संकल्पों के बिना कैसे जिएँ? || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2019)

Acharya Prashant

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संकल्पों के बिना कैसे जिएँ? || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2019)

अयति: श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानस:। अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।।६.३७।।

अर्जुन बोले — हे श्रीकृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक ३७

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी चरणस्पर्श। आचार्य जी अध्याय छः में जो सैंतीसवा श्लोक है, उसपर प्रश्न है। मेरी योग के प्रति आस्था बहुत है पर संयम में थोड़ी-सी कमी है। तो क्या मुझे भगवत-प्राप्ति का मार्ग हो पाएगा? ये मेरे मन में हमेशा से ही आता रहा है। आपसे मार्गदर्शन चाहूँगा।

आचार्य प्रशांत: उत्तर तो साफ़-साफ़ श्रीकृष्ण ने ही दे दिया है न। जब अर्जुन कहते हैं कि योग में श्रद्धा तो है पर संयम नहीं है, तो ऐसों के बारे में क्या कहते हैं श्रीकृष्ण?

प्र: अगर तुम्हारे मन में श्रद्धा है तो फिर वो कहते हैं कि तुम्हारी श्रद्धा कभी अपूर्ण नहीं जाएगी। भले ही इस बार तुम्हें न हो, अगले जन्म में तुम अच्छी प्रवृत्ति वाले घर में पैदा होगे जिसमें तुम्हारा अन्तर्मन हमेशा से तुम्हें बोलेगा कि तुम अच्छी संगति में जाओ।

और मुझे इसी बात को लगता है क्योंकि मुझे लगता है कि मैं अच्छी संगति के घर में आया हूँ इस बार और इस जीवन में कुछ सार्थक कर पाऊँगा।

आचार्य: ऐसों को श्रीकृष्ण कहते हैं ‘योगभ्रष्ट’। क्या नाम दिया है? योगभ्रष्ट, समझिएगा योगभ्रष्ट कौन। योग की राह दुष्कर है, जब आगे बढ़ते हो तो चुनौतियाँ आती हैं, कष्ट आते हैं, पर आगे तुम बढ़ ही क्यों रहे हो? आगे बढ़ इसलिए रहे हो क्योंकि जिस बिन्दु पर तुम पहले थे ठहरे हुए वहाँ अतिशय कष्ट था।

अधिकांश लोग उस कष्ट को मानते ही नहीं, वो उस कष्ट के प्रति प्रस्तुत और संवेदनशील ही नहीं होते। उन्हें यही लग रहा होता है कि वो तो सुख में है। योग की राह पकड़ता ही वही है जो साफ़ देख ले कि उसकी वर्तमान स्थिति बड़े दुख की है, बड़ा वियोग है। वियोग होगा तभी तो योग की तरफ़ बढ़ोगे न?

तो वियोग के कारण ही तुम योग की राह में आने वाली सब चुनौतियाँ तुम स्वीकार कर ले जाते हो। तुम कहते हो, ‘ठीक है, यहाँ दिक्कत आ रही है, इस रास्ते पर दिक्कत आ रही है सामने लेकिन ये जो रास्ते की दिक्कत है ये उस दिक्कत से तो छोटी ही है जो हमारे सामान्य, साधारण जीवन में हम रोज़, प्रतिपल ही झेल रहे थे।’

तो योगी आगे बढ़ता जाता है, आगे बढ़ता जाता है। आगे बढ़ता जाता है तो उसकी पूर्व अवस्था के दुख उसको प्रतीत होने लगता है कि कम हो रहे हैं। उसको दिखाई देने लगता है कि उसके बन्धन शिथिल पड़ रहे हैं।

दुख कटने लगते हैं तो अनुभव किसका होता है? सुख का। ये योग का समझ लो अन्तरिम फल है, राह का फल है। ये फल मंज़िल आने से पहले ही, गन्तव्य से पूर्व ही मिल जाता है। तुम चले हो हिमालय के शिखर की ओर, ये फल है जो तुम्हें राह में ही मिल गया और ये फल बड़ा सुखप्रद है। तुम बहुत भूखे थे तभी तो तुमने ये यात्रा शुरू करी थी, और रास्ते में ही क्या मिल गया? फल।

