मैं देख रहा था, सब समझ रहा था, और जानते-बूझते धोखा खा रहा था || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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मैं देख रहा था, सब समझ रहा था, और जानते-बूझते धोखा खा रहा था || आचार्य प्रशांत (2023)

आचार्य प्रशांत: अर्जुन असमंजस में हैं। कृष्ण बात को इतना सरल, इतना सीधा करके बता देते हैं कि अर्जुन को लग रहा है कि सही जीवन, सही निर्णय, सही कर्म ये सब तो बहुत सहज, साधारण बात होनी चाहिए। अर्जुन कह रहे हैं कि बात अगर इतनी सीधी है तो फिर कोई भी व्यक्ति बहक कैसे जाता है? ये सदा का खेल रहा है।

ज्ञानियों का काम है उलझे हुए मुद्दों को भी सुलझाकर सामने रख देना।

“मैं कहता सुरझावनहारी, तू राख्यो उरझाई रे।।”

और साधारण मन के लिए जो मुद्दा अधिक-से-अधिक उलझा हुआ भी रहता है; वो ज्ञानी के हाथों में पड़कर के बिलकुल खुले निरभ्र आकाश की तरह साफ़ हो जाता है। लगता है इसमें तो कोई जटिलता हो नहीं सकती, अरे! इतनी सीधी सी तो बात थी।

पर बात उतनी सीधी अगर वास्तव में होती आपके लिए, तो कभी उलझी भी न होती आपके लिए। बात तो न सरल है न जटिल, निर्भर इस पर करता है कि वो बात है किसके लिए। ये हम भूल जाया करते हैं। हम सदा वस्तुगत सत्य खोजते हैं। तो बात एक बाहरी वस्तु है न?

हम पूछा करते हैं कि बात कठिन है कि सरल है। और वेदान्त आपको लेकर के जाता है आपमें। वेदान्त कहता है, ‘कौन सी बात, कहाँ है बात, बात दिखाओ, कोई बात नहीं है; तुम हो। तुम हो और दुनिया तुम्हारा प्रतिबिम्ब है, और तुम ही टेढ़े-टपरे हो तो तुम्हारे लिए हर बात टेढ़ी होगी।

और तुममें सिधाई आ जाए तो सब बातें तुम्हारे लिए सीधी हो जाएँगी। तुम्हीं भीतर से उलझे हुए और धुँधले हो तो तुम्हारे लिए पूरा जगत कोहरे जैसा होगा, और उलझन भरा। और तुम्हारे भीतर सुलझाव हो जाए तो कोई बात नहीं जगत की जो तुम्हारे लिए अब समस्या रहे; एकदम आर-पार देख लोगे।

पर जगत में किसी भी चीज़ के आर-पार देख पाओ इसके लिए पहले आवश्यक है; कहिए? स्वयं के आर-पार देख पाना। और स्वयं के आर-पार देख पाने को क्या बोलते हैं?

श्रोता: आत्म-अवलोकन।

आचार्य: सुनायी नहीं दिया।

श्रोता: आत्म-अवलोकन।

आचार्य: मुझे लगता है जब सत्र शुरू होता है तो मेरी ही आवाज़ बस मध्यम रहती है; आपकी भी रहती है। तो अर्जुन अभी कृष्ण के प्रकाश क्षेत्र में हैं तो कृष्ण की रोशनी में अर्जुन को सब साफ़-साफ़ दिख रहा है। और अर्जुन हतप्रभ! बोल रहे हैं, ‘इतना तो सरल है सबकुछ।’

उसमें भी अभी आएँगे तो ये नहीं पूछेंगे कि फिर मैं क्यों उलझा हूँ। पूछते हैं, ‘पर फिर मनुष्य क्यों उलझ जाता है?’ मनुष्य क्यों उलझ जाता है; जैसे कि सब मनुष्य उलझ जाते हों। सब अगर उलझ जाते होते तो कृष्ण भी उलझे हुए होते।

भाई, यहाँ तो मनुष्य ही हैं वो, सामने खड़े हैं हाड़-मॉंस की देह लेकर अर्जुन के। अगर उलझना अनिवार्य होता तो कृष्ण भी उलझे हुए होते। लेकिन अभी अर्जुन यही कहेंगे कि सारे ही जो मनुष्य हैं वो क्यों उलझ जाते हैं?

ये नहीं पूछेंगे कि… जो व्यक्ति अपनी ओर उॅंगली करके पूछने लग जाए वो समस्या की जड़ तक पहुँच गया न! वो फिर ये पूछेगा; ‘मैं क्यों उलझ गया।’ तो फिर मैं अब आ गया तस्वीर में। मैं उलझन के समीकरण का हिस्सा है और बहुत बड़ा हिस्सा है, ये बात अब प्रकट हो गयी। नहीं तो उलझन को हम सदा कहाँ मानते हैं? कहाँ है उलझन?

हम कहेंगे, ‘समस्या है; ये भी नहीं कहते मुझे समस्या है।’ हम समस्या ऐसे बोलते हैं जैसे बाहर कोई चीज़ रखी है ये (कप)। और इसका क्या नाम है?

श्रोता: समस्या।

आचार्य: तो आप देखो तो भी ये क्या है?

श्रोता: समस्या।

आचार्य: और ये देखें तो भी ये क्या है?

श्रोता: समस्या।

आचार्य: और वो देखें तो भी ये क्या है?

श्रोता: समस्या।

आचार्य: ऐसी बात ही नहीं है न, कृष्ण देखें तो क्या समस्या है यहाँ, है कोई समस्या? लेकिन ये बात अहम्, साधारण अहम् समझ नहीं पाता। तो जैसे वो ज़िन्दगी भर बाहरी प्रभावों पर चला है; वैसे ही जब वो ज्ञानी के प्रकाश क्षेत्र या प्रभाव क्षेत्र में आता है, तो वो चीज़ भी उसके लिए बस बाहरी ही रहती है।

थोड़ी देर के लिए उसे सब समझ में आने लग जाता है। सब समझ में आने लग जाता है उसे बस एक चीज़ को छोड़कर के कि अपनी समझ होनी ज़रूरी है भाई! और जो तुम्हारे सामने खड़ा हुआ है गीताकार; वो ये थोड़े ही चाह रहा है कि दुनिया भर का ज्ञान तुम्हारा खोपड़ा खोलकर उसमें उड़ेल दे।

किसी भी कृष्ण की ये मंशा कभी भी नहीं होती कि डाउनलोड (उड़ेल दो) या क्या बोलते हैं, लो डाउन (डाल देना)। कि बेटा अर्जुन खड़े हो जाओ और सारा ज्ञान तुम्हारे डाले देते हैं; ऐसा तो नहीं होता। उद्देश्य तो ये होता है कि तुम्हारी अपनी आँखें खुल जाएँ, तुम्हारा अपना दिया जल जाए, अपने प्रकाश में दुनिया को देखने लगो।

अपने प्रकाश में आपने दुनिया को नहीं देखा है, थोड़ी ख़तरे की बात है इसको ध्यान से सुनिएगा। अपने प्रकाश में आपने दुनिया को नहीं देखा है, इसका एक स्पष्ट प्रमाण ये होता है कि आपको सारी बातें बहुत स्पष्ट दिखाई देने लग जाती हैं।

आप ज्ञानी के पास बैठ गये; आप अर्जुन हैं, आप किसी कृष्ण के पास बैठ गये, और बैठने के बाद आपको लगा, ‘सब स्पष्ट हो गया, सब स्पष्ट हो गया।’ इसका सीधा अर्थ है कि आपको कुछ भी स्पष्ट नहीं हुआ है क्योंकि अगर आप अपनी आँखों से देख रहे होते तो आप कह की नहीं पाते कि इतना स्पष्ट हो गया है; आप कृष्ण हैं क्या?

