प्रश्नकर्ता: भक्ति में, चाहे वह मेरी भक्ति हो या दूसरे की भक्ति हो, उसमें तर्क या फिर क्रिटिसिज़्म (आलोचना) भी बोलें, तो उसकी क्या जगह है? और ऐसा कोई तर्क हो, कोई क्रिटिसिज़्म हो, तो भक्त को उस चीज़ को कैसे एड्रेस (सम्बोधित) करना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: भक्ति में क्रिटिसिज़्म का, आलोचना का क्या स्थान है — पूछा है। पूरा-पूरा स्थान है। भक्त कहता है – “मो सम कौन कुटिल खल कामी।” “बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो मन देखा आपना, मुझसे बुरा न कोय।”
भक्ति शुरू ही होती है आत्म-आलोचना से, और इस दृढ़ विश्वास के साथ कि यह जितनी बुराइयाँ हैं, यह समाप्त हो सकती हैं। जो अच्छे-से-अच्छा है वह दूर सही, पर प्राप्य है। मिलेगा!
तो भक्त एक बड़ी विचित्र बात कहता है। कहता है कि मुझसे बुरा कुछ नहीं; जितनी भर बुराइयाँ थीं वह सब इकट्ठी होकर मुझमें आ गयी हैं। जो कुछ भी अच्छा है, ऊँचा है, शुद्ध है, पावन है, वह मेरे भगवान में निहित है। और साथ ही साथ वह यह भी कहता है कि इतना अंतर होते हुए भी उस भगवान को पा लूँगा मैं।
तो आलोचना पूरी है अपनी। और अपनी जितनी आलोचना करोगे उतना यह भाव भी प्रगाढ़ होगा कि जिसकी आलोचना चल रही है, उसे वैसा ही बनकर थोड़े ही जीना है कि आलोचना का ही पात्र रहा आए।
आ रही है बात समझ में?
उल्टा कर दिया अगर, जो हो सकता है ऊँचे-से-ऊँचा, उसी की निंदा कर डाली, तो कर डालो निंदा। तुमने उसे ही अपने लिए अप्राप्य बना लिया। क्योंकि जो निंदा के क़ाबिल है, उसको पाकर करोगे क्या? यह दोनों चीज़ें साथ तो नहीं चल सकतीं न! कि एक ओर तो कहो कि मुक्ति चाहिए, कि भगवान चाहिए, सत्य चाहिए; और दूसरी ओर जो चाहिए उसी की निंदा भी कर डालो। अगर वह वास्तव में निंदनीय है, तो उसे पाकर करोगे क्या और वह तुम्हें मिले ही क्यों?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कोई दूसरा अगर निंदा करे या फिर क्रिटिसाइज़ करे, तो उसको कैसे लेना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: किसको क्रिटिसाइज़ कर रहे हैं?
प्रश्नकर्ता: मैं अगर भक्त हूँ, तो जिसके प्रति भक्ति है, उसको अगर क्रिटिसाइज़ कर रहें हैं, तो उसको कैसे एड्रेस करना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: उसको अपने ही जैसा मानना चाहिए। भक्त वियोग में पड़ा ही किसलिए है? दूरी है ही क्यों? क्योंकि कुछ ग़लतियाँ भक्त ने की होंगी न, तभी तो दूरी है न! तुम गलतियाँ कर सकते हो, कोई और भी तो कर सकता है। तो जैसे तुम हो, वैसे ही वह दूसरा है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, और एक सवाल था। जैसे हम लोग कोई ग्रंथ पढ़ते हैं, अगर कुछ दिनों से पढ़ रहे हैं, तो मन में एक धारणा बन जाती है। कोई श्लोक पढ़ते हैं, तो लगता है यह तो पता है, अर्थ पता है इसका। तो जब भी पढ़ते हैं, तो प्रत्येक ग्रंथ को एकदम ताज़े तरीक़े से, जैसे कि कुछ पता ही नहीं है, इस तरीक़े से कैसे पढ़ा जाए?
