आचार्य प्रशांत: बल ही जीवन है और दुर्बलता ही मृत्यु है। बात को बिना लाग-लपेट के सीधे-सीधे लाकर के उन्होंने लोगों के सामने रख दिया। कहा कि देखो, अपने जीवन को कितनी शक्ति, कितना बल दिखाई दे रहा है। और अगर न तुम्हारे तन में बल है, न तुम्हारे मन में बल है, तो तुम मिथ्या ही, झूठ-मूठ ही, अपने आप को धार्मिक या आध्यात्मिक कह रहे हो, ताक़त दिखाओ। और हम बात कर रहे हैं 20वीं शताब्दी के मुहाने पर खड़े हिंदुस्तान की। ताक़त ज़रा कम ही देखने को मिलती थी। सामान्य जनों की तो क्या कहें, युवा वर्ग भी लचर, कांतीहीन, बिना किसी रीढ़ का दिखाई देता था।
अपनी इसी बात पर ज़ोर देने के लिए यहाँ तक कह गए कि ये जो तुम भगवद्गीता का पाठ करते दिखाई देते हो, तुम्हारे लिए तो इससे कहीं ज़्यादा ज़रूरी है कि तुम जाकर फुटबॉल सीखो।
ज़रा चुनौती स्वीकार करना सीखो, प्रतिस्पर्धा करना सीखो, प्रतिपक्षी से आगे निकलना सीखो। और ये सब अगर तुम नहीं कर रहे तो गीता तुम पर व्यर्थ ही गई न।
गीता रटने से क्या होगा? श्रीकृष्ण का उपदेश सशक्त लोगों के लिए, बहादुरों के लिए, बाँके जवानों के लिए है। वो कह रहे हैं, "लड़ जाओ!" उनके लिए थोड़े ही है श्रीकृष्ण का उपदेश, जिनके बाजुओं में धनुष उठा पाने भर की भी ताक़त नहीं। उनसे श्रीकृष्ण कह भी दें कि,"लड़ जाओ" तो लड़ेंगे कैसे? वो कहेंगे, "उठ ही नहीं रहा, बहुत भारी है धनुष।"
क्रांतिकारी बात थी। नहीं तो आम प्रथा ये थी कि अध्यात्म के नाम पर बातें ही किसी परलोक की होंगी — आत्मा, रूह, ऊपरी बातें, रूहानी बातें, दूर देश की बातें। स्वामी विवेकानंद ने उन सब बातों को खींच कर ज़मीन पर उतार दिया। बोले, "अध्यात्म किसी परलोक की बात नहीं है, अध्यात्म तुम्हारी आँखों के आज के तेज की बात है।" ये सूखा हुआ चेहरा, ये मुरझाया हुआ जीवन और इसके साथ तुम अपने आप को आध्यात्मिक कहते हो? किसको बेवक़ूफ़ बना रहे हो? कोई तेजस्विता नहीं, कोई सुगढ़ सौंदर्य नहीं। अध्यात्म को तो तुमने बिल्कुल हवा-हवाई बना दिया। क्रांतिकारी बात थी।
इसी तरीक़े से एक और जो प्रचलित मान्यता थी (और आज भी है कुछ हद तक), वो थी कि अध्यात्म अपने किसी एकांत में बैठ कर के, आसन जमा कर के, ध्यान आदि लगाने का काम होता है। स्वामी विवेकानंद इस बात के ख़िलाफ़ जमकर खड़े हुए। बोले, "ना! तुम्हारी बस्तियाँ गंदी हैं, तुम्हारा भाई बीमारी से मर रहा है। देखो, हाल देखो, बंगाल का हाल देखो देश भर का हाल। और तुम कहते हो कि तुम आध्यात्मिक हो क्योंकि तुम अपने कमरे में कहीं कोने पर बैठ गए हो, आँखें बंद करके?" ये कौन सा अध्यात्म?