तो आपको इतना स्पष्ट तो हो ही नहीं सकता न; नियम की बात है ये। आपके अपने देखे तो अभी धुँधलापन और अस्पष्टता और उलझाव रहने चाहिए; रहने चाहिए न? ईमानदारी की बात है, बाहर मुझे उतना ही साफ़ दिखाई पड़ेगा जितना साफ़ मैं भीतर से हूँ। अब आप तो अर्जुन हैं, आप अभी भीतर से कोई बहुत साफ़ तो हो नहीं गये। तो ईमानदारी से आपको क्या कहना चाहिए कि थोड़ा अब बेहतर दिखाई दे रहा है लेकिन अभी भी धुँधला है मामला, ऐसा नहीं है कि मैं कह दूँ कि वहाँ, सब दिख गया छ: बटा छ: आइ साइट; ऐसा तो नहीं हो सकता।

तो अगर ज्ञानी के पास बैठकर के आपको लगने लगे कि मुझे सब स्पष्ट हो गया; ये इस बात का पक्का प्रमाण है कि आपको कुछ भी स्पष्ट नहीं हुआ है। जो बोल दे, आ गया सब समझ में आ गया; उसको कुछ नहीं समझ में आया है। जो बोल दे कि पहले जितना कोहरा था कुछ छटा है अब; जानिए कि वहाँ पर सम्भावना है। जो बोल दे सब स्पष्ट में आ गया वो अपने देखे झूठ नहीं बोल रहा है, वो बस ये कर रहा है कि वो कृष्ण के ज्ञान को अपना समझ रहा है। समझ रहे हैं बात को?

कृष्ण ने समझा दिया कि स्वधर्म-परधर्म और इतना आसान करके समझा दिया चंद शब्दों में, कुल एक श्लोक; और उस श्लोक में भी आप कई छोटे-छोटे मन्त्र निकाल सकते हैं। “स्वधर्मे निधनम् श्रेय:” निकाल लिया मंत्र, और इतनी साफ़ करके बता दी कि अर्जुन को भी क्या लगने लग गया, मुझे भी समझ में…

अरे भाई! इतना आसान नहीं है, नहीं आया है समझ में। और नहीं आया है समझ में इसका अर्जुन स्वयं ही प्रमाण दे देते हैं अगले श्लोक में, ये कहकर कि आसान तो इतना है तो लोगों को क्यों नहीं समझ में आता? नहीं, मुझे तो आ गया है पर मतलब आम लोग, इनको समझ में क्यों नहीं आता? तो कृष्ण उस पर कुछ बोलते नहीं। कहते हैं अभी समझाता हूँ, और अगर अभी समझाता हूँ; तो अर्थ क्या हुआ? समझ में आया नहीं है, नहीं तो मैं क्यों कहता कि और समझाता हूँ।

तो थोड़ा सा सतर्क रहने की ज़रुरत है। कोई ऊँची पुस्तक पढ़कर के या जिसकी पुस्तक है उसी से चर्चा करके, कुछ करके बहुत आसानी से ये भ्रम हो जाएगा कि आ गया। ठीक वैसे, ठीक वैसे; जैसे आप कोई गणित की किताब ले लें जिसमें सवाल-ही-सवाल दिये हों, तो आप फँस जाएँगे, ख़ुद हल करना है।

दूसरी ओर आपको एक ऐसी किताब मिल जाए जिसमें हैं सवाल, बहुत सवाल और बहुत कठिन सवाल। लेकिन हर सवाल के नीचे उसका पूरा खुला जवाब लिखा हुआ है विस्तृत समाधान के साथ। तो आदमी ऐसे पढ़ता है; ‘ठीक है ये भी आ गया समझ में।’ तुम्हें अगर सचमुच समझ में आ रहा होता तो तुम्हें वो समाधान देखने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती, और जब समाधान देखो न तो सवाल हमेशा आसान लगता है।

जिन लोगों ने गणित या विज्ञान या और भी कोई भी सवाल अर्थशास्त्र के करे होंगे वो समझ पा रहे होंगे मैं क्या कह रहा हूँ। सवाल को जब भी समाधान के साथ देखोगे तो यही लगेगा कि सवाल आसान था क्योंकि समाधान किसी ने वहाँ करके रख दिया है। तो आदमी ऐसे पढ़ लेता है, ‘ठीक है’, फिर पलटता है, ‘ठीक है।’

वो कितना समझ में आया है वो तब सिद्ध होता है जब मात्र प्रश्न सामने आता है और कहीं आस-पास दूर-दूर तक कोई कृष्ण नहीं होता कि सहायता करे। तब कहता है, ‘इसी तरह का पहले था वो तो लगा था आसान है, और इसमें हम हल की शुरूआत भी नहीं कर पा रहे; बात क्या है, माजरा क्या है?’

ये जो, ये जो परावर्तित या प्रतिबिम्बित ज्ञान होता है ये धोखा दे सकता है, इससे सतर्क रहिए, रिफ़्लेक्टेड नॉलेज (परावर्तित ज्ञान); आप नहीं समझे हैं, आपका नहीं है। जैसे चाँद होता है न रात में, कितना प्रकाश है उसमें, कितना है?

अरे! गणित की बात कर रहे थे भूगोल में भी गोल हो! चाँद का अपना कितना प्रकाश होता है? लेकिन जितने बेचारे इक्के-दुक्के मरियल टिमटिमाते तारे होते हैं, सब पर दबंगई झाड़ता है चाँद। दिये बराबर भी प्रकाश उसका अपना नहीं, लेकिन रात को चौधरी बनकर बैठता है बिलकुल। किसका प्रकाश लेकर?

श्रोता: सूरज का प्रकाश।

आचार्य: ये होता है, और दुनिया कहती है, वाह चाँदनी! कभी कहा है कि सचमुच तो ये सूर्यप्रभा है? उसको बोलोगे चन्द्रप्रभा। वो जो आपको चाँदनी लग रही है; कभी सोचा है वो सचमुच क्या है, क्या है? सूरज की रोशनी। पर हमने आज तक जितनी शायरी, कविताएँ करी हैं वो सब किसकी तारीफ़ में करी हैं।

श्रोता: चाँदनी की।

आचार्य: चाँदनी की, क्योंकि सूरज का सीधा प्रकाश, हम छोटे लोग, हमसे बर्दाश्त ही नहीं होता, जला दे हमें। हालॉंकि मामला सब उसी से चल रहा है, उसी की ऊर्जा है, उसी से प्राण हैं; पर चाँद की कितनी तारीफ़ें हैं जिसके पास अपना कुछ भी नहीं।

और रात को कैसा छा जाता है चाँद। समझ में आ रही है बात? इसलिए अपने जीवन का लगातार अवलोकन बहुत ज़रूरी होता है। कहीं कोई सिद्धान्त उठा तो नहीं लिये? उधार का तो नहीं है मामला? और साबित कैसे होगा कि कितना आपका है और कितना उधार का है? अभी हमने बात करी थी। जब आपके सामने ऐसे प्रश्न आयें जिनका उत्तर आपको पहले से न पता हो तब देखते हैं आपका जवाब क्या होता है। और प्रार्थना यही है कि तब भी आप सही जवाब दे पाएँ।

