शरीर माने मृत्यु || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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शरीर माने मृत्यु || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह । बहुरि न देही पाइए, अबकी देह सो देह ।।

*–*कबीर

वक्ता: जिसने बोझ उठा रखा हो, उसके लिए एकमात्र कर्त्तव्य क्या है? बोझ उतार देना। जिसने जलता हुआ कोयला पकड़ रखा हो, उसके लिए करणीय क्या है? कोयला छोड़ देना। और जिसने देह को पकड़ रखा हो उसके लिए करणीय क्या है? देह को छोड़ देना ।

*“*देह धरे का गुन यही, देह देह सो देह “

देह को दे दो- और यह बात सिर्फ़ उससे कही जा रही है जिसने देह पकड़ रखी है, जिसने देह धर रखी है। “देह धरे का गुन यही”, जिसने देह पकड़ रखी है उससे कबीर कह रहे हैं कि देह को दे दो, देह को छोड़ दो। जैसे कोयला छोड़ देते हो, जैसे ज़हर छोड़ देते हो, जैसे बोझ छोड़ देते हो, वैसे ही इस देह को भी छोड़ दो। और छोड़ने का अर्थ यह नहीं है कि जाकर कुएँ में कूद जाओ। क्योंकि कुएँ में यदि देह लेकर कूद रहे हो, तो छोड़ी कहाँ। या तो कुएँ में देह को छोड़कर कूदते। जो लोग आत्महत्या करते हैं, वो शरीर में बड़ी गहराई से विश्वास करते हैं। क्योंकि वो मारते भी हैं तो किसको मारते हैं? देह को।

जो है ही नहीं, क्या तुम उसको मारते हो? सपने में कोई आकर तुम्हें परेशान कर रहा था, उठने के बाद क्या उसे गोली मारते हो? जब जान जाते हो कि है ही नहीं तो उसे मारने का प्रश्न ही नहीं उठता ना। जो आत्महत्या कर रहा है, वह बड़ा सांसारिक आदमी है, उसका देह में बड़ा गहरा विश्वास है, तभी तो वह देह को मारना चाहता है। देह को छोड़ने का अर्थ है- देह के साथ जो तुमने पूरी दुनिया बसा रखी है, जो दिन-रात तुम्हारे मन में देह-देह और पदार्थ ही नाचता है, उसको छोड़ दो।

*“*बहुरि न देहि पाइए ”

छोड़ने का मौका कल नहीं है। कष्ट कब है? अभी है।*“*बहुरि न देहि पाइए” , इसका अर्थ यही है कि कष्ट अभी है तो छोड़ना भी अभी होना चाहिए। इस चक्कर में न रहना कि कल कर लेंगे और परसों कर लेंगे। तुम कल जानते नहीं।

“अबकी देह सो देह”, मौका अभी है, छोड़ सकते हो तो अभी छोड़ो। अभी जिसने छोड़ा वह छोड़ देगा, जिसने आगे छोड़ने का विचार किया वह पकड़ने की पूरी तैयारी में है। अपनी ही नज़रों में अपने आप को बेवक़ूफ़ तो सिद्ध नहीं करोगे न तुम। तुम कभी अपने आप से यह नहीं कहते कि मुझे दुःख पकड़ कर रखने हैं, तुम सदा अपने आप से यह कहते हो कि मुझे दुःख कल छोड़ने हैं। और यही तुम्हारा आत्मघात है, यही तुम्हारा अपने प्रति बड़े से बड़ा धोखा है।

तुम में ईमानदारी होती तो तुम कहते कि मुझे दुःख पकड़ कर रखने हैं। पर तुम में ईमानदारी नहीं है तो तुम कहते हो कि मुझे दुःख कल छोड़ने हैं׀ वक्तव्य दोनों एक ही हैं। पर क्योंकि तुम्हें पकड़ कर रखना है इसलिए तुम कहते हो कि कल छोडूँगा। पर तुममें ईमानदारी नहीं है, अज्ञान है। ईमानदारी तो ज्ञान से ही निकलती है। कोई बात नहीं, खेल चलता रहेगा, गुरु भी कहाँ हार रहा है।

*“*देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह”

कोई पूछता है,”जन्म लेने का उद्देश्य क्या है? जीवन की सार्थकता किसमें है?” सुने हैं न खूब ऐसे सवाल? तुम्हारे चेहरे पर फोड़े ही फोड़े हैं। जाकर पूछते हो डॉक्टर से,”इन फोड़ों का उद्देश्य क्या है?” कोई उद्देश्य नहीं है, बीमारी है। साफ़ करो। यह क्यों पूछते हो कि जीवन का क्या उद्देश्य है? जीवन ने तुम्हें कुछ दिया है बेचैनी और भटकने के सिवा? जिसे तुम ‘जीवन’ कहते हो, कोई जमां-पूँजी है तुम्हारे पास उम्मीदों के सिवा, स्मृतियों के सिवा? कुछ है जिसको कह सको कि मेरे साथ यह रहेगा?

