प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। आपने पिछले सत्र में बताया कि जीवन यदि सही है तो ध्यान की किसी विधि की अलग से ज़रूरत नहीं होती। अभी मेरे दिन का ज़्यादातर हिस्सा काम के अलावा ‘ओशो’ के प्रवचन सुनने और उनकी विधियों के अभ्यास की कोशिश में व्यतीत हो रहा है। कृपा करके समझाने की अनुकम्पा करें कि दिनचर्या को किस तरह से रूपान्तरित किया जाए जिससे वह समझ बन सके जो अभी नहीं है।
आचार्य प्रशांत: जो प्रवचन इत्यादि तुम सुनते हो विषि (प्रश्नकर्ता), वो तुम काम से जो घंटे बच गये, उनमें सुनते हो न? काम क्या है और क्यों कर रहे हो, इस पर तो तुम कोई बात ही नहीं करना चाहते। तुम कह रहे हो, ‘काम कर लेता हूँ, काम के अलावा समय बचता है तो उसमें कुछ प्रवचन वगैरह सुन लेता हूँ।’ काम का मतलब समझते हो? एक ही जायज़ काम है, एक ही असली काम है। बँधे हुए को कोई दूसरा काम शोभा नहीं देता बेड़ियाँ तोड़ने के अलावा।
तो उसके अलावा न जाने कौनसा काम कर रहे हो, और उसमें कितना तुम समय बिता रहे हो। फिर जो उससे इक्का-दुक्का घंटे बच जाते हैं, उनमें तुम कहते हो कि ध्यान करते हो, ध्यान की विधियों का अभ्यास करते हो।
पाँच-प्रतिशत, दस-पन्द्रह प्रतिशत समय तुमने ध्यान को दे दिया, सत्संग को दे दिया। अस्सी-नब्बे, पिच्चानवे-प्रतिशत समय कहाँ दे रहे हो, क्यों दे रहे हो उसकी तुम बात ही नहीं करना चाहते। वही जीवन है, समय ही तुम्हारी सम्पदा है, समय ही तुम्हारा सहारा है। समय का ही सदुपयोग करके तुम्हें पार जाना है।
पिच्चासी-नब्बे-प्रतिशत समय है अगर अपनी जाग्रत अवस्था का तुम रोटी कमाने में गुज़ारते हो तो इसका मतलब तुम्हारी चेतना में नब्बे-प्रतिशत महत्व किसका है फिर?
प्रश्नकर्ता: रोटी का।
आचार्य प्रशांत: रोटी का। रोटी किसके लिए होती है? पेट के लिए। तो पेट केन्द्रित जीवन जी रहे हो फिर। अगर तुम कहो कि काम में बहुत समय निकल जाता है। तो मैं पूछूँगा, ‘उस काम का उद्देश्य क्या है? उस काम का परिणाम क्या है? फल क्या है? आउटपुट क्या है? ले-देकर के उस काम से तुम पाते क्या हो?’ तुम कहोगे, ‘ये पाते हैं कि खर्चा-पानी चलता रहता है।’ तो यानि नब्बे-प्रतिशत जीवन तुम सिर्फ़ पेट चलाने के लिए गँवा रहे हो। और फिर तुम कहते हो, ‘ध्यान नहीं लगता।’ ध्यान काहे को लगेगा?
