घड़ी का समय, और मन का समय || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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घड़ी का समय, और मन का समय || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्नकर्ता: सर, हम हमेशा कहते हैं कि एचआईडीपी (सम्पूर्ण विकास पाठ्यक्रम) का मतलब है अपनेआप को जानना। मैंने कुछ समय पहले अपने बारे में एक बात गौर की। एक दिन मैं जब सुबह कॉलेज के लिए निकल रहा था तो गलती से अपनी घड़ी घर पर भूल गया। सर, वह दिन बहुत अच्छा गुज़रा, कंडीशनिंग (अनुकूलन) नहीं थी।

आचार्य प्रशांत: शाबाश!

प्र: अगले दिन जब मैंने घड़ी पहनी तो सुबह आठ बजे ही घड़ी पहनी और पूरे दिन का हिसाब लगा लिया कि शाम को चार बजे कॉलेज से निकलूँगा, उसके बाद जाऊँगा, सोऊँगा, ये करूँगा, वो करूँगा।

आचार्य: बहुत बढ़िया, बहुत बढ़िया।

प्र: अगले दिन फिर क्या किया कि आज हिसाब नहीं लगाऊँगा कि आज क्या करना है। लेकिन नहीं हुआ, दो बजे फिर हिसाब लगा दिया मैंने। सर, उस दिन से घड़ी नहीं पहनी। तो सर, इसका सोल्यूशन क्या है — घड़ी न पहनूँ या कंडीशनिंग न लगाऊँ?

आचार्य: तथ्य को जाँचने के लिए जो तुमने किया वह बहुत बढ़िया था। ये करने के लिए थोड़ा साहस चाहिए। आमतौर पर अगर कोई घड़ी न पहने तो वो समय जानने का कुछ और उपाय निकालेगा। वो ये तो नहीं करेगा कि एक दिन और नहीं पहनूँगा। वो पहले दिन के अपने काम को गलती मानेगा और दूसरे दिन उस गलती को ठीक करने की कोशिश करेगा। तुमने जो किया वो अच्छा किया, भला किया, बढ़िया।

अब सवाल ये उठता है कि क्या रोज़मर्रा का जीवन बिना घड़ी के बीत सकता है? दिक्कत बेटा इसलिए आएगी क्योंकि समाज से संयुक्त हो। ट्रेन एक समय पर चलती है, संवाद एक समय पर शुरू होता है। तो जहाँ दूसरे हैं, वहाँ समय की उपयोगिता है। अब अगर कोई साढ़े बारह की बजाय डेढ़ बजे यहाँ आएगा तो हम ही उसको अनुमति नहीं देंगे। तो किया क्या जाए? समय का ज़िन्दगी में स्थान क्या रहे?

एक तरफ़ तो हम साफ़-साफ़ देख रहे हैं कि समय मन पर बोझ होता है, जैसा तुमने कहा कि जिस दिन समय मन पर हावी नहीं रहता उस दिन मन बड़ा हल्का रहता है। यही कहा न? तो एक तरफ़ तो हमने ये बात देखी। दूसरी तरफ़ हम ये भी देख रहे हैं कि समय की उपयोगिता तो है ही, क्योंकि ट्रेन अपने समय पर ही चलती है। नहीं पहुँचोगे वहाँ, कहोगे कि मैं तो समय के पार निकल गया हूँ, तो उससे ट्रेन रुक नहीं जाएगी तुम्हारे लिए। तो कैसे जिया जाए? समय का क्या स्थान रहे जीवन में?