*“*कबिरा सो धन संचिये, जो आगे को होय, सीस चढ़ाये गाठड़ी जात ना देखा कोय”

कुछ है जो आगे को है? जो है वह अभी छिन जाना है। बीमारी ही तो है जो मन में लेकर घूम रहे हो, उसी का नाम तुमने जीवन दिया है। उसका और क्या करोगे? उसका क्या उद्देश्य है? उसका एक ही उद्देश्य है, उससे मुक्ति। जीवन का एक ही उद्देश्य है- जीवन से मुक्ति। ठीक वैसे जैसे बीमारी का एक ही हश्र हो सकता है, बीमारी से मुक्ति। जीवन के उसी परम उद्देश्य को भारत ने ‘जीवन-मुक्त’ नाम दिया है। जीवन-मुक्त वही जो जीवन से ही मुक्त हो गया। जो जीव होने के भाव से ही मुक्त हो गया।

*“*न मे जीव इति ज्ञात्वा स जीवन्मुक्त उच्यते”

जिसको जीवन कहते हो, जिसमें उलझे-उलझे जा रहे हो, उन उलझनों से मुक्त होना, यही जीवन का परम उद्देश्य है। और यही देह का उद्देश्य है। जैसे ‘जीवन-मुक्त’ कहा गया है, वैसे ही ‘विदेह-मुक्त’ भी कहा गया है।*“*देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह,” यही ‘विदेह-मुक्त’ की परिभाषा है। जिसने देह को ही दे डाला, वह ‘विदेह-मुक्त’।

*“*बहुरि न देहि पाइए, अबकी देह सो देह”

नहीं देते हो क्योंकि कल का भरोसा है, क्योंकि काल है, क्योंकि मन है। मन ही है जो पकड़ता है, और मन ही है जो आश्वासन देता है कि कल छोड़ देंगे, कल है न, कल कर लेंगे। इसी भाव को तो छोड़ना है। इसी भाव से तो मुक्ति चाहिए कि कल आएगा।जो अभी छोड़ दे उसको भी कभी और न छोड़ना पड़ेगा, और जो अभी न छोड़े उसको भी यह क्षण दोबारा नहीं मिलेगा छोड़ने के लिये।*“**अबकी देह सो देह”*। ‘अब’ के अलावा कुछ और नहीं है।

कृपा करके इसका यह अर्थ न करें कि इतने लाख योनियाँ होती हैं, जिसमें बड़ी मुश्किल से मनुष्य देह मिलती है, और वह दोबारा नहीं मिलेगी। यह सब व्यर्थ की बातें हैं׀ यह सब मनुष्य का अहंकार है कि हम बड़ी उच्च योनी में जन्मे हैं, और अब इसका कुछ लाभ उठाते हैं। यह तुलना ही कौन कर रहा है? तुम अपने मन से ही तो तुलना कर रहे हो। अपनी ही नज़रों से देख रहे हो तो कुत्ते, बिल्ली और पेड़ दिखाई देते हैं।

क्या तुम्हें पता है कि तुम अपनी नज़रों से न देखो तो कुत्ता, बिल्ली और पेड़ कैसे दिखेंगे? क्या कुत्ता, कुत्ता जैसा है? कुत्ता किसकी नज़रों में कुत्ता है? और तुम्हें क्या पता कि कुत्ते की नज़रों में इंसान क्या है? लेकिन नहीं, झंडा ऊँचा कर के घूम रहे हैं कि हम मनुष्य योनी, सर्वोत्तम योनी में पैदा हुए हैं। यह अर्थ कृपा करके न कर लीजियेगा इसका,*“*बहुरि न देहि पाइए”, कि मनुष्य जीवन दोबारा नहीं मिलेगा। इसका मनुष्य जीवन से कोई लेना-देना नहीं है।

‘जीवन-मुक्त’ और ‘विदेह-मुक्त’, यह दोनों उच्चतम शिखर हैं। और ‘विदेह-मुक्त’ पर तो पूरा अध्याय ही है ऋभुगीता में, उसका नाम ही है ‘विदेह-मुक्त’।

श्रोता १: सर क्या ‘विदेह-मुक्ति’ में मन और इन्द्रियों की बात हो रही है?

वक्ता: जब मन से मुक्ति, तो जीवन-मुक्ति। जब देह से मुक्ति, तो विदेह-मुक्ति। बात दोनों एक ही हैं, इन दोनों में कोई अंतर नहीं है। इन दोनों में से कोई ज़्यादा या कम ऊँचा आदर्श नहीं है, दोनों एक ही हैं। जब स्थूल से मुक्ति की बात करोगे, तो आप कहोगे, ‘विदेह-मुक्त’। जब सूक्ष्म से मुक्ति की बात करोगे, तो आप कहोगे, ‘जीवन-मुक्त’।

पदार्थ से मुक्त, विदेह-मुक्त, विचार से मुक्त, जीवन-मुक्त। और पदार्थ और विचार में कोई गुणवत्ता का अंतर नहीं है। सिर्फ़ स्तर का अंतर है। एक स्थूल है और एक सूक्ष्म है, हैं दोनों एक ही तल पर। एक ही आयाम में हैं दोनों।

– ‘बोध-सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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