तो बड़ा लोभ उठता है कि राह में ही क्यों न रुक जाओ। जब राह में ही इतना सुन्दर फल मिल गया तो आगे जाने की ज़रूरत क्या? व्यक्ति अपनी तुलना अपनी पूर्ववर्ती स्थिति से करता है, कहता है, ‘हम पहले जैसे थे उससे तो बहुत अच्छी हालत में आ गये न? धन्यवाद है योग का, उसने हमें पहले से कितनी बेहतर स्थिति में पहुँचा दिया!’

किस योग की बात कर रहे हैं अभी यहाँ पर श्रीकृष्ण? निष्काम कर्म की, कर्मयोग की बात कर रहे हैं। श्रीकृष्ण जब भी कहें ‘योग’ तो समझ लेना (कर्मयोग)। अर्जुन से बलपूर्वक श्रीकृष्ण कर्मयोग की ही संस्तुति करते हैं। तो पथिक को रास्ते में रुकने का बड़ा लालच मिलता है। जिसमें ये संयम नहीं कि इतने लालच के सम्मुख भी चलता चला जाए, रुके नहीं, उसको कहते हैं ‘योगभ्रष्ट’।

निश्चित रूप से ये व्यक्ति ऐसा है जिसे बन्धनों में रहना स्वीकार नहीं, तभी तो इसने यात्रा शुरू करी नहीं तो जैसे अधिकांश लोग अपने बन्धनों के साथ भी एक समायोजित जीवन बिताते रहते हैं, हँस लेते हैं, मुस्कुराते रहते हैं, वैसे ये व्यक्ति भी अपना बन्धनों में पड़ा रहता, ये वैसा तो नहीं है। इसे बन्धन तो नहीं स्वीकार, इसने मुक्ति की ओर, योग की तरफ़ यात्रा तो शुरू करी है लेकिन ये इतना धीरज नहीं धर पाया कि सीधे शिखर पर ही जाकर रुके। इसे राह के प्रलोभनों ने लुभा लिया, ये कहलाता है योगभ्रष्ट।

इसी बात को दूसरी जगहों पर दूसरे तरीके से कहा गया है, जिसको मैं कह रहा हूँ ‘राह का मीठा फल’ उसे ही स्वर्ग नाम से भी इंगित किया गया है। कि जो लोग योग की राह पर चलते हैं… और योग ही एक मात्र पुण्य है, जो पुण्य की राह पर चलते हैं उन्हें स्वर्ग मिलता है, स्वर्ग माने सुख।

सुख समझ लो कि आखिरी छल है। स्वर्ग का सुख माया का आखिरी दाँव है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो निष्काम कर्म करते हैं अर्जुन उन्हें सीधे मेरी प्राप्ति होती है और जो सकाम कर्म, सकाम भक्ति करते हैं उन्हें भी अपने इष्ट देवी-देवताओं द्वारा प्रदत्त फल की प्राप्ति तो हो ही जाती है। कुछ तो उन्हें मिला ही, पर उन्हें शिखर नहीं मिला, उन्हें वो जो ऊँची-से-ऊँची और आखिरी वस्तु मिल सकती थी वो नहीं मिली। वो स्वर्ग पर ही अटक गये, उन्हें देवी-देवता मिल गये, स्वर्ग का सुख मिल गया, पर अन्तिम विलय नहीं मिला, स्वर्ग में भी तुम तो मौजूद हो न? तुम मिट नहीं पाये पूरी तरीके से। जो उत्कृष्टतम् स्थिति है वो नहीं पाये, तुम वंचित रह गये। अन्तिम आनन्द से विमुख ही रह गये। स्वर्ग में भी तुम्हारा अस्तित्व तो बचा रह गया न? हाँ, बड़ा सुखपूर्ण अस्तित्व है पर अस्तित्व तो अभी है।

