तुमसे विलग जो होएँगे, प्राण उसी पल खोएँगे || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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तुमसे विलग जो होएँगे, प्राण उसी पल खोएँगे || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

अधिक सनेही माछरी, दूजा अलप सनेह । जब ही जल ते बीछुरै, तब ही त्यागे देह ।।

आचार्य प्रशांत: पानी क्या है? समुद्र क्या है? वो, जो मछली के बाहर भी है, मछली के भीतर भी है; वो, जो मछली से पहले भी था, मछली के बाद भी रहेगा; वो, जिसमें मछली का जन्म भी है, जीवन भी है, और अंततः मृत्यु भी है–वो समुद्र कहलाता है। समुद्र वो है जिसमें मछली को आना है, जाना है, और फिर पुनः आना है। समुद्र मछली का होना है। मछली से अलग वो कुछ है ही नहीं। मछली को समुद्र की एक बूँद कहना भी ग़लत नहीं होगा। और कभी कबीर कहते हैं कि 'बुंद समानी समुंद में', और कभी कहते हैं, 'समुंद समाना बुंद में'; दोनों अभिन्न हैं, उनमें कहीं पर कोई रेखा खींची जा नहीं सकती।

ये अभिन्नता अस्तित्व में सबको मिली हुई है कि अलग कभी नहीं कर पाओगे हमें हमारे स्वभाव से, अलग कभी नहीं कर पाओगे हमें हमारे समुद्र से। आप पेड़ को उसके स्वभाव से चित नहीं कर सकते, आप मछली को उसके सागर से जुदा नहीं कर सकते। आदमी अकेला ही है, जिसे उसके सागर से अलग कर दिया गया है और फिर भी वो जिए जा रहा है। तो जब कह रहे हैं कबीर कि 'अधिक सनेही माछरी, दूजा अलप सनेह' तो इसमें दूजा और कोई नहीं है, मनुष्य ही है।

मनुष्य ही है जिसने प्रेम नहीं जाना है, जिसमें अल्पता है। जो अपने स्वभाव से विलग हो करके भी जी जाता है, मर ही नहीं जाता। मछली एक क्षण नहीं जिएगी, मछली को समु्द्र से अलग कर दो, मछली एक क्षण नहीं जिएगी। और हमारे भीतर का समुद्र, हमारे भीतर का रस, कब का सूख चुका है, हम जिए जाते हैं। मर कब के चुके हैं, लाशें चली जाती हैं, चली जाती हैं। मृत्यु कब की हो गई पर चले जा रहे हैं। कबीर ने ही अन्यत्र कहा है कि-

“बिरह भुवंगम तन बसै, मन्त्र न लागै कोई। राम बियोगी ना जीवै, जीवै तो बौरा होई।।”

ध्यान दीजिएगा! मछली के पास बौरा होने का विकल्प नहीं है, मछली ज्यों वियोग में आएगी, मर ही जाएगी। पर आदमी के पास विकल्प है, क्या? कि या तो मरो, या बौरे हो जाओ। आदमी बड़ी आसानी से, बड़ी सुविधा से मरने की जगह बौरा होना स्वीकार कर लेता है। और इसी कारण हम ज़िंदा हैं—नहीं तो कब के मर गए होते—क्योंकि विकल्प है। विरह में तो हो, राम को तो नहीं पाया पर अभी भी जिए जाओ, कैसे जिए जाओ? पागल होकर के। और वही आपको दिखाई पड़ेगा कि जो पूरी मानवता है, वो पागलों की तरह ही जिए जा रही है।

प्रश्नकर्ता१: प्रकृति में और कोई इस विकल्प को स्वीकारता नहीं है, मनुष्य क्यों स्वीकारता है?

आचार्य: प्रकृति में दूसरे भी हैं, जिन्हें विवश किया जा सकता है ये विकल्प स्वीकारने के लिए, मनुष्य के द्वारा। उदाहरण के लिए–पालतू जानवर।

प्र२: पर सर, मैंने तो कभी देखा नहीं...। हमारे तरफ तो कुत्ते पालते थे, वो व्यवहार करते थे।

प्र३: पर वो कितना रोते हैं।

प्र२: जब उनको छोड़ देते हैं, जब कोई नहीं होता है, तो अपना सामान्य रहते हैं। अपने विशिष्ट आदमी आ जाते हैं जैसे कोई मालिक वगैरहा तो उनके सामने उनका व्यवहार थोड़ा-सा प्रभावित हो जाता है, बदल जाता है। वैसे तो कोई परिवर्तन नहीं होता उनके व्यवहार में।

