प्रश्नकर्ता: मैं एक सर्जन (शल्य चिकित्सक) हूँ। क्या ध्यान में होने से सर्जरी सफल हो सकती है?
आचार्य प्रशांत: ध्यान में होने पर ही सर्जरी सफल हो सकती है। नहीं तो ध्यान का फ़ायदा क्या? ध्यान का अर्थ ही होता है कि मन के पास भटकने के लिए कोई ठिकाना, कोई आकर्षण, कोई विषय है ही नहीं। मन जमकर बैठ गया। और मन जमकर एक ही जगह बैठ सकता है।
जिस एक जगह मन जमकर बैठ सकता है, उसी को एक नाम दे दिया जाता है। उसे कभी आत्मा कह देते हैं, कभी सत्य कह देते हैं, कभी शांति कह देते हैं; कभी मौन; कभी विगलन; कभी समर्पण। बहुत सारे नाम दे दिये जाते हैं, नामों की बात नहीं है। असली बात ये है कि मन जमकर बैठ गया है। और जमकर तभी बैठेगा जब सही जगह बैठा हो।
आप जमकर बैठ सकते हो अगर जहाँ बैठे हो, वहाँ नीचे गीला हो? आप जमकर बैठ सकते हो अगर जहाँ बैठे हो, वो नीचे कीला हो? गीला हो तो भी जमकर नहीं बैठ पाओगे और कीला हो तो भी नहीं।
जमकर बैठने का मतलब ही है — मिल गया। यहीं पर होना था। आइ बिलॉन्ग हियर (मैं यहीं का हूँ)। आसन मिल गया।
अब जब मन को इधर-उधर होना नहीं, तो मन अब जो भी करेगा, पहली बात तो सही करेगा — व्यर्थ का कोई कर्म करेगा नहीं — और जो भी करेगा, उसमें डूबकर करेगा; क्योंकि उसके पास कहीं भी भटकने का कोई विकल्प ही नहीं है। असली ध्यान यही होता है कि जो भी कर रहे हो चौबीस घंटे, वो कर ही सही रहे हो। तो इधर-उधर मन जाना ही क्यों है! भटकेंगे तो तब न जब जो चीज़ हाथ में हो, उसके प्रति कुछ संदेह हो।
नहीं समझ रहे हो?
आप इस कलम से लिख रहे हो और आप लिख रहे हो। आपके मन में ये विचार कब आएगा कि क़ाश! कोई दूसरी कलम मिल जाती या पेंसिल मिल जाती या टाइप कर लेता, कुछ और? कब आएगा? जब इसके साथ कुछ तकलीफ़ हो।
ध्यान में होने का मतलब होता है कि मूल तकलीफ़ से ही पिंड छुड़ा लिया। अब क्या तकलीफ़ होनी है? जो मूल तकलीफ़ से पिंड छुड़ा लेता है, वो ग़लत जगहों पर सुख नहीं खोजता। तो वो जो भी काम करेगा, सही करेगा।
आपको सफलता सिर्फ़ इसमें नहीं मिलेगी कि आप सर्जरी कर रहे हो तो आपकी सर्जरी सही हो जाएगी। उससे पहले आपको सफलता मिल चुकी होगी कि आपको सर्जरी करनी भी है कि नहीं करनी — इसका निर्णय आपने सही किया होगा। बहुत सारे सर्जन तो बहुत सारी सर्जरियाँ यूँही कर देते हैं।
मेरा ये कंधा फ्रीज़ (जाम) कर गया था। गुड़गाँव के एक बहुत प्रतिष्ठित अस्पताल में मुझे धकेल दिया गया। यही संस्था के लोग बाँध कर ले गये कि दिखाओ। वो तो मेरी सर्जरी करने पर उतारू हो गया था तुरन्त। अब वो सर्जरी सफल भी हो सकती थी, पर क्या वो उचित थी? कहिए।
अब ये यहाँ बैठे हुए हैं संदीप (संस्था के कार्यकर्ता), ये बोलते हैं, ‘करा भी मत लेना कभी सर्जरी, ज़रूरत ही नहीं है, ऐसे ही ठीक हो जाएगा।’ हो भी गया क़रीब-क़रीब।
और उससे पहले की भी बात है, आपने कहा, ‘सर्जरी सफल होगी कि नहीं?’ मैंने कहा उससे पहले सफलता ये मिलेगी कि आप जान जाओगे कि सर्जरी की ज़रूरत भी है या नहीं। क्या पता सर्जरी आप सिर्फ़ अपने लालच के लिए करना चाहते हो। और उससे भी पहले की सफलता ये मिल जाएगी कि आप जान जाओगे कि आपको सर्जन बने भी रहना है या नहीं। सर्जरी तो बहुत बाद की बात है, आपको सर्जन होना भी चाहिए क्या? या कुछ और ही होना चाहिए? क्या पता! कौन जाने!