समय का स्थान वहीं पर रहे जहाँ घड़ी रहती है। घड़ी बाहर-बाहर रहती है, दिल के भीतर नहीं रहती। दिल के भीतर टिक-टिक, टिक-टिक न करती रहे घड़ी। मन ऐसा शान्त रहे कि वहाँ समय की कोई दखल-अंदाज़ी न रहे, क्योंकि समय की दखल-अंदाज़ी होती ही तब है जब मन अव्यवस्थित होता है।

तुम यहाँ बैठे हो, तुम में से कईयों को पता नहीं लगेगा कि समय कितना बीत गया। आज सुबह के सत्र में मैंने समय पूछा तो आगे बढ़ चुका था। मैंने पूछा कि मुझे बताया क्यों नहीं, तो किसी ने कहा कि ठीक लग रहा था, अच्छा लग रहा था तो नहीं बताया।

तुम एक मूवी भी देखने जाते हो और अगर वह तुमको जँच रही है, डूब गये हो तो समय का पता नहीं लगता। देखा है कभी? और जब भी कभी तुम डूबे नहीं हो तो पाँच मिनट भी घंटे के समान लगते हैं, बीते नहीं बीतते। बार-बार देखते हो कि आगे क्यों नहीं बढ़ रही (घड़ी की ओर इशारा करते हुए)।

घड़ी तब कहाँ चल रही होती है? घड़ी तब कलाई पर नहीं चल रही होती है। काँटे तब दिल में घूम रहे होते हैं। काँटे तब दिल में चल रहे होते हैं, बुरा तो लगेगा न। घड़ी कहाँ रहे? कलाई पर ही रहे, यहाँ (मस्तिष्क) पर न छा जाए।

जिन्होंने जाना है, उन्होंने दो अलग-अलग तरीके के वक्त बताये हैं। एक क्रोनोलॉजिकल टाइम और एक साइकोलॉजिकल टाइम। जो यहाँ (कलाई पर) चलता है वह क्रोनोलॉजिकल टाइम है और जो यहाँ (मस्तिष्क पर) चलता है वह साइकोलॉजिकल टाइम। ये (मस्तिष्क वाला टाइम) रुकना चाहिए।

पुराने से लेकर आज तक के जितने शास्त्र हैं, सबमें जो एक मूल बात है, यहाँ तक कि जो उद्देश्य है, वो यही है कि समय रुक जाए किसी तरीके से। काश! तुम किसी तरीके से समय के पार जा सको।

नारायण उपनिषद् कहता है, “नाहं कालस्य, अहमेव कालं।” ‘मैं काल का नहीं हूँ।’ काल माने समय, काल माने मौत भी होता है। ‘मैं काल का नहीं हूँ, मैं स्वयं काल हूँ।’ जीसस से पूछा गया, ‘बार-बार कहते रहते हो मेरे पिता का राज्य, स्वर्ग। क्या खास होगा तुम्हारे पिता के राज्य में?’ जीसस ने कहा, ”देयर शैल बी नो टाइम देयर,” वहाँ समय नहीं होगा।

इन सब का अर्थ यही है कि यहाँ (मस्तिष्क में) जो घड़ी चलती रहती है, वो रुक जाएगी, मैं समय के पार निकल जाऊँगा।

कबीर साहब से पूछा, ‘समय?’ कबीर साहब ने कहा,

काल काल सब कोई कहै, काल न जाने कोय। जेती मन की कल्पना, काल कहावै सोय।। ~ कबीर साहब

ये जो मन की कल्पना है, ये जो मन का भागना है इधर-उधर, इसी का नाम काल है। और कुछ नहीं है काल।

तो सारी कोशिश ही लगातर ये रही है कि किसी तरह से हम काल के पार चले जाएँ, समय के पार। और उसी को कहा गया है अमर हो जाना। क्योंकि काल के पार जाना माने मृत्यु के पार चले जाना। अब आप अमर हो। अमरता का मतलब ही ये है कि मन में अब खौफ़ नहीं है, न मौत का खौफ़, न कोई और खौफ़।

जब तुम शान्त हो, उसी क्षण को अमर्त्यता का क्षण कहा जाता है, कि अभी मन में डर नहीं है। मौत कोई घटना नहीं है, मौत एक खयाल है। ये जब तक घूम रहा है तब तक डरे रहोगे। किसी ने भी अपनी मौत कभी अब तक देखी नहीं। हाँ, हर किसी ने अपनी मौत के बारे में सोचा खूब है। तो मौत क्या है? खयाल है। और अमर होने का अर्थ है उस खयाल से मुक्त हो जाना, उस कल्पना से मुक्त हो जाना।

