गहराई अस्पर्शित रहे || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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गहराई अस्पर्शित रहे || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

सोना सज्जन साधु जन, टूट जुड़े सौ बार।

दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, एकै धक्का दरार।।

~ संत कबीर ~

आचार्य प्रशांत: “ सोना सज्जन साधु जन, टूट जुड़े सौ बार”। पेड़ जब हरा होता है, आप पत्ता तोड़ते जाइए, नए पत्ते आते जाएंगे। उसकी अपनी एक प्राण शक्ति है जिससे हज़ार पत्ते पैदा हो जाने हैं। क्यों होता है पेड़ हरा? क्योंकि उसके पास मूल है। मूल शब्द ही बड़ा मज़ेदार है। मूल माने जड़ और मूल माने वो भी जो असली है; जो प्रथम है; जो स्रोत है; जो ओरिजिन है; वो भी मूल है; वो ही मूल है। जब तक पौधा उस स्रोत से समप्र्क्त है, आप तोड़ते जाओ पत्तियाँ, पत्तियाँ आती जाएंगी। वो पत्तियाँ उस पौधे की है ही नहीं। पौधा तो टूट गया था। आप चाहते तो उस पौधे को छितर-बितर कर सकते थे, पूरी तरह काट सकते थे। पौधा तो टूट गया था; फिर आ कहाँ से गया दोबारा? अगर पत्तियाँ उस पौधे की होतीं तो पौधे के न रहने पर दोबारा कहाँ से आ गयीं? पत्तियाँ मूल की हैं। पत्त्तियों को वो भेज रहा है जो स्रोत है, जो असली है, जो मौलिक है।

और जब तक पौधा ‘उससे’ जुड़ा हुआ है तब तक पौधे को चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। एक नहीं सौ पत्ती टूटें; पत्ती क्या, टहनी टूटे; टहनी क्या तुम पौधे को ऊपर-ऊपर से काट भी दो, तो भी नई कोपलें फूटेंगी। किसी न किसी रूप में फूटेंगी – दाएं-बाएं, आड़े-तिड़छे, थोड़ी बहुत, वापिस आएंगी ज़रूर। वो पौधे की नहीं हैं; पौधे को ये गुमान न हो जाए कि ‘मैं’ वापिस आया हूँ। वो तो मूल है जो अपनेआप को प्रकट कर रहा है; वो तो जड़े हैं जो दोबारा अपनेआप को प्रकट कर रही हैं।

“सोना सज्जन साधु जन, टूट जुड़े सौ बार”, नहीं, वो टूट-टूट नहीं जुड़ते हैं। वो तो टूटने को उत्सुक ही बैठे हैं। वो कह रहे हैं कि “ठीक, जो बाहर-बाहर है, उसको तोड़ ही दो। क्योंकि उसको वैसे भी प्रतिपल बदलते ही रहना चाहिए। वो यदि अटक गया तो सिर्फ़ अहंकार है।” बाहर-बाहर क्या है? बाहर-बाहर है हमारा वेश, हमारा आचरण, हमारे विचार और शरीर। इसको तो टूटने ही दो। और मज़ा इसी में हैं कि हम डर ही नहीं रहे, अच्छे से जानते हैं कि टूटेगा तो?

श्रोता १: आएगा।

वक्ता: आएगा। वापिस आएगा। “आओ, तोड़ो”। आयन रैंड का फाउंटेन हेड है, उसमें जो मुख्य-चरित्र है हावर्ड रोअर्क का, उसको डोमिनिक , बार-बार तोड़ने के ही प्रयास में रहती है। हर तरीके से उसपर आक्रमण करती है, और प्रेम भी उससे खूब करती है। वो कोई पूछता है उससे कि, “क्यों कर रही है तू ये जब प्रेम उससे इतना करती है तो उसका नाश करने पर क्यों तुली है?”, तो वो उत्तर देती है कि, “जब मैं छोटी थी तो मुझे एक घड़ी ला कर के दी गयी थी जिसके साथ ये पक्का था कि वो कभी टूट नहीं सकती। ये पक्का था। कितनी कोशिश कर लो, उसका कुछ बिगड़ेगा नहीं। उसे पत्थरों से कुचल लो, कुछ कर लो, ये कायम रहेगी; कायम रहना इसका स्वभाव है। तो इसमें मुझे मज़ा ही इस बात में कम आता था कि समय देखूं। मज़ा ज़्यादा इस बात में था कि इसको पटको, और फेंको, और पूरी कोशिश करो इसे तोड़ने की क्योंकि तुम्हें पता है कि टूट सकता नहीं।” ऐसा ही जीवन साधु का हो जाता है; वो टूटने को बिल्कुल तत्पर रहता है। क्योंकि गहरी श्रद्धा है उसमें कि जो सत है वो टूट सकता ही नहीं। उसके खत्म होने का कोई सवाल ही नहीं है, वो निरंतर है, नित्य है। वो जाएगा कहाँ? जो कुछ टूटेगा, वो तो अहंता होगी। मेरा कुछ होगा जो टूट रहा है। बस वो प्रतीत ही होगा टूटता हुआ।