उन्होंने कहा, "बाहर निकलो!" और खास तौर पर युवाओं से कहा, "बाहर निकलो! बिना समाज सेवा के कोई अध्यात्म नहीं होगा। झाड़ू उठाओ, गलियों की, मोहल्लों की सफ़ाई करो। सड़क पर उतर के मेहनत का अनुपम आदर्श प्रस्तुत करो।"
एक के बाद एक दुर्भिक्ष छा रहे थे। बंगाल में ख़ास तौर पर अकालों की श्रृंखला ही चल रही थी। स्वामी जी अपने साथियों को अनुयायियों को, सेवा के काम पर तैनात करते, और सबसे आगे-आगे स्वयं रह कर के आदर्श प्रस्तुत करते। वो कहते — "ये समय ध्यान, भजन, कीर्तन भर का नहीं है। करते रहना ध्यान-भजन-कीर्तन, पर इस वक़्त नर की सेवा ही नारायण की सेवा है। चलो, इंतज़ाम करो लोगों के खाने-पीने का। जहाँ कहीं से भी हो सके, धन की व्यवस्था करो, अन्न की व्यवस्था करो, लोगों को बचाओ। समाज से हटकर कोई साधना नहीं होती।" क्रांतिकारी बात थी।
भारत में आमतौर पर ऐसी दृष्टि, ऐसा चलन नहीं रहा था। भारत का जो औसत आध्यात्मिक आदमी होता था — वो एक दुबला-पतला, जगत की घटनाओं से उदासीन, एकांतवासी होता था। अब उसके पास जाएँगे, उससे पूछें कि दुनिया में क्या चल रहा है, उसे कुछ पता न हो। वि बस बोले, “राम-राम” या “देवी-देवी”, या हो सकता है कुछ न बोले मौनी हो तो। उसके बाजुओं को आप देखें, तो किसी स्वस्थ आदमी की कलाई से भी कम मोटाई के उसके बाजू मिलें। उसके चेहरे को देखें तो कोई कांति, कोई तेज, कोई रौब नहीं। उसकी वाणी को सुनें तो कोई दम नहीं।
विपरीत परिस्थितियों से और अनाचार से जब लोहा लेने का समय आए, तो इस औसत आध्यात्मिक आदमी के पास कोई संकल्प नहीं, कोई प्रेरणा नहीं। इसने तो अध्यात्म के नाम पर उदासीनता और पारलौकिकता सीखी थी। इसने तो ये सीखा था कि अध्यात्म का मतलब होता है — दुनिया से कदम वापस खींच लेना, कहीं इधर-उधर कोने-कतरे जाकर के छुप जाना और वहाँ बैठ के कहना, “कृष्णा कृष्णा।”
स्वामी विवेकानंद ने कहा, “ये सब नहीं चलेगा। तुमने यही कर-कर के हिंदुस्तान की दुर्गति करा डाली। तुमने अपनी कमजोरियों और अपने दुर्बलता भरे अहंकार को बचाने के लिए अध्यात्म का भी दुरुपयोग कर डाला।" तो जब चर्चाएँ होती थीं — स्वामी जी में, उनके साथियों में, तो दुनिया भर के साहित्य की वो चर्चा करें, हर तरह की घटनाओं की जानकारी रखें। उन लोगों के आपस के संवाद अगर आप पढ़ें तो आप पाएँगे कि ऊँचे दर्जे का सामान्य ज्ञान है पूरे ही दल का।
स्वामी जी ने जो यात्राएँ करी थीं, उनसे तो लगभग सभी परिचित हैं ही। वो प्रेरित करते थे अपने साथ के लोगों को भी, ज्ञान अर्जित करने के लिए और भ्रमण करने के लिए। स्वामी विवेकानंद की अंग्रेज़ी में जो दक्षता थी, उससे तो आप परिचित हैं ही। वैसे ही दक्षता मठ के, और बाद में मिशन के और नेताओं में भी थी। ये सब परंपरा से हटकर किए गए काम थे। ये सब बड़ी नई और मौलिक दृष्टि के काम थे।
नहीं तो कहाँ हुआ था भारत में ऐसा, कि कोई भारतीय सन्यासी पानी के जहाज़ से लंबी कष्टप्रद यात्रा करके अमेरिका जाए। यूरोप भी नहीं अमेरिका की बात कर रहे हैं। अमेरिका जाए, जो सबसे दूर का ही देश नहीं है सबसे नया देश भी है। पुरानें से पुराना भारत, अपना प्रतिनिधि भेज रहा है विश्व के नए से नए देश को, अमेरिका को। जो नया ही नहीं है, पृथ्वी के बिल्कुल दूसरे छोर पर है। ऐसा हुआ नहीं था पहले भारत में। क्रांतिकारी बदलाव था ये। एक सन्यासी कह रहा है, "मैं अमेरिका जा रहा हूँ।"
और अमेरिका गए। और विश्व धर्म सभा में जो उनका संबोधन है, उससे आप परिचित ही होंगे — अमर हो गया वो। हमें ज्ञात होना चाहिए कि सिर्फ़ एक संभाषण के लिए नहीं गए थे वो अमेरिका। उसके बाद वह वहाँ महीनों तक रुके। एक के बाद एक छोटी-बड़ी सभाएँ करीं, अपना संदेश फैलाया। फिर वहाँ से यूरोप भी गए बाद में, वहाँ भी यही किया। और अपनी बात इतनी स्पष्टता और इतनी सशक्तता के साथ रखी, कि जब वह लौटे तो उनके साथ उनके कुछ पश्चिमी अनुयायी हिंदुस्तान आ गए, सदा के लिए।
