गीता पढ़नी है लेकिन समय नहीं है || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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गीता पढ़नी है लेकिन समय नहीं है || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2022)

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्॥

ऐसा नहीं है कि मैं कभी नहीं था और तुम भी नहीं थे या यह राजा लोग भी नहीं थे। और यह भी नहीं है कि इसके अनन्तर हम सब लोग नहीं रहेंगे।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय दो, श्लोक १२

आचार्य प्रशांत: “ऐसा नहीं है कि मैं कभी नहीं था और तुम भी नहीं थे या ये राजा लोग भी नहीं थे। और यह भी नहीं है कि इसके अनन्तर हम सब लोग नहीं रहेंगे”।

अर्जुन, रूप-रंग, वेशभूषाएँ बदल रही हैं। वही एक बहुत पुराना खेल है जो चल रहा है। उस खेल के मध्य में तुम हो अर्जुन, उस खेल के एक सिरे पर मैं हूँ अर्जुन और उसके दूसरे सिरे पर यह सारा संसार है अर्जुन — लगातार चल रहा है खेल। हाँ, समय है, घड़ी की टिक-टिक है, हमें ऐसा लगता है कुछ बदल गया। क्या बदल जाता है? चेहरे बदल जाते हैं, अस्त्र-शस्त्र बदल जाते हैं, जगहें बदल जाती हैं, पर बात वही रहती है।

जैसे एक नाटक लिखा गया हो; बार-बार खेला जाता हो वही नाटक। किरदार बदल जा रहे हैं, रंगमंच की साज-सज्जा बदल जा रही है, संवाद बदल जा रहे हैं, पर विषयवस्तु एक ही रह रही है। नाटक का केन्द्रीय भाव जैसे कोई दूसरा हो ही नहीं सकता, थीम (विषयवस्तु) बदल ही नहीं रही है। इन तीन के अलावा जैसे मंच पर कभी और कोई होता ही नहीं — अर्जुन, कृष्ण और संसार।

तो ऐसा कब था कि समय रहा हो और अर्जुन न रहा हो? ऐसा कब था कि समय हो और कृष्ण न हों और यह संसार न हो? समय का अर्थ ही है कि यह तीन ही रहे हैं लगातार और इन तीन के अतिरिक्त कोई नहीं और इन तीन से कम कोई नहीं। ये तीन जब तक रहेंगे तब तक समय रहेगा और जब तक समय रहेगा ये तीन रहेंगे। समय का अर्थ ही है इन तीनों का होना। जैसे समय बह ही इसीलिए रहा है कि अर्जुन जाएँ और कृष्ण से एक हो जाएँ। जैसे समय स्वयं प्रतीक्षा कर रहा है अर्जुन के शरणागत हो जाने की।

समय चलता ही इसीलिए जा रहा है, क्योंकि उसे वहाँ पहुँचना है जहाँ अर्जुन झुक गए हैं कृष्ण के सामने और जब वैसा होता है तब समय रुक जाता है। और फिर कोई और धारा किसी और अर्जुन, किसी और कृष्ण की तलाश में आगे बढ़ जाती है — खेल चलता रहता है। जिस क्षण अर्जुन ध्यानस्थ हो गये कृष्ण के समक्ष, अर्जुन के लिए समय रुक गया।

कृष्ण के विराट रूप का अर्थ समझिए — विराट रूप का अर्थ यही नहीं है कि कृष्ण ने कौरवों को खा लिया कि पूरी सेना कृष्ण में समाती जा रही है कौरवों की और राख होती जा रही है। विराट रूप का अर्थ है कृष्ण ने काल को ही खा लिया, समय रुक गया है उस समय, वह क्षण जैसे अन्तिम है। अन्तिम इसलिए है, क्योंकि उसके बाद अर्जुन की तलाश मिट गयी। जब तक खोज है तब तक समय है उसके बाद घड़ी अपनी ओर से चलती रहेगी — घड़ी तो एक यन्त्र है — घड़ी के चलने से समय नहीं चलता रहता।