जीवन ऐसा जियो जिसमें तुम्हारे केन्द्र पर समय न रहे। अब हमें ये देखना पड़ेगा कि केन्द्र पर समय न रहे, इसका अर्थ क्या है? समय का अर्थ होता है बदलाव। तुम कहते ही तभी हो कि समय बीता जब कुछ बदले। यानी कुछ न बदले तब तुम दावा नहीं कर पाओगे कि समय बीता। यदि ब्रह्मांड पूरा ऐसा हो जाए कि उसमें कुछ बदलाव नहीं हो रहा, तो समय भी रुक जाएगा। समय बीत ही इसी खातिर रहा है कि कुछ बदले। कुछ बदला नहीं तो समय रुक गया।

‘मन का केन्द्र समय के पार हो गया’ — इसका अर्थ ये होता है कि तुमने कुछ ऐसा पा लिया जो अब बदलता नहीं है। समय के पार हो जाने का अर्थ है अपरिवर्तनीय में पहुँच जाना। कुछ ऐसा मिल गया है जहाँ अब कभी धोखा नहीं होगा, जहाँ कुछ छिन नहीं सकता, जहाँ अब कुछ बदल नहीं सकता। जब तक ये सम्भावना है कि बदलाव है, तब तक मन में डर और शंका बनी रहेंगी। क्योंकि जो कुछ भी है, वो बदल सकता है। बदल सकता है मतलब छिन सकता है। तुम्हारी पूरी दुनिया बदल सकती है और इसी कारण तो तुम डरे-डरे रहते हो। जो भी कुछ तुम्हें मिला है वो तुमसे छिन सकता है। रुपया-पैसा, रिश्ते-नाते, अंतत: जीवन भी छिन सकता है। इसलिए तो डरे रहते हो।

समय का अर्थ ही है डर, क्योंकि समय का अर्थ है बदलाव। समय का अर्थ है कि जो आज है वो कल नहीं होगा। यही तो करता है न समय? तो समय का अर्थ इसीलिए मृत्यु है, जो आज है कल नहीं होगा। और इसीलिए समय का अर्थ डर है। समय ही डराता है।

समय के पार जाने का अर्थ होता है डर के पार चले जाना। कुछ ऐसे को पा लेना जहाँ अब कोई परिवर्तन हो नहीं सकता। और जब तक उसको नहीं पाया है, ज़िन्दगी ऐसे ही बीतेगी, उखड़ी-उखड़ी सी, इधर-उधर, हिलती-डुलती, परेशान। कभी इधर को भाग रहे हैं, कभी उधर को भाग रहे हैं, कहीं रुक नहीं पा रहे हैं, कुछ जान नहीं पा रहे हैं कि हो क्या रहा है। पाया जा सकता है क्या उसको जो अपरिवर्तनीय है, अनचेंजेबल?

कुछ ऐसा हो सकता है जीवन में जिस पर इतना भरोसा हो कि ये कभी धोखा नहीं देगा? कुछ ऐसा हो सकता है जिसका पक्का हो कि इसका कोई नाश नहीं है, ये कभी खत्म नहीं होगा? हो सकता है क्या कुछ ऐसा जो इतना व्यापक है कि हर जगह है, लगातार है? तुम आँख बन्द करके कह सकते हो कि यहाँ भी है, वहाँ भी है और जहाँ-जहाँ मैं जा सकता हूँ, हर जगह होगा, कोई धोखे की बात नहीं?