आचार्य: थोड़ा-सा और देखोगे, ध्यान दोगे, पढ़ोगे कि उन पशुओं का क्या होता है, जिन्हें उनके प्राकृतिक सदन से निकाल करके कहीं और ज़बरदस्ती डाल दिया जाता है, तो समझ में आएगा।

प्र४: चिड़ियाघर में।

आचार्य: चिड़ियाघर ही नहीं, आपके घरों में भी। एक बहुत बड़ा वर्ग है, एक दृष्टि है, जो साफ़-साफ़ कहती है कि जानवरों के साथ ये बड़ा अन्याय है अगर तुम उन्हें पालतू बनाते हो। क्योंकि तुम कितना भी पालतू बना लो, तुम उन्हें वो दशाएँ नहीं दे पाओगे जो उनकी प्राकृतिक दशाएँ हैं। तो पालतू बनाना जानवर के प्रति अपराध है ही।

खैर! यहाँ पर बात मात्र इसकी नहीं हो रही है कि आपके आस-पास का भौतिक माहोल बदल दिया गया कि पहले आप जंगल में थे और अब आपको कंक्रीट में डाल दिया गया। जब कबीर बात कर रहे हैं समुद्र की तो वो बात भौतिकता से आगे की है। समुद्र वो है जो आपका सत्व ही नहीं है, जो सार है आपका। उससे हट करके—जैसा हम अभी कह रहे थे—जीना, मात्र पागलपन का जीना होगा।

और यही हुआ है आदमी के साथ। पागल कौन? वह जिसने राम को भुला दिया है। इसके अलावा और कोई परिभाषा ही नहीं है विक्षिप्तता की। जो राम वियोगी है वही पागल है।

प्र५: ये भी तो हमारी परिभाषा या नज़रिया है न कि एक जो संसारी हो गया है, खो सा गया है, वो अभी भी जीवित है। अगर कोई तीसरी इकाई हो—न कुत्ता, न इंसान, कोई तीसरी इकाई हो—वो तो यही देखकर कहेगी न कि मर गया है?

आचार्य: बेहतर यही होगा कि उसको मरा हुआ माना जाए। पर अगर उसे तुम जीवित कहोगे, तो फिर स्वस्थ कहने की अपेक्षा बौरा कहना ज़्यादा उचित होगा। 'अधिक सनेही माछरी, दूजा अलप सनेह'

ये स्थिति आती ही क्यों है? ये स्थिति आती ही सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि प्रेम नहीं है भीतर। प्रेम का अर्थ होता है- मिलने की, एक होने की, गहरी अभीप्सा। और एक होने का अर्थ होता है- अपना मिटना। प्रेम आएगा कैसे जब तक अपने होने से बड़े स्वार्थ जुड़े हुए हैं।

जानवर का सौभाग्य है कि वो जो है–समझियेगा इस बात को–जानवर का सौभाग्य है कि वो जो है, वैसा रहकर के भी, और वैसा रहकर के ही उसका जानवर होना चलता रहेगा। वो घास खाता है, वो फूल, पत्ते, माँस, जो भी खाता है, वो सबकुछ उसको सुलभ है उसकी पशु देह में ही। उसको कुछ और नहीं बनना पड़ेगा उस प्रकार का जीवन बिताने के लिए।

पर आदमी अगर सिर्फ़ प्राकृतिक रहे तो उसके महल कहाँ खड़े होंगे! आदमी को बड़ी दिक्कत है। आदमी ने अपने सामने ये अवस्था खड़ी कर ली है कि अगर तुम्हें आदमी होना है, तो तुम्हें राम से दूर जाना पड़ेगा, अन्यथा तुम आदमी कहलाओगे ही नहीं। क्योंकि, आदमी क्या है? आदमी एक सामाजिक कृति है। अगर तुम राम के संपर्क में हो तो तुम आदमी कहला ही नहीं सकते। आदमी कहलाने की अनिवार्यता ये है कि तुम दूर हो जाओ। अन्यथा समाज तुम्हें आदमी मानेगा ही नहीं।

और जो जितना दूर है, समाज उसको उतना ज़्यादा आदमी मानता है। और कौन हैं तुम्हारे महापुरुष? वो, जो राम से दूर-दूर, अतिदूर थे। तो आप पुरुष हैं, यदि आप राम से दूर हैं। और आप महापुरुष हैं, अतिसम्मानीय पुरुष हैं, अगर आप राम से बिलकुल ही दूर हैं। आपने बड़ी सल्तनतें खड़ी कर दीं, आपने सेनाएँ लेकर के अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी करी, आपने बड़े महल बनाए; ये सब किस बात का द्योतक है? कि आप राम से बहुत ही दूर थे।