ध्यान का मतलब होता है — सब कुछ ठीक करोगे। इसीलिए निरंतर ध्यान चाहिए। चौबीस घंटे वाला ध्यान चाहिए। वो ध्यान नहीं चाहिए कि सर्जरी में जा रहे हैं तो आधे घंटे ध्यान में बैठ गये। या सर्जरी बिलकुल बर्बाद कर दी तो जाकर ध्यान में बैठ गये। ध्यान के मध्य सर्जरी होनी चाहिए, सर्जरी के मध्य ध्यान होना चाहिए; दोनों साथ चलें। ध्यान जीवन है। ध्यान धड़कन और साँस की तरह होना चाहिए, लगातार।
ध्यान जिमिंग (कसरत) थोड़े ही है कि जाकर के आधे घंटे सुबह कर आये, एक घंटे शाम कर आये। हमने कुछ ऐसा ही बना दिया ध्यान को! सुबह-शाम कर लेना चाहिए। अभी मैं ध्यान में हूँ और उम्मीद करता हूँ आप भी ध्यान में हैं। इसी का नाम ध्यान है। और ध्यान नहीं है तो कुछ भी ठीक नहीं हो सकता। और जो कुछ ग़लत होगा, वो ठीक उसी समय ग़लत हो जाएगा जब ध्यान नहीं है।
देखिए, चीज़ें बिगड़ती कब हैं? चीज़ें तब बिगड़ती हैं जब वो आपके लिए चीज़ें नहीं रह जातीं; काम तब बिगड़ते हैं जब वो आपके लिए काम नहीं रह जाते; रिश्ते तब बिगड़ते हैं जब लोग आपके लिए सिर्फ़ लोग नहीं रह जाते।
आप एक क्रिकेटर हैं, ठीक है? एक गेंद है। उसको खेलने का आप कम से कम दस-बीस हज़ार बार अभ्यास कर चुके हैं। अतीत में ख़ूब खेला है उस गेंद को, ख़ूब खेला है। कोई भी साधारण सी गेंद हो सकती है। ठीक है? हाफ़ वॉली , आपने अतीत में उसको ख़ूब खेला है, उसपर ड्राइव भी मारे हैं, चौके भी मारे हैं। अब आप एक महत्वपूर्ण मैच खेल रहे हैं, कोई फ़ाइनल (खेल की अंतिम पारी) है। अब वही हाफ़ वॉली आयी और मैच की बड़ी नाज़ुक स्थिति है और आप उसपर बोल्ड (बाहर) हो गये।
क्यों बोल्ड हो गये? आप उसपर दस हज़ार बार पहले अभ्यास कर चुके हैं, आज बोल्ड कैसे हो गये? आपने उस गेंद को अब गेंद नहीं रहने दिया। आपने उसको टूर्नामेन्ट (प्रतियोगिता) बना दिया। आपने उसको अपनी प्रसिद्धि बना दिया।
समझ रहे हैं बात को?
आपने उसको एंडोर्समेंट्स (पृष्ठांकन) बना दिया। आपने उसको दर्शक-दीर्घा से उठती तालियों की गरज बना दिया। अब वो गेंद नहीं है। वो न जाने क्या-क्या बन गयी। अब गेंद बिगड़ जाएगी। बिगड़ी कि नहीं बिगड़ी? वो सिर्फ़ गेंद होती तो दस हज़ार बार उसको सफलता से खेल चुके थे। कोई ठीक-ठाक आदमी भी, हो सकता है कोई अच्छा आदमी भी ज़िंदगी में आये, तो हम कई बार उससे अपने रिश्ते ख़राब कर लेते हैं।
तलाक़ के मामले होते हैं। वहाँ पर दो पक्ष हैं। एक से जाकर के पूछो तो वो दूसरे के बारे में आपको ऐसी बातें बताएगा कि आप कहोगे कि ये जो दूसरा है, इससे गिरा हुआ आदमी तो कोई दुनिया में हो ही नहीं सकता। और आप जानते हैं कि वो व्यक्ति इतना गिरा हुआ तो नहीं है। लेकिन उसके बारे में आपको जो बातें बतायी जा रही हैं, मान लीजिए पत्नी द्वारा, वो बातें भी झूठ नहीं लगती।
आप पति से आकर पूछेंगे, वो पत्नी के बारे में ऐसी बातें बताएगा कि आप कहेंगे, ‘इससे ज़्यादा नालायक़ औरत दुनिया में हो नहीं सकती।’ ये कैसे हो गया?