ध्यान रखो कि जब तक वह तुम्हें नहीं मिला, तब तक डरे-डरे रहोगे और भटकते ही रहोगे। अन्दर की घड़ी के रुकने का अर्थ है अन्दर के डर का रुक जाना।

तो कैसे पायें उसको जो कभी बदलता नहीं? कैसे पायें उसको जहाँ धोखे का कोई सवाल नहीं, जो लगातार मौजूद रहेगा और लगातार सहारा दिये रहेगा? कैसे पायें उसको जो अनन्त है, जिसका कोई छोर नहीं, असीम है?

उत्तर बहुत सीधा है — तुम्हें हैरानी हो जाएगी — वह उपलब्ध है, वह मिला हुआ है। तुम बस ये मानना छोड़ दो कि वो नहीं है।

हम सबने एक गहरी धारणा पकड़ रखी है कि वो नहीं है। और उस धारणा के कारण हम हज़ार तरह की बेवकूफ़ियाँ किये जाते हैं। जैसे कि किसी आदमी के पास साँस लेने की ताकत मौजूद हो लेकिन वह मान ले कि उससे साँस नहीं ली जा रही, तो वह क्या करेगा? वह ऑक्सीजन का एक भारी सिलिंडर पीठ पर रखकर घूम रहा है। और चूँकि वह जानता है कि ऑक्सीजन का जो सिलेंडर है वो सीमित है तो इसीलिए लगातार डरा हुआ है। सिलेंडर में कितनी ऑक्सीजन आ सकती है? ठीक उतनी ही आ सकती है जितनी तुम्हारी पीठ की ढोने की क्षमता है। तुम बड़े-से-बड़ा कौनसा सिलेंडर लेकर घूम सकते हो? जितनी तुम्हारी पीठ की क्षमता है। और तुम्हारी क्षमता सीमित है, ये तुम जानते हो। तो इसीलिए तुम डरे हुए रहोगे।

एक बार को ये मास्क, ये नली हटाकर के देखो, तुम नहीं मरोगे, भरोसा तो करो। जीवन में भरोसे की, श्रद्धा की बहुत कमी है। तुम्हें बता दिया गया है कि अगर तुमने अपना जुगाड़ न किया, इंतज़ाम न किया, परवाह न की, तो तुम्हारा क्या होगा! दुनिया बड़ी कातिल जगह है, तुम्हें लूट ले जाएगी, भविष्य बर्बाद हो जाएगा। और तुम लगे हुए हो कि किसी भी तरीके से अपनेआप को मैं सुरक्षा दे दूँ, सिक्योर कर लूँ।’

एक बार को ये कोशिश छोड़ कर देखो कि मुझे बहुत कुछ हासिल करना है, मुझे किसी भी तरीके से अपनेआप को सुरक्षा देनी है, तो तुम पाओगे कि सुरक्षा उपलब्ध ही है, अस्तित्व खुद तुम्हारी परवरिश करेगा।

तुम्हारी हालत उस आदमी जैसी है जो ट्रेन में बैठा हुआ है और उसने अपने सिर पर बोझा रखा हुआ है। और दावा कर रहा है कि मैं इसको उठा कर ले जा रहा हूँ। चलती ट्रेन में एक आदमी बैठा है और उसने बहुत सारा बोझ, अपना सामान, लगेज , सिर पर रखा हुआ है और क्या दावा कर रहा है? कि मैं न उठाऊँ तो ये सामान रह जाएगा। तुम उसे छोड़ दो, ट्रेन खुद उसे ले जाएगी, तुम्हें परवाह करने की ज़रूरत नहीं है। और इतना ही नहीं, तुम उस आदमी की तरह हो जो ट्रेन के भीतर दौड़ लगा रहा है सामान उठा कर, कह रहा है, ‘अरे! आगे तो बढ़ना पड़ेगा न? आगे नहीं बढ़ेंगे तो पहुचेंगे कैसे!’ और तुम दौड़ लगा रहे हो और तुम्हें बताया जा रहा है, ‘अरे भागो! ज़िन्दगी कॉम्पीटिशन का नाम है। महत्वाकांक्षी बनो, ये अर्जित करो, वो हासिल करो।‘