और जो ये सबकुछ करता है, उसे हमारा समाज क्या कहता है? बड़े आदमी। उन्हीं की कहानियाँ इतिहास में लिखी जाती हैं, बच्चों को पढ़ाई जाती हैं। विडंबना देख रहे हो आदमी की? आदमी ने अपनेआप को वहाँ लाकर खड़ा कर दिया है कि अगर आपको आदमी कहलाना है, और आदमी होने का प्रमाण-पत्र तुम्हें कौन देगा? समाज। समाज तुम्हें आदमी होने के लिए प्रमाणित ही तभी करेगा जब तुम राम से दूर हो जाओ। तुम राम वियोगी यदि हो नहीं तो तुम आदमी कहला नहीं सकते।

और कबीर कह रहे हैं कि 'राम वियोगी न जिये, जिये तो बौरा होए।' अब यही विकल्प है आपके सामने कि या तो आप आदमी कहला लीजिए, या आप राम के पास चले जाइए। या तो आप समाज से प्रमाण-पत्र पा लीजिए, इज्ज़त पा लीजिए, ओहदे पा लीजिए, सब आपको नमस्कार करें कि 'माता जी बड़ी इज्ज़तदार हैं', या आप राम को पा लीजिए। ये पक्का है कि जो राम के साथ जी रहा है, उसका कुछ बिगड़ नहीं जाना है, कुछ बिगड़ नहीं जाना है। मस्त जियोगे। समाज आपको जो कुछ दे सकता था, उससे कहीं ज़्यादा राम देगा।

आपको ये तो दिखाई देता है कि अपने पालतू जानवर को आप दो रोटी डाल देते हो, और जो अरबों पेड़ और पौधे और पशु प्रकृति में पल ही रहे हैं, उसमें आप रोटी डालने जाते हो? और आपके घरों में पलते जानवर से वो ज़्यादा स्वस्थ हैं। वो अपनी माँ की गोद में ही हैं, वो अपने राम की गोद में ही हैं, राम उनका ख़्याल रख लेता है; आपका भी ख़्याल रखा जाएगा।

तो ये डरिये मत कि समाज अगर बहिष्कृत कर देगा तो हमारा क्या होगा! 'जिसका कोई नहीं, उसका तो ख़ुदा है यारों।' पर मैं कह रहा हूँ, 'जिसका कोई नहीं, सिर्फ़ उसका ख़ुदा है यारों।' जब तक आपके बहुत रिश्ते-नाते हैं, आपने खुद ही तय कर रखा है कि ख़ुदा आपको चाहिए ही नहीं। जब तक आपके बहुत सहारे हैं, तब तक आपको परम सहारा मिल नहीं सकता। ख़ासतौर पर जब तक आपको अपने अहंकार का बड़ा सहारा है कि मैं कर लूँगा, तब तक तो वो आखिरी सहारा कभी उपलब्ध होगा नहीं; भाई, तुम कर लो!

प्र६: एक भिखारी जो भूखा है, उसके लिए भक्ति का क्या मायने होगा?

आचार्य: वो भूखा ठीक इसीलिए है क्योंकि उसमें प्रेम की बड़ी शून्यता है।

प्र६: प्रेम विहीन है?

आचार्य: बिलकुल! किसने उससे कहा कि तू इसी चौराहे पर प्रदूषण खाता हुआ, धूप खाता हुआ, धुआँ खाता हुआ, और गाली खाता हुआ भीख माँगता रह? किसने उससे कहा? तू चला क्यों नहीं जाता जंगलों में? साफ़ नदियाँ हैं, झरने हैं, पीने को बहुत पानी मिल जाएगा। और खाने को भी मिल जाएगा, बहुत पेड़ हैं; पर वो जाएगा नहीं। क्यों नहीं जाएगा? क्योंकि वो बिलकुल हमारे जैसा है, उसको भी एक बड़े शहर में रहना है, 'भिखारी हूँ पर दिल्ली का भिखारी हूँ।' अन्यथा उसे क्यों सड़ना है उस चौराहे पर?

आपने देखा होगा कि लोग अपने गाँव छोड़कर, शहर छोड़कर, मरने के लिए दिल्ली आते हैं। बड़ी अच्छी स्थिति होती है उनकी अपने छोटे शहरों में; कस्बों में रहते पर दिल्ली आते हैं। और दिल्ली में जिस स्तर का जीवन जी रहे होते हैं, वो बड़ा ही निम्नतर होता है; दया आए आपको। उनके अपने शहरों में भले उनके बड़े-बड़े घर हों, दिल्ली में आकर छोटे-छोटे कमरों में सड़ रहे होंगे। गंदी हवा, गंदा पानी, गंदा खाना, क्यों? क्योंकि वो और भिखारी, बिलकुल एक जैसे हैं। भिखारी भी तो यही कर रहा है। वो कैरियर बना रहा है भाई, समझिये! वो आपको भिखारी लग रहा है, अपनी दृष्टि में तो उसका कैरियर चल रहा है।

