प्रश्न: कबीर ने सती के ऊपर कई दोहे कहें हैं। किस सती की बात कर रहे हैं?
वक्ता: सती शब्द का जो मूल है वो ‘सत’ ही है। ‘सत’ माने क्या? वो जो ‘है’, वो जो वास्तव में ‘है’। कबीर जब ‘सती’ कहते हैं, साफ़-साफ़ समझना होगा: पेहली बात तो वो किसी लिंग-विशेष की बात नहीं कर रहे हैं। कबीर जब ‘सती’ कहते हैं तो उसका आशय स्त्रियों से नहीं है। सती की, पतिव्रता की, खूब बातें करी हैं — ‘पतिव्रता मैली भली।’
‘सती’ पर एक कबीर का है, बहुत प्यारा सा है कि:
‘सती ध्यानी तप किया, सुंदर सेज सजाए।
सो रही संग पिया अपने, चहु देसी अगन लगाए।।’
अब जिस तरीके से लिखा गया है, जो इसमें चित्र उभरता है वो करीब-करीब वही हमारी सती-प्रथा जैसा है कि, “सो रही संग पिया अपने, चहु देसी अगन लगाए”। लेकिन कबीर का आशय निश्चित रूप से यहाँ पर व्यक्ति-वाचक नहीं है; व्यक्तियों की बात नहीं कर रहे हैं वो। जो भी कोई ‘सत’ से जुड़ा हुआ है वही ‘सती’ है; उसी को कबीर पतिव्रता भी कहते हैं।
जो भी कोई सत से जुड़ा हुआ है वही सती है।
जब कबीर कह रहे हैं कि ‘सती’ अपने पिया के साथ सो रहती है, चारों दिशाओं में आग लगा कर, तो उनका अर्थ ये नहीं है कि मरे हुए पति के साथ वो चिता में जल जाती है। सुनने में ऐसा लग सकता है। जैसे कबीर हैं वैसे ही उनके शब्द हैं: “चहु देसी अगन लगाए”। संसार को छोड़ कर के, संसार में आग लगा कर के, संसार से उसका कोई लेना-देना ही नहीं है, और अपने पति के साथ सो रहती है।
कौन पति?
श्रोता १: परम।
वक्ता: तो सीधी सी बात है, जो उस परम के साथ है, और जिसने संसार का जो पूरा भ्रम है, उसमें आग लगा दी है, सो सती है। जो परम के साथ है और जिसने संसार में आग लगा दी है। संसार माने क्या? संसार माने ये नहीं कि जंगल, पहाड़, घर में आग लगा दी है। संसार में आग लगाने से अर्थ है: भ्रम में आग लगा देना; बंधनों में आग लगा देना। जो भ्रमों से और बंधनों से मुक्त हो गया है, सो सती है।
देखिए कबीर हों चाहें कोई भी संत हों, उनको बड़े निर्मल मन से ही पढ़ा जा सकता है, नहीं तो बड़ा आसान होगा अर्थ का अनर्थ कर देना और आक्षेप भी लगा देना। क्योंकि आपको जगह मिल जाएंगी जहाँ पर कबीर आपको बड़े स्त्री निंदक लगेंगे कि ये कैसी बातें कर रहे हैं। उनकी साखी में एक हिस्सा ही है पूरा: “कनक कामनी को अंग”। कितने ही मौके पर उन्होंनें बोला है कि “स्त्री से बचो, स्त्री से बचो”। आपको ऐसा भ्रम हो सकता है कि “ये क्या कह रहे हैं कबीर?”, लेकिन कबीर, कबीर हैं! ऐसा तो नहीं है कि जब वो स्त्री पर बोल रहे हैं तो उनकी सारी समझदारी विलुप्त हो गयी है।
जब कबीर कह रहे हैं कि “त्रिया से बचो”, तो कबीर का आशय इतना ही है कि प्रकृति से बचो। हम सब के भीतर पुरुष है और प्रकृति भी है, वो आपके भीतर के पुरुष को सावधान कर रहे हैं कि आसक्त मत हो जाना प्रकृति से; वो स्त्रियों की बात नहीं कर रहे हैं, वो प्रकृति की बात कर रहे हैं। कबीर जो कह रहे हैं उसका ये अर्थ भी न लिया जाए कि क्योंकि कबीर की सभा में पुरुष ही ज़्यादा आते थे तो इसीलिए कबीर ने उन्हें सावधान करते हुए स्त्रियों की बात करी है, नहीं ऐसा भी नहीं है। संत जो कहता है वो कभी किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं होता। कबीर ने जो कहा है वो जितना पुरुषों के लिए है उतना ही स्त्रियों के लिए भी है, पर आँख खोल कर पढ़ना पड़ेगा कबीर को, बड़ी सावधानी से, बड़े समर्पण के साथ, नहीं तो ऊँगली उठाना बहुत आसान हो जाएगा।
आप उद्धृत कर सकते हैं कबीर को और बिल्कुल कह सकते हैं कि “कबीर जातिवादी भी थे, कबीर लिंग के आधार पर खूब भेद करते थे”। जो व्यक्ति वैसा होगा, वो, वो सब कह पाएगा जो कबीर ने कहा? और यदि हमको और आपको दिख रहा है कि ऐसा कहना बड़ा फ़िज़ूल है, तो क्या कबीर को न दिखता होगा? जब कबीर कनक और कामिनी को एक साथ रख रहे हैं तो राज़ वहीं खुल जाना चाहिए।
कनक क्या? जो इन्द्रियों को आकर्षित करे।
कामिनी क्या? जो कामना को उद्दीप्त करे।
बस एक। तो उसी अर्थ में लीजिए कामिनी को। जो कुछ भी कामनाएं बढ़ाए, सो कामिनी; औरत को कामिनी नहीं कह रहे हैं वो। कनक क्या? सोना। जो मन में लालच बढ़ाए, सो कनक। जो मन में कामना बढ़ाए, सो कामिनी। औरत भर की बात नहीं कर रहे हैं। आप किसी मकान को, किसी कार को देखकर के ललचा जाते हैं तो वो कामिनी है आपके लिए, ठीक। कबीर उसकी बात कर रहे हैं।
‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।