तो इसीलिए मैं बार-बार कहा करता हूँ कि ज्ञान कितना है; इसकी कसौटी सिर्फ़ जीवन होता है। क्योंकि गीता आपको सिद्धान्त देती है मोटे-मोटे। जीवन के प्रतिपल के प्रश्नों का और रोज़मर्रा की चुनौतियों का जवाब आपको ही देना है। जो गीता ने सिखाया है उसको उपयुक्त अपने जीवन में आपको ही करना है, और अगर आप उसको उपयुक्त कर पा रहे हैं; मतलब अगर उसका एप्लिकेशन (प्रयोग) कर पा रहे हैं तब तो समझिए कि गीता आप में उतर रही है, नहीं तो बहुत आसान है कि आप भी स्वधर्म, परधर्म की परिभाषा रट लें और इधर-उधर चाँद की तरह हेकड़ी जमाते फिरें।

कि अपना तो कुछ नहीं पर जितने ये नक्षत्र हैं रात वाले और ग्रह हैं और तारे वगैरह ये सब चाँद के आगे कैसे रहते हैं? प्रकाश तो छोड़ दो, आकार में भी जो चन्द्रमा है वो तारों से हज़ारों गुना छोटा होता है, थोड़ा-बहुत नहीं हज़ारों गुना छोटा। एक औसत तारा और ये हमारा चन्द्रमा; इनके आकार में हज़ारों गुने का अन्तर होता है।

लेकिन चाँद, चाँद चौधरी है। न आकार, न प्रकाश लेकिन…कहीं वो हालत तो नहीं हो रही है अपनी? ये जाँचते रहना ज़रूरी है, और ये जाँचने का तरीक़ा यही है कि देखो कि ज़िन्दगी में गीता है कि नहीं है। शब्दों में ज़बान पर गीता लाना आसान है क्योंकि वो शब्द तो आपको पहले ही किसी और ने दे दिये हैं। आपने ले लिये शब्द, आपने आगे उसको बस ऐसे कर दिया जैसे रिले में बैटन पास करते हैं, उससे तो कुछ…है न।

पर आपके व्यक्तिगत जीवन में जो व्यक्तिगत प्रश्न आते हैं जो सिर्फ़ आपके हैं, वो बताइए। जो आप प्रतिदिन निर्णय कर रहे होते हो, ‘ये खरीदूँ कि ये खरीदूँ, पैसा यहाँ लगाऊँ कि यहाँ लगाऊँ, इससे मिलने जाऊँ या उसका द्वार खटखटाऊँ ये सब होते हैं रोज़मर्रा के निर्णय। अब त्योहार आ रहा है, ये करना है कि वो करना है।’

इससे पता चलता है कि कितना अपने भीतर आया है, ये हुई पहली बात। आज का सत्र विशेषतया बहुत समृद्ध है, आज कृष्ण अहंकार के बारे में कुछ एक नये कोण से बताएँगे। ज्ञानवर्धक तो लगेगा आपको रोचक भी है बात। तो क्या कह रहे हैं कृष्ण, श्रीमद्भगवद्गीता तीसरा अध्याय, छत्तीसवाँ श्लोक:

अर्जुन उवाच अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः। अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥

हे कृष्ण! बात तो सब ठीक है आपकी, और मुझ समझ में भी आने लग गयी। लेकिन फिर ये बताइए कि किसके विवश होकर, किसके द्वारा परिचालित होकर, किसके द्वारा नियन्त्रित होकर, किसके चलाए चलकर फिर मनुष्य इच्छा न रहते हुए भी बलपूर्वक नियुक्त होकर पाप-कर्म करता है। (श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ३, श्लोक 36)

आचार्य: जब इतना सब सरल है, तो कौनसा बल हावी हो जाता है, कौनसी माया? कौन हमारा स्वामी बनकर हमारी अनिच्छा के बावजूद हमसे पाप करा ले जाता है। पाप माने परधर्म, परधर्म के अलावा कोई पाप नहीं होता। लिख लीजिए! बहुत बहकना-भटकना नहीं है पाप-पुण्य को लेकर। स्वधर्म ही पुण्य है, और परधर्म ही?

श्रोता: पाप है।

आचार्य: परधर्म के तीन हिस्से कौनसे?

श्रोता: शरीर धर्म, समाज धर्म और संयोग धर्म।

आचार्य: और स्वधर्म के हिस्से कौनसे?

श्रोता: प्रेम और विवेक।

आचार्य: ठीक है, तो पूछ रहे हैं, फिर कौन है; ‘केन प्रयुक्तोऽयं’ केन माने किसने किया, किसके द्वारा किया गया, कौन है जो मनुष्य पर हावी हो जाता है और उससे पाप कराता है। कौन है कि जो हमारी अनिच्छा के बाद भी हमसे बलपूर्वक सब गलतियाँ करवा देता है; कौन है। अर्जुन के प्रश्न में ही अर्जुन की जो मानसिक स्थिति है, वो छुपी हुई है। अर्जुन अभी भी मान रहे हैं कि मनुष्य अलग है और उसके भीतर उसका नियंता या कर्ता या स्वामी अलग है।

एक तरह से कह सकते हैं कि अर्जुन अभी भी जीवात्मा की भाषा में बात कर रहे हैं, सोल की भाषा में। कि कौन है जो मेरे भीतर घुसकर के मुझसे पाप करा देता है, मुझे बताओ। और इसलिए मैंने कहा आज का जो सत्र है, जो कृष्ण की बात है वो आपको बहुत रोचक लगेगी। अर्जुन के प्रश्न में अर्जुन की जो मान्यता छुपी है, एज़म्शन। वो समझ रहे हैं?

अर्जुन कह रहे हैं, ‘मैं हूँ, और जैसा आपने बताया श्रीकृष्ण कि बात तो बिलकुल साफ़ है; स्वधर्म क्या, परधर्म क्या, सही कर्म क्या, आपने सब समझा दिया। तो फिर कौन है जो मुझ पर हावी हो जाता है?’ ये प्रश्न वही हुआ न; ‘कौन है जो बाहर से मुझमें प्रवेश कर जाता है या बाहर से मेरा स्वामी बन जाता है, माने मेरे अतिरिक्त भी कोई है।’ ये अर्जुन की मान्यता है इस प्रश्न में। मेरे अतिरिक्त भी कोई है।

और वो जो मेरे अतिरिक्त है वही अपराधी वही गुनहगार है क्योंकि पापाचरण मुझसे वही करवा रहा है क्योंकि मैं तो सही ही आचरण करता, सही आचरण तो बड़ा सरल है न; अभी श्रीकृष्ण ने दिखा दिया कितना सरल है, तो भाई अपने देखे, अपने लेखे मैं तो; बोलते रहो, साथ चलते रहो!

श्रोता: सही ही आचरण करता।

आचार्य: सही ही आचरण करता, मैं थोड़े ही कुछ ग़लत कर देता। पर कोई और है, कोई और है जो बलात् मेरा स्वामी बन जाता है। कोई और है जो मेरी अनिच्छा के बावजूद मुझसे ग़लत काम कराता है। ये देख रे हो! ‘मेरी अनिच्छा के बावजूद मुझसे पाप कराया जाता है, मैं पाप में अनिच्छुक हूँ, माने मैं क्या हूँ? मैं तो निर्दोष हूँ, कोई और ही है जिसने ग़लती करा दी। मैं तो अनिच्छुक हूँ, मैं नहीं रहा था पापाचरण करना।’

‘पाप की मेरी अपनी कोई इच्छा नहीं थी, ये जितने पाप और ग़लतियाँ और अधर्म हुए हैं’, ये अर्जुन का शब्द है; अनिच्छा, ‘मेरी अनिच्छा होते हुए भी हुए हैं। तो मुझे क्या दे दो? क्लीनचिट, मुझे तो दे दो सफ़ाई का प्रमाण पत्र। नहीं मैंने नहीं किया, मुझसे हो गया।’

ज़रूर कोई और दूर की, बाहर की कोई शैतानी बला है। कोई आसुरी शक्ति है, जो ये सब करवा रही है। ये सब तर्क बहुत पुराने लग रहे हैं या आज के भी लग रहे हैं?