जो सीईओ है, जो उसके सामने बैठकर जा रहा है बीएमडब्ल्यू में, और जिसके आगे वो खड़ा होकर के भीख माँग रहा है, उन दोनों में कोई विशेष अंतर नहीं है, वो दोनों एक ही परिवार के हैं। दोनों कहीं न कहीं पहुँचना चाहते हैं। और दोनों प्रोफेशनल हैं। भिखारी भी अपने धंधे के गुर खूब जानता है, आप उसे क्या समझते हो? वो कोई बुद्ध के समय का याचक है? वो अच्छे से जानता है कि कहाँ से, कैसे निकलवाना है, कौन-सी गाड़ी से मिल सकता है, कहाँ से नहीं मिल सकता है, किस चौराहे पर खड़ा होना है, कहाँ पर नहीं खड़ा होना है।

प्र७: किस गाड़ी के समक्ष देर तक खड़ा रहना है, किस गाड़ी के सामने से फट से निकल जाना है।

आचार्य: कैसे हाव-भाव दिखाने हैं, कैसे नहीं दिखाने हैं, सब जानता है वो, पूरा प्रोफेशनल है। तो भिखारी, भिखारी क्यों है? समझिये! भिखारी, भिखारी है ही इसलिए क्योंकि राम से दूर है और समाज के पास है।

प्र३: सबसे माँगेगा, राम से नहीं माँगेगा।

आचार्य: सबसे माँग लेगा, राम से नहीं माँगेगा। अरे! अभी भी बहुत ज़मीन है, और बहुत पेड़ हैं। और मिट्टी ने मना नहीं कर दिया है कि मुझमें दो जून की रोटी नहीं उपजेगी। पर आपको एक लत लग गई है। और मैं कह रहा हूँ, 'भीख एक सामाजिक लत है।'

प्र१: सीखते ही यही हैं समाज से, भीख माँगना। पहला, सबसे पहला तो यही सीखते हैं।

प्र५: जैसे वो गाड़ी चुन रहा है दिमाग लगाकर, वो सीईओ कैबिन चुनेगा दिमाग लगाकर, दूसरे के कैबिन में जाकर के क्या बात करेगा।

आचार्य: ये सीइओ से माँग रहा है कि दे दो भीख, सीइओ थोड़ी देर में ऑफिस पहुँचेगा और वो शेयरहोल्डर्स, बोर्ड मीटिंग में वहाँ भीख माँगेगा, दोनों अलग-अलग थोड़े ही हैं। समझिये, दोनों एक ही कुनबे के हैं, दोनों प्रोफेशनल्स हैं। और प्रोफेशनल होने का मतलब ही यही है कि बाकी समाज से भीख माँगो।

अभी यहाँ पर भिखारी उसके सामने हाथ फैला के खड़ा होता है कि कुछ दे दो। वो अपने ऑफिस पहुँचेगा, इसके सामने पांच-दस लोग अपना सीवी लेकर खड़े होंगे कि मुझे कुछ दे दो। उस सीवी में उनकी कुछ योग्यताएँ और पात्रताएँ लिखी होंगी। भिखारी भी जब उसके सामने खड़ा है, भिखारी भी अपनी योग्यता और पात्रता ही दिखा रहा है। भिखारी की पात्रता क्या है? 'मैं ग़रीब हूँ।'

प्र७: शक़्ल ऐसी है (टेढ़ी शक्ल बनाते हुए), टाँग टूटा है, हाथ टूटा है, बच्चा है; पूरी योग्यता है।

आचार्य: आप निकलिये और थोड़ा-सा एक सर्वे करिये कि आपके शहर में जितने भिखारी हैं, क्या वो इसी शहर के मूल निवासी हैं? आप ताज्जुब में आ जाएँगे, उनमें से निन्यानवे प्रतिशत, प्रवासी भिखारी हैं। वो उड़कर आए हैं भीख माँगने, वो यहाँ के नहीं हैं। जो जिस मिट्टी का है, उस मिट्टी पर रहकर कभी विवश नहीं हो सकता भीख माँगने के लिए।

आपकी महत्वाकाँक्षाएँ ही आपको भिखारी बनाती हैं। मिट्टी से जुड़े रहिए, कभी भिखारी नहीं बनेंगे। मिट्टी को छोड़ेंगे, ऊँची उड़ानें भरेंगे, तो भिखारी होना पक्का है।

