रहा है, तब मन कह रहा है कि वो परम है ही नहीं| ये मन की धारणा है| मन जब रो रहा है तब मन की धारणा है कि वो परम है ही नहीं| अन्यथा रो कैसे सकता था? एक रोता हुआ मन बड़ा नास्तिक होता है| रोने का अर्थ ही है कि कुछ कम हो गया, कुछ खो गया| और जिसके पास, वो पूर्ण है, वो परम है वो कैसे कह देगा कि कुछ खो गया, कुछ कमी आ गई, नुकसान हो गया? रोने का अर्थ ही यही है कि तुमने इधर-उधर की चीजों को बहुत महत्वपूर्ण मान रखा था| अब जब वो खो गईं हैं, तो तुम रोए पड़े हो| जो असली है, वो तो खो सकता नहीं| तो इस कारण जो असली के साथ रहेगा, उसको कभी रोने की स्थिति आएगी ही नहीं|

जो रोऊँ तो बल घटै…

रोने का अर्थ ही यही है कि जो असली बल था, तुम उससे दूर हो गये हो| वरना रोते कैसे? ध्यान दीजियेगा| रोने वाले मन की क्या धारणा है? परम है ही नहीं| अब आते हैं हंसने वाले मन पर| हंसने वाले मन की दूसरी धारणा है| हंसने वाले मन की धारणा है कि परम कोई वस्तु है| हंसने वाले मन की धारणा है कि परम कोई वस्तु है जो मुझसे बाहर है और जिसे प्राप्त किया जा सकता है| और मैंने उसे प्राप्त कर लिया है, अब मैं हंस रहा हूं| घूम-फिर कर बात ये वही कह रहा है जो रोता हुआ मन कह रहा है, पर कहने में अभी भी अंतर है|

हंसता हुआ मन कह रहा है, ‘परम को पा लिया’| ‘है’ परम| क्या है परम? किसी का ज़िस्म परम है| बाज़ार में बिकता सामान परम है| समाज से मिली इज़्ज़त परम है| अपने लक्ष्यों को पा लेना परम है| रूपया परम है; और मैंने इसको पा लिया, और पा लिया तो बड़ी हंसी आ रही है, बड़ा अद्भुत सा लग रहा है| रोने वाला मन कह रहा है, परम है ही नहीं| हंसने वाला मन कह रहा है, वस्तु ही कोई परम है, और दोनों को सिर्फ भरम है|

जो रोऊँ तो बल घटै…

बल का घटना लाज़मी है क्योंकि सब कुछ तुम्हारी धारणाओं पर ही तो है| वो तो सदा ही उपलब्ध है| तुम उसको धारण करते हो या नहीं, ये तुम पर है| तुमने यदि धारणा ही बना रखी है कि सत्य जैसा, कुछ होता ही नहीं, मात्र संसार ही सब कुछ है, तो अब कहां से पाओगे बल? अब अगर ज़िंदगी डरी-डरी और कमज़ोर बीते, तो इसमें ताज्जुब क्या है? रोते रहोगे, शिकायतें करते रहोगे, ताकत नहीं रहेगी, क्योंकि जो भी ताकत होती है, वो तुम्हारी तो होती नहीं है| वो तो उसी की होती है| उसकी ताकत तुम्हें उपलब्ध होगी ही नहीं, जब कह दोगे कि वही नहीं है| वही है ताकत का स्रोत, और तुमने उसके ही होने से, इंकार कर दिया| तो अब तुम बलहीन ही तो रहोगे ना?

जो रोऊँ तो बल घटै…

तुम रोये नहीं कि तुम नास्तिक हो गये| और नास्तिक के पास बल कहाँ से आएगा?

हँसो तो राम रिसाइ |

किस ख़ुशी में हंसते हो? इसी ख़ुशी में हंसते हो ना कुछ मिल गया? ‘कुछ मिल गया’, कहने का अर्थ ही यही है कि वो पहले से ही मिला हुआ नहीं था| ये भी घोर नास्तिकता है| रोना जितनी बड़ी बेहूदगी है, हंसना उतना ही बड़ा पागलपन| क्योंकि हंसने का अर्थ ही है कि मन को उसकी इच्छित वस्तु मिली| तभी तो हंसता है मन| मन ने कुछ वस्तुओं को ही परम का पर्याय मान लिया| पर्याय ही नहीं, विकल्प मान लिया| भूल में मत रहिएगा, ये पहले भी कहा है, दोहरा रहा हूं| हंसने में कोई बड़ी बात नहीं है| हंसना कुछ विशेष नहीं है, और उसमें कोई गुणवत्ता नहीं है| जिन्होंने जाना है, उन्होंने साफ़-साफ़ देखा है कि एक ही द्वैत के दो सिरे हैं रोना और हंसना| पर चूंकि हम प्लेजर सीकिंग लोग हैं, इसलिये हमने हंसने को बड़ी उपलब्धि मान रखा है, और हम बार-बार कहते हैं, ‘सदा हंसते रहो’| कोई रो रहा होगा, तो हम उससे पूछेंगे, ‘क्या हो गया, क्या बीमारी है?’ और अगर कोई आकारण ही, व्यर्थ ही हंसता रहता हो, तो हम उससे पूछते ही नहीं की क्या बीमारी है| क्यों हंसे जा रहे हो? हंसना उतनी ही बड़ी बीमारी है जितना बड़ा रोना|

जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ |

जितना हंसोगे, राम उतना दूर होगा तुमसे| हंसी को बड़ा मूल्यवान मत मान लीजियेगा| जब मैं कह रहा हूं कि हंसी में मूल्य नहीं है, तो इसका अर्थ ये नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि रोइये| ना हंसना है ना रोना है, शांत होना है| हंसी भी एक तनाव है| ठीक उतना ही बड़ा तनाव, जितना बड़ा रोना| हंसी उतनी ही बड़ी बीमारी है, जितना बड़ा रोना| हर द्वैत के साथ यही है| उसके एक सिरे पर बल घटेगा, और दूसरे सिरे पर, राम रिसाएगा; और जो इन दो सिरों के बीच में फंसा है, उसकी वही स्थिति रहेगी कि

…ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ |

बाहर-बाहर से वो हो सकता है कि साबुत दिखाई दे पर उसका दिल छलनी हो चुका होगा, जैसे की काठ, जिसे घुन लग गया हो| कभी घुन खाई लकड़ी देखी है? बाहर-बाहर से ऐसा लगेगा ठीक है, पर ज्यों ही उस पर ज़रा ज़ोर पडेगा, ज्यों ही स्थितियां उसकी ज़रा परीक्षा लेंगी, वो चरमरा कर टूट पड़ती है| उसमें कोई दम नहीं होता| उसकी अपनी कोई ताकत नहीं होती| जो लोग सिर्फ सतह देख पाते हैं, जो लोग सिर्फ स्थूल को देख पाते हैं, वो तो घुन खाई लकड़ी को भी स्वस्थ ही समझेंगे| वो तो यही कहेंगे कि सब ठीक है, सामान्य है, बढिया तो है| ‘चिकना चेहरा है, दो आंखे हैं, एक नाक है, क्या दिक्कत है?’ उन्हें ये दिखाई ही नहीं देगा कि इसके दिल में, सुराख ही सुराख हैं, जैसे घुन खाई लकड़ी|

यही हालत तो है हम सब की; ‘घुन खाई लकड़ी’, छेद ही छेद हैं, छेद ही छेद| हिस्से ही हिस्से हैं और घुन लगा हुआ है, और वो खाए जा रहा है, चाटे जा रहा है| और वो बड़ा चालाक घुन है; अंदर-अंदर चाटता है, बाहर से कुछ पता ही नहीं चलता| चहरे पर एक मुँहासा हो जाए, तो दिखाई तो देता है| यहां तो मन टुकड़े-टुकड़े हुआ पड़ा है, पर दिखाई नहीं देता| बीमारी आंखो से प्रकट नहीं होती|

एक ही इलाज है; ना इधर के रहो, ना उधर के रहो| इसी द्वैत से उठ जाने को बुद्ध ने, ‘मध्यम मार्ग’ कहा है| ‘मध्यम मार्ग’ का मतलब ये नहीं है कि इसके और उसके बीच में आ कर बैठ गए| ‘मध्यम मार्ग’ का अर्थ यही है कि ‘ना हंसना है, ना रोना है’| पागल मत बन जाइएगा कि बुद्ध कह रहें हैं कि बीच की किसी हालत में रहना है, ‘मध्यम मार्ग है भाई’! या थोड़े समय के लिये हंसना है और थोड़े समय के लिये रोना है|

मध्यम मार्ग का अर्थ है, द्वैत के ना इस सिरे पर हैं, ना उस सिरे पर हैं| ना इस ध्रुव पर हैं, ना उस ध्रुव पर हैं| हम किसी और आयाम में हैं| हम उस तल पर हैं ही नहीं जिस तल पर हंसा जाता है या रोया जाता है| हम किसी और तल पर पहुँच गए हैं|

ना खोने का अफ़सोस मनाइए, ना पाने का जश्न क्योंकि ना कुछ खोने के लिये है, ना कुछ पाने के लिये है| खोने का अफ़सोस भी पागलपन है, और पाने का जश्न भी बेहूदगी| और आदमी का जीवन इन्हीं दो चीजों में बीतता है| सारी कोशिश ही यही है; या तो कुछ खो ना जाए, या फिर कुछ पा लूं| दो ही तो चेष्टाएं होती हैं हमारी- दुःख से बचो, सुख को पाओ| दुःख से बचो, सुख को पाओ- इन दो के अलावा, हमारी कोई तीसरी चेष्टा नहीं होती है| और ये दोनों ही चेष्टाएं मन की इसी धारणा से निकलती हैं कि वो परम, या तो है नहीं, या वो कोई वस्तु है जिसे मैं हासिल कर सकता हूं|

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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