श्रोता: आज के भी लग रहे हैं।

आचार्य: प्रतिदिन सुनते हो कि नहीं सुनते हो? ‘मैंने किया नहीं, मुझसे?’

श्रोता: हो गया।

आचार्य: ‘न जाने कैसे हो गया, संयोग से हो गया, दुर्घटना से हो गया। मेरी अनिच्छा से हो गया।’ ‘अरे, ठीक से खेल न, वहाँ काहे को मार रहा है, उधर मार।’ ‘नहीं, मैंने नहीं मारा, वो अपनेआप हो जा रहा है, वो अपनेआप हो जा रहा है, मैंने थोड़े ही किया, मैं तो सही चला रहा हूँ, अपनेआप।’

‘अरे, थोड़ी जान लगाकर मार न!’ ‘नहीं मैं पूरी जान लगा रहा हूँ, वो जा ही नहीं रही।’ समझ में आ रही है बात?

‘मैं कैसा हूँ? सीधा, सरल, निर्दोष, छोटा सा, नन्हा सा, बच्चा हूँ। मैंने कुछ नहीं किया, मैं तो पाक-साफ़ हूँ। मुझे समझ में नहीं आया उस समय बस हो गया।’ मैं कहीं नहीं है इसमें, अहम् शब्द ही अर्जुन ने पूरी बात में कहीं रखा ही नहीं। क्या कहा? जन-सामान्य, मनुष्य, पुरुष मात्र को कौन अपने स्वामित्व में ले लेता है बलात्? प्रश्न ये यह पूछा है।

अगर कह देते, मेरे साथ होता है। तो फिर ज़िम्मेदारी भी शायद अपने ऊपर आने लग जाती, तो अपना तो नाम ही नहीं लेना है। समझ रहे हैं बात को? तो पहली बात ये थी कि ज्ञानी की बात को अपनी बात मत समझ लेना, गीता पढ़ते हुए यकायक जो स्पष्टता आती है, उस स्पष्टता से थोड़ा सावधान रहना। बल्कि मैं कह रहा हूँ अगर अचानक ही लगने लगे कि सब साफ़ हो गया, तो जान लो कि कुछ भी साफ़ नहीं हुआ है।

सफ़ाई, स्पष्टता, क्लैरिटी, ल्यूसिडिटी इतनी सस्ती चीज़ नहीं होती है कि आपको अचानक ही मिल जाएगी। सत्र के समापन के बाद आप लोग लिखा करते हैं, आज तो सबकुछ ही साफ़ हो गया, आज का सत्र बहुत ख़ास था। और मैं कहता हूँ, ‘फिर बाक़ी सत्रों का आज तक के असम्मान क्यों कर रहे हो? जिस सत्र को देखो उसी को तुम बना देते हो सर्वोपरी, शिरोमणि, तो जो पीछे मैंने ज़िन्दगी में मेहनत करी है इतने दशक, वो सब बेकार ही गयी, आज ही का बस ख़ास था!’

ये कुछ भी नहीं है मैनेजमेंट (प्रबंधन) और इकोनोमिक्स (अर्थशास्त्र) की भाषा में और साइकोलॉजी (मनोविज्ञान) में इसको बोलते हैं; रिसेंसी इफ़ेक्ट (ताज़ा प्रभाव)। जो चीज़ अभी-अभी हुई होती है, वो ज़्यादा जगमगाती है। इससे बड़ा, इससे बेहतर तो कुछ हो नहीं सकता।

और अगर वो जो अभी-अभी हुआ है, वही आपको ज़्यादा जगमग लग रहा है; तो इसी से पता चलता है कि अभी आपके प्रज्ञा चक्षु खुले हैं नहीं। क्योंकि जिसके खुल जाते हैं उस पर ये सब चीज़ें थोड़ी काम करती हैं कि जो अभी-अभी हुआ है या सुना है या मिला है, वही ऊँचा है, और जो पीछे का था, उसको भूल गये। जबकि जो पीछे का था, पीछे उसको क्या बोला था? इससे ऊँचा कुछ नहीं।

ये कौनसी वफ़ा है जो हर सत्र के साथ बदल जाती है? पिछला सत्र शिकायत करता है, ‘कहता अभी-अभी दो हफ़्ते पहले ही क्या बोला था?’ इससे बेहतर नहीं सुना! और आज क्या बोल रहे हैं, ‘आज का सुनकर तो सारा अज्ञान मिट गया, सब भवबन्ध कट गया। एकदम परमहंस हो गये, उड़ ही गये हैं, आगे *रिफ़्लेक्शन (अवलोकन) भी नहीं लिखेंगे, काहे? आकाश में वाई-फाई नहीं आता, हम परमहंस हैं न अब। वहाँ से कैसे भेजें लिखकर के कुछ भी।

ये जो सस्ती और तात्कालिक स्पष्टता होती है, दोस्तों; सावधान! ज्ञान इतना सस्ता नहीं होता, शब्द इतने सस्ते ज़रूर होते हैं। शब्द उधारी के होते हैं, ज्ञान उधारी का; वास्तविक ज्ञान उधारी का नहीं होता। और पोल तो खुल ही जाती है, कब खुल जाती है? ‘अरे, निष्काम कर्म आ गया समझ में, निष्काम कर्म आ गया समझ में, सब आ गया।’ तभी ज़िन्दगी कोई साधारण सी स्थिति सामने लेकर आ जाती है, और उस साधारण सी स्थिति में निष्कामता एकदम फुर्र हो जाती है। तो क्या समझ में आया था?

जब जीवन के प्रश्नों का उत्तर नहीं हो सकती निष्कामता, तो ये निष्कामता किस काम की है, या है? आप लोग जो सीख वगैरह लिखते हैं, इनको मैं एक तरह से कन्फ़ेशन (स्वीकारोक्ति) की तरह लिखवाता हूँ ताकि कभी आप ये सब देखें, और आपको दिखाई दे कि आपने कुछ कभी स्वीकार करा था, और जो स्वीकार करा था उसको फिर भुला दिया उसी के ख़िलाफ़ खड़े हो गये, लिख दिया आपने बड़े-बड़े अक्षरों में, गर्जना के साथ कि प्रेम धर्म और बोध धर्म से बड़ा कोई धर्म नहीं।

फिर मैं चाहता हूँ कि आप जब समाज धर्म में पूरी तरह धँस गये हों और रस लूट रहे हों सामाजिकता का, उस समय आपके सामने वो चीज़ लायी जाए, आपकी स्वीकारोक्ति आपका कन्फ़ेशन। कि तुमने तो स्वीकार किया था न कि समाज धर्म का पालन नहीं करना, तो अब तुम क्या कर रहे हो, तुम क्या कर रहे हो, तुम क्या कर रहे हो?