तो आखिरी बन्धन तो काट नहीं पाये, हस्ती तो तुम्हारी पूरी तरह मिटी नहीं। स्वर्ग का सुख भोगने के लालच में बचे ही रह गये तुम। राह का फल तुम्हें इतना लुभा गया कि तुम उस शिखर तक पहुँचे ही नहीं जहाँ तुम विलुप्त हो जाते, योग हो जाता जहाँ पर। ऐसे को कहते हैं योगभ्रष्ट।

योगभ्रष्ट की स्थिति के बारे में क्या बताते हैं श्रीकृष्ण? कहते हैं, ‘वो खूब सुख भोगता है, खूब सुख भोगता है। सुख-ही-सुख पाता है लेकिन भीतर-ही-भीतर भली-भाँति जानता है कि कुछ-न-कुछ बहुत महत्वपूर्ण है जिससे वो चूक रहा है। सुख तो बहुत मिल रहा है पर वो नहीं मिल रहा जिसकी उसको गहरी तड़प है। इच्छाएँ सब पूरी हो रही हैं, मुमुक्षा नहीं पूरी हो रही। गतियाँ सब मिल रही हैं, परमगति नहीं मिल रही।

और जब इस योगभ्रष्ट व्यक्ति को ये दिख जाता है कि ऊँचे-से-ऊँचा सुख भी अन्तिम योग के आनन्द के समतुल्य नहीं है तब ये फिर और संकल्प के साथ सब फलों इत्यादि को त्यागकर योग की अन्तिम गति की ओर बढ़ता है। लेकिन समय गँवाकर, अवसर गँवाकर, मौके को राह के फलों में बिताकर।

जैसे कोई पथिक चला हो प्रेमवश कहीं पहुँचने के लिए। कोई है जो बहुत महत्वपूर्ण है जिससे मिलना अतिआवश्यक है और वो रास्ते में अटक कहाँ गया? मीठे फलों के बाग में। फल तो मीठे मिल जाएँगे उसे, पर थोड़ी ही देर में पछताएगा बहुत कि जिससे मिलने को चले थे उससे मिलने का मौका चूक गये। सुख भी बहुत बड़ी बाधा है, सुख से बचना। यही बात कल कह रहा था।

आ रही है बात समझ में?

दुख ने नहीं बाँध रखा हमें, दुख तो मुक्तिदाता है। जब तुम्हें दुख होता है तब तुम अपनी वर्तमान स्थिति को बदलने के लिए उद्दत हो जाते हो न? कहते हो न कि बड़ा दुख लग रहा है, बड़ी पीड़ा है, बड़ी कचोट है, कुछ करना है। तब तुम बल लगाते हो, बेड़ियाँ तोड़ना चाहते हो। जब सुख मिल जाता है तब, ‘सब ठीक है, जैसा चल रहा है यही बढ़िया’।

तो माया को जब योगी को तोड़ना होता है और वो पाती है कि दुख तो काम आ ही नहीं रहा, योगी दुख की चुनौती का सामना करे ले रहा है तब माया दुख का प्रयोग नहीं करती, तब माया प्रयोग करती है सुख का। जब तुम्हें दुख नहीं डिगा पाएगा तब माया तुम्हें सुख देगी।

सुख ज़्यादा घातक है क्योंकि एक अर्थ में सुख आनन्द जैसा प्रतीत होता है, किस अर्थ में? सुख और आनन्द दोनों में ही दुख की प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं होती। सुख में भी दुख का अनुभव नहीं होता, आनन्द में भी दुख का अनुभव नहीं होता तो व्यक्ति को कई बार भ्रम हो जाता है कि सुख ही आनन्द है जबकि सुख आनन्द नहीं है।

आनन्द तब जब तुम सुख और दुख दोनों ही अनुभूतियों के पार निकल जाओ, दोनों ही अनुभूतियों को महत्व देना छोड़ दो।

