प्रतीकों और रिचुअल्स का क्या महत्त्व है?

Acharya Prashant

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प्रतीकों और रिचुअल्स का क्या महत्त्व है?
हम अकसर प्रतीकों को यह बोलकर ठुकरा देते हैं कि यह सब तो यूँ ही है, आचरण गत बातें है इनमें कुछ रखा नहीं है। उनमें ही बहुत कुछ रखा है। आप मंदिर के बगल से निकल रहे हो और आपके मन में दुनिया भर के अंट-संट विचार उमड़-घुमड़ रहे हैं, जैसे कि आमतौर पर चलते रहते है मन में, लेकिन मंदिर को देखते ही आप एक क्षण को रुके और आपने नमस्कार कर लिया मंदिर को, तो जो विचारों का पूरा बहाव है, जो पूरी शृंखला है वह टूट जाती है, क्योंकि वह एक लगातार बहने वाला निरंतर प्रवाह था न, एक निरंतरता थी। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशान्त: जो कुछ भी ज़िन्दगी में क़ीमती है, इज़्ज़त के लायक़ है, उसको अगर तुम क़ीमत देते हो, आदर देते हो तो उसका तुम कोई बहुत भला नहीं कर देते हो, उसका कोई हित नहीं हो जाता; क्योंकि वह ऊँचा है तभी तो क़ीमती है, जो पहले से ऊँचा है उसे हमसे क्या चाहिए? लेकिन हम उसे इज़्ज़त देते हैं, क़ीमत देते हैं, लगातार याद रखते हैं तो हमारा ज़रूर भला हो जाता है। और वह जो याद रखना है, वह ऐसी चीज़ नहीं होती कि किसी ख़ास मौके पर कर ली गयी।

सारी धार्मिकता, आध्यात्मिकता, बुद्धि, के केन्द्र में एक बात होती है सतत सुरति, कॉन्स्टेंट रिमेंम्बरेंस। लगातार याद रखना और लगातार का मतलब है तब भी याद रखना और तभी ही ज़्यादा याद रखना जब दूसरी चीज़ें खींच रही हों, आकर्षित कर रही हों। मन कहीं और को भाग रहा है तब याद रखना कि क्या क़ीमती है।

इसीलिए भारत में प्रतीकों की, रिवाज़ों की, रिचुअल्स की बड़ी क़ीमत रही है। हम अकसर उनको यह बोलकर ठुकरा देते हैं कि यह सब तो यूँ ही है, आचरण गत बातें है इनमें कुछ रखा नहीं है। उनमें ही बहुत कुछ रखा है। आप मंदिर के बगल से निकल रहे हो और आपके मन में दुनिया भर के अंट-संट विचार उमड़-घुमड़ रहे हैं, जैसे कि आमतौर पर चलते रहते है मन में, लेकिन मंदिर को देखते ही आप एक क्षण को रुके और आपने नमस्कार कर लिया मंदिर को, तो जो विचारों का पूरा बहाव है, जो पूरी शृंखला है वह टूट जाती है, क्योंकि वह एक लगातार बहने वाला निरंतर प्रवाह था न, एक निरंतरता थी।

तुम रुके, थमे तुमने मंदिर की ओर देखा और तुमने हाथ जोड़ लिए, तुमने सिर झुका दिया तो जो शृंखला थी ख्यालों की, वह टूट गयी। किसका भला हुआ, भगवान का या तुम्हारा?

और तुम सोचते हुए जा रहे थे कल मेरा क्या होगा, मेरी फलानी चीज़ें फँसी हुई हैं उनका क्या होगा, और दुनियाभर के तुम्हारे दिमाग में ख़याल चल रहे थे, और ख़याल वह हमेशा आगे के ही होते हैं, उनमें कहीं-न-कहीं डर, चिन्ता, और दुख छुपा ही होता है। और अगर तुमने अपने लिए यह एक रस्म ही बना रखी है, कि मैंने रुककर के मंदिर को प्रणाम करना है, जहाँ भी दिखाई दे, बस एक क्षण के लिए ही सही, तो इसमें किसका भला कर रहे हो भगवान का या अपना, बोलो?

श्रोतागण: अपना।

आचार्य प्रशांत: तो इसलिए मौके-मौके के लिए यह बाते बनायी गयी हैं, कि खाने से पहले, निवाला तोड़ो इससे पहले?