आप भी एक ऐसी स्थिति में आ सकते हैं जहाँ घड़ी तो चलेगी, लेकिन आपके लिए समय रुक गया होगा। अब आपकी तलाश मिट गयी, समय अब आपके लिए चल नहीं रहा आगे। आठ बजता है, दस बजते हैं, ग्यारह बजते हैं फिर दो बजते हैं, चार बजते हैं यह सब बज रहा है, लेकिन समय का आगे बढ़ते रहना अब आपके लिए अर्थहीन हो गया है। समय की सार्थकता ही तब तक है जब तक आपकी यात्रा बची हुई है।

तो समय के विषय में कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, ‘समय का कोई पल ऐसा रहा नहीं है जब तुम न हो, मैं न हूँ या ये राजा लोग न हों। हम ही तीनों का नाम समय है।’ दो क्यों नहीं हो सकते समय में? क्योंकि सिर्फ़ अर्जुन होंगे और कृष्ण होंगे तो समय तत्काल समाप्त हो जाएगा, अर्जुन के पास कोई विकल्प ही नहीं होगा, अर्जुन को जाकर के कृष्ण से ही मिल जाना होगा।

यह त्रिभुज चाहिए जहाँ अर्जुन के पास विकल्प हो सदा कृष्ण की ओर भी जा सकते हैं और संसार की ओर भी जा सकते हैं — इसी त्रिभुज का नाम समय है।

इसी त्रिभुज का नाम है मनुष्य का जीवन; जीवन माने समय। एक कोने में तुम खड़े हो, एक तरफ़ वो (कृष्ण) हैं, एक तरफ़ वो (संसार) है, बोलो जाना कहाँ है? और कभी भी तुम सिर्फ़ एक तरफ़ को जा नहीं पाते। घूमते-फिरते रहते हो, थोड़ा सा इधर बढ़े, थोड़ा सा उधर बढ़े। बड़ा लम्बा-चौड़ा त्रिभुज है, पूरा संसार उसमें समाया हुआ है, बहुत भटक सकते हो — बड़ी सुविधा है भटकने की — उम्रभर भटक लो।

अर्जुन, कोई समय ऐसा नहीं रहा है जब ये नहीं थे, मैं नहीं था या तुम नहीं थे। तुम शोक किसके लिए कर रहे हो? तुम्हें लग रहा है बात नयी-नयी है, तुम्हें लग रहा है कि तुम वही तो हो जो माँ कुन्ती के गर्भ से पैदा हुए हो। कहाँ तुम, अर्जुन, अज्ञान में फँसे हुए हो! तुम्हारा एक संस्करण पैदा हुआ है, तुम तो बहुत पुराने हो, तुम अपने जन्म से पहले के हो, बहुत पहले के। तुम तब से हो जब से समय है। और मैं, अर्जुन, मैं तब से हूँ जब समय भी नहीं था। ये राजा लोग भी तभी से हैं जब से समय है। यहाँ कुछ नया नहीं है, यहाँ बस रूप बदलते हैं; नया कभी कुछ होता नहीं।

कहानी बहुत पुरानी है लेकिन लगती हमेशा अनूठी है, एकदम नयी-नयी, ताज़ी-ताज़ी। हर बच्चा यही सोचता है ‘अभी-अभी आया हूँ।’ जन्मदिन मनाता है और हर मौत पर हमको यही लगता है कुछ मिट गया, अन्त आ गया। कभी कहाँ अन्त होता है? जो अन्त मना रहे हैं, अगर वे खड़े हैं किसी का अन्त मनाने के लिए, तो अन्त अभी आया कहाँ? चल ही तो रहा है खेल। बाप को बेटा आग दे रहा है, बाप मर गया होता तो बेटा कहाँ से आता आग देने के लिए?