ये दोनों व्यक्ति ठीक-ठाक हैं। आप इनकी मित्र-मंडली में जाकर पूछिए, आप इनके दफ्तर में जाकर पूछिए, वो कहेंगे, ‘नहीं, ये दोनों ही लोग ठीक-ठाक हैं। इनमें ऐसा कोई बहुत बड़ा दोष नहीं है।’ लेकिन वो एक-दूसरे की नज़र में इतना गिर कैसे गये? ये दोनों लोग पूरी दुनिया के लिए ठीक-ठाक से लोग हैं, साधारण, औसत। लेकिन एक-दूसरे के लिए ये बिलकुल चांडाल हैं, राक्षस हैं।
ये कैसे हो गया? क्योंकि हमने इंसान को इंसान नहीं रहने दिया। हमने व्यक्ति को व्यक्ति नहीं रहने दिया। जैसे उस बल्लेबाज़ ने गेंद को गेंद नहीं रहने दिया। उसने गेंद का बहुत आगे का अर्थ निकाल लिया न! कि ये गेंद नहीं है, ये मेरे लिए अब टूर्नामेंट है, 'मैन ऑफ़ द मैच' है, ट्रॉफ़ी (विजेता पुरस्कार) है। वैसे ही आपने आदमी को या उस औरत को एक व्यक्ति नहीं रहने दिया।
आपने उसको क्या बना दिया? ये जानेमन है, ये जन्नत है, ये हूर है, ये भगवान है, ये रब है, क्या है? और बोलो। वो जो कुछ भी है, आपने उसको उतना बना दिया। अब उतना बना दिया। हाँ, ये चाँद है। और? सब अनुभवी हैं। ठीक है? जब इतना बना दिया तो फिर मामला ख़राब हुआ।
ध्यान का क्या मतलब है? ध्यान का मतलब है — कुछ भी उतना अब आपके लिए महत्वपूर्ण हो ही नहीं सकता। जो महत्वपूर्ण था, वो मिल गया। ध्यान का मतलब है कि ध्येय एक है। ध्यान का मतलब है — ध्येय एक है। पचास ध्येय नहीं हैं।
एक ध्येय है जो अति महत्वपूर्ण है। और उस ध्येय पर नज़रें बिलकुल टिकी हुई हैं — वही है, वही है, वही है, वही है, वही है। उसी की तरफ़ जाना है; उसी में साँस लेनी है; उसी में जीना, उसी में खाना, उसी में उठना, उसी में सोना — वो एक ध्येय है। हम उसी में जम कर के स्थापित हो गये हैं, बैठ गये। ये ध्यान है।
जब ये ध्यान है तो दुनियाभर की अब सारी चीज़ें आपके लिए क्या हो गयीं? चाहे वो एक बॉल (गेंद) हो, चाहे आदमी हो, औरत हो, चीज़ हो, कुछ भी हो, पैसा हो, रुपया, इज़्ज़त; ये सब चीज़ें आपके लिए अब क्या हो गयीं? क्या हो गयीं? क्या हो गयीं? मतलब इम्पोर्टेंस (महत्व) के स्तर पर। महत्वपूर्ण कितनी रही आपके लिए?
चीज़ें अब चीज़ें हैं। चीज़ों के साथ अब वैल्यू एसोसिएशन (मूल्यारोपण) आपको करने की कोई ज़रूरत नहीं है। इंसान, अब इंसान है। उसको आप इंसान की तरह देख सकते हो, निष्पक्ष होकर के। उसे अब आपको ये नहीं मानना है कि इसके माध्यम से मुझे न जाने क्या मिल जाए कि तुम मेरी ज़िंदगी में आ गये हो, ज़िंदगी में गुल खिल जाएँगे, गुलज़ार हो जाएगा। ये सब आपको कहने की ज़रूरत नहीं है।
‘ज़िंदगी में जो परम महत्वपूर्ण है, वो कुछ ये है। और मैं यहाँ पर टिक कर के पहले से ही बैठा हुआ हूँ। और ये जो है जहाँ मैं टिक कर पहले से बैठा हुआ हूँ, जो सबसे महत्वपूर्ण है, वो कोई चीज़ नहीं है, वो कोई वस्तु नहीं है, व्यक्ति नहीं है, विचार नहीं है। वो कुछ भी ऐसा नहीं है जो दुनिया में पाया जाता है, खोया जाता है। वो एक आंतरिक स्पष्टता है, एक क्लैरिटी है। वो एक रीज़नलेस पीस (अकारण शांति) है। अकारण ही शांत हूँ मैं।’
‘तो अब मैं पहले से ही ठीक हूँ’ — इसको ध्यान बोलते हैं। ‘मैं पहले से ही ठीक हूँ।’ जब मैं पहले से ही ठीक हूँ, तो अब ये मेरा पेशेन्ट (रोगी) है, मैं सर्जन हूँ। वो सर्जरी मेरे लिए क्या है? क्या है? जस्ट अ सर्जरी (सिर्फ़ एक शल्य चिकित्सा)। मेरे हाथ नहीं काँपने वाले। न तो ये हो जाएगा कि वो मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गयी, तो मेरे हाथ काँप गये; न ये हो जाएगा कि कोई और चीज़ है जो मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है, तो मैं सर्जरी की जगह दूसरी चीज़ का विचार कर रहा हूँ। कि कर रहे हैं सर्जरी और याद कर रहे हैं कि आज शाम की पार्टी है।