दुख काम नहीं आया तो माया सुख का अस्त्र चलाती है। तुम्हें भ्रम हो जाता है कि तुम जिस आनन्द-शिखर की ओर जा रहे थे वो रास्ते में ही मिल गया। तुम कहते हो ‘देखो न, ऐसा मीठा फल मिला है, दुख सब चले गये, ज़रूर यही आनन्द है’, वो आनन्द नहीं है, वो मात्र सुख है। स्वर्गतुल्य सुख है पर है सुख ही, मंज़िल अभी नहीं मिली है।

अन्ततः योगभ्रष्ट को योग की प्राप्ति हो जाती है पर अन्ततः तो सभी को योग की प्राप्ति होनी है, अन्त में तो श्रीकृष्ण ही खड़े हैं जैसे आदि में। तो अन्ततः क्या होगा तुम इसकी बात मत करो, इसकी बात करना जीव को शोभा नहीं देता। समय के अन्त में तो सभी मुक्त हो जाएँगे। अन्त तो सभी का एक ही है, क्या? मुक्ति। तो अन्त में मुक्ति मिल जाएगी ये बात कोई दिलासा की नहीं है।

तुम तो जीव हो, तुम्हें तो ये देखना है कि तुम्हारे पास ये जो जीवन है तुम इसी में कैसे मुक्ति पा सकते हो। तुम्हें ये नहीं देखना है कि अन्ततः क्या होगा क्योंकि जो अन्ततः की बात करने लगेंगे वो अपने वर्तमान कर्म से और कर्तव्य से मुँह चुराने लगेंगे। वो कहेंगे, ‘देखो, जल्दी क्या है? आखिरकार तो सबको योगारूढ़ हो ही जाना है, नियति तो सबकी एक ही है न, आखिरी। क्या? मुक्ति। तो जल्दी क्या है? लाखों जन्म पड़े हुए हैं अभी, जल्दी क्या है? इस जन्म में तो चलो इन्द्रीय सुख भोगते हैं खूब, आगे कभी-न-कभी तो मुक्ति मिल ही जाएगी, वो बात तो पूर्वनिर्धारित है, बिलकुल तय है, तो जल्दी क्या है?’ तो अन्ततः की बात कभी मत करना।

तुम्हें जल्दी होनी चाहिए, तुम्हें जल्दी होनी चाहिए तुम्हारे पास समय सीमित है। मत भूलो तुम कौन हो। तुम जीव हो। तुम जीवभाव में जीते हो इसलिए तुम जीव हो। आत्मा होकर तो जी ही नहीं रहे न तुम। आत्मा अमर होगी, जीव का समय तो सीमित है न? तो तुम्हें समय की परवाह करनी है, तुम्हें समय फलों का रस लेते हुए नहीं बिता देना है, तुम्हें तो लगातार, बिना रुके, बिना डिगे शिखर की ओर बढ़ते जाना है, समय बहुत कीमती है।

ये भाव मत बना लेना कि योगभ्रष्ट के तो दोनों हाथों में लड्डू है, स्वर्ग का सुख भी मिला, मीठा फल भी मिला और अन्ततः फिर मुक्ति भी मिल गयी! नहीं-नहीं-नहीं, ये जो रास्ते का उसने फल चखा इसकी उसने बड़ी भारी कीमत चुकायी, क्या कीमत चुकायी? बहुत समय गँवाया, तुम्हारे पास और है क्या जीवन में समय-रूपी अवसर के सिवा? उसको ही अगर तुमने गँवा दिया तो कौनसी बुद्धिमानी?

स्पष्ट है बात? नर्क से निकलकर के कहीं स्वर्ग में मत रुक जाना। कहीं भी ठिकाना मत बना लेना। और नर्क में दुख बहुत है, बाहर निकलोगे तो अपेक्षतया सुख तो अनुभव होगा ही। वो सुख भी बड़ी चाल है, बड़ा घातक है। बचना है।

आ रही है बात समझ में?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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