प्रश्नकर्ता: जब वो बातें बोलते हैं और कोई नहीं मानता, तो फिर उन्हें कोई गुस्सा या कोई नफ़रत नहीं होती है और उसके लिए आपने कहा था क्योंकि वह अपनेआप में सुरक्षित है। ये बात मुझे समझ नहीं आयी क्योंकि मेरे साथ ऐसा ही होता है। मैं बातें बताती हूॅं लोगों को, जो सही हैं और ये अध्यात्म से सम्बन्धित नहीं हैं। ये सांसारिक मामले हैं। वीगनिज़्म (शुद्ध शाकाहार) हो या पानी खर्च मत करो, खाना मत बर्बाद करो, इस प्रकार की चीज़े और जब मैं देखती हूॅं कि कोई सुन ही नहीं रहा है तो मैं तो तिलमिला जाती हूॅं। मुझे तो बहुत गुस्सा आ जाता है।
आचार्य प्रशांत: आप नादान हैं। सिर्फ़ सही बातें बताना काफ़ी नहीं होता। सही बातें सही लोगों को बताना ज़रूरी होता है। दो गलतियाॅं होती हैं; कि आपने गलत बातें बता दी, एक तो ये गलती है। और उतनी बड़ी गलती शायद उससे ज़्यादा बड़ी गलती ये है कि आपने सही बातें बता दी लेकिन गलत लोगों को। ये काहे को करना है? क्यों? बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो आन्तरिक विकास में उस जगह नहीं पहुॅंचे हैं जहाॅं उनको आप ज्ञान और विवेक के माध्यम से कुछ सिखा सकें।
उन पर तो डर, लालच, दंड यही विधियाॅं चलती हैं कि सुनने में आपको चाहे जैसा लगे। सामाजिक, सांसारिक, व्यावहारिक जीवन में दंड का उपयोग बिलकुल है। नहीं तो न सरकारें चाहिए होती, न नियम कानून चाहिए होते, न पुलिस चाहिए होती, न सेना चाहिए होती। पर इनकी ज़रूरत पड़ती है। सड़कों पर पुलिस बन्दोबस्त न हो तो हम लोग यहाॅं बैठ कर बातें नहीं कर सकते।
इस शहर का जैसा यातायात है, मैं इस जगह तक ही न पहुॅंच पाऊॅं अगर कुछ ट्रैफ़िक कर्मचारी खड़े होकर यातायात नियन्त्रित न कर रहे हों। और उस नियन्त्रण का मतलब ही यही होता है कि वो चालान काट सकते हैं। आपको उनकी बात सुननी पड़ेगी। उनके पास चालान काटने का अधिकार न हो या वाहन ज़ब्त कर लेने का अधिकार न हो तो उनकी सुनेगा कौन। और जो काम दो-सौ रूपये का चालान कर सकता है वो काम दो-सौ रुपये की ही श्रीमद्भगवद्गीता की प्रति नहीं कर पाएगी उन लोगों के लिए।
एक-से-एक हुनरमन्द ड्राइवर होते हैं। वो सड़कों पर बदतमीजियां कर रहे हैं। तुम उनके हाथ में गीता दोगे, तुम्हें लगता है कुछ फ़र्क पड़ जाएगा? हाॅं, जब ट्रैफ़िक पुलिस सामने खड़ी होती है तो कहती है, ‘लाइसेंस प्लीज़’। तो एकदम सीधे हो जाते हैं। कभी ‘चच्चा’ बोलेंगे, कभी ‘सर’ बोलेंगे (श्रोतागण हँसते हैं)। तो आप क्यों गलत जगह पर गलत विधि का इस्तेमाल कर रहे हो?
आप ये भी तो कर सकते थे न, यहाॅं बैंगलोर आये हैं। बहुत हैं यहाॅं पर जानने वाले, सुनने वाले जो डेटाबेस होता है जिसमें अलग-अलग जगहों के लोगों की सूची होती है जिन्होंने हमसे सम्पर्क किया है। कर्नाटक से हज़ारों लोग हैं और जितने लोग कर्नाटक से हैं, उसमें से आधे से ज़्यादा बैंगलोर से हैं। ये भी तो कर सकते थे कि यहाॅं पर आ रहे हैं और एकदम खुला कर दें। आइए, बड़ा एक कोई मैदान ले लिया गया है जिसमें हज़ार, दो हज़ार, चार हज़ार लोग आ सकते हैं। जितने लोग आ सकते वो सब लोग आयें। क्यों नहीं किया?