मेरे लिए न तो वो सर्जरी महत्वपूर्ण है, अगर सर्जरी बहुत महत्वपूर्ण हो गयी, तो क्या हो जाएगा? हाथ काँप जाएँगे। और सर्जरी करते वक़्त अगर शाम की पार्टी महत्वपूर्ण हो गयी, तो क्या हो जाएगा? सर्जरी से ख़याल हट जाएगा, ध्यान हट जाएगा। न सर्जरी महत्वपूर्ण है, न सर्जरी के अलावा ही कुछ और महत्वपूर्ण है। न ये, न वो। जो सामने है, वही महत्वपूर्ण है। क्योंकि वास्तव में कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि वास्तव में कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है।
क्यों कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है? क्योंकि जो महत्वपूर्ण है, वहाँ तो हम बैठे हुए हैं, वो हमारी जेब में है। कोई हमारा बिगाड़ क्या लेगा? कोई हमसे छीन क्या लेगा? तो अब सर्जरी करनी है तो सर्जरी की तरह कर रहे हैं। सर्जरी सिर्फ़ सर्जरी है।
दो हज़ार का नोट, बस दो हज़ार का नोट है। वो ज़िंदगी नहीं हो गया, इज़्ज़त नहीं हो गया, पहचान नहीं हो गया। कपड़ा सिर्फ़ कपड़ा है, इज़्ज़त नहीं हो गया। अब दुनिया में जो कुछ भी है, उसके साथ आप सहज और स्वस्थ सम्बन्ध रख पाएँगे। ये है चौबीस घंटे का ध्यान।
अब दुनिया में जो कुछ भी है, उसके साथ आप — ये दो शब्द क्या हैं — सहज और स्वस्थ सम्बन्ध रख पाएँगे। न चिपका-चिपकी, न ठेला-ठेली, न आकर्षण, न विकर्षण, न राग न द्वेष, न अपना न पराया। ये ध्यान है।
अपने जीवन के बयालीस वर्षों में मैंने एक मिनट भी वो आँख मूँद करके आस न मारने वाला ध्यान नहीं करा। एक मिनट भी ध्यान नहीं करा। ज़रूरत ही नहीं लगी। बल्कि अगर मैं वो करने लग जाऊँ तो ध्यान उचट जाएगा मेरा। मतलब क्या हुआ? सहज ध्यान में हैं। अब कृत्रिम ध्यान क्या करना! और सहज ध्यान में कैसे हुआ जाता है? ये जानकर के कि क्या है जो आपको सहज ध्यान में नहीं रहने दे रहा। खेल तो सारा महत्व देने का है न!
ये चीज़ आपको बहुत महत्व देने लग गयी। पक्की बात है कि आपको शांति से ज़्यादा क़ीमती ये चीज़ लगने लग गयी है। तुरन्त परखिए, तुरन्त पूछिए, ‘ये चीज़ वाक़ई इतनी क़ीमती है?’
भूलिएगा नहीं कि जो चीज़ सबसे महत्वपूर्ण है, उसका कोई नाम, पहचान, रूप-रंग तो है ही नहीं। तो उस तक पहुँचा नहीं जा सकता। सिर्फ़ उससे जो चीज़ें आपको हटा रही हैं, भ्रमित कर रही हैं, उनका मुकाबला किया जा सकता है।
वो जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, हमने उसके बारे में क्या कहा? हमने उसके बारे में कुछ भी नहीं कहा। क्योंकि उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। क्यों नहीं कहा जा सकता? क्योंकि वो? न कागज़ है, न कपड़ा है, न इंसान है, न दीवार है, न जानवर है, न पीछे का है, न आगे का है। तो उसके बारे में कोई बात नहीं कही जा सकती।
तो वो जो सबसे महत्वपूर्ण है, उसे कैसे पाया जाए? कैसे पाया जाए? उसके ख़िलाफ़ जो कुछ है, उसको हटा करके। उसको पाया नहीं जा सकता सीधे-सीधे। सिर्फ़ उसके ख़िलाफ़ जो कुछ खड़ा हुआ है, उसको हटाया जा सकता है। और उसको हटाना फिर भी आसान है। क्यों आसान है?