श्रोतागण: प्रार्थना करो।

आचार्य प्रशांत: अहंकार हमेशा सर उठाता रहता है इसलिए अहंकार को बात-बात में सिर झुकाने की सलाह दी जाती है। कितने ही ऐसे मौके बना दिये गये है जहाँ तुम सिर झुका सको, नमन कर सको। अहंकार हमेशा अपना स्वार्थ देखता है, अपनेआप को आगे रखता है, इसलिए यह रस्म बनाई गयी है कि अपनेआप को ज़रा पीछे रखो।

अपने हित के लिए नहीं बोल रहा हूँ। तुम लोग बच्चे हो, तुमसे मुझे क्या मिल जाएगा? पर अगर खाने-पीने की चीज़ आयी है तो यह पेटू पेट और यह ज़बान क्या बोलेगी, कि खाना आ गया तो सबसे पहले खा लो। इसलिए रस्म बनाई गयी है कि अगर गुरु सामने बैठा हो तो पहले इंतज़ार करो कि वो पहला निवाला तोड़े। और अगर आप यह इंतज़ार भी नहीं कर सकते तो फिर आप ज़बान के और पेट के ग़ुलाम हो।

बात आ रही है समझ में?

अब अगर तुमने अपने स्वार्थ को पीछे रखा तो इसमें क्या किसी का भला हो गया, गुरु का भला हो गया क्या अगर तुमने अपना खाना दो मिनट को स्थगित कर दिया? उसको तो नहीं न मिल गया तुम्हारा खाना। लेकिन तुम्हारे लिए रिमेंम्बरेंस (स्मरण) का एक मौका और आ गया, तुम अपने ही जिन ख़यालों में डूबे हुए थे वह टूटे; अहंकार को याद आया कि कोई उससे बड़ा है, कोई उससे ऊँचा है। झुकने का एक मौका मिला, और जितनी बार झुकोगे उतनी ही बार शान्त होते जाओगे।

तो यह सब इसलिए बनायी गयी हैं दिन-प्रतिदिन में, दैनिक क्रिया में चीज़े, ताकि तुम अपने ही आन्तरिक बहाव से जो अंतर-संवाद भीतर रहता है, जो भीतर-ही-भीतर एक खुरफात मची रहती है, है न? जो भीतर एक मायावी, शैतानी दुनिया रहती है, उससे झटके से बाहर आ सको। हर आदमी वरना तो अपनी ही दुनिया में अपने हिसाब से काम कर रहा है, और यह बातें छोटे बच्चों को ख़ासतौर पर सिखायी जानी चाहिए।

ज़रा सी एक रस्म होती है कि मंदिर से बाहर निकलते वक़्त कहते हैं भगवान को पीठ मत दिखाओ, उसका अर्थ इतना ही होता है कि सत्य की ओर हमेशा मुँह रखो, पीठ नहीं करो। ऐसा नहीं है कि पीठ दिखा दोगे तो कुछ हो जाएगा, लेकिन अगर याद रखोगे तो ज़रूर कुछ हो जाएगा। क्या हो जाएगा? तुम्हें यह याद रहेगा कि कोई ऐसा है जिसको पीठ नहीं दिखानी है, कोई ऐसा है जिसके सामने हमेशा चेहरा रहे, हमेशा उसकी ओर देखते रहो, क्योंकि उसकी ओर पीठ कर ली तो उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा पर हमारा जीवन दुख से भर जाएगा।

यह ऐसी सी बात है कि जैसे कोई रोगी हो जिसे विटामिन डी कि अल्पता हो और वह सूरज को पीठ कर ले। सूरज का क्या बिगड़ गया तुमने सूरज को पीठ दिखा दी तो? लेकिन तुम ही विटामिन डी की न्यूनता के शिकार थे, तुम्हारा बहुत कुछ बिगड़ गया। ऐसा होता है भगवान को पीठ दिखाना।

पुराने ज़माने में यह चलता था कि कोई बड़ा सामने आये तो कम-से-कम उसको नमस्कार करो, प्रणाम करो, चरण स्पर्श करो। चलो पाँव छूने की तो तुमको कला ही नहीं है, रिवायत ही नहीं है, उतनी अन्दर कोमलता ही नहीं है, उतना लचीलापन ही नहीं है कि तुम झुक सको, पर सुबह-सुबह उठते हो तो कम-से-कम नमस्ते करना, प्रणाम करना तो सीखो। फिर कह रहा हूँ कोई अपने हित के लिए नहीं बोल रहा हूँ। मुझे तो दो तीन दिन के लिए मिले हो, पर अगर तुम लोग यह बातें नहीं जानते हो तो तुम्हारी ज़िन्दगी में बहुत दिक्क़तें आ जानी है।