तुम भूल ही जाते हो कि तुम एक बहुत विशाल ट्रेन में बैठे हुए हो। वो खुद जा रही है, तुम्हें कुछ करने की ज़रूरत नहीं। तुम शान्त हो जाओ, इतना काफ़ी है। तुम शान्ति के बाद जो कुछ भी करोगे, भला होगा, लेकिन शान्त हो जाओ।

भीतर जो घड़ी चल रही है, उसकी टिक-टिक तुमसे सिर्फ़ एक बात कह रही है। जानते हो क्या? मौत आ रही है, मौत आ रही है, मौत आ रही है, मौत आ रही है। वह घड़ी की टिक-टिक नहीं है, वह मौत का घंटा है जो लगातार भीतर बज रहा है और इसीलिए डरे रहते हो।

जहाँ समय है, वहाँ मौत है। क्योंकि समय की निष्पत्ति यही है कि अंतत: वह तुम्हें मौत के द्वार तक पहुँचा देगा। समय वहीं रुकेगा न? जिये जा रहे हो, जिये जा रहे हो, अंतत: कहाँ पहुँचोगे? मौत तक पहुँचोगे। घड़ी उसी दिन रुकेगी तुम्हारे लिए।

थोड़ा सा अपनेआप को बेसहारा कर दो, परम सहारा मिल जाएगा। थोड़ा सा जो तमाम झूठे सहारों को पकड़कर के बैठे रहते हो, इनका आलम्बन छोड़ दो, फिर देखो कि तुम्हें मिलता है कि नहीं मिलता है।

तुम देखो न कि कैसे हम हज़ार तरीकों से अपनेआप को खुद सहारा देने कि कोशिश किये रहते हैं। हम कहते हैं कि हमें सजने-सँवरने की खूब ज़रूरत है — ये हमारा डर है। हमें बता दिया गया है कि हम कुरूप हैं, बदसूरत हैं।

अस्तित्व में कुछ भी और है जो अपनेआप को सजाता हो और सँवारता हो? सोचो, गुलाब का फूल, वो डियोड्रेंट लगा रहा है, या पेड़ का पत्ता अपनेआप को चमका रहा है, या नदी तय कर रही है कि मेरे किनारों पर एक सीधी रेखा खींच दो, मैं इन्हीं के बीच से बहूँगी।

पर हमें बताया गया है कि नहीं तुम अपनी परवाह खुद करो नहीं तो कुछ कमी आ जाएगी। चलो-चलो जल्दी से, होंठ तुम्हारे ठीक नहीं, चलो इन्हें लाल करो। कमाल हो गया! बनाने वाले ने होंठ दिये हैं, हम उससे बेहतर बना लेंगे? और शरीर का कोई अंग नहीं है जिसकी हम काट-छाँट न करते हों कि और बेहतर कर दो इसको। ये सब क्या है? ये सब हमारी बेवकूफ़ियाँ हैं और इन्हीं के कारण ये डर पैदा होता है।

मैं कह रहा हूँ, अपनेआप को और बेहतर करने की कोशिश छोड़ो। तुम्हें वह मिल जाएगा जो बेहतर-से-बेहतर है। जब तक तुम अपनी कोशिशों में लगे रहोगे हासिल करने की, तब तक अस्तित्व कहेगा, ‘चल बच्चे! तू अभी अपनी कर ले कोशिश।‘