प्र: वो दिख रहा है।
आचार्य: क्योंकि वो दिख रहा है। बहुत बढ़िया! जो पाना है, उसका तो न नाम, न रूप, न रंग, न आकार, तो वो दिखेगा नहीं। तो उसको पाओगे कैसे? तो उसको पाने की कोशिश व्यर्थ है। लेकिन उसके ख़िलाफ़ जो ताक़तें हैं, उनका नाम भी है, रूप भी है, रंग भी है, आकार भी है, सबकुछ है उनका; गुण हैं उनमें सारे। तो उनके ख़िलाफ़ कुछ किया जा सकता है। ये तरीक़ा है ध्यान का। जो कुछ तुम्हारी शांति भंग करता हो, तुरन्त उसको पहचानो, पकड़ो, खदेड़ो।
शांति नहीं पायी जा सकती क्योंकि शांति की न गंध होती है, न स्वाद होता है, न रूप, न रंग, कैसे पाओगे? अशांति के पास ही सब कुछ होते हैं। क्या? नाम, रूप, रंग, आकर्षण — ये सब किसके पास होते हैं? अशांति के पास। तो शांति का पीछा नहीं कर सकते, अशांति का मुकाबला कर सकते हो।
अशांति को जितना दूर हटाते जाओगे, उतना ज़्यादा तुम उस सही जगह पर स्थापित होते जाओगे जिसको कहते हैं ध्यानस्थ होना। ध्यानस्थ, ध्यानस्थ, ध्यानस्थ। और जब अभ्यास गहरा जाता है अशांत करने वाली चीज़ों को खदेड़ते रहने का, तो फिर कुछ भी महत्वपूर्ण लगना बंद हो जाता है। जो महत्वपूर्ण लगा, उसी ने किया अशांत। जो वास्तव में महत्वपूर्ण है, हमें तो उसके साथ रहना है। वही सच्चा है, वही नहीं बदलेगा, वही धोखा नहीं देगा।
बाक़ियों से कोई रिश्ता नहीं रखना है? दुनिया के साथ क्या कोई रिश्ता नहीं रखना है? सहज और स्वस्थ। न आकर्षण, न विकर्षण, न राग, न द्वेष। सर्जरी करनी है, करेंगे।
प्र: आचार्य जी, सभी कुछ अच्छे तरीक़े से करने के बाद भी, कभी किसी पर्टिकुलर पेशेंट के साथ कुछ मिसहैप्पनिंग (दुर्घटना) होती है तो उसका कारण कभी समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों हुआ? जबकि सपोज़ (कल्पना) करो उस पेशेंट (रोगी) को टेबल (मेज़) पर लिया, सिर्फ़ एनस्थीसिया (असंवेदना की औषधि) दिया है। एनस्थीसिया में ही पेशेंट जो है, शॉक (आघात) में चला गया, सिंक (बेहोश) हो गया। तो ये कभी समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों हुआ पर्टिकुलर (विशेष तौर पर) किसी पेशेंट के साथ ही, जबकि वो चलता-फिरता पेशेंट आता है।
और दूसरी बात, कई बार ऐब्डॉमन (कुक्षि) के अन्दर अपेंडिसाइटिस करके डायग्नोसिस (रोगनिर्णय) हुआ है सारी जाँचों में। लेकिन हम अन्दर जाकर देखते हैं कि डायग्नोसिस ही रोंग (ग़लत) है। और दूसरी चीज़, बड़ी सर्जरी की चीज़ निकलकर आती है तो जो अपेंडिक्स की जगह बड़ी सर्जरी करनी पड़ जाती है। जैसे एनास्टमोसिस (एक शल्यक्रिया) करना पड़ जाता है या इस तरह की सर्जरी करनी पड़ जाती है। तो पेशेंट की मोर्बिडिटी (रुगण्ता) बढ़ जाती है। इसका भी कोई सम्बन्ध हो सकता है किसी कर्मफल से या किसी से?
आचार्य: कोई सम्बन्ध नहीं है। ये प्रकृति के खेल हैं। ये जो सेक्टर (क्षेत्र) है न, ये क्या कहलाता है? एलस्टोनिया इस्टेट्। एलस्टोनिया क्या है? कोई यहाँ नहीं है बॉटनी (वनस्पति विज्ञान) से?