सच सिर्फ़ उनके लिए है जो कुछ पात्रता रखते हों। सच सिर्फ़ उनके लिए है जो सच को बाकी चीज़ों से ऊपर रखते हों। और एकदम ठोस तरीके से बोलूॅं, तो कम-से-कम पैसे से ऊपर रखते हों सच को। जो सच के लिए थोड़ा पैसा भी नहीं खर्च कर सकता, वो सच सुनने के लायक नहीं है। और वैसे लोग अगर आपके बीच में आ जाऍंगे तो आप भी अभी जिस गहराई और गम्भीरता से सवाल पूछ पा रही हैं, आप नहीं पूछ पाती।
आप कल्पना करिए यहाॅं पर अभी पाॅंच सौ लोग बैठे होते। वो पीछे बैठे हुए हैं, ऐसे ही, मुफ़्तिये। वो घुस आयें हैं कि चलो ठीक है जाते हैं, “हींग लगे ना फिटकरी”, थोड़ी देर बैठकर लौट आऍंगे। और आप सवाल पूछ रही हैं, वो पीछे बैठकर कहानी अपनी बता रहा है। क्योंकि उसका कुछ लगा ही नहीं है। उसे कोई मतलब ही नहीं है। सच उसको सुनाकर कुछ होगा क्या?
जिसने दाम नहीं चुकाये, उसको मैं सच सुनाऊॅं तो मैं उनके साथ भी अन्याय कर रहा हूॅं जो असली पात्र, सुपात्र लोग हैं। मैं आपसे भी ठीक से नहीं बात कर पाता और आज से पाॅंच-दस साल पहले के जो शेर होते थे, उनका हमारा ऐसा अनुभव रहा है। तब खुला दरवाज़ा होता था। ओपन डोर पॉलिसी भी रही है कि आइए जो भी आना चाहता है, ‘आओ, बैठो-बैठो’। और अनुभव हमारा ये रहा है कि जिन्होंने भी उपद्रव करा है शिविरों में, ये वही लोग रहे हैं जो बस यूॅंही आ गये थे चलते-फिरते।
पूरी गीता अर्जुन को दे देने के बाद कृष्ण जो एक-दो आखिरी बातें बोलते हैं अट्ठारवें अध्याय में, वो ये है कि अर्जुन किसी ऐसे को तुम ये बातें मत बता देना जो मुझमें श्रद्धा नहीं रखता। सबके लिए थोड़े ही है गीता। सबके लिए तो कुछ भी नहीं होता, गीता कैसे हो जाएगी? आप दूसरे को गीता के माध्यम से कुछ अच्छा देना चाहते हो न। ठीक है, दूसरे को आप अच्छा देना चाहते हो इसमें आपकी सज्जनता है।
आप एक अच्छी इंसान हैं, आप दूसरे की भलाई करना चाहती हैं। आप उसे कुछ ज्ञान दे रही हैं, पर आप ये समझ ही नहीं रही हैं कि उसकी भलाई इस ज्ञान के माध्यम से नहीं होनी है। शायद उसकी भलाई भय के माध्यम से होनी है, दंड के माध्यम से होनी है। वो अभी इस स्थिति में ही नहीं है कि वो सीधे-सीधे ज्ञान को ग्रहण कर सके। वो जिस स्थिति में है, उसके साथ वैसा ही बर्ताव होना चाहिए। इसी में उसकी भलाई है।
समझ में आ रही है बात?
शराब पीकर ओवर स्पीडिंग (तेज़ गति से गाड़ी चलाना) कर रहे थे। किसी ने उनके हाथ में गीता दी। गीता उन्होंने ली, ऐसे देखी (देखने का अभिनय करते हुए) और ऐसे उछाल दी पिछली सीट पर कि अरे छोड़ो! उनका कुछ भला हुआ, नहीं हुआ। और जिस तरीके से ओवर स्पीडिंग कर रहे थे, थोड़ी देर में भिड़ते और मरते। लेकिन आगे उनको मिल गया पुलिस वाला और पुलिस वाले ने चालान भी काटा और बढ़िया डाॅंट भी बतायी। तो नशा भी थोड़ा उतर गया, थोड़े होश में आ गये। गाड़ी की गति आगे कम कर दी। बताइए इनकी जान गीता ने बचायी या पुलिस ने बचायी?
श्रोतागण: पुलिस ने।
आचार्य: तो भला चाहना किसी का अच्छी बात है लेकिन सबका भला गीता के माध्यम से नहीं हो सकता। समझ में आ रही है बात? अब मेरे पास आपके लिए प्रश्न है। आप ऐसे ही लोगों से क्यों घिरी हुई हैं जो गीता के लायक नहीं है? आप अभी तक ऐसे ही माहौल में कैसे फॅंसी हुई हैं जहाॅं लोग ऐसे हैं कि आप उन्हें गीता बताती हों, वो सुनते नहीं? आपका क्या स्वार्थ है उनके बीच फॅंसे रहने में? वो नहीं सुधरेंगे गीता सुनकर, कुछ दिनों में आप ज़रूर गीता छोड़ देंगी।