बाप मरा कहाँ है? बाप ही तो अभी ज़िन्दा है ख़ुद को आग देने के लिए। और जो आग दे रहा है वह अपने भीतर उसको बिठाये हुए है जो उसको आग देगा। कोई कहाँ मर रहा है? कोई कहाँ जन्म ले रहा है? रूप बदल रहे हैं, भेस बदल रहे हैं, किस्सा पुराना है।

पता नहीं अर्जुन को बात समझ में आ गयी है या नहीं आयी है, अभी तो सत्रह अध्याय बाकी हैं।

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।

जिस प्रकार देहधारी जीव के लिए इस शरीर में बचपन, युवावस्था और बुढ़ापे की अवस्थाएँ हैं, उसी प्रकार अन्य शरीर-ग्रहण भी उसके लिए एक अवस्था है। उसमें ज्ञानी व्यक्ति मोह को प्राप्त नहीं होते।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक १३

आचार्य प्रशांत: “जिस प्रकार देहधारी जीव के लिए इस शरीर में बचपन, युवावस्था और बुढ़ापे की अवस्थाएँ हैं, उसी प्रकार अन्य शरीर-ग्रहण भी उसके लिए एक अवस्था है। उसमें ज्ञानी व्यक्ति मोह को प्राप्त नहीं होते”।

इतना तो दिखता है न अर्जुन कि एक व्यक्ति निरंतर अपने रूप बदलता रहता है? तब क्यों नहीं रोते हो अर्जुन? बोलो। परिवर्तन अगर इतना ही बुरा है तो बाल अर्जुन कहाँ गया? उसके लिए क्यों नहीं रोये? क्यों नहीं कहा कि उसकी मृत्यु हो गयी? तब तो तुम्हारी स्थूल आँखों को दिख जाता है कि मरा नहीं है बस परिवर्तित हो गया है, तो क्या शोक मनाएँ।

मुझे दिखाओ बाल अर्जुन कहाँ है? कहाँ है? बोलो कहाँ है? खोज कर लाओ कहाँ है। एक दिन उसका जन्म हुआ था, आज वह कहाँ है, खोज कर लाओ उसको। बाल अर्जुन कहाँ है? और अगर नहीं मिल रहा, तो शोक क्यों नहीं कर रहे? ‘अरे मर गया, मिल ही नहीं रहा।’ शोक क्यों नहीं किया?

तब तो बड़ी चतुराई से कह दोगे, ‘नहीं, मरा नहीं है। बस परिवर्तित हो गया है।’ तब तो कह दोगे कि परिवर्तित हो गया है। और वहाँ बात स्थूल थी दिख गयी; यहाँ बात सूक्ष्म है दिख नहीं रही। यहाँ भी कोई मरता नहीं बस परिवर्तित होते रहते हैं। परिवर्तित न हो रहे होते तो सब एक जैसे क्यों होते?

अच्छा, बाल अर्जुन ही युवा अर्जुन बना है यह तुम कैसे निश्चित कर पाते हो? ऐसे कि बाल अर्जुन के बहुत सारे गुण-धर्म तुमको युवा अर्जुन में भी दिखायी देते हैं, है न? तो कह देते हो, ‘यह तो वही है, वही है। शोक क्या करना? यह तो वही है।’ है न? बोलो। ‘तो क्या इसमें तो कोई दिक्क़त की बात नहीं।’ और तुमको दिख नहीं रहा है कि जितने मर रहे हैं और जितने जीवित हैं, उन सब में एक ही मूल गुण है — प्रकृति का मूल गुण, प्रकृति की मूल वृत्ति। वो एक ही तो हैं, तो कोई कहाँ मर रहा है?

तुम छोटे हो, तुम्हारा कुछ नाम है, तुम्हारा नाम राघव है। ठीक है? और तुम्हारा एक चेहरा है। ठीक है? और उस चेहरे में सदा कुछ भाव रहता है, और वो जो भाव है वो पाँच-छः ही प्रकार के रहते हैं। कौन से पाँच-छः प्रकार के? काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ इत्यादि यही सब रहते हैं। फिर तुम बड़े होते हो और तुम्हारा नाम तब भी राघव रहता है और तुम्हारे चेहरे पर भी वही भाव-भंगिमा रहती है, इसीलिए कोई शोक नहीं करता। कहते हैं, ‘वह जो बच्चा था, वही तो बड़ा हो गया है। वही है, बच्चा मरा नहीं है, परिवर्तित हो गया है।’ तो कोई शोक नहीं करता।