एल्स्टोनिया क्या है? पेड़ है। तमाम ये जो लगे हुए हैं। इन दिनों बहुत अच्छी खुशबू देते हैं रात में। ठीक है? एल्स्टोनिया एक प्रजाति है न! एक; एक। और पेड़ों को देखिएगा। क्या दिखाई देगा? क्या दिखाई देगा? जितने पेड़, उतनी भिन्नताएँ। क्या कारण है? कुछ नहीं। यूँही; यूँही।
और अगर आप ये पूछना ही चाहते हैं कि ऐसा क्यों हुआ कि एक पेशेंट के साथ सबकुछ करके भी उसे बचा नहीं पाये और दूसरा बिलकुल वैसा ही केस (मामला) स्वस्थ होकर घर लौटा, तो फिर आपको ये भी पूछना पड़ेगा कि दो बच्चे अलग-अलग, भिन्न-भिन्न होकर जन्म ही क्यों लेते हैं। भेद तो वहीं से कर देती है न प्रकृति। प्रकृति तो वहीं से भेद करना शुरू कर देती है।
गुणों का अर्थ ही है भेद। एकत्व आत्मा में होता है, प्रकृति में सिर्फ़ और सिर्फ़ भेद होते हैं। वो पेशेंट तो बहुत बाद में बना, इस ग्रह पर जो उसका पहला दिन था, उसी दिन एक बच्चा दूसरे बच्चे से भिन्न क्यों था? बताइए।
चलिए, आप और पीछे जा सकते हैं कि भाई किसी की माँ कुपोषित थी, किसी का कुछ और, किसी को कुछ और। फिर उसमें और पीछे जाना पड़ेगा कि एक कुपोषित क्यों है, दूसरा क्यों नहीं? क्यों? क्यों? वो तो फिर प्रकृति के संयोग हैं। आप वो करिए जो आप अधिकतम कर सकते हैं। और याद रखिए, किसी भी व्यक्ति के साथ, चाहे वो आपका संबंधी हो और चाहे आपका मरीज़, आप अधिकतम ये कर सकते हैं कि आप अपने भीतर ध्यान में रहें।
ये बात सुनने में थोड़ी अजीब लगेगी। आप कहेंगे कि मेरे सामने एक पेशेंट है तो मुझे पूरा ध्यान उसपर देना चाहिए न, पेशेंट पर! नहीं साहब, आपके सामने बड़े से बड़ा कुछ हो, ध्यान अपनी जगह रहना चाहिए। अभी मैं आपसे बात कर रहा हूँ। एक अर्थ में आप मेरे लिए सब कुछ हैं। एक दूसरे अर्थ में आप मेरे लिए कुछ भी नहीं हैं। मैं अपनी जगह हूँ, मुझे आपका कुछ पता ही नहीं। तभी मैं सर्जरी कर पा रहा हूँ।
आप मेरे लिए बहुत कुछ हो गये तो मैं आपके लिए बिलकुल बेकार हो जाऊँगा, अनुपयोगी। मैं आपकी सेवा तभी तक कर पा रहा हूँ जब तक आप मेरे लिए एक तल पर बहुत महत्व नहीं रखते। एक तल पर आप सबकुछ हैं मेरे लिए। पूछता हूँ बीच-बीच में, ‘समझ में आ रहा है न?’ सेवा आपकी ही कर रहा हूँ। लेकिन आपकी सेवा कर सकूँ, उससे पहले किसी और की सेवा कर रहा हूँ। उसको छोड़कर आपकी सेवा करने लग गया तो आपको भी कुछ दे नहीं पाऊँगा।
ऐसे करनी है सर्जरी।
जब सच और शांति सबसे ऊपर होते हैं तो पेशेंट से भी ऊपर हुए कि नहीं हुए? या यूँही बस किताबी बात कह दी गयी थी कि सत्य सर्वोपरि है? सर्वोपरि का क्या मतलब है? कि सबसे ऊपर है। लेकिन पेशेंट से नीचे है — ये अर्थ था क्या?
तो ये चीज़ है साधना की कि मुश्क़िल से मुश्क़िल केस भी सामने है, तो भी शांति नहीं अपनी भंग होने देनी है। हिल नहीं जाना है। बहुत अच्छा नतीजा आ गया तो भी नहीं; बहुत बुरा नतीजा आ गया, तो भी नहीं। क्योंकि अच्छे नतीजे पर हिलने की आपने तैयारी कर रखी है, तो भी आपके हाथ हिलेंगे और बुरे नतीजे पर हिलने की तैयारी आपने कर रखी है, तो भी आपके हाथ हिलेंगे।
आपकी तैयारी यही है कि अगर ये मरीज़ बच गया तो मज़ा आ जाएगा, ‘बधाइयाँ ही बधाइयाँ’, तो भी आपके हाथ काँप जाएँगे। और तैयारी अगर ये है कि इस मरीज़ को बचना बहुत ज़रूरी है, तो भी आपके हाथ काँप जाएँगे; शांत।
कोई इमरजेंसी (आपातकाल) हो सकती है, उसमें हो सकता है आपके हाथ बहुत तेज़ी से चलने लग जाएँ; चलते ही होंगे। हाथ बहुत तेज़ी से भी चलने लगें तो भी मन नहीं चलना चाहिए; शांत। वो क्यों नहीं चलना चाहिए? क्योंकि वो अचल में बैठ गया है। उसको वो मिल गया है जो उसको चाहिए था। उसके पास चलने की कोई वजह नहीं है। हाथों के पास चलने की वजह है, हाथ बाहरी चीज़ हैं, बाहरी दुनिया में वो चलेंगे।
प्र: उस मन को अचल में कैसे बैठाया जाए?