जैसे कोई छोटा बच्चा हो और ऊपर मिठाई रखी हो, और माँ खड़ी देख रही है। वह बच्चा क्या कर रहा है? उछल रहा है, कूद रहा है, ‘मैं तो खुद हासिल करूँगा।‘ अहंकार है, ‘मैं खुद हासिल करूँगा।‘ वहाँ ऊपर एक मिठाई रखी हुई है और बच्चा नीचे से उछल रहा है, ‘मैं पाऊँगा, मैं पाऊँगा।’ माँ खड़ी है, देख रही है, हँस रही है, ‘कर ले भई! तेरी इच्छा है, कर ले।’ और जब वह थक ही जाता है, जब अहंकार टूट जाता है, रोने लग जाता है, तब माँ बड़े-बड़े डब्बे लाकर रख देती है कि ले ये उपलब्ध ही है तुझे। तू एक बार झुककर के माँग लेता, तू एक बार प्रेम से कह देता कि माँ चाहिए, सब मिल जाता तुझे। पर तुझमें अहंकार बहुत घना है जो तूने कहा, ‘हासिल करूँगा।’ जो हासिल करने की कोशिश करेगा, मैं तुमसे कह रहा हूँ, उसे कुछ नहीं मिलेगा।

जो चुपचाप झुककर के माँग लेगा, उसे सब मिल जाएगा, तुम झुककर के माँगो तो। पर तुम्हारा संस्कार कुछ ऐसा रहा है कि माँगना नहीं है, माँगते तो भिखारी हैं। ‘अरे! हम तो तीरंदाज़ हैं, शहंशाह हैं, हम तो अर्जित करेंगे।’ क्या अर्जित करोगे? ये साँसें अर्जित कर रहे हो जो ले रहे हो? ये जो दिल धड़क रहा है, ये तुमने अर्जित किया है? ये जो मुझे अभी सुन पा रहे हो ये तुमने अर्जित किया है? तो क्या अर्जित करोगे? पेट में जो खाना अभी पच रहा है, वह पचाने की क्षमता तुमने अर्जित की है? ये आँखें अर्जित की हैं? कि वायुमंडल में जो ऑक्सीजन है जिसको सोख रहे हो, ये तुमने अर्जित की है? ये जो धूप है, जो सूरज है जो समस्त ऊर्जा का स्त्रोत है, ये तुमने अर्जित किया है?

पर नहीं, बेवकूफ़ी की इंतहा! हम कहते हैं, ’ही इज़ अ सेल्फ़मेड मैन,’ और कितना गुरूर उठता है! हम कहते हैं, ‘पुरुषार्थी हैं साहब, कर्मठ।‘ सुना है न? पुरुषार्थी, कर्मठ, खुद्दार। ये सिर्फ़ अहंकार है।

न हो पुरुषार्थी, न हो खुद्दार, बोल रहा है सिर्फ़ अहंकार। और इसमें सिर्फ़ दुख है और कुछ नहीं है, कुछ नहीं है। जैसे-जैसे अहंकार-जनित चेष्टाएँ कम होती जाएँगी, वैसे-वैसे समष्टि तुम्हें खुलती जाएगी, उपलब्ध होती जाएगी। हाँ, डर लगेगा क्योंकि तुमने डर की तो अपनेआप को शिक्षा दे रखी है।

छोटी-छोटी बातें होती हैं। तुम्हीं लोगों से मैंने पूछा, ‘अभी जवान हो, सब बढ़िया है, तुम्हारे पास कुछ खोने को नहीं है।’ किसी के पास भी नहीं होता। मैंने कहा, ‘ट्रेन में चलते हो, बिना रिज़र्वेशन (आरक्षण) के चलते हो?’ नहीं। क्यों पहले से तय करके रखना है कि मेरी बर्थ आरक्षित रहे? ये काम तो सारे ही गृहस्थ कर रहे हैं, तीन-तीन महीने पहले से ही तय कर देते हैं। चलो ज़रा अपनेआप को छोड़कर तो देखो। ज़रा जनरल में जाकर के देखो। पर रूह काँप जाती है तुम्हारी, ‘जनरल, पता नहीं क्या होगा!’