और अगर सचमुच आप समझ गये होंगे तो ऐसी नौबत आएगी नहीं कि जो आपने लिख दिया आपका आचरण कभी भी उससे विपरीत जाए। लर्निंग (सीख) को क्या समझ रखा है कि लर्निंग माने ऑडियो रिकॉर्डिंग? आप यही तो कहते हो कि हम अपनी लर्निंग लिख रहे हैं।

लर्निंग बहुत ज़बरदस्त बात होती है भाई! लर्निंग कोई ऑडियो रिकॉर्डिंग की चीज़ थोड़े ही होती है कि जो मैंने सुना था, वही मैंने लिख दिया; इसको चेपना बोलते हैं ज़मीनी भाषा में; इसको बोलते हैं, जो सुना था वही चेप दिया। चेपना और लर्निंग एक ही बात हो गये? फिर तो चेपू और बुद्ध समानार्थी हो गये? अगर लर्निंग , लर्निंग माने बोध; जिसको बोध है वो बुद्ध, और जो चिपकाता है वो चेपू। तो फिर तो चेपू और बुद्ध एक की बात हो गये।

अंडरस्टैंडिंग (समझ) का, बोध का फ़ायदा ही यही होता है कि आप स्मृति से आज़ाद हो जाते हैं। सहज ही आप सही कर्म करते हैं, बिना सिद्धान्तों का सहारा लिये, अगर बात सचमुच समझ में आ गयी है तो। बल्कि आपसे कहा जाए कि समझाओ तुमने जो किया वो क्यों किया, तो आपको थोड़ी सी तकलीफ़ हो जाएगी।

किसी ने सिद्धान्त का सहारा लेकर करा, वो समझा देगा। वो कहेगा, ‘देखो ये फॉर्मूला (सूत्र) है, ये सवाल है, इस सवाल में ये फॉर्मूला लगाओ, उत्तर आ गया, वो समझा देगा। पर जो व्यक्ति सचमुच समझ चुका है उसको समझाने में थोड़ी सी कठिनाई होगी। समझा वो भी देगा पर उसको थोड़ा श्रम करना पड़ेगा, उसको विचार करना पड़ेगा बाद में कि अच्छा जो मैंने करा अब इसको सिद्धान्त के फ्रेमवर्क (ढाँचे) में कैसे समझाऊँ, तो प्रयास करके समझा देगा।

लेकिन जिसने सिद्धान्त के ही आधार पर; सिद्धान्त माने आयातित ज्ञान, वही उधारी का प्रकाश, चन्द्रमा वाला; पर जिसने सिद्धान्त के ही आधार पर करा है, वो तत्काल समझा देगा। समझ में आ रही बात ये?

तो अर्जुन कह रहे हैं; ‘बताइए, बताइए। बताइए, बताइए; कौन है वो, दुर्योधन से पहले उसी का वध कर देता हूँ। जो मेरे ऊपर नहीं सबके ऊपर, मेरे ऊपर कौन चढ़ सकता है, मुझे तो सारी बात समझ में आ गयी, पर ये जो साधारण अज्ञानी लोग हैं, मतलब हम और आप तो कृष्ण एक ही तरफ़ और एक ही तल पर हैं, बाक़ी ये सब जो मूर्खों की फ़ौज खड़ी है; इनको क्यों नहीं बात समझ में आती? व्हाई आर दे सो इग्नोरेंट (वो इतने अज्ञानी क्यों हैं )?

जैसे आप लोग कई बार कहते हैं न, ‘घर वालों को कैसे समझाएँ, हम तो समझ गये।’ तो मैं ऐसे देखता हूँ ; ‘अच्छा, आप समझ गये?’ कइयों को इतना समझ में आ जाता है, वो कहते हैं कि इतना समझ लिया, इतना समझ लिया कि समझ हजम नहीं हो रही, एक महीने का ब्रेक (अवकाश) लेना है। ग़ज़ब, ऐसी समझ!

कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, ‘कैन वी स्किप अध्याय फोर प्लीज़? (हम अध्याय चार छोड़ सकते हैं क्या)। अध्याय तीन से सीधे पाँच में आ जाते हैं’, ‘लेट्स डू दैट कृष्ण (हम ये कर सकते हैं कृष्ण), क्योंकि पूरा समझ में आ गया है।’ भई आप भी अगर बोलते हो महीने-दो महीने नहीं रहना है तो इसका मतलब ही यही है कि अध्याय तीन से सीधे अध्याय पाँच में जाना है आपको। इतना समझ में आ गया! सब तो आ गया समझ में।

अब वो लगना आसान है बहुत कि सब आ गया समझ में, क्योंकि यहाँ तो एक-एक श्लोक पर कभी तीन घंटे कभी पाँच घंटे चर्चा होती है, और उसमें एक सफ़ाई होती है, एक स्पष्टता होती है, एक तार्किक प्रवाह होता है, बहुत आर-पार की बात होती है। जैसे पारदर्शी साफ़ पानी।

तो ये भ्रम हो जाना आसान ही है कि मुझे सारी बात समझ में आ गयी। इसीलिए जब गीता शुरू होती है तो मैं कहा करता हूँ सबसे पहले तो देखो कि तुम अर्जुन हो। आज अर्जुन के इस वक्तव्य में; बड़ी देर बाद बोले हैं अर्जुन। पता नहीं क्यों बोले हैं अर्जुन, पर अर्जुन का बोलना ज़रूरी था, नहीं तो हमें समझ में नहीं आएगा कि कोई कृष्ण इतना श्रम क्यों करता है। इसलिए!

क्योंकि अब लगभग डेढ़ सौ श्लोक होने को आये, और अर्जुन अभी भी मैं पर नहीं पहुँच पाये। सारी बात किसके लिए कर दी? मनुष्य मात्र, जगत, सब लोग! कह रहे हैं, ‘पुरुष:’ मनुष्य! मैं नहीं। अभी भी मैं तक अर्जुन नहीं पहुँच पाये। इसलिए न इतना श्रम करना पड़ रहा है, नहीं तो सच मानिए तो सांख्ययोग पर्याप्त है। जो उच्चतम बात है वो एकदम आरम्भ में बोल दी है कृष्ण ने।

कृष्ण ये थोड़े ही करेंगे कि पहले छोटी बात बताएँ फिर बड़ी बात बताएँ, उन्होंने तो जो सबसे ऊँचा सर्वोत्कृष्ट हो सकता है वो सबसे पहले अर्जुन के सामने रख दिया है कि अर्जुन इसी से अगर बात बन जाए तो इससे बेहतर तो कुछ हो ही नहीं सकता। जब अर्जुन प्रदर्शित कर रहे हैं कि अभी वो इस योग्य नहीं हैं कि ज्ञान मात्र से ही उनकी गाँठ खुल सके; तब फिर कृष्ण आगे बात को लाते हैं, और आगे लाते हैं, और आगे लाते हैं, और आगे लाते हैं। बात को समझ रहे हो?

हमने बात करी भ्रामक स्पष्टता की, इम्पोर्टेड क्लैरिटी, एज़ डिसेप्शन, सेल्फ़ डिसेप्शन (धोखे से मिली स्पष्टता, आत्म स्पष्टता)। अद्वैत लाइफ एजुकेशन के दिनों की बात है, तो सत्र तो तब भी होते थे। तो एक था वो दो-एक साल साथ में रहकर के काम करके फिर उसका बाहर अपना कुछ हो रहा था, वहाँ चला गया। विवाह वगैरह की बात थी, कुछ था तो उसके लिए वो छोड़-छाड़कर चला गया चला। चला गया होगा पर कुछ सद्बुद्धि थी तो सेशन (सत्र) में आने लग गया।

तो छः महीने आठ महीने बाद जो कि बहुत लम्बी अवधि नहीं होती; वो सेशन में आता है और बैठता है। पर मेरे ख़याल से उस दिन हम गुरु गोरखनाथ पर चर्चा कर रहे थे, तो उनकी बात को मैं मूल सिद्धान्तों के आधार पर बोलने लग गया, और ये मेरे सामने ही बैठा हुआ था, और उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।