ऐसे ही हो जाइए- 'जब ही जल ते बिछुड़े, तब ही त्यागे देह।' साफ़-साफ़ अपनेआप से कह दीजिए, 'मरना भला है, पर राम से वियोग नहीं होने देंगे। बुरे-से-बुरा तुम मुझे यही तो धमका सकते हो न कि जान ले लोगे। जान ले लो, पर अपने बोध को—यही राम है बोध—अपने बोध को, अपनी मुक्ति को बेचूँगा नहीं, जान ले लो।' मछली जैसे हो जाइए कि जान ले लो पर सागर से अलग होना मुझे स्वीकार नहीं है, मरना स्वीकार है।

लोग कहते हैं, 'मजबूरी थी, इस कारण बंधन स्वीकारने पड़े।' अरे, क्या मजबूरी थी? स्वीकारे क्यों बंधन? मरना भला था, मर ही क्यों नहीं गए? क्यों नहीं मर गए? मर जाते। बंधन क्यों स्वीकारे? क्यों बेच दिया अपनेआप को? तुम्हारे सामने कोई और विकल्प हो न हो, ये तो हमेशा रहता है न कि अब जिएँगे नहीं। ऐसे हो जाओ कि अब जिएँगे नहीं।

कुछ ऐसा है, सिर्फ़ उसी के साथ जिया जा सकता है, जिस क्षण वो दिखाई दे कि अलग हो रहा है हम जिएँगे नहीं। और जो ये निर्णय कर लेता है, वो वहाँ पहुँच जाता है, जहाँ उसे पता चलता है कि वो अलग उससे हो नहीं सकता। लेकिन ध्यान दीजिएगा, वहाँ आप पहुँचोगे ही तभी जब पहले आप ये स्पष्ट संकल्प कर लो कि जब ऐसा दिखाई दिया कि वो अलग हो रहा है तो मैं मरना चुनूँगा, जीना नहीं। जिस दिन आपने ये संकल्प कर लिया, उस दिन उससे विलग होने के सारे रास्ते बंद हो जाएँगे। फिर आप अलग नहीं हो सकते। फिर कोई आएगा, आपको बड़ा कोशिश करेगा बंधक बनाने की, आप मुस्कुराते रहोगे, आप कहोगे, 'आख़िरी दाँव तो मेरे पास ही है। मैं जियूँगा ही नहीं, तू डाल ले मुझे बंधन में, मैं जियूँगा ही नहीं।'

एक अंग्रेज़ इतिहासकार ने राजपूतों के बारे में लिखा है, वो देखता था–मुग़लों के समय की बात थी–एक के बाद एक वो लड़ाईयाँ लड़ते थे, अधिकांशतः उनकी हार ही होती थी। फिर उसने ये भी देखा कि उनकी सल्तनतें छिन गईं, तो उन्होंने छोटे-छोटे तरीकों से केन्द्रित होकर के, इकट्ठा होकर के, लड़ना फिर भी जारी रखा। तो उसने लिखा है कि 'राजपूतों को लड़ना भले ही नहीं आता था, पर मरना आता था। ये पक्का था कि ये मरकर रहेंगे, लड़ भले न पाते हों पर मरना ये खूब जानते थे।' ऐसे हो जाइए। वो सल्तनत के लिए लड़ते थे, आप राम के लिए लड़िये।

और एक बार आपने ये तय कर लिया कि शरीर छोड़ना स्वीकार है, राम छोड़ना स्वीकार नहीं है, फिर देखियेगा आप कैसे जीते हैं। ये एक बार तय तो करिये। क्योंकि आपका आखिरी बंधन तो शरीर ही है। इसी के कारण आप पड़ते हैं। शरीर का अर्थ समझते हैं? शरीर का अर्थ है- संसार, पूरा संसार। जिसकी अभी शरीर से आसक्ति है, उसकी पूरे संसार से आसक्ति रहेगी। जिसने ये तय कर लिया कि शरीर छोड़ना स्वीकार है, राम छोड़ना स्वीकार नहीं है; उसने ये तय कर लिया है कि संसार में जो कुछ है, सब छोड़ना स्वीकार है, राम छोड़ना स्वीकार नहीं है।

लीजिए ये संकल्प कि 'कुछ बातों पर मैं कभी पीछे नहीं हटूँगा। छोटे-मोटे समझौते कर लूँगा, पर जो केन्द्रीय है, जो मूल है, जो तात्विक है, जो असली है, उस पर मैं कभी कोई समझौता नहीं करूँगा। अपनी मुक्ति के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता, प्रेम के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता, आनंद के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता मैं, सत्य के साथ कभी कोई समझौता नहीं करूँगा; मरना पसंद करूँगा।' “जब ही जल ते बिछुड़े, तब ही त्यागे देह” ऐसे हो जाईये।