लोग होते हैं, चार दिन के लिए भी कहीं बाहर जा रहे हैं तो वहाँ पहले होटल बुक करवाएँगे। मैं तुमसे कहता हूँ, आगे ज़िन्दगी बढ़ेगी, तब करना होगा जो करना। ये ज़रा करके तो देखो कि यूँही निकल जाओ अपनेआप को छोड़कर के अस्तित्व के भरोसे, कि जा रहे हैं, उठाई बाइक और चल दिये और जेब में पैसे भी नहीं लिये बहुत, जितना पड़ा है, उतना पड़ा है, और जा रहे हैं, देखा जाएगा जो होगा सो होगा, मिल गई जगह तो ठीक, नहीं तो ज़मीन पर सो लेंगे।

और उसमें तुम्हें अकस्मात् ऐसे अनुभव हो सकते हैं जिनकी कोई योजना नहीं बनाई जा सकती। तुम पागल हो जाओगे, तुम कहोगे, ‘अगर मैंने ये योजना बना कर किया होता तो ये मुझे मिलता ही नहीं, मुझे कभी घटता ही नहीं यह। इतनी सुन्दर घटना हो ही नहीं सकती थी यदि योजना बनी होती।’ और मैं तुमसे कह रहा हूँ, ‘सुन्दर घटनाएँ सिर्फ़ तब घटती हैं जब योजना नहीं होती। जहाँ योजना है वहाँ तो बस वही घटेगा जो योजनाबद्ध है और विराट योजनाबद्ध नहीं हो सकता।’

परम तुम्हारी किसी योजना में समाएगा नहीं। तुम्हारी योजनाओं में उसके लिए जगह भी तो कहाँ है! कब तुम योजना बनाते हो कि ट्रेन में चल रहे हो, दो लोग हैं, और तीन टिकट कराओ? तीसरा किसके लिए? परमात्मा के लिए। ऐसा तो कभी होता नहीं — मियाँ-बीवी और परमात्मा — सुना तो नहीं कभी। तुम्हारी योजनाओं में कोई जगह है उसके लिए? ‘हम दो हमारे दो’, और वो पाँचवाँ कहाँ गया जो तुम सबका बाप है?

थोड़ा अपनेआप को छोड़कर के देखो, फिर खुद भरोसा आने लगेगा। भरोसे की बहुत कमी है, मानते नहीं हो। हर जगह तुम्हें शक रहता है कि कुछ तो गड़बड़ होगी। अभी मैंने परमात्मा कहा, तुम्हारे मन में तमाम कीड़े बुलबुला गए होंगे कि नहीं होता यकीन, कैसे कर लें? कहाँ है? दिखाई नहीं देता, पकड़ में नहीं आता, सुनाई नहीं देता; दिखाओ तो माने।

मैं तुमसे कह रहा हूँ, ‘उसके अलावा और कुछ दिखता नहीं है।’ तुमने नाम गलत दे रखे हैं, उसके अलावा कुछ होता नहीं, उसके अलावा और कोई बोलता नहीं, उसके अलावा और कुछ है ही नहीं। तुमने नाम गलत दे रखे हैं। तुम क्यों बोलते हो कि दीवार है? कहाँ है दीवार? दिखती नहीं। नाम की गलती है बस, गलत नाम दे रहे हो फिर कहते हो, ‘है नहीं।’

जब तक वो नहीं है तब तक डर है; जब वो है तब डर नहीं है। जब तक वो नहीं है, तब तक टिक-टिक टिक-टिक टिक-टिक मौत का घंटा बजता ही रहेगा। ”डू नॉट आस्क, फ़ॉर हूम द बेल टोल्स, इट टोल्स फ़ॉर दी” (ये मत पूछो कि घंटा किसके लिए बजा, यह तुम्हारे लिए बजा), सुना है न? चर्च में घंटा बजता है जब कोई मर जाए, तो एक जवान आदमी ने जाकर के पूछा, वहाँ पर जो पादरी था उससे, ‘किसके लिए बज रहा है? आज कौन मर गया?’ तो उसने जवाब दिया, “डू नॉट आस्क फ़ॉर हूम द बेल टोल्स, इट टोल्स फ़ॉर दी।”