अब तुम नहीं रहोगे, कोई और आ जाएगा। दोनों का असली नाम तो अभी भी एक ही है न। तुम्हारा नाम भी था ‘अहम्’, उसका नाम भी ‘अहम्’ है। नाम कहाँ बदला? जैसे छोटे राघव का नाम ‘राघव’ था, बड़े राघव का भी क्या नाम था? ‘राघव’। वैसे ही तुम्हारा असली नाम क्या है? ‘अहम्’। तुम मर जाओगे, कोई और होगा उसका असली नाम क्या होगा? तो कोई कहाँ मरा? अहम् तो अभी भी ज़िन्दा है।

तुम्हारे चेहरे पर जो भाव दिखायी देते थे, तुम मर जाओगे, दूसरे व्यक्ति के चेहरे पर भी तो वही भाव हैं। क्या भाव थे तुम्हारे चेहरे पर? भय, लोभ, मद, मात्सर्य यही सब। वह जो दूसरा व्यक्ति है उसके चेहरे पर भी क्या है? वही सब कुछ है न? तो तुम में और दूसरे में अन्तर कहाँ है, मुझे यह बता दो। बस दिख नहीं रही है और दिख इसलिए नहीं रही है, क्योंकि तुम्हारी आँखें अपने जीवन काल को पैमाना बनाकर कुछ भी नापती हैं।

बात समझ रहे हो?

तुम चूँकि अस्सी साल जीते हो लगभग, तो तुम अस्सी साल के पैमाने पर बदलाव का आकलन करते हो। तो इसीलिए एक ही व्यक्ति में जब बदलाव होता है — वह पिछले दिन मर गया, अगले दिन जीवित हो गया — तो तुम्हें पकड़ में नहीं आता, क्योंकि अस्सी साल की अपेक्षा एक पल बहुत छोटा है। एक पल में जो बदलाव हो रहा है, वह तुम्हारी इन्द्रियों की पकड़ में आता नहीं है। मामला टेक्निकल (तकनीकी) है।

नहीं समझे? भाई, हर उपकरण का अपना एक कैलिब्रेशन (अंशांकन) होता है न? तुम थर्मामीटर (तापमापी) लेते हो, तुम्हारा तापमान आया अट्ठानवे दशमलव चार फॉरेनहाइट , ठीक? थोड़ा बढ़ गया, तुमने नापा, कितना आएगा? नहीं, अभी भी अट्ठानवे दशमलव चार आएगा, बताओ क्यों? क्योंकि उस उपकरण की इतनी सेंसिटिविटी (संवेदनशीलता) नहीं है कि अट्ठानवे दशमलव चार शून्य शून्य दो को पकड़ पाये वो। तो तुमको क्या लगता है कि तापमान अभी उतना ही है, जबकि बदल गया है।

इसी तरह से तुम्हारी आँखों को दिखायी नहीं देता कि पिछले दो मिनट में यह मर कर कुछ और बन गया, तो तुमको लगता है यह ज़िन्दा है। ज़िन्दा नहीं है, इतनी देर में न जाने कितनी बार मर गया। न जाने कोई और कितनी बार पैदा हो चुका। तापमान बढ़ा है बस तुम्हारा, थर्मामीटर उस बात को पकड़ नहीं पा रहा है। यह तुम्हारा जो उपकरण है न, (अपनी आँख की ओर इशारा करते हुए) यह उपकरण इसकी एक सीमित संवेदनशीलता है, लिमिटेड सेंसिटिविटी , तो यह पकड़ ही नहीं पाता कि मृत्यु हो गयी।

हाँ, जब कोई स्थूल घटना घटती है, जैसे कि एक छः फुट की देह गिर गयी, तो तुम कहते हो, ‘अरे मर गया, अरे मर गया, अरे मर गया’, क्योंकि वह बड़ी स्थूल घटना है। वह ऐसी है कि जैसे तापमान एक-सौ-छ: हो गया। अब तुम्हारा थर्मामीटर पकड़ लेता है, कहता है, ‘हाँ, अब तो बुखार है, पकड़ लिया।’

समझ में आ रही है बात?