आचार्य प्रशांत: यही कह लो कि मुझे पता है, और कह लो कि जितना पता है उससे आगे की भी इसमें कुछ सम्भावना है क्या? इस श्लोक ने मुझे जो कुछ बताया है, उतना तो ठीक है, मैं जान गया, पर जितना बताया है, यह उससे ज़्यादा भी कुछ बता सकता है क्या?
अहम् को यह कहोगे कि तुझे नहीं पता कुछ भी, तो वह मानेगा नहीं, क्योंकि कुछ तो उसको पता है ही। तो उससे पूछो कि जितना पता है वह ठीक है, पर और भी बहुत कुछ है इसमें, अगर उसको पता करें तो कैसा रहे? और किसी भी श्लोक में अर्थों की परतें होती हैं, अंतहीन परतें, एक परत हटाओ दूसरी निकलेगी, तीसरी, चौथी…। तो कुछ परतें तुमने हो सकता है हटा ली हों, उतना तुम जान गये हो उसके बारे में, और भी बहुत कुछ है जानने के लिए, उसको भी जानो न! और जितनी परतें हटेंगी, सत्य उतना उघड़ेगा, आनंद उतना बढ़ेगा।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। आज दिन में अंशु जी के साथ भजन संध्या हुई थी और उसका अनुभव गहरा रहा, बहुत ज़्यादा आँसू भी निकले, तो क्या ऐसा अनुभव मात्र एक अनुभव के समान सोच कर ही छोड़ दूँ या फिर ऐसे अनुभव भी किसी दिशा की ओर हमें आगे बढ़ा रहे हैं?
आचार्य प्रशांत: जीव होने का, प्राणी होने का, जगत में जीने का मतलब ही है अनुभवों में जीना।
सत्संगति का अर्थ ही होता है कि कोई तुम्हें ऐसे अनुभव करा दे कि अनुभव करने वाला ही बदल जाए। बात समझ रहे हो?
किसी ने ऐसे अनुभव कराये कि अनुभोक्ता ही बदल गया। चीज़ बाहरी थी पर उसने अंदर ही कुछ साफ़ कर दिया जैसे। जीव दुनिया से जुड़ा हुआ है, दुनिया में ही उसका निर्माण है, दुनिया से ही वह प्रभावित है। दुनिया से प्रभावित होता है वह और फिर दुनिया का भी निर्माण करता है — दोनों तरफ़ खेल चलता है। तो आपके भीतर जो ‘मैं’ बैठा है न, उसका निर्माण भी दुनिया से ही हुआ है।
कुसंगति का मतलब है अपने ऊपर ऐसे प्रभाव पड़ने देना जो ‘मैं' को जटिल, क्लिष्ट, दूषित, झूठा बना देते हैं। ये बात सही-सही समझिएगा!
