भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय।
और न कोई चढ़ि सके, निज मन समझो आय।।
संत कबीर
वक्ता: नहीं और कोई तरीका नहीं है। ज्ञान को भी अंततः प्रेम ही बनना होगा। क्योंकि यदि ज्ञान ही रह गया तो तुम ज्ञाता बने रह जाओगे। बड़ा अहंकार होता है ज्ञाता का। फ़िर परम तुम्हारे लिए एक जीती-जागती वास्तविकता नहीं रहेगी, वो एक जानी हुई वस्तु बन जाएगा, ज्ञान बन जाएगा। “हमें परम ज्ञात है। हम हैं और सत्य है, और हम सत्य को जानने वाले हैं।” पूरा-पूरा अहंकार।
“हम हैं और सत्य है” पहले तो यहीं पर दो हैं; एक नहीं, दो हैं — हम हैं और सत्य है। और हम सत्य को? न सत्य से एक रूप नहीं हुए हैं हम, सत्य को जी नहीं रहे हैं हम, हम सत्य को जान रहे हैं। जी नहीं रहे हैं, जान रहे हैं। जानना है या जीना है?
श्रोता १: जीना है।
वक्ता: जीना है।
“भक्ति जो सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय”
जीने का तो एक ही तरीका है — एक हो जाना क्योंकि जीवन एक है। जीवन की धारा एक है। और वही प्रेम का मार्ग है, वही भक्ति की सीढ़ी है। आप जो कुछ करो अंततः तो एक ही होना पड़ेगा। वही योग है, वही मुक्ति है। भक्त पहले ही कदम से एक होने की इच्छा रखकर चलता है। ज्ञानी की प्रार्थना होती है: “मैं जान लूँ”, भक्त की प्रार्थना होती है: “तुम से मिल जाऊं। किसी तरह मिलन हो जाए।”
ज्ञानी की प्रार्थना को अंततः बदलना होगा, क्योंकि उसकी प्रार्थना यदि पूरी भी हो गयी तो भी वो अटका ही रहेगा। भक्त की प्रार्थना बिल्कुल दुरुस्त है, शुरू से ही। क्या कह रहा है वो? “मिल जाऊं, तुम्हें पा लूं”। वो पहले ही क्षण से योग के लिए ही उत्सुक है।
ज्ञानी रोता है कि “मूढ़ हूँ”, और भक्त रोता है कि “विरह है”। ज्ञानी के रोने में भी सूक्ष्म अहंकार है, और भक्त यदि रो रहा है तो ये नहीं रो रहा है कि “मुझे कुछ और मिल जाए”, वो कह रहा है, “तुम नहीं मिले हो, तुम श्रेष्ठ हो, तुम पाने योग्य हो, तुम नहीं मिले हो”। भक्त के कदम लगातार ठीक ही ठीक चल रहे हैं, बिल्कुल ठीक सीढ़ी पर हैं।
“भक्ति जो सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय”
बिल्कुल सीधा रास्ता है भक्ति का। “और न कोई चढ़ि सके, निज मन समझो आय”। बात में पेंच है देखिएगा, “और न कोई चढ़ि सके, निज मन समझो आय”, जो समझदार होगा वही ये जान पाएगा कि भक्ति के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। कबीर कह रहे हैं, “मात्र ज्ञानी ही समझ सकता है कि भक्ति के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।” मूढ़ नहीं समझेगा।
“और न कोई चढ़ि सके, निज मन समझो आय।”
जिसने मन को समझा, जो मन की प्रक्रियाओं से, मन के दाँव पेंचों से, मन के चाल-चलन से पूरी तरह से अवगत है वही ये जान पाएगा कि भक्ति ही एकमात्र साधन है।