परिवर्तन तो लगातार हो ही रहा है। और एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति में लगभग उतना ही अन्तर है जितना कि बाल अर्जुन और युवा अर्जुन में। अच्छा इतना बता दो चार वर्ष के अर्जुन में — तीन तुमको इकाइयाँ दे रहा हूँ, ठीक है — चार वर्ष के अर्जुन, चालीस वर्ष के अर्जुन और चालीस वर्ष के कर्ण इनमें से कौन है जो दो बिलकुल एक जैसे हैं?

तो चार और चालीस के अर्जुन में बहुत अन्तर है, लेकिन वहाँ तुम मानते ही नहीं कि चार वाला मर गया। लेकिन चालीस वर्ष के अर्जुन और चालीस वर्ष के कर्ण में जब युद्ध होगा और दोनों में से एक मर जाएगा तब तुम कहोगे, ‘देखो, देखो, एक की मौत हो गयी।’

जिसको हम निरन्तरता कहते हैं ‘कन्टिन्यूटी’, वह बहुत बड़ा भ्रम है। वह स्मृति का खेल है, वह स्मृति की सीमाओं का खेल है। कुछ भी निरन्तर यहाँ है नहीं; सब लगातार एक प्रवाह में है, सब बदल रहा है। बस सोच तुमको ऐसा भ्रम दे देती है कि चीज़ें वैसी ही हैं जैसी कल थीं। चूँकि आपके नापने का पैमाना बहुत सूक्ष्म नहीं है, इसीलिए जो लगातार आंशिक बदलाव हो रहे हैं उनको आप या तो पकड़ नहीं पाते या पकड़ भी लेते हो तो उनको नज़र-अंदाज़ कर देते हो।

आप कहते हो, ‘यह बदलाव तो कोई बदलाव है ही नहीं।’ आप भूल ही जाते हो कि वही जो न्यूनतम बदलाव होते हैं शून्य बराबर, वही जब अनन्त बार जुड़ जाते हैं तो वो फिर एक निश्चित परिणाम दे देते हैं।

जीवन इन्टीग्रल कैलकुलस (समाकलन गणित) की तरह है। इन्टीग्रेशन (समाकलन) में क्या होता है? अनन्त बार जोड़ा जाता है। और जिन इकाइयों को जोड़ा जाता है वो सब कितनी बड़ी होती हैं? टेन्डिंग टू ज़ीरो (शून्य की ओर प्रवृत्त)। चूँकि वो टेन्डिंग टू ज़ीरो होती हैं इसीलिए वो कितनी ज़्यादा होती हैं? वो इनफाइनाइट (अनन्त) होती हैं। और यह बड़ी मज़ेदार बात है कि अनन्त बार अगर तुम शून्य को जोड़ देते हो, तो उससे एक निश्चित परिणाम सामने आ जाता है।

हाँ, उनमें से किसी एक टुकड़े को देखोगे तो कहोगे, ‘यह तो शून्य है।’ दूसरे को देखोगे तो भी कहोगे, ‘यह तो शून्य है।’ तीसरे को देखोगे तो भी कहोगे, ‘यह तो शून्य है।’ नहीं, वह शून्य नहीं है, वह शून्य से ज़रा सा हटकर है। वह टेन्डिंग टू ज़ीरो है, इक्वल टू ज़ीरो (शून्य के बराबर) नहीं है। इसी तरीक़े से परिवर्तन होता है जीवन में टेन्डिंग टू ज़ीरो , लेकिन वह जब अनन्त बार जुड़ता है तो उसका एक निश्चित परिणाम आ जाता है।

