“जो कुछ आवे सहज में, सो मीठा जान। कड़वा लागे नीम-सा, जा में खींचा-तान।।” ~कबीर दास जी
आचार्य प्रशांत: देने वाले ने तुम्हें जो भी कुछ दिया है वो सहजता में ही दे दिया है और जो तुम्हें सहज न मिल रहा हो समझ लो कि वो तुम्हारे लिए है नहीं। कबीर साहब कह रहें हैं कि जो भी कुछ सहज मिल रहा हो, वही मीठा है; और जहाँ कहीं खींचा-तानी है, ज़ोर-ज़बर्दस्ती है, वो नहीं है तुम्हारे लिए। उसकी कोशिश व्यर्थ मत करो।
ये संत की एक विशेषता होती है। उसे दुनिया से शिकायत नहीं होती है। तुम्हें दुनिया से बहुत शिकायत होती है न, तभी तुम बहुत ज़्यादा चीज़ों को बदलने की कोशिश करते हो। वो चीज़ों को नहीं बदलना चाहता। अगर उसे कभी कुछ बदलना भी है तो वो अपने आप को बदलेगा। वो बदलाव लाता भी है तो बड़ी सहजता से लाता है।
तुम अगर देखो तो नदी चलती है पहाड़ से और समुद्र तक पहुँच जाती है, तो पानी की स्थिति में कितना सारा बदलाव आ जाता है; आ जाता है कि नहीं? जो पहले बर्फ था वो पहले पहाड़ का पानी बन जाता है, फिर मैदान का पानी बन जाता है, और अंततः वो समुद्र का पानी बन जाता है। लेकिन ये सारा काम बिना खींचा-तान के किया जाता है। नदी कहीं लड़-वड़ नहीं रही होती है। वो चुपचाप सहजता से, जहाँ मौका मिला, दाएँ-बाएँ अपना रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ जाती है; और इतना लंबा रास्ता तय कर लेती है।
तो जैसे नदी का बहाव होता है ऐसा संत का मन होता है। वहाँ बहुत कुछ हो जाता है बिना खींचा-तान के, बिना कनफ्लिक्ट (टकराव) के। वहाँ पत्थर से पत्थर नहीं टकरा रहें होते हैं; वहाँ पानी पत्थर को पार कर रहा होता है। जब पत्थर, पत्थर को पार करना चाहता है तो क्या होता है?
प्रश्नकर्ता: टकराव।
आचार्य प्रशांत: टकराव; और जो टकराव हो तो कोई ज़रूरी भी नहीं है कि पत्थर पत्थर को पार कर जाए। पर जब पानी पत्थर को पार करता है तो कैसे पार करता है? इधर से, उधर से बस कर गया पार। काम भी हो गया और टकराव भी नहीं हुआ; और देखा है तुमने अच्छे से कि पानी और पत्थर जब मिलते हैं तो घिस कौन जाता है?
प्रश्नकर्ता: पत्थर।
आचार्य प्रशांत: अब ये बड़ी अज़ीब बात है। पानी इतना मुलायम पत्थर इतना सख्त; पानी खींचा-तान करना नहीं चाहता और पत्थर लड़ने को तैयार बैठा है। लेकिन अंततः घिस कौन गया?
प्रश्नकर्ता: पत्थर।
आचार्य प्रशांत: तो संत पानी जैसा होता है। वो सबकुछ कर डालता है बिना खींचा-तान के।
प्रश्नकर्ता: सर, ये जो घिसने वाला मसला है, इसमें ये है कि जो पत्थर है जो घिस रहा है, उसका पार्टिकल (कण) एक ही है; और जो पानी है उसका बहुत सा पार्टिकल आकर वहाँ टकरा रहा है। वो तो अपना पोज़ीशन चेंज (स्थिति परिवर्तन) कर रहा है न सर। लेकिन पत्थर का पोज़ीशन वही है, इसलिए वो घिस रहा है। एक पार्टिकल अगर एक पार्टिकल पानी का और एक पत्थर का टकराए तो पानी का तो भाग जाएगा न सर।
आचार्य प्रशांत: तो संत ऐसा ही होता है। वो लगातार बहाव में होता है। वो लगातार बदल रहा होता है। पत्थर माने वो जो सख्त है, जो ठोस है, जो बदलने को तैयार नहीं है; अहंकार जैसा है। और संत माने वो जिसकी अपनी कोई पहचान है ही नहीं, जो नदी जैसा है, जो लगातार बदलने को तैयार है; वो लगातार बहाव की प्रक्रिया में है।
जो पत्थर हो जाएगा उसका घिस जाना पक्का है, क्योंकि वो कुछ हो गया है; ठोस। जो नदी हो जाएगा उसका जीतना पक्का है, क्योंकि वो कुछ रहा ही नहीं। नदी माने क्या? एक पानी, दो पानी, तीन पानी, चार पानी, कौन-सा पानी? नदी का पानी तो लगातार...(उत्तर का इंतज़ार करते हुए)। भई, तुम नदी का पानी अभी उठाओ ऐसे अंजुली में और थोड़ी देर में फिर उठाओ तो वही पानी है?