तुम्हें यह नहीं पता है कि सुबह उठते ही किसको आगे रखना है, तो तुम्हें बहुत समस्याएँ आने वाली है। क्योंकि याद रखो, मन हमेशा होता तो अनुगामी ही है, फोलोअर ही है। अगर वह गुरु को नहीं सामने रखेगा, अगर वह सत्य को सामने नहीं रखेगा, तो समाज को, ज़माने को, दुनिया को और दुनिया के सारे प्रलोभनों को सामने रखेगा।

झुकोगे तो है ही। भई, सुबह उठते ही तुमने टीवी देखना शुरू कर दिया; तुम झुक तो गये हो, किसके सामने झुक गये हो? अब या तो टीवी के सामने झुक लो, विज्ञापनों के सामने झुक लो, कार्टून बनाने वाले हिंसक लोगों के सामने झुक लो, या सुबह उठते ही देवमूर्ति के सामने झुक लो, किताबों के सामने झुक लो, गुरु के सामने झुक लो।

झुकना तो तुम्हें है ही, इस अकड़ में मत रहना कि अगर गुरु के सामने सर नहीं झुकायेंगे तो झुके नहीं। झुके तो तुम हो ही क्योंकि मन के अपने पाँव नहीं होते, मन तो हमेशा सहारा लेकर चलता ही है। सवाल यह है – किसका सहारा? या तो उसका सहारा ले लो (ईश्वर की ओर इशारा करते हुए) नहीं तो फिर दुनिया में जितना कीचड़पना है तुम्हें उसका सहारा लेना पड़ेगा, सहारा तो लेना ही है।

ये संस्कार न आधुनिकता के नाम पर हमें दिये ही नहीं गये हैं। इसके विपरीत संस्कार दिये गये हैं, हमें कूलनेस सिखायी गयी है, और कूलनेस हममें ज्यादा कुछ है नहीं, कूल हम हैं नहीं। कूलनेस मैं तब मानूँ न कि अगर चोट लग जाए और तुम रोओ नहीं, उसको मैं कहता हूँ कूल। कूलनेस मैं तब मानूँ न कि अगर कहीं छिटक जाओ, बिछुड़ जाओ और तुममें डर न उठे, तब मैं कहूँगा, तुम कूल हो।

तुम कूलनेस इसको मानते हो कि कोई ऊँचे-से-ऊँचा भी है तो जाकर उसके ऊपर चढ़ गये और उसको ऐसे ट्रीट किया, उसके साथ आचरण व्यवहार ऐसा रखा जैसे कि वह तुम्हारा समकक्षी हो, जैसे वह तुम्हारे ही जैसा है। तुम कूलनेस इसको मानते हो कि ज़िन्दगी में भगवत्ता के लिए, सेक्रेडनेस (पवित्रता) के लिए कोई जगह न रहे। और जिस किसी को तुम देखो कि वह कहीं झुकना जानता है, उसका तुम मज़ाक उड़ाते हो, कहते हो यह तो भक्त है, यह तो पिछड़ा हुआ है, यह मॉडर्न नहीं है, यह आधुनिक नहीं है, यह कूल नहीं है, और कूल तुम कितने हो देख लो।

अभी जरा सा आफ़त आ जाती है तो काँपना शुरू कर देते हो – यह कूलनेस है, यह कूलनेस है क्या? कूलनेस का मतलब तो तब है न जब दिमाग गरम न हो। कूल माने कि ठंडा रहना, जब ठंडे रहो, ठंडे कहाँ रह पाते हो? थोड़ी सी आफ़त आती है, बोर्डस सामने आ गये गरम हो गये तुम; चोट लग गयी गरम हो गये तुम, कहाँ कूल हो?

कूल तो वहीं हो सकता है जिसके ऊपर उसका साया हो (ईश्वर की ओर इशारा करते हुए), या ऐसे कह लो कि जिसके दिल में विज़्डम (बोध) जग गयी हो, बस वही ठंडा रह सकता। ठंडा-ठंडा कूल-कूल। ऐसे इधर-उधर भटकने से, छितराने से, और हैप्पी होने का स्वांग करने से थोड़ी कूल हो जाओगे। यह सब बहुत मूलभूत संस्कार हैं जिनको सीखो, कूलनेस उनमें हैं, समझ रहे हो? कूलनेस की परिभाषा क्या है, फिर सब? जिसका दिमाग....?