तो सबसे गहरी भक्ति उसी की होगी जिसने पहले खूब समझा है। भक्ति मूढों के लिए नहीं है। भक्ति ऐसे नहीं है कि आप हाथ जोड़ लेंगे और आरती गाना शुरू कर देंगे तो आप भक्त हो गए। जिसने पहले बड़े वैज्ञानिक तरीके से, बड़ा शांत होकर के मन को देखा है, बिल्कुल परिचित है वो मन की एक-एक हरकत से, सिर्फ़ वही अंततः भक्ति में उतर पाएगा।
जो पूरे तरीके से द्वैत की एक-एक चाल को समझता है सिर्फ़ वही अंततः ये कह पाएगा कि “अहंकार भक्ति के अलावा और किसी माध्यम से नहीं हटता, अन्यथा संभव नहीं है।” दो तरफ़ा काम कर रहे हैं कबीर: एक तरफ़ तो स्पष्ट कर रहे हैं कि मुक्ति की सीढ़ी भक्ति है और दूसरी तरफ़ ये भी आपको बता रहे हैं कि भक्ति ऐसे नहीं होती कि आपने कुछ रस्मों का पालन कर लिया, कि आप नाम के भक्त कहला गये।
“भक्ति के लिए गहरी दृष्टि होनी बड़ी ज़रूरी है।
मात्र गहरा ज्ञान ही प्रेम में परिणीत हो सकता है।”
जिसको हम कहते हैं ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग, ये दोनों अलग-अलग मार्ग वास्तव में हैं ही नहीं। भक्ति से पहले भक्ति के आधार के रूप में ज्ञान का होना बड़ा आवश्यक है। ज्ञान ही भक्ति बनेगा, ज्ञान यदि भक्ति नहीं बन रहा तो अहंकार है, और वो भक्ति जिसमें ज्ञान नहीं है, वो अंधी है, वो सिर्फ़ विश्वास है, धारणा है।
“भक्ति भेष बहुंतरा, जैसे धरती आकाश।
भक्त लीन गुरु चरण में, शेष जगत की आश।।”
भक्ति की, भक्त की कोई छवि न बनाई जाए। हज़ार प्रकार के उसके भेष हो सकते हैं। कैसा भी दिखाई पड़ सकता है। मान के मत बैठिएगा कि कोई ऐसा चले, इस प्रकार का आचरण करे, ऐसा उठे, ऐसा बैठे, ऐसा खाए, ऐसा पिये, ऐसी बातें करे, सो ही भक्त है; न भाषा पर जाइएगा, न भेष पर जाइएगा। एक बात बस पक्की है, रूप कोई भी हो भक्त का, आचरण कैसा भी हो, समर्पण होगा उसमें पूरा-पूरा, बस इतनी सी पहचान है भक्त की; और कुछ भी नहीं। बाकि तो पूरा जगत खुला हुआ है उसके लिए, धरती से लेकर आकाश तक जो कुछ भी है भक्त कैसा भी हो सकता है, कहीं भी मिल सकता है, कैसा भी दिख सकता है, कुछ भी करता हुआ पाया जा सकता है। हाँ, एक बात पर वो अचल रहेगा, वो नहीं हिलती, क्या?
श्रोता २: समर्पण।
वक्ता: भक्त लीन गुरु चरण में। समर्पण का भाव बहुत गहरा रहेगा। और वो चाहें जो कर रहा हो, पर समर्पित सदा रहेगा। दूसरी तरफ़ यदि आपने खूब भेष धर लिया है भक्तों जैसा, खूब आप प्रचलित आचरण कर रहे हैं, खूब आप तीज, त्यौहार मनाते हैं, खूब आप भजन और कीर्तन गाते हैं, लेकिन समर्पण नहीं है, गुरु चरण छोड़िये, गुरु से कोई नाता ही नहीं है तो कहीं के भक्त नहीं हैं।
समर्पण है भक्ति की पहचान; न भेष, न भाषा, न आचरण।
न भेष, न भाषा, न आचरण; भक्ति की पहचान है मात्र समर्पण।
याद रहेगा ये?
न भेष, न भाषा, न आचरण; भक्ति की पहचान है मात्र समर्पण। और उससे भेष अपनेआप उपयुक्त हो जाता है, आचरण अपनेआप उचित हो जाता है, आपको कुछ परवाह करनी नहीं होती।
शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।