“सोना सज्जन साधु जन, टूट जुड़े सौ बार”

सत्य नित्य है। मात्र वही है। समय उसपर कोई प्रभाव नहीं डाल सकता। समय स्वयं भी समाप्त हो सकता है, समय सदा नहीं था। बड़ी मज़ेदार बात है ये। समय सदा नहीं था, समय भी समाप्त हो सकता है, ‘वो’ समय के समाप्त होने के बाद भी रहेगा। और जो उसको जान लेता है, वो उसके जैसा ही हो जाता है। फ़िर उसे अपने समाप्त होने की आशंका सताती नहीं है। वो लगातार इस डर में नहीं जीता कि “कहीं मैं मिट न जाऊं”; वो अमर हो जाता है।

ब्रह्म विदः ब्रह्माव भवति

जिसने जान लिया, वो वही हो जाता है। अब वो आमंत्रित करता है कि “आओ, मुझे तोड़ो”। बड़ा मज़ा आता है टूटने में, क्योंकि टूट सकता नहीं। अज्ञेय की जो पंक्तियाँ हैं, अब उसको ज़रा दूसरी दृष्टि से देखिएगा जब वो कहते हैं:

मैं कब कहता जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने

मैं कब कहता जीवन मेरे नंदन कानन का फूल बने

मैं कह ही नहीं रहा हूँ कि जीवन आसन हो जाए, क्यों? क्योंकि कठनाईयाँ मुझे तोड़ सकती नहीं। मैं जो हूँ, जो सत है मेरा, वो तो अकंप रहना है, अनछुआ रहना है। कैसे तोड़ पाओगे उसको? तुम वो करो जो तुम्हें करना है।

मैं कब कहता हूँ युद्ध करूँ तो मुझे न तीखी चोट मिले

तुम दो जितनी चोट दे सकते हो, क्यों? क्योंकि तुम्हारी कोई भी चोट मेरा कुछ बिगाड़ ही नहीं सकती।

मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले

मैं कहाँ कह रहा हूँ कि तुम मेरा प्रेम-आमन्त्रण स्वीकार करो ही करो, क्यों? क्योंकि हमारा यार है हम में, हमन को बेकरारी क्या? तो प्रश्न पूछा है अज्ञेय ने और उत्तर आ रहा है कबीर से।

मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले

नहीं इसका ये नहीं मतलब है कि कुछ अप्राप्त रह जाएगा। इसका मतलब ये है कि जो प्राप्त होना था, वो प्राप्त ही है। हमारा यार है हम में। मैं आया तेरे पास, प्रेम-विनय लेकर के और तूने कहा “जा, हट”, मैंने कहा “ठीक, कोई दिक्कत नहीं। हमन को बेकरारी क्या। अभाग तेरा है जो तुझे दिखाई नहीं दे रहा कि हमारा यार है हम में।” टूट जुड़े सौर-बार। उनके भीतर सतत जीवन विद्यमान है।

“दुर्जन कुम्भ कुम्हार का, एकै धक्का दरार”

जो कुछ भी तुमने बनाया, वो तुम से थोड़े ही बड़ा हो जाएगा। और तुम्हारी क्या हैसियत है? कि पीछे से आकर कोई ज़ोर से मारे, यहीं ढ़ेर हो जाओगे। तो तुम्हारे बनाए हुए की हैसियत इससे ज़्यादा क्या होगी? तुम अगर अमर, अमिट हो सकते तो सबसे पहले ख़ुद को करते। तुम्हारे कृत्तव में कहाँ से आजाएगी अमिटता? हालाँकि इंसान की कोशिश पूरी यही है।

पुराने समय में राजा और बादशाह, मंदिर बनवा के और मकबरे बनवा के ये कोशिश किया करते थे: “हम नहीं रहेंगे, फ़िर भी हम रहेंगे।” आज इंसान विज्ञान के माध्यम से ये कोशिश कर रहा है — चाहें क्लोनिंग हो, चाहें स्टेम सेल टेक्नोलॉजी हो। किसी तरह अमर हो जाएं; किसी तरह टूटे न; समाप्त न हों — समाप्त तो होगे! तुम कर लो जितनी कोशिश कर सकते हो, समय के पार नहीं निकल पाओगे। यदि समय दे रहा है तो वो छीनेगा भी। तुम द्वैत के सिद्धांत को तोड़ पाओगे नहीं। तुम्हारी सारी कोशिशें उसके भीतर हो रही हैं, उसके बाहर कैसे निकल जाओगे?