अरे! घंटा-दो-घंटा पेट चलाने के लिए कोई श्रम कर ले, उद्यम कर ले तो बात समझ में आती है। कि चौबीस घंटे में से एक-दो घंटा वो काम किया जो सिर्फ़ पेट चलाने के लिए है। चौबीस घंटे में से एक-दो घंटा सिर्फ़ वो किया जो भौतिक ज़रूरतों को पूरा करने मात्र के लिए है, और बाकी समय असली काम किया, तब बात बनती है।
ऐसे थोड़े ही कि नब्बे-प्रतिशत समय तो बस पेट चला रहे हो, और असली काम हो रहा है सिर्फ़ दस पैसे में। तो फिर उसमें दस पैसे जितना ही फल भी आएगा। क्यों परेशान हो? और अब राज़ की बात सुनो। जो असली काम करते हैं नब्बे-प्रतिशत समय, वो पाते हैं कि असली काम से रोटी का इंतज़ाम भी हो जाता है अपने आप। असली काम में लग जाओ तो रोटी की अलग से व्यवस्था भी नहीं करनी पड़ती। रोटी अपने आप मिलनी शुरू हो जाती है। पर नहीं, यहाँ तो रोटी केन्द्रित जीवन चल रहा है, पेट केन्द्रित जीवन चल रहा है।
और अगर तुम विरोध करना चाहते हो, तुम कहना चाहते हो, ‘नहीं! मैं जहाँ भी, जिस भी कम्पनी में काम करता हूँ, वहाँ पेट और रोटी के लिए नहीं जाता।’ तो फिर मुझे बताओ तुम किसलिए जाते हो? क्या मिल रहा है वहाँ पर? आत्मिक सुख मिल रहा है? प्रेम के लिए जाते हो? समाधि के लिए जाते हो? वहाँ किसलिए जाते हो? रुपये के लिए जाते हो। प्रमाण ये है कि आज कम्पनी कह दे कि रुपये नहीं देंगे, तुम कल से जाना बन्द कर दोगे। ज़िन्दगी पेट और रोटी और शरीर की तृप्ति के लिए कट रही है, और तुम कह रहे हो, ‘ध्यान करता तो हूँ, लाभ क्यों नहीं हो रहा?’ कितना करते हो?
पुरानी कहावत है। जितनी चीनी घोलोगे, पानी उतना मीठा होगा। तुमने कितनी घोली भाई! दस दाने मिले थे, उसमें से एक दाना डालते हो, बाकी नौ दाने तुम अपनी कम्पनी में लगाते हो, और फिर मुझसे पूछ रहे हो, ‘काम को किस तरह से रूपान्तरित किया जाए?’ बहुत चुनकर के तुमने शब्द बताया है रूपान्तरण। रूपान्तरण समझते हो न? बस रूप बदल दें, काम वही चले। ये कहना चाह रहे होओगे कि बताइए कौनसी कम्पनी में काम करें। रूपान्तरण का यही अर्थ है कि काम वही चले, ऊपर-ऊपर से रूप बदल जाए। रूपान्तरण नहीं चाहिए विशी, मूल परिवर्तन चाहिए। जड़ से चीज़ें बदलनी होंगी।
तुम्हें पूछना होगा कि मैं सुबह-सुबह ऑफ़िस जाता ही क्यों हूँ। पर ये सवाल पूछने में तुम्हारे छक्के छूट जाने हैं। क्योंकि बहुत ज़बरदस्त सामाजिक दबाव है। और जो मन ध्यान का नहीं है, वो मन दबाव में जियेगा। ध्यान ही तो ये ताकत देता है कि कोई भी दबाव तुम पर असर न डाले। ध्यान तुम दस पैसा करते हो। तो हर सुबह तुम पर घोर सामाजिक दबाव आ जाता है कि जैसे पूरी भीड़, पूरी फ़ौज जा रही है काम करने, वैसे ही हम भी चलें तो तुम भी चल देते हो। फिर दिन भर पकते हो। रात को जब वापस आते हो तो कहते हो, ‘अब ध्यान करेंगे।’ ऐसे ध्यान से तुम्हें क्या लाभ होना है?
अपना असली और बहुमूल्य समय दे किसको रहे हो, देखो तो सही। और क्यों दे रहे हो ये तुम्हारे जवानी के दिन हैं। और रोज़ दस-दस घंटा तुम दिये जा रहे हो, किसको दिये जा रहे हो? क्यों बिताये जा रहे हो दस घंटे? ये नहीं पूछोगे। मत पूछो। देखते-देखते समय उड़ जाएगा।
ये सब तुम्हारा यौवन चूस लेना चाहते हैं। तुम्हारी युवा-शक्ति के ग्राहक हैं ये, और जिस दिन तुम ढलोगे ये तुमको निचोड़कर के, चूसकर के थूक देंगे। और तुम पाओगे तुम कहीं के नहीं रहे, जीवन गुज़ार दिया बस रोटी की कमाई में। और अब जब शक्ति क्षीण हो चली है, तब समझ में आ रहा है कि शक्ति कहीं और लगानी चाहिए थी। खेद ये है कि अब कहीं और लगाने के लिए शक्ति बची ही नहीं है।
अभी तुम्हारे पास समय भी है, ताकत भी है, विशी। भीड़ के इतने गुलाम मत हो जाओ, विचार करो, क्यों जाते हो दफ़्तर? क्यों वहाँ पर अपना समय समर्पित किये जा रहे हो? जन्म तुमने इसलिए लिया था? ऊपर वाला जब बंदे को नीचे भेजता है तो उसके कान में ये फूँककर भेजता है कि जाओ नीचे और बिलकुल एक निष्ठावान कर्मचारी बनना? कुछ ऐसा होता होगा क्या? बोलो। परमात्मा जब तुम्हें नीचे भेजता है तो ये बोलकर भेजता होगा कि तुम्हारी ज़िन्दगी का उद्देश्य है एक डेडिकेटेड एम्प्लॉई (समर्पित कर्मचारी) बनना?