तो मैंने देखा वो चुपचाप बैठा रहा सुनता रहा, फिर चले गये सब लोग, तो वो रुका रहा। तो मैंने पूछा क्या है? तो उसके एक आँसू गिर पड़ा; बोलता है, ‘मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा।’ मैंने कहा, ‘पर कोई नयी बात तो थी नहीं, तुम दो-तीन साल ये सब बातें सुन चुके हो, लगभग रोज़ सुन चुके हो।’ उसके पास कोई जवाब नहीं था; बोला, ‘मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा।’ और उसे छोड़े मुश्किल से छः-आठ महीना हुआ था।

कुछ भी समझ में नहीं आ रहा, वजह क्या है? आपको जो कुछ भी समझ में आया था वो आपका अपना नहीं था, वो एक प्रभाव क्षेत्र का था। आप जैसे ही उस क्षेत्र से बाहर निकले आपकी सारी समझ विलुप्त हो गयी, आपकी थी ही नहीं वो। हाँ वहाँ रहकर के आपको ये भ्रम बन जाता है कि आपको समझ में आ गया।

ये भ्रम दो तरीक़े से मारता है; पहला, ये आपको और ज़्यादा मेहनत करने से रोकता है समझने के लिए; क्योंकि जब समझ में आ ही गया तो और मेहनत क्यों करें, और दूसरा और जो ज़्यादा ख़तरनाक इसका प्रभाव है वो ये है कि ये आपमें एक झूठा आत्मविश्वास पैदा कर सकता है कि जब समझ में आ ही गया है तो आगे सुनने की ज़रूरत ही क्या है।

और आगे सुनने की ज़रूरत है या नहीं वो इसी से पता चल जाता है कि जब छः महीने बाद स्मृति हटने लगी तो तुम्हारे पास क्या बचा, क्योंकि स्मृति तो मिट जानी है। कहीं और जाओगे, कुछ और काम करोगे, नये अपने जीवन में, गृहस्थी में प्रवेश कर जाओगे; वहाँ दूसरी चीज़ें स्मृति बनना शुरू हो जाऍंगी। ये जो चीज़ थी इसकी स्मृति तो बहुत तेज़ी से मिटने लगेगी फिर अब तुम्हारे पास क्या बचेगा?

इस चीज़ को जीवन में तो उतारा नहीं था न, बस कहाँ उतारा था? अधिक-से-अधिक स्मृति में उतारा था, और यहाँ जिह्वा पर उतारा था, और वो सब तो बहुत जल्दी पीछे छूटता है। छः महीने में हालत ये थी कि कुछ समझ में नहीं आ रहा। दुनिया बदल गयी है, ज़िन्दगी बदल गयी है, व्याकरण बदल गया है, पूरा शब्दकोश बदल गया है, मेरे मुहावरे बदल गये हैं, मुझे कुछ अब समझ में नहीं आ रहा। समझ रहे हैं बात को?

सतर्क रहिए क्योंकि ये तो कमाल है श्रीकृष्ण का, और सब ऋषियों का उपनिषदों में जाएँ तो, जहाँ कहीं भी कोई ज्ञानी बोलता है; ये उसका चमत्कार है कि वो माया को भी ऐसे बिलकुल सीधी लकीर की तरह आपके सामने रख देगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि माया सीधी लकीर होती है इसका अर्थ बस ये है कि उस व्यक्ति में अब अन्दर इतनी सिधाई आ गयी है कि बाहर की तमाम वक्रता भी अब उसके लिए ऐसी (सीधी) हो गयी है।

और आप उस सीधी लकीर को देखकर क्या सोचोगे? ‘माया तो बस यही है; यहाँ-से-यहाँ ऐसे, अभी काट दूँगा, अभी काट दूँगा।’

मैं आपसे पूछता हूँ; ईमानदारी से सोचिएगा थोड़ा समय लेकर, कोई कृष्ण आपको न बताएँ या वेदान्त दर्शन आपको न सुझाए कि निष्काम कर्म जैसा कुछ हो सकता है, क्या आपको आठ सौ साल में भी स्वयं ये विचार आएगा कि सबसे ऊँचा सबसे आनन्दप्रद काम वो है जो बिना कुछ पाने की अपेक्षा के करा जाए, स्वयं आठ सौ साल में भी यह विचार आएगा क्या?

लेकिन जब कृष्ण बताते हैं तो कैसा लगता है; ‘हाँ, ऑबवियसली (निश्चित ही)। ऐसे ही लगता है न, हाँ ये तो बिलकुल ऐसा है ही। जैसे कि उन्होंने न भी बताया होता तो कल-परसों में आप ख़ुद ही बूझ गये होते। यही लगता है न कि इन्होंने ऐसा क्या ख़ास उखाड़ दिया! अरे भाई, इतनी सरल और सीधी बात है, प्रत्यक्ष बात है, ऑबवियस (ज़ाहिर) है। कि ये न भी बताते तो; ठीक है, इन्होंने बता दिया थोड़ा तो आज समय बचा दिया, वैसे कोई बड़ी बात नहीं थी। आज ये नहीं बताते तो कल तो मैं ख़ुद ही जान जाता क्योंकि बात है ही इतनी सीधी।

अरे भैया, बात इतनी सीधी नहीं है, नहीं है, नहीं है। बात इतनी सीधी होती ही तो क्या पड़ी थी सन्तों को वो सब बात बोलने की, कि गुरु गुण कहा न जाए और सात समुद्र की मसि करूँ, लिखा न जाए। काहे के लिए बोलते? कल अभी बोल रहे थे, “बिन सदगुरु कितना दुख पाया।”

बात अगर इतनी सीधी होती कि ख़ुद ही; और गुरु माने यहाँ कृष्ण गुरु हैं और कोई नहीं गुरु है। बात इतनी सीधी होती कि स्वयं ही बूझ लेते तो करना क्या है किसी ज्ञानी का? या लिखकर दे देते अर्जुन को, ‘अर्जुन सेल्फ़ स्टडी (स्वाध्याय) कर ले।’ अर्जुन तो हैं ही स्वाध्यायी, महान; वो कर लेते। या गीता बोलने की भी क्या ज़रूरत है, सच पूछो तो गीता में ऐसा कुछ भी नहीं है जो उपनिषदों में न हो।

बस गीता में वो और ज़्यादा व्यवहारिक होकर के और पार्थिव होकर के हमारे सामने आता है, और जीवंत होकर हमारे सामने आता है। वरना जो यहाँ लिखा है वो सारी बातें तो उपनिषदों में भी हैं। क्यों नहीं कर दिया कृष्ण ने कि अर्जुन, जाओ और ये कम-से-कम ये दो-चार जो प्रमुख उपनिषद् हैं वो पढ़कर आ जाओ? और उपनिषद् कोई बहुत विशाल ग्रन्थ तो हैं नहीं। एक-दो को छोड़कर।

ऐसे-ऐसे भी उपनिषद् हैं कि उनको आदमी दो-तीन घंटे में ही पूरा पढ़ डाले। ये पूरी गीता काहे को बतायी, इतना क्यों समझाया, अगर मात्र सूत्रों से ही समझना आसान होता तो इतना श्रम क्यों करते कृष्ण? और अगर श्रीकृष्ण की बात से भी समझना इतना आसान होता तो श्रीकृष्ण के बाद शंकराचार्य आदि इतने विस्तृत भाष्य क्यों लिखते?