हम स्थितियों का सिर्फ़ अनुभव नहीं करते — ऐसा नहीं है कि स्थितियाँ बाहर हैं और अनुभव करने वाला भीतर है — हम स्थितियों द्वारा निर्मित होते हैं। तो ठीक तब जब आप अनुभव कर रहे हो, उसी पल आप बन-बिगड़ भी रहे हो। हर अनुभव आपमें कुछ परिवर्तन ला रहा है। और यह जो परिवर्तन है यही जीवन का दुख है कि स्थितियों के अनुसार हम बदल जाते हैं। कोई स्थायित्व ही नहीं, थाली के बैंगन।
यही जीवन का दुख है कि हर अनुभव हमें बदल देता है। तो करें क्या? जीव को तो अनुभवों में ही जीना है। इन्हीं अनुभवों में विधि छुपी हुई है। अपने आप को ऐसे अनुभव दो जो तुम्हें बदलाव के पार ले जा सकें। और यह संभव है। जैसे आपसे कहा था न, कि शब्द ऐसे भी होते हैं जो मौन की तरफ़ ले जाते हैं, वैसे ही दुनियाभर के सभी अनुभव ऐसे ही होते हैं जो आपको परिवर्तित करते रहते हैं लेकिन कुछ अनुभव ऐसे होते हैं जो आपको अपरिवर्तनीय की ओर ले जाते हैं। जो आपको वहाँ ले जाते हैं, जहाँ फिर कुछ बनता-बिगड़ता, आता-जाता नहीं। संतों के भजन उन अनुभवों में से हैं। वह आपको परिवर्तित तो करते ही हैं लेकिन आपको कुछ इस तरह से परिवर्तित करते हैं कि आप धीरे-धीरे अपरिवर्तनीय होने लग जाते हो।
दुनिया का हर अनुभव आप पर कुछ रंग तो चढ़ाता ही है। संतों की संगति भी रंग चढ़ाती है पर संतों की संगति वह रंग चढ़ाती है कि फिर जो कभी उतरता नहीं। और इससे बड़ी राहत नहीं हो सकती कि कोई तो रंग ऐसा चढ़ जाए जो फिर कभी उतरे नहीं। कुछ तो ऐसा मिल जाए जिस पर पूरा भरोसा किया जा सकता हो, जो अब बदलेगा नहीं, परिवर्तित नहीं होगा।
प्रश्नकर्ता: विद्रोह की भावना बहुत आ रही है अंदर से, पता नहीं क्या हो रहा है। जैसे सबसे ही लड़ने का मन कर रहा है।
आचार्य प्रशांत: जो इस लायक हो कि उनसे लड़ा जाए, उनसे लड़ लीजिए।
प्रश्नकर्ता: आपसे भी लड़ने का मन करता है।
आचार्य प्रशांत: (सहमति में हाँ करते हुए) बाक़ियों को माफ़ कर दीजिए। लड़ना भी एक निकटता होती है, सबसे नहीं लड़ा जाता। जिससे लड़ोगे, उसका स्पर्श करना पड़ेगा। जिससे लड़ोगे उसी के तल पर आना पड़ेगा, उसी के जैसे हो जाओगे। तो गुरु से लड़े भी तो भी अच्छा किया, इसी बहाने पास तो आए।
और संसार में बहुत कुछ है जो इस लायक़ भी नहीं है कि उससे लड़ा जाए; उससे लड़ोगे तो गंदा कर देगा तुमको। जैसे कीचड़ से निकल कर कोई पशु आया हो और तुम उससे कुश्ती कर डालो। जीत जाओ कुश्ती! हुआ क्या? कीचड़-ही-कीचड़। तो उस पशु से कुश्ती जीतने में भी कुछ नहीं रखा है, जीत भी गये तो उसी के जैसे हो गये।
प्रश्नकर्ता: नहीं, कल से कम हुई है।
आचार्य प्रशांत: अरे! कम होना ज़रूरी ही नहीं है। और गुरु से कुश्ती लड़ के हार भी गये तो भी अच्छा हुआ। जैसे कोई नेशनल चैंपियनशिप्स खेले और पहले ही राउंड (दौर) में बाहर हो जाए, तो भी उसके लिए सम्मान की बात होती है न! अब कहलाएगा — नैशनल्स का खिलाड़ी है। तो कहीं-कहीं पर हारना भी सम्मान की बात है और कहीं पर जीतना भी अपमान ही है।
ये अच्छी बात है भीतर से ऊर्जा उठ रही है, कुछ बातों पर सवाल उठाना चाहती हैं, विरोध, विद्रोह सब आ रहे हैं। उस ऊर्जा को लेकिन केन्द्रित करिए। जो मुद्दे इस लायक हों कि उन पर वह ऊर्जा लगायी जाए मात्र उन्हीं मुद्दों पर लगाइये सारी ऊर्जा — ज़ोर से। सत्तर-अस्सी प्रतिशत, नब्बे प्रतिशत मुद्दे इस लायक नहीं होंगे कि उनसे विद्रोह भी किया जाए। उनको छोड़िए! उनकी उपेक्षा करके आगे बढ़ जाइए।