इसलिए तो तुम नहीं पैदा हुए हो। पर देखो, तुमने कितनी खुराफ़ात से सवाल पूछा है, ‘काम के अलावा जो भी समय मिलता है, उसमें तो मैं ध्यान ही करता हूँ।’ माने, ‘काम तो मन्दिर है, काम तो पूजा है, काम तो केन्द्रीय है। उसके अलावा जो बचा-खुचा जूठन होगा, वो हम ध्यान को अर्पित कर देंगे।’ वाह! साहब वाह! और तुर्रा ये है कि अभी-भी माँग है कि हमारा ध्यान गहरे-से-गहरा हो। काहे को होगा? चीज़ भली लग रही है तो दाम चुकाओ न। बिना दाम चुकाये क्या पाओगे?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, इस सन्तवाणी में सन्तों ने हमें ‘सत्य’ और ‘प्रेम’ के बारे में समझाया। थोड़ा समझ भी आया, लेकिन ऐसा जीवन मैं जी क्यों नहीं पाता? कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: ‘रोजर फेडरर-राफेल नडाल’ (शीर्ष टेनिस खिलाड़ी) खेल रहे हैं। उनका मैच देखने से पहले तुम्हें समझाया गया कि खेल के नियम क्या हैं, कैसे खेला जाता है, खेल का इतिहास क्या है। तो तुम्हें ज्ञान मिल गया? तुम्हें ये भी बताया गया कि आजकल शीर्ष खिलाड़ी कौनसे हैं। किसने कितने ग्रैंड स्लैम जीते हैं इत्यादि-इत्यादि। तो तुम्हें ज्ञान मिल गया? ज्ञान तो मिल ही गया। फिर तुमने फेडरर और नडाल का खेल देखा, वो खेल देखकर तुमको मज़ा भी बहुत आया। ‘आह! क्या बात है!’ “दो शूरवीर, दो महावीर तीरन पर तीर चलावे।” उधर से गेंद आती है, ये मारते हैं, उठायी, सर्विस करी। बिलकुल। एक-सौ-साठ की गति से गेंद निकल गयी।
अब तुमको नियम भी पता है, इतिहास भी पता है, तुमने खेल देख भी लिया, तुम्हें अच्छा भी लग रहा है। सब बढ़िया है। अब दिया गया तुमको टेनिस का एक रैकेट, और दी गयी गेंद। ठीक? और खड़ा कर दिया गया कोर्ट पर, और कहा गया, ‘एक सर्विस कर दो। कैसी भी सही है, कर दो।’ तुमने कहा, ‘ये तो हम सब जानते हैं, सब बता दिया गया है ऐसे-ऐसे-ऐसे। और अभी-अभी हमने फेडरर-नडाल को देखा भी था। उन्होंने ऊँची-से-ऊँची, बढ़िया-से-बढ़िया, श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ सर्विस हमें अभी करके दिखायी है। लो, ये देखो।’ कहाँ बल्ला, कहाँ गेंद घूम रहे हैं ऊपर-नीचे, दायें-बायें सब कर लिया। काहे को हो? दस में से एक गेंद जाकर के वहाँ पड़ रही है जहाँ पड़नी चाहिए, वो भी चीटीं की चाल से।
भाई! कुछ काम करोगे, कुछ पसीना बहाओगे या सन्तों की वाणी सुनकर के ही तर जाओगे? सन्तजन तुमसे कोई सुनी-सुनायी बात कह रहे हैं? उन्होंने अपने जीवन की कीमत अदा करी है, पूरे जीवन की कुरबानी दी है, पूरी ज़िन्दगी लगायी है। तब वो, वो बात कह पाये हैं जो उन्हें समझ में आयी है। या उन्होंने भी ऐसा किया था कि किसी और से सुन लिया, ‘ला-ला ज़रा इधर देखें, बंटू का लिखा है, ठीक! बढ़िया, आज के सत्संग में यही दोहरा देंगे।’ ऐसे होता है? ऐसे होता है क्या?