पहली बात तो एकदम तात्विक दृष्टि से देखो तो गीता की कोई आवश्यकता नहीं है, उपनिषद् पर्याप्त हैं। और, और आगे बढ़ो तो फिर भाष्यों की क्या ज़रूरत है, श्रीकृष्ण बोल तो गये हैं। ये इतने विस्तृत भाष्य काहे को लिखे गये? लेकिन फिर भी लोग हैं, उनसे पूछो क्या? बोले, ‘हमने भी गीता पढ़ी है।’ कैसे पढ़ी? बोले, ‘वो श्लोक लिखा था और नीचे उसका अनुवाद लिखा था, हमने पढ़ लिया, हमारी गीता हो गयी।’

मालिक! सत्य हो न हो, माया ज़रूर है; इतना पक्का है। सत्य तो अप्रमेय है, उसका कहीं कोई प्रमाण मिलता नहीं, लेकिन माया का साक्षात् प्रमाण मालिक आपके वचन और आपके वदन में उपस्थित है। तुम्हारा मुँह नहीं है, माया है। और तुम्हारे मुँह से बोल नहीं फूट रहे, माया ही फूट रही है। क्या बोल रहे हैं, ‘हमने भी गीता पढ़ी है।’ वाह बेटा!

इसीलिए ज्ञान की संगत ख़तरनाक होती है। आप आत्मविश्वास से भर जाते हो, आप कॉम्प्लेसेंट (आत्मसन्तुष्ट) हो जाते हो कि जैसे क्लास का टॉपर (कक्षा में प्रथम) और क्लास का फिसड्डी दोनों परीक्षा से एक दिन पहले शाम को मिलें, और टॉपर (प्रथम) फिसड्डी से बोले, ‘‘अरे! कुछ भी नहीं, कल का तो बहुत ही सरल है, बहुत ही सरल है। ये रहे पिछले सालों के सारे सवाल, और मैंने इनको दो-दो लाइनों में हल कर दिया है।’ और फिसड्डी कहे, ‘ऐसी बात! इतना सरल है?’ बोले, ‘हाँ बहुत सरल है; ये देखो, ये रहा सवाल, ये रहा जवाब।’ और फिसड्डी देखे, ‘बोले हाँ बहुत सही बात है, ये तो कुछ भी नहीं है।’

टॉपर बोले, ‘चलो फिर क्या करना है, कहीं चलते हैं अभी; शाम बिताते हैं, रात बिताते हैं, बाज़ार-वाज़ार घूमते हैं, खेलते हैं, खाते हैं।’ और फिसड्डी महाराज भी पूरी शाम और देर रात तक क्या कर रहे हैं? घूम रहे हैं इधर-उधर। भरोसा पूरा है कि जो पूरा पाठ्यक्रम है और पर्चा है परीक्षा का, दोनों बहुत ही सरल हैं। क्योंकि किसने प्रमाणित कर दिया कि सरल हैं?

वो जो टॉपर बैठा हुआ है। और अगले दिन आती है परीक्षा, और क्या होता है परीक्षा में, क्या होता है? वो तो हंसा है वो तो निकल जाएगा, और इधर कौआ चला हंस की चाल; इसका क्या होगा? ये बैठा कह रहा है कि कल तो सब बहुत सरल लग रहा था, और सवाल ऐसे ही थे मिलते-जुलते थे।

उसने लेकिन खट-खट-खट-खट चुटकी बजाते सारे हल कर रखे थे। अब वो इधर-उधर कहीं है नहीं, क्योंकि जीवन की हर चुनौती में आप ये नहीं कर पाओगे कि गीता का श्लोक उठाकर के आप वहीं पर तैनात कर दो, फिट कर दो। कह रहे हैं अब तो वो कहीं पर है नहीं टॉपर , और अब ये चुनौती मुझे ख़ुद से हल करनी है मुझसे हो नहीं रही।

तो ज्ञानी की संगति में ये ख़तरा रहता है, आप कॉम्प्लेसेंट (आत्मसन्तुष्ट) हो सकते हो, आप झूठे आत्मविश्वास से भर सकते हो। जो चीज़ आप जानते नहीं, वो भी आपको लग सकती है कि आप जानते हो। और ये परखने का तरीक़ा यही है, ज़िन्दगी देखो अपनी, ज़िन्दगी। आपकी ज़िन्दगी में गीता कितनी उतरी है ये देखो, अन्यथा गड़बड़ हो सकती है।

मैं समझ गया, ये छोटा सा वाक्य ख़तरनाक है। मैं समझ गया, इसका मतलब बौद्धिक नहीं हो सकता, शाब्दिक नहीं हो सकता, भाषाई नहीं हो सकता। सिर्फ़ इसलिए कि आप किन्हीं शब्दों का या सिद्धान्तों का मन में भाषागत अर्थ कर पाते हो इससे समझ की पुष्टि नहीं होती इससे बस अनुवाद की पुष्टि होती है। और अनुवादक को आप ज्ञानी तो नहीं बोलोगे न, या बोलोगे?

हम अनुवाद करते हैं, वास्तविक ज्ञान, बोध, बिलकुल अलग बात होती है, उसकी पुष्टि मात्र; ये पाँचवीं-सातवीं बार बोल रहा हूँ, उसकी पुष्टि मात्र जीवन से होती है। ज़िन्दगी कैसी है, ये बताओ! इसको हम अपनी ठेठ भाषा में क्या बोलते हैं संस्था में, ‘बात हटाओ, काम दिखाओ।’ मुँह मत चलाओ यार! क्या करके लाये ये दिखाओ! मुँह चलाने वाले तो बतोले बहुतेरे होते हैं। ऐसा है, वैसा है, ये-वो, बातें लम्बी-चौडी, ये लम्बे-लम्बे मैसेजेस (सन्देश)।

मैं कई बार कहता हूँ, मैं कहता हूँ जितनी देर में तूने ये सन्देशा टाइप किया (लिखा), इतनी ही देर में कुछ काम कर लिया होता! काम क्यों नहीं किया, ये बताने के लिए डेढ़ घंटे तक काम किया उसने। दिन भर में सबसे ज़्यादा काम वो यही करता है, ये समझाना कि काम क्यों नहीं किया। ये उसका सबसे बड़ा काम है पूरे दिन भर का। काम न करने वालों का सबसे बड़ा काम यही होता है; द मेजर टास्क ऑफ द डे (दिन का सबसे बड़ा काम )।

कह रहे हैं, अभी वो बहुत बड़ी समस्या बाक़ी है, वो बड़ा वाला काम तो अभी करना शेष है न, इधर से, उधर से सन्देश लिखेंगे, झूठ बोलेंगे। अपोलॉजीज़- अपोलॉजीज़ (खेद है) करेंगे।

ज़िन्दगी! क्या? ज़िन्दगी! लाइफ़ विद नो एक्सक्यूजेज़ (बिना किसी बहाने के जीवन)। ये अपोलॉजी (खेद है) शब्द ही ज़िन्दगी से हटा दो। जिन्हें समझ में आता है, उनकी ज़िन्दगी में जो शब्द आता है उसको बोलते हैं एक्शन (कर्म)। जिन्हें नहीं समझ में आता है, उनकी ज़िन्दगी में जो शब्द आता है उसे बोलते हैं अपोलॉजी (खेद है)।

समझ और एक्शन (कर्म) का क्या सम्बन्ध है? वही जो आत्मज्ञान और कर्मयोग का है। जिसके पास आत्मज्ञान है उसका कर्मयोग एकदम निसृत हो जाता है न, तत्काल फलित होता है। हाँ, तो वो एक्शन में उतर जाता है। समझ में आया है तो एक्शन होगा, समझ में नहीं आया है तो अपोलॉजी।

अपोलॉजी का अर्थ क्षमा याचना हो आवश्यक नहीं है, अपोलॉजी का अर्थ होता है कारण बताना। वो बस कारण ढूँढेगा, और सारे कारण वो कहाँ ढूँढेगा? ठीक वहीं जहाँ अर्जुन ढूँढ रहे हैं; कहाँ? बाहर। ‘वो वैसा हो गया, वो वैसा हो गया, मेरे दाँत में दर्द था।’ खाना तो तूने तीन वक़्त का खाया, खाना तो तूने तीन वक़्त का खाया; फ़ोन पर बात करने के लिए दाँत में दर्द था। मैं तो तब मानूँ जब दाँत में इतना दर्द था कि तूने हफ़्ते से खाना ही न खाया हो, वज़न तो तेरा बढ़ता ही जा रहा है रोज़-रोज़, तब तो तेरे दाँत में नहीं दर्द होता। नहीं, ये चाँद वाले चौधरी हैं। समझ में आ रही है बात?