आचार्य: जो कुछ भी मन को चलायमान करता है — मन को चलायमान करना माने मन को गति देना, मन को खींचने लगना — उसको पूछ करके कि तुम ऐसा क्या दे दोगे मुझे जिसके लिए मैं अपना मन तुम्हें दे दूँ। ‘तुम मन माँग रहे हो, बदले में क्या दोगे?’
ये सवाल आप जैसे ही करोगे, ज़्यादातर जो आपके पास व्यापारी आते हैं न, आपका मन माँगते हैं, वो मुँह छुपा नहीं पाएँगे क्योंकि उनके पास कुछ है नहीं बदले में आपको देने को। वो आपका मन तो ले जाते हैं और आपके पास सिर्फ़ बेचैनी या अशांति, यही चीज़ें छोड़ जाते हैं।
तुर्रा ये कि हम इस बात का भी बड़ा उत्सव मनाते हैं कि फ़लाना मेरा दिल ले गया और पीछे से मुझे बेचैन छोड़ गया। ये कोई गीत गाने की बात नहीं है, ये तो पता चल रहा है कि कोई तुमको ठग गया बिलकुल। तुम्हारी चीज़ ले गया और पीछे गंदगी छोड़ गया।
जो भी चीज़ मन को खींच रही हो, उससे ये दो-टूक सवाल करिए तो कि इतना तुम छा रहे हो, इतना लुभा रहे हो, दोगे क्या?
ये सवाल बड़ी ग़ज़ब चीज़ होती है। कर दीजिए, सब नकली लोग ख़ुद ही भाग जाते हैं। क्योंकि आपको दिया तो एक वादा ही जा रहा है, कोई चीज़ आपको नहीं दी जा रही है। आपको एक वादा दिया जा रहा है और वादे पर भरोसा करने से पहले सवाल करना ठीक है न? कि नहीं? या यूँही वादा मान लेना है?
बीच-बीच में तो ऐसा भी होगा कि आप किसी से पूछेंगे कि तुम फ़लाना वादा कर रहे हो, इसको पूरा कैसे करोगे, तो हो सकता है वो ये भी बोल दे कि मैं ऐसा कोई वादा कर ही नहीं रहा। ये तो तुम ख़ुद ही सपने ले रहे हो, कल्पना कर रहे हो। बड़ी ये तबाही की स्थिति होती है।
रिश्ते के आठ साल बाद जब कहा कि फ़लाना तुमने वादा करा था, पूरा नहीं करा। और सामने वाला बोले,’मैंने ऐसा कोई वादा करा ही नहीं।’ फिर शक़्ल कैसी हो जाती है अपनी! वो जैसी मीम वग़ैरा में होती है — ये क्या हो गया!
और यही हाल हमने दूसरे के साथ किया होता है। उसको भी लग रहा होता है कि हमने कुछ वादे करे हैं, जो हमने करे ही नहीं होते। इसीलिए इस तरह की चीज़ों में जल्दी मत आ जाया करिए कि तेरी आँखें जो वादा कर रही हैं, वो मैंने पढ़ लिए। उसकी आँखें कोई वादा नहीं कर रही हैं। आप ज़बरदस्ती पढ़ रहे हो। ज़बरदस्ती पढ़ रहे हो और फिर परेशान करोगे कि तूने वादा करा; नहीं करा।
प्र: कई बार कुछ रेयर ऑपरेशन (दुर्लभ शल्यक्रिया) करते हैं तो उनको प्रचार, जैसे मीडिया के अन्दर देना चाहिए या नहीं देना चाहिए?
आचार्य: उससे आपको जो मिले, प्रचार से, वो चीज़ बहुत बड़ी नहीं होनी चाहिए। प्रचार तो हम भी करते हैं। ये पक्का होना चाहिए कि उससे मुझे कुछ बहुत बड़ा नहीं मिल जाना है। उस प्रचार से काम में लाभ होता है, बेशक़ करिए, ख़ूब करिए। लेकिन आपके भीतर जैसे ही ये भावना आयी न कि अगर ये रेयर केस, रेयर सर्जरी (दुर्लभ मामला, दुर्लभ शल्य चिकित्सा) सफल हो गयी तो इससे मुझे बड़ी ख्याति मिल जाएगी, अब गड़बड़ हो जानी है। कोई भी काम वर्जित नहीं है — सहज, स्वस्थ। सहजता से करिए न!