प्र५: राम के लिए किसी चीज़ से नाता नहीं करूँगा वाली थ्योरी। अब जो बिलकुल उसके अपोज़िट है, जो सामने है, जिससे समझौता हो रहा है, उसका नाम भी राम ही है।

आचार्य: अगर ये दिखाई दे जाए तो समझौते की आवश्यकता नहीं है।

प्र५: उसका नाम राम वो वाला, मर्यादा पुरुषोत्तम वाला राम। चालूपंती देख लीजिए न कि बिलकुल विपरीत वाले का नाम भी राम रख दिया है।

आचार्य: ठीक है, वो तो मूढ़ों की बातें हैं। ये तो हम समझ रहे हैं न कि वो अभी हम किस राम की बात कर रहे हैं।

प्र५: इसकी वजह से सरकारें बदल जाती हैं।

आचार्य: सरकारें वगैरह, छोटी बात है।

प्र२: सर, एक और बात ये है कि प्रेम बाँटने से बढ़ता है, तो जब उसको अगर हम जान ही जाएँगे, तो फिर किसी को छोड़ने, किसी से समझौता करने की बात कहाँ रह जाएगी, तब तो हर जगह वही होगा?

आचार्य: बेटा, और अगर जो मन प्रेम बाँटने को उत्सुक है, वो मन ऎसी स्थितियों में आ रहा है कि उसका बाँटना रुकने लगे, तो?

जो मन ये चाहता है कि मेरे द्वारा दूसरों का कल्याण हो, स्थितियाँ उसे ऐसी अवस्था में डाल रही हैं कि कल्याण की जगह उसके द्वारा नुक़्सान हों, फिर?

पेट की आग तुम्हारे सामने दो ही विकल्प छोड़ रही है कि या तो पेट की आग बुझा लो, या प्रेम बाँट लो, तो? और खड़े हैं तुम्हारे सामने समाज के महापुरुष कि या तो प्रेम बाँट लो, या हमारे शहरों में रह लो, तो? और ये स्थिति आएगी। जिसने भी प्रेम बाँटा है, जिसने भी राम का नाम गाया है, उसके सामने ये स्थिति आई ही है कि या तो राम का नाम गा लो, या हमारे शहरों में रह लो। और खड़े हो गए परिवार वाले ही कि या तो राम के साथ रह लो या हमारे साथ रह लो। तो चुनना तो पड़ेगा। और ऐसे मौकों पर चुनने में तुम्हें सोचना न पड़े। जब वो घड़ी आए तो सोचना बिलकुल न पड़े कि राम के साथ रहना है, या अम्मा के साथ रहना है।

प्र८: सर, एक स्टेटमेंट है– ‘खाली पेट होए न भक्ति’।

आचार्य: ठीक है, ऐसे खाली पेट को हम रखेंगे ही नहीं। जिस खाली पेट के साथ भक्ति नहीं हो सकती, जो पेट इतना परेशान करता है कि मुझे भक्ति में नहीं उतरने देता, मुझे वो पेट चाहिए ही नहीं। ठीक।

जाना तो एक दिन है ही। और अनंत-अनंत इस ब्रह्माण्ड की आयु है, उसके सामने आप अस्सी साल जीयें या चालीस ही जीयें, क्या फ़र्क पड़ता है? जहाँ पर अरबों-अरबों साल के पैमानों की बात हो रही है, वहाँ पर आप चालीस जिये कि अस्सी जिये, क्या फ़र्क पड़ता है। एक दिन तो जाना ही है, आज ही चले जाते हैं। जाने का विकल्प हमेशा खुला रखिये। जिस भी दिन लगे कि दुनिया ज़्यादा ही चढ़ी आ रही है ऊपर, जब तक जिएँगे...।

प्र२: पर सर, ये आत्महत्या नहीं हो जाएगी?

आचार्य: कैसी आत्महत्या? आत्म की तुम हत्या कर सकती हो?

प्रश्नकर्ता २: पर सर, ये भी तो परिस्थितियों से भागना हो जाएगा, कायरता ही हो जाएगी?

आचार्य: किसने कह दिया? किसने कह दिया? शरीर छूटेगा नहीं क्या? किस शरीर की बात कर रहे हो? वो तो प्रतिपल छूट रहा है। अभी पसीना छूट रहा है न तुम्हारे?

प्र२: पर ये तो किसी उद्देश्य से उसने दिया है?

आचार्य: किसने दिया है बेटा? किसी ने दिया नहीं है, वो स्वयं प्रकट हुआ है। जो स्वयं प्रकट हुआ है उसकी हत्या कैसी? तुम्हारा तो बड़ा गहरा अहंकार है अगर तुम कह रही हो कि मैं हत्या कर सकती हूँ। वो स्वयं प्रकट हुआ है और वो स्वयं में ही वापस जा रहा है, तुम होती कौन हो?