श्रोतागण: ठंडा रहे।

आचार्य प्रशांत: जिसमें डर न उठे, जिसमें गुस्सा न उठे, जो गरम न हो जाए वह कूल है; जो गरम न हो वह कूल है। पर हम तो गर्म हो जाते हैं, अभी रिज़ल्ट खराब आ जाए, देखा है कैसे गर्म हो जाते हो! पूरा घर ही गर्म हो जाता है। तो कूल कहाँ हो तुम, लेकिन घर दिख ऐसा रहा है और दिखाया ऐसा जा रहा है जैसे कितना कूल घर है। मम्मी, पापा, बीवी, बेबा सब कूल हैं, और पापा को वेतन वृद्धि न मिले, पापा गर्म हो जाते हैं। मम्मी की ड्रेस फिट नहीं आ रही, मम्मी गरम हो जाती है। तो कूलनेस कहाँ है, बताओ?

कूलनेस का उदाहरण देता हूँ। जो सबसे सीधा उदाहरण है कूलनेस का; उदाहरण है, प्रह्लाद क्योंकि उसको आग पर बैठा दिया तब भी नहीं जला, यह है कूल। बाहर कितनी भी गर्मी हो, वह नहीं जल रहा। प्रह्लाद की कहानी पता है न? उसको क्या किया था? होलिका उसको लेकर बैठ गयी थी जलती हुई चिता पर तब भी नहीं जल रहा है। या नचिकेता के सामने मौत खड़ी है तब भी वह कह रहा है ‘नहीं साहब, डर-वर नहीं लग रहा हम तो ज़रा कुछ बातें पूछना चाहते है। हमें आप बताइए।‘

मौत से भी घबरा नहीं रहा है, वह मौत से भी ज्ञान पान चाहता है। न मौत से लड़ रहा है कि यमराज से लड़ने बैठ गया। वह तो यमराज से भी कह रहा है सिखाइए, बताइए। यह कूलनेस है, कूलनेस इसमें नहीं है कि अंट-संट बोल रहे हैं और फंकी व्यवहार दिखा रहे। फंकी होने से कुछ नहीं हो जाता, मार्कण्डेय रहो, वह कूल है। मार्क नहीं कूल है, कूलनेस किसमें है? मार्कण्डेय में, मार्क में नहीं कूलनेस है। और मार्कण्डेय कितने कूल हैं, यह जानना है तो उनके शब्द पढ़ो, उनकी कहानियाँ पढ़ो, फिर पता चलेगा कूलनेस किसको बोलते है। शाण्डिल्य कूल हैं या सैंडल कूल है? अब तुम शाण्डिल्य को सैंडी बना देते हो और सैंडल बना देते हो इसमें कहाँ कूलनेस है।

आ रही है बात समझ में?

इन छोटी बातों का ख़याल रखते हैं। छोटे का काम होता है झुकना और बड़े का काम होता है झुके तो उठाना। दोनों अपना-अपना धर्म निभायें, फिर मज़ा आता है।

यहाँ पेरेंट्स भी हैं तो इसलिए कह रहा हूँ, घरों में पूजा का, प्रार्थना का, भजन-कीर्तन का महत्व होता है और यह किया करिए। यह पिछड़े पन की निशानी नहीं हैं। जिस घर में पूजा न होती हो, जिस घर में कबीर के दोहे न गायें जाते हों, फिर उस घर में गड़बड़ होना सुनिश्चित है। और जिन बच्चों के कान में बचपन से राम कथा न पड़ रही हो, उपनिषद् न पड़ रहे हों, भजन न पड़ रहे हों, वह बच्चे कमज़ोर निकलेंगे।

आजकल तो स्कूलों की टीचरें बताती हैं न कि घर में भी अंग्रेज़ी में बोलिए। अब जब घर में भी अंग्रेज़ी में बात करनी है तो वहाँ फिर कबीर कहाँ से आएँगे? पर यह भी समझ लीजिए कि अगर बच्चे कि ज़िन्दगी में बचपन से ही कबीर नहीं हैं, तो वह बच्चा आन्तरिक रूप से बहुत मरियल निकलेगा; कोई दम नहीं होगा उसमें, ज़िन्दगी के आघात नहीं सह पाएगा।

आप लोग बाहर-बाहर का पोषण तो दे देते हो, कहते हो कि डाइट अच्छी रखेंगे, उसके लिए स्पोर्ट्स का इंतज़ाम कर देंगे, और यह सब कर देंगे। पर असली जो सेहत होती है वह भीतरी होती है – मन का स्वास्थ्य। और मन का स्वास्थ्य तो संतों से ही बनता है। वह स्कूल में लाए नहीं जाते बच्चों के पास, और घरों में भी यह कहकर नहीं लाए जाते कि यह सब तो साहब पुरानी बातें है, हम इनपर नहीं चलते। फिर घर में कलह रहती है, बच्चे बड़े ही नहीं हो पाते।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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