कुछ नहीं है इनके पास अपना, अभागे! और बड़ा अभाग ये कि इनको इनका अन्धेरा दिखाई भी नहीं पड़ रहा क्योंकि ये सूरज की संगति में हैं। उसके प्रकाश में नहाकर के इनको स्वयं ही ये भ्रम हो जाता है जैसे ये ही दैदिप्यमान हों; स्वयं ही ये भ्रम हो जाता है, ‘मुझे भी तो कुछ पता है’, और ऊपर से सारे तारे; सब तारागण आ-आकर बोलते हैं, ‘महाराज क्या आपकी चमक है, क्या विमलकीर्ति है।’

वो सब लोग कह रहे हैं कि क्या आपने बात बोली है, ग़ज़ब बात। और बहुत लोगों से दिन भर में चर्चा होती है, वो सब तारे हैं। और दो-चार उनको सिद्धान्त बता दिये फ़ोन पर, उनको भी लगता है कि ये तो बहुत महान ज्ञानी हैं, उन्हें क्या पता है ये कितना ज्ञानी है कि क्या है। बात समझ में आ रही है न?

तारागण, ‘ई टी’ उनको लग रहा है, ये चाँद बहुत कुछ जानता है। उनको लग रहा है ये चाँद, जबकि तथ्य ये है कि तारों के पास भले ही टिमटिमाहट हो पर वो उनकी अपनी है। ये तो जो चाँद बने घूम रहे हैं इनके पास अपना कुछ नहीं है, शून्य। भ्रम में न रहो; न दतोले बनो, न बतोले।

जीवन को अपने देखो, थोड़ी ईमानदारी रखो। कोई कृष्ण, कोई गीता, कोई उपनिषद्, कोई गुरु आपकी अपनी ईमानदारी का विकल्प नहीं हो सकता। वही ईमानदारी, सत्यनिष्ठा कहलाती है, वही प्रेम कहलाती है; वो नहीं है तो उसकी जगह कुछ भी और हो, पर्याप्त नहीं पड़ेगा। समझ में आ रही बात?

और वो है तो बाक़ी सब धीरे-धीरे अपनेआप आ जाता है। आपकी ही फिर ईमानदारी होती है जो आपके सामने कभी गीता, कभी गुरु बनकर साक्षात् आ जाती है। गीता यूँही नहीं आती है आपके सामने, गीता ऐसे समझ लीजिए कि एक स्थूल प्राकट्य है आपके ही भीतरी प्रेम का।

जब कृष्ण के प्रति प्रेम होता है न भीतर, कृष्ण माने सत्य। जब सत्य के लिए भीतर प्रेम होता है तो बाहर किसी-न-किसी तरीक़े से फिर गीता प्रकट हो जाती है। भीतर मामला ठीक है तो बाहर जल्दी ही कुछ शुभ घटित हो जाएगा, पर भीतर बेईमानी का अन्धेरा है तो बाहर सौ सूरज भी जगमगाते रहें, उनका प्रकाश बस आपसे क्या होता रहेगा, रिफ़्लेक्ट (परावर्तित) होगा, आपके भीतर जाकर के वो आपको आलोकित नहीं कर पाएगा।

साहब किस दिये की बात कर रहे थे जो बाहर सौ दिये जलते हैं? अभी सन्त सरिता में क्या बोल रहे थे; यहाँ (हृदय), यहाँ पर दिया जलता है, वो दिया पर्याप्त है। बाहर के सौ सूरज यहाँ के एक दिये की बराबरी नहीं कर सकते। जैसे बाहर आँधी-तूफ़ान चलते रहें, क्या गति होती है आँधियों की, तूफ़ानों की।

लेकिन क्या वो आपकी इस साँस की गति का विकल्प बन सकते हैं? जिसकी अपनी साँस नहीं चल रही, उसके बाहर ज़ोरदार हवाएँ भी चल रहीं हों, तो प्राण आ जाएँगे? और भीतर बस ये साँस चल रही है, ये कितनी ज़ोरदार होती है हवा, कुछ भी नहीं। कितना ज़ोर है साँस में, ज़्यादा नहीं। लेकिन ये अपनी है इसलिए प्राण है, और बाहर आँधियाँ भी चल रहीं हों, वो आपके अपने प्राणों का विकल्प नहीं हो सकतीं।

कभी देखा है, कोई रिकॉर्डिंग देखिएगा किसी भी चीज़ की; एथलेटिक्स (खेलकूद) की देख लीजिए, स्विमिंग (तैराकी) की देखिए, टेनिस-बैडमिन्टन किसी चीज़ की देख लीजिए। क्रिकेट आप देखते हो, जब टीवी पे देखते हो तो कैसा लगता है, या फुटबॉल देखते हो तो कैसा लगता है? कितना आसान है, कितना आसान है, और यहाँ तक कि हम ख़ुद ही उसको सलाह देने लगते हैं बल्कि आदेश देने लगते हैं। ‘अरे, अब ये कर न!’

बैडमिंटन कोर्ट पर आप रिकॉर्डिंग देखते हो वो अपना आराम से ऐसे हवा की तरह जैसे फुदक-फुदककर कोर्ट में उस कोने से उस कोने जा रहे हैं, और दौड़ भी नहीं रहे, टहलते हुए वहाँ से यहाँ जाते हैं, और तीस-तीस शॉट की रैली चल रही है। तब क्या लगता है, कैसा है?

श्रोता: आसान है।

आचार्य: हाँ, उससे हमें भी ये भ्रम हो सकता है कि आसान है। स्क्रीन पर आप देखते हो, गेंद आयी, उसने ऐसे किया और गेंद कहाँ गयी? और आपको खड़ा कर दिया जाए वहीं पर उसी गेंदबाज़ के सामने, एक-सौ-चालीस की उसकी गति है, और कहा जाए बीस में से एक गेंद छूकर दिखा देना, छक्का दूर की बात है, छू देना गेंद को, छुई नहीं जाएगी। है कि नहीं? पर जब कोई दूसरा कर रहा होता है तो कैसा लगता है?

श्रोता: आसान है।

आचार्य: आसान है, आसान नहीं है। और दूसरे को एक मील दौड़ते देखने से कहीं ज़्यादा मूल्य है स्वयं दस क़दम चल लेने में भी अपने पैरों पर। दौड़ गया होगा कोई दूसरा एक मील, हम प्रशंसा करते हैं और सम्मान करते हैं, ऊँची बात, अच्छी बात। लेकिन मूल्य ज़्यादा हमारे दस क़दम चल लेने में है, अपने पैरों पर। उसकी प्रशंसा करो भी तो बस इस दृष्टि से कि आप इतना करे हो थोड़ा हम ख़ुद भी करेंगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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