प्र२: वो स्वयं जाएगा?

आचार्य: हाँ, स्वयं जा रहा है तभी तो कहा कि तुम्हें सोचना न पड़े। तुम सोचोगी तो तुम बीच में आ जाओगी, वो स्वयं निर्णय कर लेता है। वो स्वयं निर्णय कर लेता है कि समय आ गया, चलो! वापस जाओ। मैंने कहा था न, 'सोचना न पड़े।' अपनेआप समझ जाओगी कि समय आ गया है, चलो!

ये सब बहुत लीचड़ और कमज़ोर लोगों की पढ़ाई बातें हैं कि शरीर उसी ने दिया है, शरीर को संभालो, और संवारो, और सजा के रखो; ये सब शरीर-बद्ध नैतिकता फ़ालतू की बात है। इसका ही नतीजा है कि शरीर-ही-शरीर डोलते नज़र आते हैं, चिकने-चुपड़े गोरे-गोर शरीर। और इन्हीं शरीरों के लिए कह गए हैं कबीर कि ‘मीन सदा जल में रहे धोए बास न जाए’। खूब गोरी-गोरी शक्लें होंगी, चिकने-चिकने गाल होंगे। है शरीर, रख लो शरीर, क्या करना है शरीर का? क्या करोगी उस शरीर का?

शरीर मंदिर है। जिस राम का वो मंदिर है उसमें वो राम ही नहीं, उस राम से ही तुम्हें अलग किया जा रहा है, तो मंदिर रख के क्या करोगी? क्या आत्महत्या है? अरे, राम नहीं तो शरीर किस काम का?

प्र१: सर, आत्महत्या तो पहले ही हुई पड़ी है।

आचार्य: वो कब की हो गई। मैं फिर कह रहा हूँ, जो आख़िरी तरीका है तुम्हें काबू में करने का, तुम पर कब्ज़ा करने का, वो यही है कि तुम्हारे शरीर को कब्ज़े में कर लिया जाए, तुम्हारी भूख पर हक़ जमा लिया जाए, सिर्फ़ इसी तरीके से आदमी ग़ुलाम बनता है। और जो कोई शरीर को बहुत मान्यता देगा, और शरीर के पोषण में बड़ा उत्सुक रहेगा, वो ग़ुलाम बनकर रहेगा। आख़िरी मुक्ति तभी संभव है जब कह दो कि हमें शरीर से भी कुछ लेना-देना नहीं है ख़ास; आख़िरी मुक्ति तभी है। इन सब बातों में मत पड़ जाना।

प्र७: सर, जो मन राम से दूर है, वो मन बीच में आ ही जाएगा।

आचार्य: वो कहानी है न सिकंदर की। जब लौटने लगा हिन्दुस्तान से तो लोगों से पूछता है कि वापस क्या लेकर जाऊँ? तो लोगों ने कहा, 'दुनिया के सबसे बड़े बादशाह आप, जो कुछ दुनिया भर में जीता जा सकता था वो आपने जीत लिया, आधी दुनिया आपके कब्ज़े में है, आप क्या लेकर जाओगे?' तभी किसी ने कहा, 'हिन्दुस्तान में एक ख़ास चीज़ पाई जाती है, जो दुनिया में कहीं और नहीं होती, वो आप लेकर के जाओ।' उसने पूछा, 'क्या?'

प्र५: मोक्ष?

आचार्य: फ़िर उन्होंने कहा, 'यहाँ पर जो है संन्यासी पाया जाता है। हिन्दुस्तान ने एक चीज़ सीखी है जो कहीं और नहीं सीखी गयी–संन्यास। आप एक संन्यासी पकड़ के ले जाओ, दिखाने के काम आएगा कि हिन्दुस्तान में पाया गया।' तो उसने सैनिक भेजे कि जाओ संन्यासी लेकर के आओ! तो जाते हैं आस-पास, दो-चार गाँवों में खोजते हैं। अब गाँव में तो संन्यासी पाए नहीं जाते कि वो घर में मिलेगा। गाँव वालों से पूछ रहे हैं, तो एक गाँव वाले ने बताया कि 'हाँ, वो उधर नदी है, उसके किनारे कभी-कभी आता है और वो वहीं नाचता रहता है कुछ देर, और फिर भाग जाता है, कहाँ जाता है हम जानते नहीं।'