एक ज़िन्दगी होती है उससे फिर सन्त की वाणी उठती है। चूँकि उसने जीवन ऐसा जिया है। ‘अभ्यास’ पर इसीलिए इतना ज़ोर दिया जाता है न। कुर्बानी पर तभी इतना ज़ोर दिया जाता। और ये सब एक ही बात है — अभ्यास, कुर्बानी, समर्पण, तपस्या, साधना। इन सबको एक ही दिशा का मानना। कि भाई! कोई चीज़ अच्छी लगी है, टेनिस अगर अच्छा लगा है तो पसीना बहाओ न। नहीं तो टीवी पर देखो। चिप्स मँगाओ, पॉपकॉर्न मँगाओ, टीवी चलाओ, खेलने वाले खेल रहे हैं, तुम तोंद बढ़ाओ। फिर ये मत कहना कि हम भी सर्विस करेंगे।
दो तरह के प्यार होते हैं खेल से। एक तो वही वाला — टीवी की स्क्रीन वाला। और जब कोई वाइड मार दे तो बोलो, ‘अरे! बेकार शॉट मारा, ऐसे थोड़े ही मारते हैं।’ खुद भले टेनिस का रैकेट आज तक देखा ही न हो, छुआ ही न हो। पर टीवी पर जब चल रहा है तो उनको बताओ, ‘ये फ़लाने सन्त, वो दूसरे सन्त से थोड़ा श्रेष्ठ हैं।’ ये एक तरह का प्रेम है। ये घटिया प्रेम है। और दूसरा प्रेम होता है खेल से कि मैदान पर उतर ही गये। फिर अनुशासन चाहिए। फिर आओ, रोज़ सुबह पाँच बजे, और लगाओ सबसे पहले कोर्ट के चालीस चक्कर। उसके बाद खेलने को नहीं मिलेगा, ड्रिल करो। सौ बार ऐसे मारो, सौ बार ऐसे मारो (हाथ से इशारा करते हुए)। मारने को अभी मिलेगा दो महीने बाद। पहले दो महीने तो बस उछलो-कूदो। ताकि तुम्हें पता चले कि कोर्ट चीज़ क्या होती है, कोर्ट का ज़रा जायज़ा मिले। और फिर ऐसे करते-करते कई सालों बाद थोड़ा-सा कौशल हासिल होता है। और फिर और कई साल, और फिर और कई साल। और तुम आगे बढ़ते जाते हो, कीमत अदा करते जाते हो, क्योंकि जो आनन्द है उस दिशा में, उस खेल में, वो आनन्द किसी भी कीमत से बढ़कर है।
सन्तों की बात सुन ली। सन्तों की बात तो आमन्त्रण है, ये भी कह सकते हो विज्ञापन है। अब सन्तों जैसा जीवन भी तो जीकर दिखाओ। तुम सोचते हो, सन्त वो है जो दो-चार दोहे मार दे। नहीं, साहब! दोहे तो आखिरी चीज़ होते हैं, दोहे तो फल होते हैं। पहले सन्तत्व का पूरा वृक्ष लगता है, फिर उसमें से दोहे प्रकट होने शुरू होते हैं। दोहे पहली चीज़ थोड़े ही होते हैं कि वृक्ष लगा नहीं है, दोहे पकड़ लिये तो तुम भी सन्त हो गये। ऐसे थोड़े ही। पहले पूरा पेड़ तो जमाओ। फिर तुम जो भी बात कहोगे, वो श्लोक तुल्य होगी। समझ रहे हो न?