प्रश्नकर्ता: न।
आचार्य प्रशांत: तो कौन-सा पानी? किस पानी को बोलोगे नदी का पानी? जिस भी पानी को बोलोगे कि ये नदी है, वो पानी अगले ही क्षण बदल जाएगा। पत्थर नहीं बदलता। संत नदी जैसा होता है। उसके पास कुछ ऐसा नहीं होता कि जो अड़े।
प्रश्नकर्ता: यहाँ बदलने का मतलब नहीं समझ में आया।
आचार्य प्रशांत: बदलने का मतलब है कि अभी बैठे हो यहाँ पर मुझे सुन रहे हो, तो अभी तुम क्या हो गए? श्रोता। थोड़ी देर पहले तुम खाना बना रहे थे, तब तुम क्या थे? रसोईया। थोड़ी देर बाद तुम खेलना शुरू कर दोगे तब तुम क्या हो जाओगे?
प्रश्नकर्ता: खिलाड़ी।
आचार्य प्रशांत: तो लगातार तुम क्या कर रहे हो?
प्रश्नकर्ता: बदल रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: बदल रहे हो। तुम ये थोड़े ही कहोगे कि मैं राजा हूँ, तो मैं खाना बना रहा हूँ तब भी राजा रहूँगा, तो सिंहासन वहाँ रखा जाए। बास्केटबॉल खेल रहे हैं राजाजी, तो बीच कोर्ट में क्या रखा गया है?
प्रश्नकर्ता: सिंहासन।
आचार्य प्रशांत: सिंहासन। अड़ियल आदमी पत्थर की तरह होता है कि बास्केटबॉल खेल रहा है तो बीच कोर्ट में उसको सिंहासन रखवाना है; और उसको पास देना है तो तुम उसके पास जाओ और अदब से उसको 'शहंशाह-ए-आज़म' को गेंद पेश की जाए। तो ऐसे आप उनको पास देंगे। और संत होने का मतलब ये है कि जब खेल रहें हैं तो खिलाड़ी हैं; जब पढ रहें हैं तो विद्यार्थी हैं; जब सुन रहें हैं तो श्रोता हैं; जब पका रहें हैं...
प्रश्नकर्ता: तो पकाऊ हैं।
आचार्य प्रशांत: वो जो कुछ भी पेड़ पर था, ये पक्का है कि पेड़ से तो उतर गया है। कहाँ आ गया है? कहाँ आ गया है?
प्रश्नकर्ता: दिमाग में।
आचार्य प्रशांत: उसने बोला तुम तो पेड़ तक आओगे नहीं, अब हम ही आ जाते हैं।
प्रश्नकर्ता: सर हम चले जाए लेकिन सर दिक्कत हो जाएगी।
आचार्य प्रशांत: अब काहे को जाना है; अब तो वो आ गया वो। समझ गए इस बात को? लगातार बदलते रहना बहुत ज़रूरी है। लेकिन याद रखो कि जो भी बदलाव हो वो कहाँ पर हो?
प्रश्नकर्ता: बाहर।
आचार्य प्रशांत: बाहर-बाहर; भीतर क्या बना रहे?
प्रश्नकर्ता: सत्य।
आचार्य प्रशांत: खेल भी रहे हो, तो सच्चाई से खेल रहे हैं; खाना भी पका रहें हैं तो सच्चाई से पका रहें हैं; पढ भी रहें हैं तो...
प्रश्नकर्ता: सच्चाई से।
आचार्य प्रशांत: सुन भी रहें हैं तो..
प्रश्नकर्ता: सच्चाई से।
आचार्य प्रशांत: ये जीने का तरीका है। बाहर कुछ भी करेंगे, हम कोई पाबंदी नहीं रखते। लेकिन अंदर-अंदर, बाहर कितने भी रंग बदलते रहें, भीतर का रंग एक रहेगा। बाहर तुम हमसे जितने रंग बदलवाना चाहते हो बदलवा लो; भीतर का रंग एक रहेगा।