तो सैनिक गए नदी के किनारे। एक दिन न मिला, दो दिन न मिला, फिर किसी तरह मिला। पहले तो उसने इनको खूब दौड़ाया, काहे को पकड़ में आए इनकी। कभी इधर दौड़ाए, कभी उधर दौड़ाए, ऊपर छुप जाए, नीचे भाग जाए। फिर एक दिन उसने कहा कि 'बहुत ये मेरे पीछे-पीछे आते हैं, प्रेमी होंगे, तो बैठ गया कि ले चलो कहाँ ले चलना है।' तो उसे ले गए सिकंदर के पास। सिकंदर बोलता है, 'ठीक, बढ़िया, इसे कपड़े पहनाओ पहले तो कुछ, और उसके बाद हम उसको लेकर जाएँगे।' संन्यासी बोलता है कि 'वो दिन कब के बीत गए जब हम दूसरों के कहने पर कहीं आते-जाते थे, तुम जो चाह रहे हो वो हो नहीं पाएगा।' सिकंदर ने उससे कहा कि 'फिर क्या है, तुम अपने हिसाब से ही चलते हो?' वो बोलता है, 'हम अपने हिसाब से भी नहीं चलते। वो दिन तो कब के बीत ही गए जब हम दूसरों के कहने पर चलते थे, वो दिन भी बीत गए जब हम अपने कहने पर चलते थे।' सिकंदर को समझ नहीं आया, बोला, 'मेरे कहने पर भी नहीं चलेगा, अपने कहने पर भी नहीं चलेगा, तो तू चलेगा किसके कहने पर?' संन्यासी बोलता है, 'वो तुम समझोगे नहीं। हम किसके कहने पर चलते हैं, वो तुम्हें समझ में आएगा नहीं।' सिकंदर को गुस्सा आ गया, सिकंदर ने कहा, 'गर्दन काटो इसकी।' तो वो हँसने लग गया। सिकंदर ने कहा, 'तू बिलकुल ही पागल है! मैं कह रहा हूँ, इसकी गर्दन काटो और तू हँस रहा है?' संन्यासी बोलता है, 'क्या, और क्या करूँ?' सिकंदर बोलता है, 'गर्दन कट जाएगी।' संन्यासी बोलता है, 'हाँ, गर्दन कट जाएगी। गर्दन कटेगी, गर्दन ज़मीन पर गिरेगी, गर्दन लुढ़केगी, जैसे तुम देखोगे कि गर्दन कट गई, गर्दन गिर गई, गर्दन लुढ़क रही है, जैसे तुम देखोगे, वैसे ही हम भी देखेंगे। काट लो, गर्दन ही तो है। पेड़ों से इतने फल गिरते हैं, हमारी काया से हमारे गर्दन गिर जाएगी तो कौनसी बड़ी बात हो जानी है?' क्या विशेष बात हो गई!

जब ये भाव होता है न शरीर के प्रति, तब कोई नहीं है जो आपको ग़ुलाम बना सके; सिकंदर उसको नहीं ले जा पाया। क्योंकि आपको ग़ुलाम सिर्फ़ तभी बनाया जा सकता है जब शरीर से आपका बड़ा मोह हो। जिसने शरीर से मोह छोड़ दिया, उसे कैसे पकड़ोगे अब? हम पैसे से मोह छोड़ देते हैं, इज्ज़त से छोड़ देते हैं, दुनियादारी से छोड़ देते हैं, लेकिन शरीर से रहा आता है फिर भी, आखिरी डोर बची रहती है। संन्यासी वो, जिसने वो भी छोड़ दी।

'गर्दन कटेगी, गर्दन गिरेगी, गर्दन लुढ़केगी, जैसे तुम देखोगे, वैसे ही हम भी देखेंगे। कौनसी बड़ी बात हो गई? मार लो।' जो ऐसे जी सके, बस वही जिया है। फिर उसकी कोई ग़ुलामी नहीं। कबीर का ही है एक, “जब लग मरने से डरे, तब तक भक्ति नाहिं।”

जो अभी मरने से डरता हो, वो भक्ति नहीं कर सकता। जो अभी मरने से डरता हो, वो प्रेम नहीं कर सकता। मछली की तरह रहो, 'सागर से निकालोगे नहीं कि हम जान दे देंगे। हमारी जान लेनी हो तो हमें निकाल दो सागर से।' जिएँगे नहीं, एक दिन नहीं जिएँगे सागर से निकलकर, ऐसे हो जाओ।

कोई आए तुम्हारे पास कहने कि छोड़ दो राम को, तो बिलकुल यही जवाब हो तुम्हारा, 'राम को तो छोड़ देंगे, पर उसके बाद जिएँगे हम भी नहीं। छोड़ देंगे राम को, पर जिएँगे उसके बाद हम भी नहीं। क्योंकि बौरा होकर जीना हमें स्वीकार नहीं है।'

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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