किसी और के लिए नहीं बज रहा, तुम्हारे लिए बज रहा है। तुम्हारी मौत की आवाज़ है, सुन सकते हो तो सुन लो और जाग सकते हो तो जाग लो। घंटा बजता ही इसलिए है कि दूसरों की मौत देखकर तुम चेत जाओ, पर हम चेतते नहीं। इतनी मौत है, चारों तरफ़ बिखरी हुई है, मौत के अलावा कुछ है नहीं चारों तरफ़; क्योंकि जो है वही नश्वर है, जो है वही बदल रहा है, जो है उसी की मौत है। लेकिन फिर भी हम जागते नहीं — ”इट टोल्स फ़ॉर दी।”

भरोसा करो, प्रयोग ही करके देख लो, नहीं आ रहा, पूरा तो करो। हो सकता है थोड़ी चोट लगे, थोड़े आहत हो जाओ, चोट लगेगी तो भी शुभ होगा। एक बार मानकर तो देखो कि है, शुरुआत यहीं से कर लो, थोड़ी आज़ादी दो अपनेआप को ‘मानने’ की।

मैं साधारण मानने की बात नहीं कर रहा हूँ। ये तो मान ही लेते हो कि यहाँ (मेज़ पर) कप रखा है, ये सब तो मान ही लेते हो। किसी ने बोला तो मान लिया, मैं उस मानने की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं किसी बहुत गहरे मानने की बात कर रहा हूँ, उसको श्रद्धा कहते हैं। उसमें उतर कर तो देखो, आमंत्रण दे रहा हूँ। फिर देखो ज़िन्दगी कैसे खिलती है, फिर वो हालत नहीं रहेगी कि टिक-टिक टिक-टिक टिक-टिक टिक-टिक।

शक-ही-शक है आँखों में। ‘ऐसा कैसे हो सकता है? दाल में कुछ काला है।’ शक हमें खूब सिखाया गया है न, क्या करें? ‘बेटा बचकर निकलना, जेब-कतरे बहुत हैं।’ ‘बिटिया, आठ बजे से पहले आ जाना, नहीं तो चोर, तिलचट्टे और बलात्कारी। शक-ही-शक तो सिखाया गया है। और जिन्होंने तुम्हें शक सिखा दिया, उन्होंने जाना ही नहीं कि उन्होंने तुम्हें मौत सिखा दी, जीवन से दूर ले गये।

दो ही तरह के लोग होते हैं — एक वो जिनको एक अपराधी में भी परमात्मा दिखता है और दूसरे वो जिन्हें परमात्मा भी दिख जाएँ तो कहेंगे अपराधी है। तुम्हें कैसा होना है ये सोच लो। शक्की रहना है या श्रद्धा में जीना है, ये तुम्हारे ऊपर है।

‘कुछ गड़बड़ ज़रूर है।’ जैसे जासूसी फ़िल्मों में पीछे धुन बजती है, शर्लोक होम्स वाली सुनी है? वो लगातार मस्तिष्क में बज रही होती है, ‘टण टण टणणणणण......।’ वो भी बहुत लोगों के बज रही होगी। ‘ये आदमी चाहता क्या है?’ दो-चार ने तो अपनी जेबें टटोल ली होंगी। ‘इस कमरे में कुछ फ़िट तो नहीं कर रखा है कि पीछे से आकर दस-बीस रुपये ही निकाल लिये हों, ध्यान-ध्यान करके।

तुम्हारे पास है क्या कि कोई उसे छीनेगा? तुम किस शक में पागल हुए जा रहे हो? कुछ है तुम्हारे पास? ईमानदारी से देखो तो भिखारियों सी हालत है। जीवन जो कुछ दे सकता था वह तो तुम्हारे पास है नहीं, न मुक्ति है, न प्रेम है। न मुक्ति है, न प्रेम है तो भिखारी ही हो। पर रोते यूँ हो जैसे पता नहीं क्या छीना जा रहा है। क्या छिनेगा? गुलाम का क्या छिन सकता है? ज़ंजीरें ही छिन सकती हैं। तो छिनने दो न।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=zF6MblM1PFY

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