ये बल है। और उस वक़्त उनकी कुल उम्र कितनी? एकदम ही नौजवान। वो उम्र जिसमें तब भी और आज भी भारत के बहुत सारे जवान लोग अपने आप को दूध पीता बच्चा ही मानते हैं। सब कुछ बदल के रख दिया स्वामी विवेकानंद ने।
उन्होंने कहा, "नहीं! 25 बहुत ज़्यादा होता है। 25 की उम्र में तुम कैसे अपने आप को लड़का या बॉय कह रहे हो, भाई? 25-30 तक में तो तुम्हें जीवन का अधिकांश काम निपटा देना चाहिए। अपनी मुक्ति और समाज के कल्याण के लिए ऊँचे से ऊँचे कदम ले चुके होने चाहिए — 25-30 तक। और बेटा, 38 तक तो हालत ये हो जानी चाहिए कि सारे जो काम करने थे जीवन के, पूरे हो गए। अब हम शरीर त्यागने को भी तैयार हैं।" जवानी का ये आदर्श प्रस्तुत किया स्वामी विवेकानंद ने।
उचित ही है कि युवा दिवस मनाया जाता है उन्हीं के नाम पर। 25-30 तक में काम निपटाओ और जीवन ऐसा जियो, कि 40 से पहले-पहले जीवन भी अगर निपट जाए तो कोई आपत्ति नहीं।
कहते, उन्होंने स्वयं ही कह दिया था कि, "40 पार नहीं करूँगा।" और इसमें कोई दैवीय या पारलौकिक त्रिकालदर्शिता की बात नहीं है। जैसा वो जीवन जी रहे थे, वो एक ज़बरदस्त जलती हुई, जवान मशाल की तरह थे। उन्हें तो खुल के जीना था और जलना था। उन्हें स्वयं को बचा कर नहीं रखना था, उन्हें जीवन की लंबाई नहीं चाहिए थी। तो —
कोई हैरत की बात नहीं कि जो मशाल अपने ईंधन को इतनी तेजी से जला रही हो वो कम ही समय में अपना काम निपटा दे।
आम लोगों की अपेक्षा कम जिए, आम लोगों जैसा नहीं जिए। बात समझ में आ रही है?
आम सन्यासी की क्या अवधारणा बनी हुई थी लोगों के मन में? एक दुबला-पतला, कमजोर, बूढ़ा, लंबी दाढ़ी बनाए, मैले कपड़े पहने, भीख माँगता हुआ आदमी। स्वामी विवेकानंद ने सब उलट-पलट के रख दिया। उन्होंने कहा, "अध्यात्म ऊँचे से ऊँचा काम है बुढ़ापे का काम नहीं है। देखो मुझे! वास्तव में अगर अध्यात्म अगर प्रौढ़ावस्था में या वृद्धावस्था में आता है तुम पर, तो ये बस गनीमत की बात है कि तुम बच गए। ये तुम्हारा पहला विकल्प नहीं हो सकता। तुम ये नहीं कह सकते कि — मैं अध्यात्म की दिशा में देखूँगा ही 40 पार करके, या 60 पार करके, या 100 पार करके।"
उन्होंने कहा — "मुझे देखो! जीवन का जो श्रेष्ठतम काम है, उसको ही तो जीवन के श्रेष्ठतम वर्ष देने चाहिए ना? मेरे जीवन के श्रेष्ठतम वर्ष तभी हैं, जब शरीर में अधिक से अधिक ऊर्जा है। और अपने जीवन के स्वर्णिम वर्ष मैं समर्पित करता हूँ जीवन के स्वर्णिम उद्देश्य को ही। नहीं तो और क्या काम आएगी जवानी? जवानी अगर जो सबसे ऊँचा काम हो सकता है, उसको नहीं दी — तो और क्या उपयोग करूँगा अपनी जीवन ऊर्जा का? फिर तो जवानी बहकेगी, आत्मघाती हो जाएगी, समय को, ऊर्जा को, जीवन को बर्बाद करेगी। क्रांति है ये!"
भारत अध्यात्म का पक्षधर और पुजारी तो ज़रूर रहा है, लेकिन भारतीय जनमानस में ये धारणा भी बैठी हुई है कि "अध्यात्म काम तो बुढ़ापे का ही है।" दोनों बातें हैं भारत में। यहाँ तो जिसको देखो वही धार्मिक है, लेकिन साथ ही साथ ये मान्यता भी है कि "धर्म बुढ़ापे का काम है, भाई!" विवेकानंद ने इस धारणा को झकझोर कर रख दिया। और जहाँ कहीं भी आज भी स्वामी विवेकानंद का चित्र लगा होगा, मूर्ति खड़ी होगी — वो मूर्ति, उस मूर्ति का तेज, उस जवान आदमी की रोशनी गवाही दे रही होगी कि अध्यात्म बुढ़ापे का नहीं, जवानी का ही काम है।
प्रमाणित कर रही होगी और आमंत्रित कर रही होगी सब युवाओं को कि — "आओ, देखो मुझे मैंने क्या किया! वही करो जो मैंने किया और तभी करो, जब मैंने किया!"