प्र२: आचार्य जी, जो ध्यान की स्थिति होती है, इसमें कर्ताभाव होता है या नहीं होता? या कर्ता कोई और ही होता है, बस चीज़ें होती हैं?
आचार्य: नहीं, ये सब बहुत रोमैंटिक स्पिरिचुएलिटी (काल्पनिक अध्यात्म) जैसी चीज़ें है — कर्ता कोई और ही होता है। आप ही होते हैं कर्ता। बस जो इसमें कर्ता है, वो भ्रमित नहीं है, बेहोश नहीं है, नशे में नहीं है। आप ही कर रहे हो भाई! और कौन करेगा?
पर आपकी ही अनेकों स्थितियाँ हो सकती हैं कि नहीं! एक स्थिति ये कि कुछ कर रहे हो सौ तरह की उम्मीदें उससे पालकर के — उम्मीदें पालकर के या डर पालकर के, कुछ भी। एक करनेवाले की ये हालत हो सकती है और एक हालत ये है करनेवाले की कि अपना अंदर वो मस्तमगन है और बाहर-बाहर सहजभाव से कुछ कर रहा है।
मैं कोई बहुत दूर की बात नहीं बोल रहा हूँ। जो मैं बात बोल रहा हूँ, वो आप समझ रहे हैं, पकड़ रहे हैं क्योंकि कुछ ऐसा नहीं है कि जिसका अनुभव बहुत पहुँचे हुए गुरुओं को ही होता है। ये स्थिति आप सबने चखी होगी कभी न कभी। कि नहीं है? जो भीतर से संतुष्ट हैं लेकिन बाहर काम कर रहे हैं। संतुष्ट होते हुए काम कर रहे हैं, संतुष्टि की ख़ातिर नहीं कर रहे। जिसका ये मतलब नहीं है कि बाहर जो काम कर रहे हैं, उसके तरफ़ उदासीन हो गये या वो हल्के हाथ से कर रहे हैं या मंद-मंथर गति से कर रहे हैं। नहीं! जान लगाकर कर रहे हैं।
इस विरोधाभास को समझिएगा। बाहर जो काम कर रहे हैं, वो पूरी जान लगाकर कर रहे हैं लेकिन फिर भी भीतर से तृप्त हैं, पहले ही। अब बाहर काम का जो नतीजा निकलना है, उससे फ़र्क भी बाहर-बाहर ही पड़ना है। भीतर एक बिंदु है जिसपर किसी काम का या किसी नतीजे का कोई असर नहीं पड़ने वाला।
कुछ बात पहुँच रही है?
जो मैं बात बोल रहा हूँ, इसका मतलब ये नहीं है कि आप उदासीन हो गये। सहज होना उदासीन होना नहीं होता। इन्डिफ्रेंस (उदासीनता) की बात नहीं कर रहा हूँ। सही सम्बन्ध, राइट रिलेशनशिप की बात कर रहा हूँ।
जान लगा दीजिए पूरी, सर्जरी में। और ये भी है पक्का कि इंसान है, प्राकृतिक गुण हैं, वृत्तियाँ हैं, वो सब तो शरीर में ही होती हैं। जान बच जाएगी अगर मरीज़ की तो अच्छा तो लगता है और जान चली गयी किसी की टेबल पर तो बुरा भी लगता है। लेकिन ये जो भी अनुभव है अच्छे का, बुरे का, ये वैसे ही बाहरी होना चाहिए जैसे मरीज़ बाहरी था। भीतर एक बिंदु होना चाहिए जिसपर किसी सफलता-असफलता का कोई असर नहीं पड़ने का। वो बिंदु आप हैं। उसी बिंदु को अधिकार है ‘आत्मा’ कहलाने का। बाक़ी सब कुछ प्रकृति है।
मात्र वो बिंदु जो सदैव, सर्वथा अस्पर्शित रह जाने वाला है, 'आत्मा' कहा जा सकता है। बाक़ी आपके हाथ, विचार, गतिविधियाँ, परिणाम, सफलता, असफलता — ये सब प्रकृति का खेल है। ठीक है? और ये खेल खेलना है। नहीं खेलना था तो पैदा क्यों हुए?
तो इस खेल को तो खेलेंगे। और खेल खेल ही रहे हैं। फाँसी का फंदा थोड़े ही बना लेंगे खेल को!