आप जितना अपनेआप को चार साल वाला समझते हैं उतने आप हैं नहीं। बस दो बातें आप ध्यान में रख लें, आप यदि आज चालीस वर्ष के हैं तो आप जितना अपनेआप को मान रहे हैं कि आप वही जीव हैं जो एक दिन चार वर्ष का था; तो आप वह जीव हैं नहीं।

थोड़ा वैज्ञानिक दृष्टि से, थोड़ा ध्यान से देखिएगा। आप यदि आज चालीस के हैं, तो वह जो चार साल का था व्यक्ति जो आप ही का नाम रखता है; आप वह व्यक्ति नहीं है। हाँ, आपको बस ऐसा लग रहा है। ग़ौर से देखिए, आप में उसमें आज कितना साझा है? कुछ नहीं। ठीक? यह पहली बात ध्यान में रखिए।

दूसरी बात, चालीस ही वर्ष का कोई दूसरा व्यक्ति हो, आप उससे अपनेआप को जितना भिन्न समझते हैं; उतने भिन्न आप हैं नहीं। आप आज चालीस के हैं अपने चार वर्षीय सेल्फ (स्वयं) से आप जितनी समानता या एकता सोचते हैं; उतनी है नहीं। और दूसरी बात आप यदि आज चालीस के हैं, तो कोई दूसरा व्यक्ति है जो चालीस का है या पचास का है, उससे आप अपनेआप को जितना भिन्न समझते हैं; उतने भिन्न आप हैं नहीं।

अब इन दोनों बातों को एक साथ रखकर देख लीजिए अर्थ क्या हुआ? आप अपने अतीत जैसे बहुत कम हैं और दूसरे जो आपको आपसे बहुत भिन्न लगते हैं वो बहुत ज़्यादा आपके जैसे हैं। आप अपने अतीत जैसे बहुत कम हैं और आप दूसरों जैसे बहुत ज़्यादा हैं। तो बताइए आप यदि आज नहीं भी रहेंगे तो कोई अन्तर पड़ेगा?

सौ दूसरे हैं जो बिलकुल आपके ही जैसे हैं — हाँ, बस व्यक्तित्व की परतों को उतारकर थोड़ी गहराई से देखने की ज़रूरत है। आप भी मिटने से डरते हैं, दूसरा भी मिटने से डरता है; आप भी मोह में है, दूसरा भी मोह में है; आपकी आँखें भी कुछ तलाश रही हैं, दूसरे की भी, आप भी बदहवास हैं कहीं प्रेम मिल जाए, दूसरा भी इस तलाश में है कहीं प्रेम मिल जाए — मुझे बताइए आप किस आधार पर अपनेआप को दूसरे से बहुत भिन्न मानते हैं?

यही कृष्ण समझा रहे हैं अर्जुन को “जिस प्रकार देहधारी जीव के लिए इस शरीर में बचपन, युवावस्था और बुढ़ापे की अवस्थाएँ हैं” — जैसे वहाँ परिवर्तन होता रहता है न — “इसी प्रकार अन्य शरीर-ग्रहण भी उसके लिए एक अवस्था है"। उसी प्रकार अहम् वृत्ति सब शरीरों को ग्रहण किये हुए है। जैसे वहाँ यह मान लेते हो कि जो मूल है मिटा नहीं बस अवस्था परिवर्तन हुआ, इसी तरीक़े से जब दूसरे व्यक्तियों को भी देखो तो वहाँ यही मानो कि वे दूसरे व्यक्ति नहीं हैं; बस दूसरी अवस्थाएँ हैं।

वृत्ति एक ही है — वो कभी मेरी अवस्था लेकर प्रकट हुई है, कभी उसकी अवस्था में प्रकट हुई है — वृत्ति एक ही है। एक ही वृत्ति है जो कभी इस नाम की अवस्था में प्रकट है, कभी उस नाम की अवस्था में प्रकट है, कभी इस लिंग में प्रकट है, कभी उस प्रजाति में प्रकट है, कभी बूढ़े में, कभी बच्चे में — एक ही है, एक ही वृत्ति है जो सब में प्रकट हो रही है।

समझ में आ रही है बात?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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