जो तरीका है बाहर निकलने का उसकी सिर्फ़ एक माँग है; वो माँग तुम पूरी करना चाहते नहीं। वो माँग है, “चुप हो जाओ, शांत हो जाओ, सर झुका दो”। तुम कोशिशें करोगे, और तुम्हारी हर कोशिश सिर्फ़ इसलिए है कि सर झुकाना न पड़े। अन्यथा कोशिश की कोई ज़रूरत ही नहीं है।

“दुर्जन कुम्भ कुम्हार का, एकै धक्का दरार”

बड़ी जल्दी आहत हो जाता है। इतना-सा किसी ने कुछ कह दिया और कर दिया, सब उसको बिखरता-बिखरता सा प्रतीत होता है। दो शब्द किसी के, और भले आप को कहे भी न गए हों, हो सकता है वो कहीं और तैर रहे हैं हवाओं में, पर आपके कान में पड़ गए। शक आपको यही होगा कि, “निश्चित रूप से मुझसे ही”, पड़ गयी दरार। दरार का क्या अर्थ है? दरार का अर्थ ही यही है, टूट जाना, बंट जाना। मन का एक कोना किसी ने छीन लिया, यही दारार है। कोई हावि होकर के बैठा हुआ है मन के ऊपर, एक हिस्से के ऊपर, यही दरार है। “जो मन से न उतरे, माया कहिए सोय”। ये दुर्जनता की निशानियाँ हैं; सावधान। कोई यदि मन के ऊपर बैठा हुआ है, मन के हिस्से कर पा रहा है, तो इतना ही सिद्ध होता है कि श्रद्धा नहीं है, समझते नहीं हैं।

वो लोग चेतें, जो जल्दी से आहत हो जाते हैं; जिन्हें छोटी-छोटी घटनाओं में भी अपना अस्तित्व हिलता-हिलता प्रतीत होता है; जिनको बात-बात में पसीने छूट जाते हैं; जिनको अपने गहरे से गहरे सम्बन्धों पर भी विश्वास नहीं होता, वो चेतें; बड़ी दुर्जनता है।

“एकै धक्का दरार”

एक कहीं से खबर आ जाती है, एक एस.एम.एस, और जैसे पेड़ से गिरा हुआ पत्ता काँपे, वैसा हम समूचा काँपना शुरू कर देते हैं।

“एकै धक्का दरार”

तुमको व्यथित करने के लिए बहुत चाहिए ही नहीं। बटन पता है तुम्हारा, “एकै धक्का दरार”। दो शब्द बोलूँगा, और कपने लगोगे। इतना ही पता चलता है कि जो नित्य है, जो साश्वत है, उससे कोई सम्बन्ध ही नहीं बनाया हमने। हम हर उस चीज़ से जुड़े हुए हैं जो मरणधर्मा है, और जो अमर्त्य है, उससे दूर-दूर भागे फ़िर रहे हैं। डर की सिर्फ़ यही वजह है: वो सब कुछ जो आया है और वापिस चला जाना है, उससे हमने जुड़ाव कर लिए हैं। और वो, जो न आया था, न वापिस जाएगा, उसकी हमें कोई खबर नहीं है। बस इसी कारण “एकै धक्का दरार है”, अन्यथा दरार पड़ती नहीं। जिनके जीवन में भय, संदेह बिल्कुल प्रचुरता में मौजूद हो, वो समझें इस बात को, ये मात्र उस एक जुड़ाव की कमी है, उससे जुड़ जाओ, दरारें पड़नी बंद हो जाएंगी। उससे जुड़ जाओ, जितनी भी दरारे होंगी वो तुम पर कोई असर नहीं डालेंगी। जैसे धरती, अभी जो मौसम चल रहा है खूब दरारें पड़ती हैं उसमें, फट जाती है बिल्कुल, हर साल फटती है, पर उसे अच्छे से पता है कि बादल आने ही वाले हैं। और दरारों के बाद आते हैं बादल, और फिर लह-लहा जाती है।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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