आलासिंगा पेरूमल - स्वामी विवेकानंद के सबसे प्रिय शिष्य

आलासिंगा पेरूमल - स्वामी विवेकानंद के सबसे प्रिय शिष्य

स्वामी विवेकानंद को हम सब जानते हैं। लेकिन क्या आपने 'श्री आलासिंगा पेरूमल' के बारे में सुना है?

शायद नहीं। पर आलासिंगा ना होते तो स्वामी विवेकानंद कभी शिकागो का वो ऐतिहासिक भाषण नहीं दे पाते, जिसकी बदौलत उन्होंने विश्वभर में वेदान्त व हिंदू धर्म का नाम रोशन किया।

बात है 1890 की। आलासिंगा जी को 1893 में होने जा रहे विश्वधर्म संसद के विषय में पता चला। वे इस अवसर का वेदान्त व हिंदू धर्म के प्रचार के लिए सदुपयोग करना चाहते थे।

लेकिन उनके सामने एक बड़ा सवाल खड़ा था। इस कार्यक्रम में कौन वेदान्त का प्रतिनिधित्व कर पाएगा?

अपनी खोज के दौरान 1892 में वे स्वामी विवेकानंद से मद्रास में मिले। और उन्हें स्पष्ट हो गया कि ये कार्य स्वामी जी ही कर सकते हैं। लेकिन संसाधनों की कमी एक बड़ी बाधा बनकर सामने खड़ी हो गई।

पर आलासिंगा जी ने हार नहीं मानी। उन्होंने घर-घर जाकर अनुदान माँगा, मैसूर के राजा से लेकर हैदराबाद के निज़ाम से सहायता माँगी। और सालभर के अथक परिश्रम के बाद, उस ज़माने में 'चार हज़ार रुपए' इकट्ठा कर स्वामी विवेकानंद जी को अमरीका भेजा।

बात यहीं ख़त्म नहीं होती। वहाँ पहुँचने के बाद जब स्वामी जी को संसाधनों की ज़रूरत थी तो उन्होंने फिर आलासिंगा जी को पत्र लिखा। और उस पत्र को पढ़कर आलासिंगा जी की पत्नी ख़ुद को रोक नहीं पाईं। पहले उन्होंने अपने सारे गहने बेच दिए, फिर एक व्यापारी से 1000 रुपए और उधार लिए। और सारे पैसे स्वामी जी को भेज दिए।

स्वामी जी शिकागो व अमरीका के अन्य शहरों में वेदान्त और हिंदू धर्म का मर्म आम-आदमी तक पहुँचा रहे थे। पर यहाँ भारत में इस बात को मीडिया द्वारा कोई कवरेज नहीं दी जा रही थी।

भारत में स्वामी जी के श्रम व वेदान्त का ऐसा अनादर देख आलासिंगा ने देश के कोने-कोने में जाकर लोगों को इस ऐतिहासिक घटना का महत्व समझाया।

और इसी के साथ स्वामी विवेकानंद व उनका शिकागो भाषण अमर हो गए।

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यदि श्री आलासिंगा और उनके जैसे अन्य न होते, तो क्या स्वामीजी को इतिहास में उनका सही स्थान मिल पाता? क्या वेदांत को शिकागो में सम्मान मिल पाता? सवाल विचारणीय हैं।

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This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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